शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ? और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।
हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।
उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।
वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।
माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।
शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।
21 टिप्पणियां:
अच्छा लगा। बचपन की तो पिटाई भी याद करने पर अच्छी ही लगती है।
पिता के हाथ की पिटाई.... मुझे हमेशा प्राशाद लगती है, आज, उस समय अच्छा नही लगता था, लेकिन अब सोचते है तो लगता है, अगर वो प्रशाद हमै ना मिलता तो... शायद हम आज यहां नही खडे होते, यह संस्कार हम मै ना होते.
धन्यवाद
चित्र देख कर वास्तव में लग रहा है की काफ़ी धुनाई हुई!!!!
वह समय ही ऐसा था !!!! पर उस मार के पीछे भी कुछ अर्थ जरूर रहे होंगे!!
प्राइमरी के मास्टर का पीछा करें !!!!!!
बचपन के यह अनुभव हमें सदैव स्मरण में रहते हैं. यह प्रेरणादायी भी होते है और सीख भी देते है.
आपकी इस पिटाई का अनुभव सुनना अच्छा लगा .
इस चिट्ठी पर मुझे अपना बचपन याद आ गया।
डांट या मार के मामले में, मैं अपने को भग्यशाली समझता हूं मुझे न तो घर में और न ही स्कूल कभी भी मार या डांट पड़ी। मैं इसका कारण यह नहीं समझता कि मैंने कोई शैतानी नहीं की पर हमारे घर या स्कूल का वातावरण था।
पिता के पास हमारे लिये समय नहीं था। वे या तो काम में ढूबे रहते थे या फिर समाज सेवा में। मां ने ही हमेंं बड़ा किया, वे न मार में और न ही डांट में विश्वास करती थीं। उनकी आंखें ही हमा बता देती थीं कि वे हमारे व्यवाहर में कुछ कमी रह गयी।
स्कूल में जो शिक्षक मिले, वे भी इसी प्रकार के थे। स्कूल में, क्लास में तो लड़को के साथ बैठता था। पर खाली होते ही घर वापस, घर में भाई बहन के समय गुजारना शायद सबसे प्रिय काम था। यह समय हम बेहतरीण साहित्य पढ़ने में या फिर पहेलियां बुझा करते थे। मेरी दोस्ती हमेशा पड़ोस के लड़कों से हुई, मां को यही पसन्द था। कम से कम उस लड़के को वे अच्छी तरह जानती थीं।
शादी के बाद, एक राजकुमार मेरे घर आया। एक बार उसने मेरी किताब पर टेड़ी-मेड़ी लाइने खींच दी। मेरी पत्नी ने उसे सजा दी। मैंने उस वक्त तो कुछ नहीं कहा पर रात को उसे समझाया कि हम कैसे बड़े हुऐ और मैं कैसे अपने पुत्र को बड़ा होते देखना चाहता हूं। वह दिन और आज का दिन हमने न उसे कभी डांटा या मारा। हमारा चेहरा ही बता देता था कि वह कब गलती पर है।
काश एक दो बार और धुनाई (मेरी ) हो गयी होती तो तकदीर बदल जाती ! उन्मुक्त जी की तकदीर से ईर्ष्या हो रही है बिना मार खाए यहाँ तक पहुच गए !
मैं भी अपने पापाजी से अबतक सिर्फ एक बार मार खाया हूं और वो भी गाली देने के कारण.. स्कूल में किसी बच्चे ने सिखा दिया था और मुझे पता नहीं था कि ये गाली होता है सो सीख भी लिया और पापा जी के सामने बोल भी दिया.. जैसे ही बोला वैसे ही एक थप्पड़ गाल पर सटाक..
मैं बचपन से ही इस मामले में थोड़ा ढीठ था कि अगर मुझे लगता था कि बिना मेरी गलती के मुझे सजा दी जा रही है तो जमकर उसका विरोध करना अब चाहे सामने पिताजी हों या गुरूजी.. मगर उस दिन वो भी नहीं किया क्योंकि मुझे मारने के बाद पापाजी को लगा कि मैंने अनजाने में वो गाली कही थी.. उसके बाद पापाजी मौन धारण करके बैठ गये, जो बचपन से लेकर अभी तक कम ही देखा हूं.. फिर क्या हुआ याद नहीं.. आखिर मैं भी तो बस आठ साल का था.. :)
...ये सब इधर ...तो फिर उधर क्या ?
बढिया संस्मरण....
द्विवेदी जी , हम तो ूरे स्कूलिन्ग जीवन मे महा बदमाशों की गिनती मे रहे ! ऐसा कोई भी मौका छोडा नही जिसमे कोई खुराफ़ात ना होती हो ! पिटने और पीटने के शिरोमणियों मे नाम था !
