वह एक
तब भी था
अब भी है
आगे भी रहेगा।
कोई काल नहीं जब
नहीं था, वह
कोई काल नहीं होगा
जब वह नहीं होगा।
काल भी नहीं था,
तब भी था वह,
और तब भी जब
स्थान नहीं था।
उस के बाहर नहीं था
कुछ भी
न काल और न दिशाएँ
उस के बाहर आज भी नहीं
कुछ भी।
न काल और न दिशाएँ
और न ही प्रकाश
न अंधकार।
जो भी है सब कुछ
है उसी के भीतर।
आप उसे सत् कहते हैं?
जो है वह सत् है जो था वह भी सत् ही था
जो होगा वह भी सत् ही होगा।
असत् का तो
अस्तित्व ही नही।
कोई नहीं उस का
जन्मदाता,
वह अजन्मा है
और अमर्त्य भी।
वही तेज भी
और शान्त भी,
कौन मापेगा उसे?
आप की स्वानुभूति।
वह मूर्त होगा
आप के चित् में।
क्या है वह?
पुरुष? या
प्रकृति?या
प्रधान?
कुछ भी कहें
वह रहेगा
वही,
जो था
जो है
जो रहेगा।
12 टिप्पणियां:
सरल सुंदर भाषा में वेद-उपनिषद पढवा दिये आपने । बहुत अच्छा लगा ।
यह है सत् चित् आनन्द...
सच्चिदानन्द...
ब्रह्म...
ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या,जीवो ब्रह्मैव नापरः (शंकराचार्य)
बहुत सुँदर ...
बस एक झलक मिल जाये ..
तब ये जीवन धन्य हो !
- लावण्या
वैदिक ऋचा का यह अनुवाद किसने किया है -साधुवाद उसको !
अद्भुत्।
वह सत है, शिव है, सुंदर है
वह वह है जैसा हम उसे जानते हैं
वह हर समय हमें देखता है
अकारण हमसे प्रेम करता है
हम उसे कभी-कभी याद करते हैं
फ़िर भी वह बुरा नहीं मानता.
ब्रह्मण ,यह आपकी ही रचना है पर वैदिक शिल्प से इतना अद्भुत साम्य कि चकित रह गया मैं -और वह काम्प्लीमेंट दे बैठा !
इस सृष्टि स्तुति को देखें -
असत नहीं था
सत भी नहीं
...............
मृत्यु नहीं ,
अमरता भी नहीं
...................
उसे किसने रचा
या नही भी रचा
जो नियामक है
वह जानता होगा
या न भी जानता हो
आपको पढ़कर याद हो आयी वह कालजयी कृति .......
prabhawshali rachna ......
bahut badhiyaa
आपकी यह प्रस्तुति स्तुत्य है .. मेरे ब्लॉग पर पधार कर मार्गदर्शन प्रदान करें मैं भी आपके नज़दीक गुना का ही हूँ
आपका आशीर्वाद का आकांक्षी प्रदीप मनोरिया
बहुत सुन्दर!
Excellent poem!
जटिल कविता! यह लिखकर आपने भाववादियों(आप ही के शब्द हैं)के हाथ में हथियार दे दिया। जबकि इस कविता से ईश्वर का नहीं समय का बोध हो सकता है।
इसे पढ़ते ही 'भारत: एक खोज' के शुरु में आने वाली कविता की याद आ गई।
वैसे आपने यह स्पष्ट नहीं किया कि ईश्वर, प्रधान या क्या लेकिन सभी ने इसका अर्थ अपने ईश्वर से लगा लिया है।
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