@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने

रविवार, 28 दिसंबर 2008

पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने

दिसम्बर 22, 2008 को अनवरत पर एक छोटा सा आलेख था पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद जिस में मैं ने अपने दो वरिष्ठ अभिभाषकों के साथ हुए एक मुक्त वार्तालाप  का विवरण था। दोनों ही मेरे लिए आदरणीय थे और विनोद प्रिय भी। जगदीश नारायण जी के पिता नगर के प्रधान रह चुके थे और पैंतालीस बरस पहले की जिला कांग्रेस में महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। जगदीश जी भी पिता के पद चिन्हों पर थे। पर उतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाए थे। दोनों पिता-पुत्र बहुत अच्छे प्रोफेशनल वकील थे। मोहता जी ने जो व्यंग्य कहा था वह जगदीश जी पर नहीं था। आम काँग्रेसी ऐसे लगते भी नहीं, जैसा varun jaiswal ने अपनी टिप्पणी में कहा था, "लेकिन कांग्रेसी तो पूंजीपति से नही लगते |" लेकिन उन की पार्टी उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। इसी कारण से मोहता जी का इशारा उन की ओर था। 
सज्जनदास जी मोहता एक क्लासिकल समाजवादी थे। उन्हों ने तत्कालीन समाजवादी पार्टी के वे सभी काम किये थे जो एक कार्यकर्ता कर सकता था। अखबार निकाला, लेख लिखे, संगठन किया लेकिन जब से वकालत में आए तब से लेख लिखने या जलसों में शिरकत करने का ही काम रहा उनका। वकालत में वे अनुकरणीय उदाहरण रहे। बिना सोचे समझे किसी मुकदमे में हाथ नहीं डालते थे। अपने काम में चुस्त रहते। हमेशा काम करने को तैयार रहते। मैं ने उन्हें करीब बीस बरस देखा। कभी किसी अदालत में अपने या अपने मुवक्किल के किसी कारण से पेशी बदलवाते नहीं देखा। उन के मुकदमे जल्दी परवान चढ़ते थे। वे अपने मुवक्किल को पहले ही कह देते थे। मैं अदालत से पेशियाँ नहीं बढ़वाउँगा, जो होना हो सो हो। अंत तक उन का सम्मान बना रहा। उन से कनिष्ठ सभी वकील उन को गुरूजी ही कहा करते थे। मुझे भी उन से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं ने चाहा कम से कम प्रोफेशन में उन का जैसा बन सकूँ। लेकिन बहुत मुश्किल है उन के आदर्श को पाना।

उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।

जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?

उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar,  ताऊ रामपुरिया,   प्रशांत प्रियदर्शी PD,   डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार। 

11 टिप्‍पणियां:

Varun Kumar Jaiswal ने कहा…

द्विवेदी जी मेरी टिप्पणी को महत्त्व देने के लिए आपका आभार |
पूँजी पर आपकी राय हम सभी का मार्गदर्शन करेगी , आपकी मेहनत कितने ही विचारों को सुलभ बनाती है |
आने वाले पोस्ट्स का हमें इन्तजार है |
धन्यवाद |

डा० अमर कुमार ने कहा…



आपका एकला चलो रे.. मन को मोह लेता है !
सार्थक विचार एवं सकारात्मक सोच इस ब्लाग की पहचान है !
धन्यवाद कहूँ या साधुवाद ?
कोई एक ... या चलिये दोनों ही ले लीजिये !

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा आप ने.
धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आपके लेखन से
सुपाच्य सामग्री मिल जातीँ हैँ -
ये आपका परिश्रम ही तो है !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

रामपुरिया, 29 December, 2008 6:20 AM
माननिय मोहता जी के बारे आपने कहा " कभी किसी अदालत में अपने या अपने मुवक्किल के किसी कारण से पेशी बदलवाते नहीं देखा। उन के मुकदमे जल्दी परवान चढ़ते थे। वे अपने मुवक्किल को पहले ही कह देते थे। मैं अदालत से पेशियाँ नहीं बढ़वाउँगा, जो होना हो सो हो। अंत तक उन का सम्मान बना रहा। "

ऐसे ही हमारे यहां एक वकील साहब थे स्व.महाजन साहब ! हमारी १५ साल से वर्तमान लोकसभा सदस्य मा. सुमित्रा महाजन जी के पति ! अभी कुछ ही समय पहले दिवंगत हुये हैं !

एक मुकदमे मे मेरे प्रतिवादी के वकील थे ! तारीखे बढवाने की आवश्यकता उनको होती थी पर मैने हमेशा उनको नियत पेशी पर कोर्ट रुम के बाहर इन्तजार करते ही पाया जब्कि मेरे वकील गायब रहते थे !

इतने सरल और कर्तव्य पालन के साथ साथ उनमे मानविय भावनाएं कूट कूट कर भरी थी ! उनको मालूम था कि मैं हृदय रोगी हूं तो बाहर इन्तजार करने के लिये एक बेंच पडी रहती थी ! अगर उस पर जगह नही होती थी तो खुद खडे हो कर मुझे बैठा दिया करते थे कि तुम सीढियां चढ कर आये हो ! मेरे मना करते के बावजूद भी !

और हद तो तब हो गई जब मेरे बयान शुरु हुये ! मैं कटघरे मे खडा था ! उन श्रेद्धेय महाजन साहब ने जज साह्ब से विनती की - इनको बैठने दिया जाये !और मुझे कुर्सी दी गई कोर्ट रुम मे और तब उन्होने मुझे खूब छीला ४ घण्टे तक !

बीच बीच मे पानी भी पिलाते रहे ! मुझे लगता है ऐसे लोग तो गिने चुने ही होंगे ! ये कुछ उदाहरण हैं जिनके वजह से गरिमा बनी हूई हई !

ऐसे व्यक्तितव सदा ही प्रणम्य रहेंगे !

रामराम

PD ने कहा…

आपका लेख और ताऊ जी का स्मरण, दोनों ही अच्छा लगा..

P.N. Subramanian ने कहा…

ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं को नमन. और आपको भी

roushan ने कहा…

मार्क्सवाद और समाजवाद जैसी चीजों को आज के सन्दर्भ में ढाले बिना उनकी प्रासंगिकता नही हो सकती उम्मीद है इस धारा के विचारक इस सन्दर्भ में काम करेंगे

Vinay ने कहा…

बहुत कान की बात कही

Satish Saxena ने कहा…

नया वर्ष मंगलमय हो !

विष्णु बैरागी ने कहा…

सहिष्‍णुता और सौहार्द्र के क्षरण होते जा रहे इस समय में ऐसे प्रसंग पारस्‍परिकता और सम्‍बन्‍धों की मधुरता में विश्‍वास बढाते हैं ।
ऐसे प्रेरक प्रसंगों की प्रस्‍तुति अनवरत बनाए रखिए‍गा ।