@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: समृद्धि घर ले आई गई।

शनिवार, 6 सितंबर 2008

समृद्धि घर ले आई गई।

रोट अनुष्ठान, जिस का विवरण मैं ने पिछले दो आलेखों में किया,  उस में अनेक बातें हो सकती हैं, जो आज के समय के अनुकूल नहीं हों। लेकिन यह अनुष्ठान  मानव इतिहास की, पूर्वजों की एक स्मृति है और मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवनकाल तक तो वह अवश्य ही सुरक्षित रहे। कल पूजा के उपरांत यह प्रार्थना की गई थी कि हमें और हमारे परिवार को समृद्धि प्राप्त हो और जैसा भोजन हमने आज अपने कुल देवता को समर्पित किया वैसा ही हमेशा हमें उपलब्ध होता रहे। भौतिक समृ्द्धि की कामना सदैव से ही मनु्ष्य किसी न किसी रूप में करता रहा है।

आज शोभा ने कहा कि कल भोजन निर्माण से बचा हुआ जल बचा है उसे नदी में डाल कर आना है। हम उन के साथ गए और जल नदी में डाल कर आए। पत्नी ने वहाँ से कुछ मिट्टी उठाई और घर आ कर कुछ पूरे घर में बिखेरी और कुछ तुलसी गमले में डाल दी। जिस का अर्थ है कि अनुष्टान को पूरा कर लिया गया है और मिट्टी के रूप में समृद्धि घर ले आयी गई। पूरे अनुष्ठान का अर्थ था समृद्धि घर लाई गई। इस समृद्धि का आशय मानव समाज के विकास की पशुपालन की विकसित अवस्था में कृषि के आविष्कार से जो अन्न उपजने लगा वह एक संग्रह करने लायक भोजन संपत्ति से था। जो आपदा के समय मनुष्य के काम आती थी। अब खेती ने वर्ष भर संग्रह करने लायक की व्यवस्था कर दी थी और भोजन की रोज-रोज की चिंता से उन्हें मुक्त करना शुरू कर दिया था। जिस गण के पास जितनी मात्रा में संग्रहीत खाद्य पदार्थों की यह संपत्ति होती थी, वही सब से शक्तिशाली गण हो जाता था।

कल के विवरण से आप जान ही गए होंगे कि इस पूरी परंपरा में मेरी और मेरे बेटे की अर्थात् पुरुषों की भूमिका नहीं के बराबर थी। चाहे वह गेहूँ साफ करना हो, उसे पीसना हो, सामान एकत्र करना हो, आटे को तौल कर संकल्प करना हो, रोटों का निर्माण हो, या कोई और अन्य बात सब कुछ स्त्रियों के हाथ था। पूरे अनुष्ठान में हम पुरुषों की आवश्यकता मात्र एक पुरोहित जितनी थी। आटे के तीन हिस्से, जिन में पुरुषों के हिस्से पर किसी का अधिकार नहीं वह भी कुल देवता के नाम पर। हाँ, बेटियों के भाग पर केवल उन का अधिकार कुछ समझ में आता है क्यों कि यदि वे परिवार में होती तो उन का भी इस अनुष्ठान में अन्य स्त्रियों जितना ही योगदान होता। पर परिवार की स्त्रियों/बहुओं का जो हिस्सा है, उस पर उन के साथ पूरा परिवार पलता है, पूरे परिवार का अधिकार है।

इसी तरह के अनुष्ठान देश भर में अलग-अलग रूपों में लगभग सभी परिवारों में प्रचलित हैं, यदि उन्हें तिलांजलि न दे दी गई हो। इसी तरह के एक लोक-अनुष्ठान का और उल्लेख यहाँ करना चाहूँगा। जिस का वर्णन गुप्ते के हवाले से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने किया है।

लेकिन वह अगले आलेख में ... ... ...


ममता जी और अग्रज डॉ. अमर कुमार जी से ...


ममता जी ने रोट की फोटो लगाने के लिए दबे स्वरों में कहा। उन की शिकायत वाजिब है। लेकिन अभी तो वह रोट समाप्त हो चुका। फिर भी यह बात नहीं कि उसे दिखाने की मनाही है। बल्कि इस लिए कि चित्रांकन में मैं ही फिसड्डी हूँ। कैमरा संभालना बस का नहीं। मोबाइल भी साधारण प्रयोग करता हूँ जिस से सिर्फ फोन सुने और किए जा सकेंगे। पर अब लगता है कि ब्लागिंग में बने रहना है तो कैमरा संभालना भी सीखना ही पड़ेगा।

