आज तक हम इस बात का निर्णय नहीं कर पाए कि जब इंसान पैदा होता है तो वह नास्तिक होता है या आस्तिक? मेरे विचार से इस दुनिया के तमाम इंसानों का बड़ा हिस्सा आज आस्तिक है। अर्थात किसी न किसी रुप में वह ईश्वर, अल्लाह या गोड में विश्वास करता है। एक ऐसी शक्ति में, जिस ने इस दुनिया को बनाया है और कहीं बैठा इस दुनिया का संचालन करता है। बहुत कम और इने-गिने लोग इस दुनिया में नास्तिक होंगे जो यह विश्वास नहीं करते। फिर भी कुछ आस्तिकों को इस बात का भय लगा रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग नास्तिक होते जाएँ और इस दुनिया में आस्तिक कम रह जाएँ। वे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा अवश्य करते हैं जिस से वे ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते रहें। दुनिया में जिन लोगों की रोजी-रोटी ईश्वर के अस्तित्व से ही जुड़ी हुई है, उन लोगों की बात तो समझ में आती है कि वे उस के होने की बात का प्रचार करते रहते हैं। क्यों कि यदि लोग ईश्वर में विश्वास करना बंद कर दें तो दुनिया भर के पंडे, पुजारियों, मुल्लाओं, काज़ियों, पादरियों आदि का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। इस के अलावा भी दुनिया भर में लाखों-करोडों संगठन इस बात के लिए ही बने हैं कि वे ईश्वर के होने को लगातार सिद्ध करते रहें। दुनिया भर की किताबों की यदि श्रेणियाँ बनाई जाएँ तो शायद सब से अधिक पुस्तकें इसी श्रेणी की मिलेंगी जो किसी न किसी तरह से ईश्वर के अस्तित्व को बचाने में लगी रहती हैं। बहुत से संगठन तो ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मरने मारने को तैयार रहते हैं। इतना धन, इतनी श्रमशक्ति ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में लगातार खर्च की जाती है कि यदि उसे मानव कल्याण में लगा दिया जाए तो शायद यह दुनिया ही स्वर्ग बन जाए। इतना होने पर भी न जाने क्यों इस बात का भय लोगों को बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग ईश्वर को मानने से मना कर दें? ये सारे तथ्य किसी भी विचारवान आस्तिक इंसान को यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि वाकई ईश्वर है भी या नहीं?
आज एकाधिक ब्लागों पर इसी तरह की चर्चा की गई। एक स्थान पर यह लिखा था कि इतनी बड़ी दुनिया है तो अवश्य ही उसे बनाने और चलाने वाला कोई होगा। मैं ने उस पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गया। यह तर्क इतनी बार दिया जा चुका है कि पहली नजर में ही सब से लचर लगता है। वस्तुतः यह तर्क है ही नहीं। यह तर्क सब से पहले तो इस मान्यता पर आधारित है कि कुछ भी, कोई भी चीज किसी के बनाने से ही अस्तित्व में आती है और किसी न किसी के चलाने से चलती है। इस मान्यता का अपने आप में कोई सिर पैर नहीं है। दुनिया में बहुत से चीजें हैं जो न किसी के बनाने से बनती हैं और न किसी के चलाने से चलती हैं। वे अपने आप से अस्तित्व में हैं और अपने आप चलती हैं। किसी स्थान को बिलकुल निर्जन छोड़ दें वह कुछ ही वर्षों में या तो जंगल में तब्दील हो जाता है, या फिर मरुस्थल में। उन्हें कोई नहीं बनाता। इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान अवश्य देता है कि कोई निर्जन स्थल जंगल या मरुस्थल में क्यों बदल जाता है। लेकिन फिर भी लोग इसे ईश्वर का कोप या मेहरबानी सिद्ध करने में जुटे रहते हैं।
यदि यह मान भी लिया जाए कि कुछ भी किसी के बनाए बिना अस्तित्व में नहीं आता और किसी के चलाए बिना नहीं चलता। इस आधार पर हम यह मान लें कि जितनी भी जीवित या निर्जीव वस्तुएँ इस दुनिया में अस्तित्व में हैं उन्हें बनाने और चलाने वाला कोई ईश्वर है तो फिर यह प्रश्न हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाएगा कि फिर ईश्वर को किसने बनाया। हमें अपने उसी लचर तर्क के आधार पर यह मानने को बाध्य होना पड़ेगा कि उसे फिर किसी उस से बड़े ईश्वर ने बनाया होगा और अंत में हमें यह बात माननी होगी कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है। यदि हमें अंत में जा कर यह मानना ही था कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है तो फिर इतनी कवायद और कसरत करने तथा कल्पना करने की आवश्यकता क्या है कि इस विश्व को बनाने वाला और चलाने वाला कोई है। हम इस विश्व को ही बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में होना और स्वतः चलायमान होना क्यों नहीं मान लेते? इस तरह इस तर्क का दम अपने ही कर्म से टूट जाता है।
एक मित्र ने ईश्वर को अपने लाभ हानि से जोड़ दिया है कि ईश्वर को मानने में फायदा ही फायदा है और न मानने में नुकसान ही नुकसान। वे लिखते हैं ...
मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने अल्लाह के बताए रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ? यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी, बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि और जिसने इश्वर को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म.
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक होगी. अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है.
यानी मनुष्य सच की खोज छोड़ दे और अपने लाभ और हानि से इस बात को तय करे कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? गोया ईश्वर न हुआ कोई दुनियावी सौदा हो गया। सभी भारतवासियों के दिलों में सम्मान पाने वाले क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह ने फाँसी की सजा होने के बाद भी यह घोषणा की कि वे नास्तिक हैं और यह भी बताया कि वे नास्तिक क्यों हैं? उन का यह आलेख यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है।
अब हम इन मित्र की बात को सही मान लें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि शहीद भगतसिंह मरने के बाद दोजख (नर्क) में भेजे गए होंगे और वहाँ अवश्य ही उन्हें यातनाएँ दी जा रही होंगीं। क्या आप इस तथ्य को स्वीकार कर पाएंगे?