फ़िर पता नही दसवीं मे सुपर फ़ेल हुये यानी हमारे साथ मे हम ९ लडके थे और ९ रत्न कहलाते थे ( बदमाशी मे ) ! गणित ( ओपशनल ) मे १०० मे से ३ नम्बर आये यानी सप्लिमेन्ट्री के भी चान्स नही थे !
उसके बाद पता नही क्या दिमाग बदल गया कि बहुत ग्लानि हुई और फ़िर तो जितने बिगडे हुये थे उससे भी डबल सुधर गये जो आज तक सुधरे हुये हैं !
मुझे ऐसा लगता है कि अध्यापक की पिटाई से छात्र नही सु्धरता बल्कि वो तो कोई घटना ही ऐसी हो जाति कि फ़िर बदमाशियां करना भी चाहो तो नही कर पाते !
आपने अच्छा सन्समरण लिखा !
राम राम !
धुनाई सार्थक हुई लगता है,
किन्तु यह चित्र किसका है ?
उस समय का रंगीन चित्र.. ?
लगता है, मीडिया कवरेज़ अच्छा रहा !
बचपन की पिटाई अक्सर सबको याद रहती है :) पर यही सही ज़िन्दगी जीना सीखा देती है ..:)बढिया संस्मरण....
अब जमाना बदल रहा है ,टीचर पीटते हुए भी डरते है की कही कोई विवाद न खड़ा हो जाए या डांटने पर कोई विधार्थी आत्महत्या न कर ले ..........तब ओर अब में कितना फर्क है ? पिता की मार हमेशा सार्थक रहती है .....बाद में तो डांट को भी तरसते है
Bachpan ki yaad dila di aapne.
पिटे तो हम भी थे पर प्रिय-अप्रिय याद में शेष नहीं है। लिहाजा बहुत ज्यादा तुड़ाई नहीं हुई होगी! :)
पिटे तो हम भी पर बहुत कम, एक भी याद नहीं !
छठी कक्षा के बाद शायद बात करने के लिए बस एक-दो बार. उसके पहले का याद नहीं.
जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था।
bilkul sahi kaha... humne to aise kai dekhe aur unke hantho ka swad bhi chakha hai :-).. mazedar wakya :-)
New post - एहसास अनजाना सा.....
इस संस्मरण ने बचपन की जाने कितनी पिटाईयों की यादें ताजा कर दी....आपके जैस शब्द-सामर्थ्य तो नहीं मुझमें कि उन यादों को यहाँ शब्दों में उतार सकूं,बस मुस्कुरा कर रह जाता हूँ याद करके जिस पर कभी रोया था
एक फर्स्टक्लास विद्यार्थी होने के कारण विद्यालय में पिटने की नौबत बहुत कम आई. छटी में पहुंचते ही लेखन में मेरा नाम हो गया और नवीं में पहुंचते ही साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में विद्यालय का प्रतिनिधि बन गया, अत: स्थिति और मजबूत हो गई.
लेकिन घर पर पिताजी अपनी बेल्ट उतार जम कर उसका प्रयोग मेरे आसन पर एवं पैर पर करते थे. यदि वह नि मिला होता तो शायद आज मैं एक बुद्धिमान विद्यार्थी लेकिन काम से गया आदमी होता. अत: पिता के अनुशासन को आज नमन करता हूँ.
हां, शर्त सिर्फ इतना है कि इस तरह का अनुशासन कोप की अभिव्यक्ति के रूप में न हो. कई बार यहीं पर लोगों से चूक हो जाती है.
कोप के साथ अनुशासन अंधा होता है एवं अनुशासन के बिना दिखाया गया स्नेह लंगडा होता है. (अनुशासन शब्द यहां काफी व्याप्ति के साथ प्रयुक्त हुआ है)
सस्नेह -- शास्त्री
आप का किस्सा सुन कर अपना बचपन याद आ गया, पिटे तो हम भी थे बहुत लेकिन सिर्फ़ के मुद्दे को लेकर, गणित हमारे भेजे में नहीं घुसता था, आज भी नहीं घुसता।
बढिया लगा सँसमरण -
हमेँ अम्मासे कई चपत लगीँ :)
पर पापाजी ने कभी हाथ नहीँ उठाया किसी भी बच्चे पर -
उनकी अप्रसन्नता ही आँसु की बाढ लाने के लिये काफी हुआ करती थी :)
स्नेह,
- लावण्या
धुनाई मशीन से हुयी सुजाई कथा से अपना भी बचपन याद हो आया।
यह बात सच है कि अगर उस समय पिटाई नहीं हुयी होती, तो शायद कुच्छेक संस्कार नहीं होते।
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