यदि कोई अग्रज यह कहे कि मैं मुहँ देखी बात नहीं करता और कुछ कहूँगा तो आप नाराज हो जाएंगे। एक बार पहले भी हो चुके हैं,  तो इस का मतलब है कि अग्रज को भारी नाराजगी है। अब समस्या यह है कि अग्रज हमारी किसी गुस्ताखी से नाराज हो जाएं और हमें बताए ही नहीं कि किस बात से तो हमें पता कैसे लगे। अग्रज से थोड़ी बहुत विनोद का रिश्ता भी हो और कभी विनोद में कोई गुस्ताखी हो जाए तो हमें तो पता भी न लगे कि हुआ क्या है? डाक्टर अमर कुमार जी हमारे अग्रज हैं, वैसे अग्रज जिन की डाँट भी भली लगती है। पर इतना नाराज कि हम से खफा भी हैं और डाँट भी नहीं रहे हैं तो मामला कुछ गड़ बड़  है भाई। हम ने उन से अनुरोध तो कर दिया है। भाई अकेले में नहीं सरे राह डाँट लें। हम डाँट खाने को तैयार खड़े हैं और वे हैं कि डाँट भी नहीं रहे हैं। खैर हैं तो अग्रज ही, जब उन्हें फुरसत हो, तब डाँट लें साथ में हमारी गुस्ताखी भी जरूर बताएँ, हम एडवांस में कान पकड़ कर दस बैठकें लगा चुके हैं अब तक। जब तक न बताएंगे ये सुबह शाम दस-दस चलती रहेंगी। जब भी कोई अग्रज हमें डाँटता है, शुभ शकुन होता है, हमारी उम्र बढ़ जाती है। अब देखिए हमारी उम्र कब  बढ़ती है?

9 टिप्‍पणियां:

Anita kumar ने कहा…

दिनेश जी पूरा रोट प्रकरण बहुत ही ज्ञानवर्धक रहा, सच कहा आप ने। ऐसी प्रथाएं देखी ही नहीं अपने घर में तो कैसे जानेगे उनके बारे में। आप आगे कौन सी प्रथा का वर्णन करने वाले हैं हम उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं। हम भी दूसरे साथियों से सहमत है आप हर बात का इतना सजीव चित्रण करते हैं कि लगता है हम वहीं बैठ कर देख रहे हैं। आज से आप को शब्दों के चित्रकार की उपाधी से नवाजा जा रहा है…।:)

बेनामी ने कहा…

भाई दिनेश जीए
परंपराआें को आप बाखूबी निभाते भी हैं आैर नई पीढ़ी को सहजता से संदेश भी दे रहे हैं। मेरा मानना है कि परंपराएं सिर्फ जनश्रुति या अंधविश्वास नहीं बल्कि उनका वैज्ञानिक आधार भी है। साथ ही समाज में एक-दूसरे को जोड़ कर भी रखती हैं।

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी ,हम यहां पर भी जितना आता हे उतना सभी लोग पुजा पाठ कर लेते हे,ओर त्योहार भी सभी मिल कर मना लेते हे, जिस से पता चलता हे कि यह सब कर्म काण्ड, आपिस मे प्रेम ओर मेल मिलाप करने के लिये ही होता हे, क्यो कि वेसे तो सभी अपने अपने काम मे मस्त रहते हे,
धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

उत्कृष्ट लेखन।
बाकी ममता जी और डा. अमर से तो आप अपने स्टाइल से निपटें - चाहे वह मनुहार कर हो या हाईटेक बन कर। आप उनको ओवरलुक तो नहीं कर सकते। :-)

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सही रहा...मगर ...?? :)

जाने दिजिये!

----------------


निवेदन

आप लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.

ऐसा ही सब चाहते हैं.

कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.

हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.

-समीर लाल
-उड़न तश्तरी

रंजू भाटिया ने कहा…

रोचक .आगे भी इस तरह परम्पराओं और रीति रिवाजों से जानने की उत्सुकता रहेगी .

Smart Indian ने कहा…

बहुत सुंदर विवरण है. हाँ, बड़े भाई की सलाह मानिए और अगर कुछ और नहीं तो कमसकम मोबाइल ही बदल डालिए. याद रहे की आपके यह लेख एक इतिहास के पन्ने हैं.

Unknown ने कहा…

अच्छा लगा पढ़ कर. ज्ञानवर्धन हुआ. भारत तीज-त्योहारों की धरती है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

" रोठ" विवरण पढा - मेरी सास जी जैन धर्माव्लम्बी थीँ पर इसी तरह कुलदेवी पूजा करतीँ थीँ , घेऊँ की ३ ढेरी बनाकर खिचडी और घेऊँ का दलिया बनता था उसमेँ भी एक हिस्सा घर की बेटीयोँ का ही रहता था और पुरुष वर्ग आकर तिलक और जल से धारावाही किया करते थे माँ अम्बाि स जैन परिवार की कुल देवी हैँ - शुक्रिया !