137 टिप्पणियां:
नास्तिक भी आस्तिक ही होता है।
गिरेबां चाक करना तो बहुत आसान है लेकिन,
बडी उसको मुसीबत है जिसे सीना नहीं आता ।
इस विषय पर जहाँ लडकपन में उछल उछल कर तर्क किये अब अक्सर चर्चा होने पर चुप रहते हैं या फ़िर बस सुनते हैं। कहें भी क्या? हम तो उस तीसरे मोर्चे के हैं जो कहते हैं हमें नहीं पता, किसी दिन अगर निश्चित तौर पर राय बनी तो जरूर बतायेंगे।
समाज और मानवता के हित के लिये जो गुण (सत्य, दया, अच्छा आचरण इत्यादि)अपेक्षित हैं उनके लिये आस्तिक होना गैर-जरूरी है। लेकिन ये भी सत्य है कि धर्म के नाम पर बवाल हुये हैं तो भूतकाल में इसने समाज को एक दिशा भी प्रदान की। धार्मिक नगरियों में पुरानी धर्मशालायें, विद्यालय इत्यादि अनेको समाज कल्याण के केन्द्र धर्मप्रेरित रहे हैं।
वर्तमान में समस्या है कि लोग निजी तौर पर धार्मिक होते जा रहे हैं। ईश्वर से निजी हाटलाईन जोडने के लिये आस्था के प्रतीकस्थलों पर पूजा अर्चना होती है और बडी पिक्चर से सब बच कर निकलना चाहते हैं। बस यहीं समस्या है।
बाकी काफ़ी नास्तिको के भी अपने भगवान होते हैं जिन्हे वे "कोई भगवान नहीं" कहकर उतनी ही शिद्द्त से अर्थ समझे बिना लकीर पीटते दिखते हैं।
लम्बी टिप्पणी के लिये क्षमाप्रार्थी।
जीस दिन इश्वर का होना सिद्ध हो जाएगा, हम पाला बदल लेंगे !
मान लो ये, मान लो वो में बहुत शुरु से ही नहीं पड़े.
मानव के मन में बैठा डर ही उसे अपनी मान्यताओं पर टिकाये रखता है
फिर वह डर, चाहे ईश्वर का हो या समाज का हो या अपने माँ-बाप का हो या फिर अपनी अंतरात्मा का हो
ishwar ke baare me kuchh nahi kahna chahoonga, lekin bhagat singh ji ke baare me koi mansik rogi hi aisa soch payega.
meri nzar me to jo ji rahaa hai vahi dozaq me hain jo mar gya hai voh to jannat ki hvaa khaa rahaa hai ...bhtrin andaz me bhtrin mudde par prbhavi andaaz me chintan kiya hai bdhaai ho .akhtar khan akela kota rajasthan
मेरा राम तो तेरा मौला है...
इक एईयो ते बस रौला है...
इंसानियत से ब़ड़ा कुछ नहीं...अब इस राह पर ले जाने वाला रस्ता चाहे कुछ भी हो-ईश्वर, वाहेगुरु, अल्लाह, जीसस...
जय हिंद...
.ईश्वर है या नहीं, इस सवाल को नज़र अँदाज कर दें तो भी मेरी धारणा यही है कि स्वर्ग और नर्क एक वर्चुअल ख्याल है । सँभवतः दरकते नैतिक मूल्यों पर अँकूश रखने के लिये इनकी परिकल्पना की गयी होगी, जिसे पौराणिक काल के ब्राह्मणों नें खूब भुनाया... नर्क से बचने और स्वर्ग को पाने की आस में मनुष्य आज तक शोषित हो रहा है । कमोबेश यह परिकल्पना विभिन्न रूपों में छन कर हर सँस्कृति और धर्म में अपना जगह बनाये हुये है ।
श्रद्धेय भगत सिंह का उपयुक्त आलेख मैंनें पढ़ा है, बल्कि उन्होंने इसकी एक ॠँखला ही लिखी है । अन्याय और तत्कालीन समाज की दुर्दशा से क्षुब्ध होकर उनके सँवेदी मन ने अवश्य ही यह प्रश्न उठा होगा कि क्या ईश्वर कहीं है भी ? उनके विचारों पर बोल्शेविक प्रभाव का भी इसमें योगदान है ।
जो व्यक्ति जीवनपर्यँत रिवार्ड और पॅनिशमेन्ट की परवाह किये बिना अपना कर्म करता रहा है, उसके लिये नर्क या स्वर्ग में पड़े होने की चिन्ता करना बेमानी है ।
Beautiful counter indeed. Congratulation
चलिए भई..अपुन भी तय कर लें कि दोज़ख में क्या चुनना हैं...
पता लगाते हैं वहां क्या-क्या सुविधाएं हैं, और उनकी यातनाओं का अभ्यास शुरू करते हैं...
वैसे यहां से ज़्यादा यातनाएं कहां मिल सकती है...?
ishwar, dharm aur nastikta par lekh hindi mein yahan padhe ja sakte hai.
Url: skeptic-thinkers.blogspot.com
कुछ है कि बिन भगवान की ही काम चला लेते हैं. कुछ का है कि भगवान के बिना काम नहीं चलता. यह बात अलग है कि अपने आप पर भरोसा रखने वाले दूसरों को आराम से सहन कर लेते हैं पर दूसरे ....!
