@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम

रविवार, 29 मार्च 2009

जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम

हे! पाठक,
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था।  उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे।  एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे।  लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली।  जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा।  अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है।  अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं।  हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है।  दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची।  इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....

हे कथावाचक,
जनतंतर-मनतंतर की जन्म-जन्मान्तर, युग-युगांतर कथा हमें बहुत सोहायी।  सो, हे कथावाचक श्रेष्ठ, हम आगे की कथा की प्रतीक्षा में बैठे हैं.। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है जनतंतर अनंत जनतंतर कथा अनंता।  अतः हे वाचकश्रेष्ठ, आप पुनः आईये और आगे की कथा सुनाईये....:-)
हम यह जानने के लिए व्याकुल हैं कि वैक्टीरिया ने ज्यादा काट-काट मचाई या वायरस ने?
हे! पाठक,
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा।  पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय।  हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी,  इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया।  लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं।  जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं।  ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं।  लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं।  वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है।  असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं।  उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।

हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे।  जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे।  इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया।  राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी।  तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे।  पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा।  नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे।  अब की बार इस खेल में कोई शासक  नहीं आया।  बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए,  पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।

हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई।  अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे।  पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था।  पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए।  इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे।  लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई।  लोग सोचने लगे कि इन बनियों  को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे।  पर राज कौन करेगा?  राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है।  राज तो हम करते थे हम ही करेंगे।  देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम।  मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया।  उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए।  देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है।  कहने लगे- हम चले तो जाएंगे,  पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो।  अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए।  सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है।  पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी।  इस बीच परदेसी बनियों  ने मजबूती पकड़ ली।  उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा।  उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये ।  बस फिर क्या था।  बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये। 

हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा।  बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे,  नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा।  बड़ा चक्कर पड़ा उस काल।  बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर?  तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा।  एक और बखेडा़ था।  जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे।  इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया।  तब से वोट की प्रथा प्रचलित  हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।

हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया।  इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है।  हर कोई वोट चाहता है।  इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है।  बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है।  जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है।  निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है।  हम टिपिया रहे हैं।  वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है। 
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

8 टिप्‍पणियां:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

कथा सुन,
हमेँ ज्ञान मिला
अब गणगौर पर भी लिखियेगा
- लावण्या

अजित वडनेरकर ने कहा…

हम बांच रहे हैं, जिन्हें गुनना चाहिए वे लोकतंत्र के (अ)पावन पर्व के सपने बुन रहे हैं...

ghughutibasuti ने कहा…

वाह, बहुत रोचक कथा शुरू की है। हम सुन रहे हैं।
घुघूती बासूती

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

हे मनीषी ,काश यह महा -कथा बड़ी सदन वाले भी सुन -देख रहें हों तो कुछ सुधार की आशा हो सके .

Arvind Mishra ने कहा…

बढियां कथोपाख्यानम !

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

वाचक श्रेष्ठ सुना है लोहा कालांतर में मुलायम हो गया और माया ने बड़े मनमोहक रूप दिखलाये तिलक लगा कर हस्तिवाहिनी बन कर।
ये कुछ कर सके धर्म क्षेत्र में या फिर गरज कर रह गये?

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

हाथ में फूल-अक्षत् लेकर सुन रहें हैं जी। बीच-बीच में शंक भी बजता रहे। :)

डा० अमर कुमार ने कहा…


श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की टिप्पणी ने अब कहने को छोड़ा ही क्या है ?