@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पब्लिक सीखे डिरेवरी ; जनतन्तर कथा (16)

रविवार, 19 अप्रैल 2009

पब्लिक सीखे डिरेवरी ; जनतन्तर कथा (16)

हे, पाठक!
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है।  टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है।  ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही,  पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती।  कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें।  भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली।  उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है।  मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है।  लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........


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आप ने सुना भी,  और गाया भी।  तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।

हे, पाठक!

पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है।  कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है।  पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा।  डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में।  हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े?  फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी।  पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।

हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है।  पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे।  उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं।  फिर पब्लिक ने  डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है।  बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता।  इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए।  पर किस से बदली जाए?  सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं।  कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे।  ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी।  उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।

फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .

11 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पब्लिक को तो महाभारत में जूझना भर है। वह सारथी/डिरेवर कैसे बन सकती है?! :)

Himanshu Pandey ने कहा…

पब्लिक हार कर डिरेवरी सीखेगी ही ।
धन्यवाद।

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

कथा सही चल रही है .

दर्पण साह ने कहा…

wah...

karoon kya aas (yaas) nirash bhai...

...badhiya lekh !!

...nasa dwar se gaye jane wale jame main pahonchane ke liye dhanyvaad !!

Anil Pusadkar ने कहा…

डिरेवरो से तंग आकर अब हम खुद ही अपने डिरेवर हो गये हैं।

Gyan Darpan ने कहा…

बहुत बढ़िया कथा !

बेनामी ने कहा…

कोई ना कोई डिरैवर तो लगेगा ही।
नयी कार आ भी गयी तो पुराना डिरैवर तो अपनी ही इश्टाईल में चलायेगा ना।
इसलिए डिरैवर भी नया चाहिये, भई

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आज जरा कथा श्रवण मे लेट हो गये सो माफ़ि मांगते हैं प्रभु...बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .

Abhishek Ojha ने कहा…

पब्लिक करती तो सबकुछ है पर जब तक सर से पानी ऊपर नहीं चला जाता तब तक नहीं. डिरेवरी भी सीख ही लेगी !

Udan Tashtari ने कहा…

सीखना होगा डिरेवरी भी: बेहतरीन फ्लो!!

Shastri JC Philip ने कहा…

वाह, आपका छायचित्र तो बहुत धांसू लग रहा है.

एक बात और, डिरेवर बहुत मिल जायेंगे, लेकिन "सारथी" सिर्फ एक मिल पायगा (ज्ञान जी की टिप्पणी के आधार पर).

सस्नेह -- शास्त्री