ईश्वर के प्रति आस्था व्यक्तिगत है, न सिद्ध किया जा सकता है, न असिद्ध किया जा सकता है।
द्विवेदी जी,
मैं माफी चाहता हूँ कि बहुत लम्बी टिप्पणी करने के लिए।
रात में ही भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज में पढ़ा था कि एक बच्चा पैदा हुआ। उसे बीमारियों ने तुरंत ही जकड़ लिया और बहुत जल्दी मर गया। उसने ना कोई पुण्य किये ना पाप। इस बच्चे की मौत की पहेली का जवाब दार्शनिकों के पास नहीं हैं।
मैं जानता हूँ, खुले तौर पर नाम लेकर बताता हूँ कि कुछ चोट्टेकार(चिट्ठेकार)हैं जैसे ज , कै, जा अ र आदि, के पास संसार के हरेक सवाल का जवाब होगा। और वे देने से बाज भी नहीं आते हैं क्योंकि उन्हें न हाथों में दर्द होता है और न कोई काम-धान है कि ये टिप्पणी और फालतू के आलेखों से बाहर निकलें। इंटरनेट पर ईश्वर को लेकर बहस हो और ये लोग वहाँ न जाएँ और कुरआन की महिमा 'अनाहूत: प्रविशति' के साथ बखानेंगे ही। ये श्लोकांश अन्त में इन्हें नराधम कहता है। संयोग से ये सभी गैर-हिन्दू हैं। नाम साफ साफ लेता तो सभ्य टिप्पणी नहीं हो पाती।
वैसे अपने को हिन्दू माननेवाले लोग तो जीवन में कभी नास्तिक हों, इसकी सम्भावना बनती भी है लेकिन मुसलमान समुदाय के लोगों की यह नगण्य है।
अब बात शुरु करते हैं।
बचपन से लेकर सतरह साल तक मैं घोर आस्तिक रहा। ईश्वर में श्रद्धा श्रद्धा से अधिक थी। आज पाँच सालों से नास्तिक हूँ। वैसे नास्तिक शब्द अच्छा नहीं लगता क्योंकि यह नकारात्मक शब्द है। लेकिन लोग इसी से हमें जानते हैं।
जारी है…
अब आस्तिक वही तर्क मेरे लिए देते हैं जो मैं बचपन से आस्तिक रहने के समय तक देता रहा। इसलिए वे तर्क मेरे किसी काम के नहीं हैं। उन्हें मैं क्या सोचकर और समझकर देता था, मैं अच्छी तरह जानता हूँ। इसलिए वह सारे तर्क फालतू लगते हैं।
नास्तिक की कुछ परिभाषाएँ हैं-
विवेकानन्द के अनुसार- प्राचीन धर्म कहता है कि ईश्वर में विश्वास करने वाला आस्तिक और नहीं करनेवाला नास्तिक है। अभिनव धर्म कहता है कि अपने आप में विश्वास करनेवाला आस्तिक और खुद में विश्वास नहीं करनेवाला नास्तिक है।(मेरा जीवन तथा ध्येय)
नास्तिको वेदनिंदक: के अनुसार-
विद् मतलब जानना यानि ज्ञान। वेद मतलब किसी भी चीज का ज्ञान। उस जमाने में वेदों को माना जाता था और वह सही था। उपलब्ध ज्ञान ही संसाए में चल रहा होता है। इस तरह किसी तरह के ज्ञान का विरोध करने वाला नास्तिक है।
मुझे इसमें ज्यादा रुचि नहीं कि ईश्वर है या नहीं। मैं मानता हूँ समाज और यह हाल आदमी ने और केवल आदमी ने किया है। ठीक भी आदमी ही करेगा। कोई अवतार या ईश्वर नहीं।
मेरे नास्तिक बनने के बाद मैंने भगतसिंह को पढ़ा था। नास्तिक क्यों वाला आलेख मुझे कुछ खास नहीं लगा क्योंकि मै नास्तिक हो चुका था। लेकिन इस मामले में खास था क्योकि भगतसिंह की बात कहने से लोग उसे सुनेंगे और मजाक नहीं उड़ायेंगे।
जारी है…
मैं 2006 के आस-पास एक सौ के लगभग धार्मिक किताब पढ़ता रहा और मैं आस्तिक से पूरी तरह नास्तिक हो गया। आप आश्चर्य करेंगे कि आस्तिकता के प्रचार की किताबों को पढ़ने से मैं नास्तिक हो गया। अब असांसारिक डर से हमेशा के लिए मुक्त हो गया हूँ।(यानि मोक्ष पा चुका हूँ, हा हा हा)
फिर भी धर्म की बात आए तो बुद्ध में कुछ दिखता है और सबसे कम इन इस्लामवाद(नाकामवाद) में। इस्लाम धर्म को जब थोड़ा पढ़ा तो पाया संसार का सबसे अवैज्ञानिक विचार कुरआन आदि में है लेकिन चालाक लोग ईश्वर एक है और सब ग्रंथ शान्ति और प्रेम का संदेश देते हैं, कहकर झूठा प्रचार करते हैं।
बात भगतसिंह की। उनके विचार तो बड़े अच्छे हैं लेकिन उनपर 1917 का असर साफ दिखता है और किसी सोचने वाले आदमी में उस दौर में दिखना भी चाहिए। लेकिन अब मार्क्सवाद शायद काम का नहीं रहा। मैं मार्क्स और पूँजी को बीच में घसीटना नहीं चाहता।
मैं मानता हूँ उंगली की जरूरत असहाय आदमी को होती है। मुझे ईश्वर से कोई काम नहीं। वैसे वह हो या न हो मैंने उसपर विचार करना छोड़ ही दिया है। उसमें रुचि नहीं है अब। लोग इस अवस्था को अज्ञेयवाद की अवस्था कहते हैं।
जब आदमी ही अज्ञेय है तो ईश्वर जैसे बेकार के विषय में ज्ञान की कोई खास वजह नहीं है। एक बड़ी अच्छी बात कही है राजीव दीक्षित ने। जब भारत में सारी समस्याएँ हैं ही तब यहाँ के वैज्ञानिकों को मंगल पर और चन्द्रमा पर जीवन और पानी के पीछे पड़ना उचित नहीं। पहले भारत के सारे विषयों को खत्म करो फिर खोजना शुक्र पर जीवन। लेकिन सरकारें मंगल के पत्थर पर अरबों खर्च करती हैं जबकि भारत यानि इसी पृथ्वी पर अरबों लोग भूखे हैं। जीवन की मूल सुविधाएँ नहीं है उनके पास। यह काम अमेरिका और इंग्लैंड के वैज्ञानिकों को अभी करने दें।
ठीक यही बात हमारे संबंध में है। ईश्वर के पीछे खरबों का खर्च और समय लेकिन देश के लिए कुछ नहीं। बस सनक चालू है।
जारी……
मुझे सारे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने के बाद एक सूत्रवाक्य मिला-' सब शब्दों का जाल है'(मैंने खुद यह वाक्य निर्मित कर लिया।
अब कोई मुझे आस्तिक या धार्मिक बनाये तो उसे यही कहना है कि तुमसे ज्यादा अनुभव है हमारे पास। मैं जिस अवस्था में आज से पाँच साल पहले था तुम उसी में हो, तुमने कोई प्रगति नहीं की। मुझे समझाने की जरूरत इसलिए नहीं है कि मैं सीढी के दसवें धाप पर हूँ और तुम तीसरे धाप पर। मैंने सोचा और खुद को मुक्त कर लिया और तुम वहीं हो जहाँ से तुम्हारी यात्रा शुरु हुई है।
बात बच्चे की है तो मेरे खयाल से बच्चा शून्य में होता है। उसे ईश्वर की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन उसे हम नास्तिक नहीं कह सकते क्योंकि नास्तिकता में ना को स्वीकारना होता है लेकिन बच्चा ना जानता ही नहीं है।
जमाल से लेकर सब चो0कारों को सब कुछ पता रहता है। वे तो अवतार(अवतरण का मतलब है नीचे गिरना या उतरना) हैं। वे सर्वज्ञ हैं। उनका एक काम बाकी है कि कम्प्यूटर का और इंटरनेट का साथ सभी प्रोग्रामिंग भाषाओं की जानकारी कुरआन में है, यह बताना।
ईश्वर हो चाहे नहीं हो मेरे लिए उसमें और रास्ते पर गिरे पेड़ के पत्ते में कोई अन्तर नहीं। वैसे वह है नहीं, मैं यही मानता हूँ। ईश्वर हो तो मुझे उससे कोई काम तो है नहीं जिनको काम हो वे कटोरा लेके पहुँच जायें शायद वह मुझसे मांगकर कुछ लोगों को दे दे।
लम्बी टिप्पणी हो गई। पहले सोचा था कि इसे जवाब के रुप में अपने चिट्ठे पर डालूँ।
लिखने में कुछ शाब्दिक गलतियाँ सम्भव हैं क्योंकि मशीन से लिखवा रहा हूँ।
चंदन
जारी है……
ललित शर्मा से-
आस्तिक ही ज्ञान का विरोधी होता है और नास्तिक वही है। जड़ता जैसे गुण पाए जाते हैं।
आपके कहने का कोई आधार भी है कि बस परीक्षा में पूछे जानेवाले प्रश्न की तरह एक वाक्य लिख दिया जो जी में आया। अब जानें जवाब देने वाले।
नीरज रोहिला से,
'बाकी काफ़ी नास्तिको के भी अपने भगवान होते हैं जिन्हे वे "कोई भगवान नहीं" कहकर उतनी ही शिद्द्त से अर्थ समझे बिना लकीर पीटते दिखते हैं।'
आपने नास्तिक देखे ही नहीं हैं। जो देखे हैं वे नकली नास्तिक हैं। नास्तिकों का भगवान सब कुछ नहीं कर सकता और न चढ़ावा मांगता है। वह मानवता का भूखा है और किसी आडम्बर का नहीं।
रोमन लिपि में लिखनेवालों को कोई जवाब देना अच्छा नहीं लगता। क्योंकि वह पढ़ने में दिक्कत होती है।
श्रीमान भारतीय नागरिक आप या भारतीय नागरिक हो सकते हैं या इंडियन सिटिजन।
भगतसिंह के बारे में जो कहा गया है वह काफिर की सजा है इस्लाम में। लेखक ने खुद से नहीं बनाया है।
न होने दिया मुझको होनी ने, न होता मैं तो खुदा होता :)
कुछ आस्थायें जीने के लिये एक रास्ता या सम्बल सी लगती हैं बस वही धर्म है इसे चाहे किसी भी रूप मे देखें। ये कर्म कान्ड या स्वर्ग नर्क ,देवी देवता , सब लोगो के लिये हैं ताकि लोग बुरे काम करने से बचे रहें। ाज के साधू संतों को देख कर लगता है कि धर्म को सब से अधिक मानने वाले ही अधर्मी हैं तो धर्म पर विश्वास कहाँ तक करें? नास्तिक हो कर इन्सान शायद अपने अन्दर अधिक झाँक लेता है। मेरा धर्म इन्सानियत है। नास्तिक तो न हुयी न? इस लिये आस्था ही धर्म है। शुभकामनायें।
ईश्वर हो या ना हो लेकिन जिस चीज के प्रति हम मन में अनन्य विश्वास पैदा कर लेते हैं हमारे लिए वह सत्य बन जाती है । चाहे वह छलावा ही क्यों न हो ।
पढ़ें- एक नास्तिक हिंदू की उलझने
भगवान है. तो है. किसी के न मानने से कोई फर्क नही पड़ता है.
ऊपर वाले ने इंसान को एक व्यवस्था बना के दी है.
अब कोई पापी आदमी घोर नास्तिक बन जाये .
तो भी वो अपने पापो की सजा से बच नही सकता.
और कोई पापी आदमी घोर आस्तिक भी हो जाये.
तो भी वो अपने पापो की सजा से बच नही सकता.
रही बात ये कहने की भगवान को किसने बनाया.
तो भगवान को किसी ने नही बनाया वो हमेशा से थे और हमेशा रहेँगे.अब कोई माने या न माने.
अब कोई भगवान को मानता है तो वो भगवान पर कोई अहसान नही कर रहा है.
और कोई भगवान को नही मानता है तो उसके न मानने से भगवान के अस्तित्व पर एक चीटी के 1 अरब हिस्से के बराबर भी फर्क नही पड़ता.
अपनी अपनी मर्जी .अपने अपने राम.
रोहित जी,
लीजिए मैं भी भगवान हूँ तो हूँ क्योंकि कोई माने या न माने क्या फर्क पड़ता है। सबूत भी है मेरे पास। जैसे भगवान अपने अवतार में कष्ट झेलते हैं और सब उनकी माया का खेल है, वैसे ही मैं भी संसार में कष्ट झेलते हुए माया का खेल दिखा रहा हूँ। चींटी वाली तुलना अच्छी नहीं रही, एक अरब बहुत कम होता है।
याद रहे मैं भगवान हूँ और कृष्ण की तरह स्वयम बता रहा हूँ।
नास्तिकता रिश्तों की पवित्रता में विश्वास नहीं रखती
आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी ! दोज़ख़ इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली है। दोज़ख़ में हरेक नहीं भेजा जाएगा बल्कि वही भेजा जाएगा जो कि इसका पात्र होगा। देश के लिए अपनी जान देने वाले भगत सिंह को दोज़ख़ में यातनाएं दी जा रही हैं। ऐसा मैंने न तो किसी इस्लामी साहित्य में पढ़ा है और न ही कभी मुस्लिम सोसायटी में ही कहीं सुना है। आप चाहते तो दोज़ख़ के बजाय संस्कृत शब्द ‘नर्क‘ भी इस्तेमाल कर सकते थे लेकिन तब पाठकों के मन में वितृष्णा मुसलमानों के बजाय पंडों के खि़लाफ़ पैदा होती और ऐसा आप चाहते नहीं हैं।
क्यों इस्लाम और मुसलमानों के बारे में वे बातें कहते हो जिन्हें मुसलमान ख़ुद नहीं कहते ?
ईश्वर है या नहीं ?
इसका पता तो अब बहुत जल्द आपको ख़ुद ही चल जाएगा।
अगर आप उस अटल घड़ी से पहले सचमुच जानना चाहते हैं तो आपको उन मित्र की टिप्पणियों के नीचे वाली दो टिप्पणियों पर भी ध्यान देना चाहिए था।
आप कहते हैं कि आपने उन मित्र की टिप्पणियों पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गए। जबकि हक़ीक़त यह है कि उन मित्र की बातों ने आपके मन को इतना जकड़ लिया कि आपने यह पोस्ट लिख डाली।
आस्तिकों के धन की चिंता छोड़िए, आप जैसे नास्तिक अपना धन ही अगर जनसेवा में लगा दें तब भी बहुतों का भला हो जाएगा।
नास्तिक मां, बहन और बेटी के साथ रिश्तों की पवित्रता का आनंद भी उठाते हैं और इसी के साथ वे ईश्वर और धर्म पर चोट भी करते हैं। नास्तिकता रिश्तों की पवित्रता में विश्वास नहीं रखती। पवित्रता की अवधारणा केवल धर्म की देन है। अगर ज़मीन पर नास्तिकता आम हो जाएगी तो ये सारे रिश्ते ध्वस्त हो जाएंगे। आस्तिक इस बात से डरते हैं और रिश्तों को बचाने के लिए ही वे नास्तिकों के मत का खंडन करते हैं। ऐसा हिंदू भी करते हैं और ऐसा मुसलमान भी करते हैं। आप दोनों को एक दूसरे से बदगुमान कर नहीं पाएंगे जनाब। अक्ल आज सबके पास है।
जयहिंद !!!
क्या नास्तिक बंधु इस नई साइंसी खोज को स्वीकार करेंगे ? - Dr. Anwer Jamal
बहस का हिस्सा बनना नहीं चाहता अपनी अपनी सोंच , जिसको जो अच्छा लगे वह माने, मानों तो है भगवान नहीं तो पत्थर है
चंदन जी
चलिये अगर आप भगवान है
तो एक उंगली पर पर्वत उठा कर दिखाइये.
पर्वत तो छोड़िये एक पत्थर ही एक उंगली पर उठा कर दिखा दीजिये.
अगर आप भगवान है तो यमुना नदी मे अंदर घंटो डूबकर दिखाइये.
साँप के ऊपर नाचकर दिखाइये.
अपना नाम पत्थर पर लिखकर उसको पानी पर तैरा कर दिखाइये.
वैसे चीजे तो बहुत है लेकिन आप इतना ही कर दीजिये.
अनवर जमाल साहब,
मैं जानता था कि आप यहाँ टपकेंगे जरूर। मैंने जिस चीज का ठीक से मंथन नहीं किया है उसपर कुछ कहना नहीं चाहता। रिश्तों की पवित्रता पर मैंने अभी तक अपना विचार निश्चित नहीं किया है।
यह किसने कहा कि धर्म ने सब कुछ खराब ही दिया है?
लेकिन आप एक काम कर लें कि जितने भी बलात्कार या नाजायज संबंध स्थापित हुए हैं उनमें से कितने लोग नास्तिक हैं?
दूसरा देश में भ्रष्ट और लूटनेवाले 99 प्रतिशत से अधिक लोग धार्मिक ही होते हैं। मैं मानता हूँ धर्म अपने मूल रुप में शायद ही ऐसा है लेकिन जिसे लोग धर्म कहते हैं वह तो वास्तव में अधर्म ही है।
आइये यहाँ कुछ देख लीजिए। http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/03/blog-post_14.html
मैं न तो धर्म का और न ही विज्ञान का भक्त हूँ। ज्यादा भक्त होने में दिक्कत है। आपने बेकार ही विज्ञान का लबादा ओढ रखा है। आपने उसे सिर्फ़ खोल बना रखा है। अब कल विज्ञान कहेगा कि आदमी सूअर से विकसित हुआ है। अभी तक बन्दर की सन्तान हैं, कल से सूअर की भी हो सकते हैं।
इसलिए अपनी अक्ल और आँख का इस्तेमाल भी कीजिए।
अब द्विवेदी जी ने दोजख लिखकर जो सोचा भी नहीं आओ उससे हजार कदम आगे बढ़ गए। सोच कैसी हो गई? शक्तिशाली की जगह कोई मजबूत लिख दे तो आपको क्या होने लगता है, कहीं हड्डा तो नहीं हबक लेता है?
हर बात को एक ही तराजू पर मत तौला कीजिए। देखता हूँ कि कोई कुछ भी लिखे, आप मुसलमान और हिन्दो का फसाद खड़ा करने से बाज नहीं आते।
हमारा काम है इस दुनिया मैं रह कर नेक काम करें. अल्लाह के बताए सीधे रस्ते पे चलें. दोज़क और जन्नत भी अल्लाह का बनाया है और उसमें कौन जाएगा यह भी सभी धर्मो की किताब मैं लिखा है. और इसका फैसला भी वही करेगा की कौन दोज़क मैं जाए कौन जन्नत है. इस लिए यहाँ यह सवाल कुछ उचित नहीं लगा.
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हाँ जो इश्वेर को नहीं मानता उसके अनुसार ना जन्नत है ना दोज़क. फिर यह सवाल उचित नहीं?
यह तो मरने के बाद ही इंसान को पता लगेगा की जन्नत या दोज़क ,का कोई वजूद है या नहीं. इस दुनिया मैं तो हम बस अपने ज्ञान और तजुर्बे के आधार पे यह फैसला कर लेते हैं की अल्लाह , इश्वेर,भगवान, जन्नत दोज़क है या नहीं. हर इंसान को अपना एक ख्याल बना लेने का अधिकार भी है.
मेरा ज्ञान कहता है अल्लाह है तो मुझे उसके बताए कानून पे चलने दें , आप का ज्ञान कहता है अल्लाह, इश्वेर नहीं है तो आप अपने बताए कानून के चलें. दोनों का इंसानियत के रिश्ते से कोई टकराव नहीं है.
रोहित जी,
अतिसुन्दर!
आपने अपने भगवानों को ठीक से नहीं समझा है। किसी भगवान से दूसरों की इच्छा से सर्कस और मदारी का खेल लोगों को नहीं दिखाया है।
बुद्ध नवें अवतार हैं लेकिन उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया। कबीर के बारे में मैंने कोई चमत्कार नहीं सुना।
और चमत्कार या शक्ति देखने के लिए गोकुल और वृन्दावन के भक्तों की तरह आस्था और श्रद्धा भी तो होनी चाहिए। क्यों? जाँचने पर भगवान कुछ नहीं दिखाते। आप भूल रहे हैं कि आपका नटवरलाल एक शिकारी के बाण से मर जाता है। यह एकपक्षीय बात मत कहिए। और मेरा अवतार सोलह नहीं सोलह करोड़ कलाओं के साथ हुआ है(हा हा हा।
पहले वासुदेव और दशरथ या मनु-शतरुपा की तरह हजारों साल की तपस्या करिए फिए मैं प्रसन्न होकर दर्शन भी दूंगा और सब कुछ खुद दिखाऊंगा। क्योंकि भगवान ने ऐसा कहीं नहीं किया कि कोई कहे हे प्रभु आप हमारा मनोरंजन करिए और कुछ खेल दिखाइए और भगवान ने खेल दिखा दिया।
चंदन जी
जिसको बड़े बड़े राक्षस, वीर योद्धा नही मार सके उसको भला एक शिकारी क्या मारेगा.
लगता है आपने पुराणो को ठीक से पढ़ा नही है.
ये सब भगवान की लीला का अंग था.
वो शिकारी कोई और नही पिछले जन्म का बालि था.
जिसको राम जी ने मारा था.
उस बालि ने अगले जन्म मे शिकारी का जन्म लिया और जब भगवान की इस धरती पर सारी लीलाये समाप्त हो चुकी थी .
तब उस शिकारी ने भगवान के तलवो को एक हिरन की सुंदर खाल समझ कर बाण चलाया.
ये सब भगवान की लीला थी.
नास्तिको को ये सब बाते नही समझ मे आयेँगी.
और जरुरत भी नही है.
रोहित जी,
आपने मेरी किसी महत्वपूर्ण बात का जवाब तो दिया नहीं लेकिन ज्ञानी होने के सबूत के लिए बालि की कहानी सुना दी।
मेरे कम्प्यूटर में 18 पुराण, चारों वेद भी हैं वह भी गीताप्रेस और गायत्री परिवार के। यह कहानी जानता था।
जब सब कुछ लीला ही है तो मैं भी लीला ही कर रहा हूँ। जरा नाम के व्याध ने कृष्ण को मृग समझकर मारा था। पिछले वरदान के लिए उन्होंने लीला की और चमत्कार नहीं दिखाया। इसलिए मैं भी चमत्कार नहीं दिखाऊंगा।
अब मैंने नाम भी बता दिया बालि का, इससे पता चल ही गया कि जानता तो मैं भी था। और वैसे भी कोई यह दावा करता हो तो कि उसन सभी ग्रंथों को पढ़ रखा है, तो यह संदेहास्पद है। मैं इन किताबों अच्छा पद्यमय साहित्य जरूर मानता हूँ। लेकिन आस्तिक नास्तिक की सब बातों को खारिज करने पर तुले रहते हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ मुझे सच से और ज्ञान से मतलब है।
लीला को जरा विस्तार से समझे। कोई घोर अपराध करें तब तो सोचूं की दंड दूँ या नहीं दूँ। अब मुझे आपके पूर्वजन्म का हिसाब-किताब भी तो देखना है।
मै तर्को पर बहस करता हूँ.
कुतर्को पर बहस नही करता .
मैने कहा था . कि आपके भगवान को न मानने से भगवान पर और उसकी बनायी दुनिया पर कोई असर नही पड़ता.
तब आप हास्यास्पद कुतर्क दे रहे है कि
आप भगवान है.
ये भी भला कोई तर्क हुआ.
आप क्या मानते है क्या नही .उससे मुझे कोई फर्क नही पड़ता.
आपने कंप्यूटर पर वेद पुराण डाल रखे है तो जरा समय निकाल कर पढ़ लीजिये.
ये दुनिया कैसे बनी ?
जीव जन्तु इंसान पेड़ पौधे कहाँ से आये .और आगे क्या क्या होना है .
सब कुछ उसमे मौजूद है.
और अगर पढ़ने के वावजूद आप उसको नही मानते है तो मै इसमे कुछ नही कर सकता हूँ.
जिस बात में कमी हो वह कभी धर्म नहीं होती
@ आदरणीय चंदन कुमार मिश्र जी ! बदतमीज़ी किसी समस्या का हल नहीं है। जिस बात में कमी हो वह कभी धर्म नहीं होती और इसीलिए धर्म में कभी कोई कमी नहीं होती। लोगों ने धर्म के नाम पर जो अधर्म समाज में स्थापित कर रखा है, उसकी ज़िम्मेदारी न तो धर्म पर आती है और न ही धार्मिक जनों पर। धार्मिक जन ख़ुद इनसे त्रस्त हैं। धार्मिक होने के लिए अपनी वासनाओं को क़ाबू में करना होता है, ख़ुद को अनुशासन में रखना होता है। सबके भले की दुआ भी करनी होती है और अपनी हद भर सबका भला करना भी होता है। ऐसा सनातन धर्म भी कहता है और इस्लाम भी। सनातन धर्म की वकालत करने के लिए भी मैं ही काफ़ी हूं और इस्लाम की वैज्ञानिकता में आपको शक हुआ आपके ज्ञान की कमी के कारण। आइये और देखिए कि इस्लाम क्या सिखाता है ?
आप जो भी बात विज्ञान के विरूद्ध बताएंगे उसे मैं छोड़ दूंगा। इससे आपको विश्वास आ जाना चाहिए कि विज्ञान मेरे लिए आवरण नहीं है बल्कि मेरा व्यवहार है लेकिन उसका आधार धर्म है, ऐसा ज़रूर मानता हूं मैं।
देखिए आओ जीवन की ओर Hadith
भाई रोहित जी,
आप तर्कों पर बहस करते हैं। अच्छा!
क्या कभी तर्कशास्त्र या दर्शनशास्त्र पढ़ा भी है? तर्क के मामले में अधिकांश लोग यही कहते हैं कि वे ही सही तर्क दे रहे हैं बाकी कुतर्क है। तर्क का मतलब भी समझिए। आप बेवजह गुस्साइये नहीं। मुझे इन ग्रंथों से कोई नफरत नहीं। मैं कह चुका हूँ कि मुझे सत्य और ज्ञान से मतलब है। बात रहा मेरे भगवान होने का तो मैंने कह क्या दिया इसके बदले जवाबतलब आपने ही तो शुरु किया प्रमाण मांग कर।
दुनिया के बनने की और बनानेवाले की अठारह पुराणों में अठारह कहानियाँ हैं। और हाँ कुछ छप जाने से सच नहीं हो जाता। किताबों को इसलिए सच मत मानिए कि वे पुरानी हैं। अपनी विवेक-शक्ति का इस्तेमाल करके सोचिए। यह बात बुद्ध ने भी कही। आप बस मेरे ऊपर कहते जा रहे हैं और तर्क धरा का धरा रह गया।
बात मेरे भगवान होने की, पहली तो मैंने उसे ऐसे ही कह दी और दूसरी कि वह गलत भी नहीं है। यह मैं नहीं धर्मग्रन्थ ही कहते हैं। ईशावास्यम् इदं सर्वम् मैंने नही लिखा है। ओशो कहते हैं कि दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश है जिसने कहा है कि हर आदमी में भगवान है। और वैसे भी मिट्टी, रंग, लोहे से मिलाकर बनने वाले मन्दिरों में अगर भगवान हो तो मुझमें नहीं है, ऐसा आप कह कैसे सकते हैं। 33 करोड़ देवताओं पर कोई झगड़ा नहीं मेरे भगवान कह देने पर आसमान सर पर उठाना ठीक नहीं।
आप मानवता और मानव के लिए कुछ करें। देश के लिए कुछ करें। भगवान व्यक्तिगत मामला है।
कहा भी कबीर ने-
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोए।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोए॥
जमाल साहब,
सनातन धर्म में ग्रन्थों का नष्ट होना उनमें विक्षेप का कारण मानने के लिए जगह छोड़ता भी है। लेकिन इस्लाम के ग्रन्थों के नष्ट होने और जलन की कहानी कहीं नहीं सुनी। अभी जा रहा हूँ बाजार। वापस आकर विस्तार से बहस करेंगे।
भाई चंदन जी
तर्क देने के लिये मुझे तर्कशास्त्र पढ़ने की जरुरत नही है.
और मै गुस्सा भी नही हो रहा हूँ.
भगवान व्यक्तिगत मामला है इसीलिये मैने आपसे ये नही कहा कि आप भगवान को मानिये.
मैने सिर्फ इतना कहा है कि आपके न मानने से भगवान और उसकी दुनिया पर कोई फर्क नही पड़ता है. और ये सच भी है.
जैसे कोई व्यक्ति ये कहे कि मै कानून या सविधान को नही मानता हूँ
और फिर वो कोई अपराध कर दे तो क्या वो कानून से बच जायेगा.
कानून तो उसको जेल मे डालेगा ही चाहे वो कानून को माने या न माने.
ऐसे ही इस दुनिया मे भगवान ने एक व्यवस्था बनायी है.
इंसान भगवान को माने या न माने. लेकिन चलना उसको भगवान की व्यवस्था के अनुसार ही पड़ता है.
और रही बात पुराणो की तो 18 पुराणो मे 18 कहानिया नही बल्कि पूरा सच्चा इतिहास लिखा है. जो हर चर्तुयुग के द्धापर युग मे वेदव्यास जी करोड़ो श्लोको को छोटा करके चार लाख श्लोक मे बनाकर 18 पुराणो की रचना करते है.
उसमे लिखी एक एक बात सत्य है.
और उसमे सब कुछ लिखा है. ये जो कलियुग मे हो रहा है.
मुसलमानो और इसाईयो की उत्पत्ति और अभी आगे कलियुग मे क्या क्या होना है .सब कुछ उसमे लिखा है.
जैसे किसी बच्चे को उसकी माँ जिस किसी व्यक्ति को उसका पिता बताती है. वो बच्चा आँख मूंदकर विश्वास करता है.संदेह नही करता है और अपना पिता मानता है.
वैसे ही विश्रास के साथ हम लोगो को अपने धर्म ग्रन्थो को मानना चाहिये. उस पर संदेह नही करना चाहिये.
सनातन धर्म के अन्तर्गत ही ये दुनिया बनती है और खत्म होती है फिर बनती है. यही चक्र चलता रहता है.
और इसी सनातन धर्म की हानि होने पर भगवान धरती पर जन्म लेते है.
और ऐसे महान सनातन धर्म मे जन्म लेकर जो व्यक्ति भगवान पर विश्वास न करे तो ये उसका दुर्भाग्य है.
और जो ये सब कलियुग मे हो रहा है .अधर्म अन्याय.
ये सब भी भगवान की प्रेरणा से ही हो रहा है.
और अभी तो तब भी बहुत अच्छा समय है.
आगे जैसे जैसे समय बढ़ेगा. लोगो का जीवन नर्क जैसा होने लगेगा.
और ऐसी नर्क जैसी स्थितियो मे भी जो आपने आपको अच्छे कर्म मे लगा पायेगा और केवल भगवान का नाम भी जप लेगा .
उसी का कल्याण होगा.
अच्छा अब मै चलता हूँ आगे की बहस कल करुंगा.
रोहित भाई,
ज्ञान प्राप्त करने का बहुत ही सफल तरीका है संदेह करना।
सम्मान तो ग्रन्थों के प्रति मैं नहीं रखता था। लेकिन धर्मपाल जी जैसे महान इतिहासकार की खोजों के चलते यह मानता हूँ कि भारतीय ग्रंथों में बहुत कुछ घटाया-बढ़ाया गया है इन अंग्रेजों द्वारा। लेकिन इसकी भी एक सीमा है। सब कुछ हरगिज मानने के लायक नहीं है।
भविष्य पुराण में देखा है सबका जिक्र। लेकिन आज कौन राजा है या कल कौन होगा प्रधानमंत्री? यह सब बताया जाता तो सचमुच सोचना पड़ता। लेकिन या तो बीते हुए पर या अनिश्चित भविष्य की बात करते ग्रंथ पचते नहीं हैं।
आप ऐसा ग्रंथ बता नहीं सकते जो निकट भविष्य की बात करे। निश्चय ही वेद-पुराण सभी ग्रंथ मनुष्य ने ज्ञान के रास्ते में बनाए या प्राप्त किए। लेकिन अंधानुकरण और आँख मूँदकर विश्वास करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।
श्रद्धा अच्छी चीज है और कभी-कभी बुरी भी। लेकिन आस्था या श्रद्धा ज्ञान नहीं हैं। यह परम सत्य है।
चाहे जो हो हमारे देश की धरोहर हैं ये सारे ग्रंथ, इसलिए इनका कुछ महत्व देता हूँ।
यह मानने लायक नहीं है कि एक-एक बात सत्य है। मैं मानव के पुरुषार्थ और परिश्रम को मानता हूँ भाग्य को नहीं।
गीताप्रेस की दो किताबें हैं- 'हम ईश्वर को क्यों मानें?' और ईश्वर की सत्ता और महत्ता' दोनों मैंने पढ़ी हैं। कुछ अच्छी बातें और सवाल वहाँ भी हैं। लेकिन झूठे उत्तर से हमेशा यही बेहतर है कि आप सच को स्वीकारें और यह कहें कि यह हम नहीं जानते या मनुष्य जाति अभी इसका उत्तर नहीं खोज सकी है।
लेकिन आस्तिकों के साथ समस्या यह है कि वे खुद के दिमाग से चलना छोड़कर सबकुछ एक ही चश्में से देखना शुरु कर देते हैं।
ईश्वर है या नहीं, यह मैं पहले भी कह चुका हूँ कि एक बेकार झगड़ा है। हो या नहीं हो उसे हमारे बीच दखलंदाजी करने का कोई हक नहीं बनता।
इन सब बातों के बावजूद मैं ईश्वर पर विश्वास करना नहीं चाहता। भगतसिंह वाला आलेख भी पढ़ लें।
बुद्ध से भी कुछ सीख लें। संदेह करने का सूत्र उन्होंने भी दिया है।
आप अपना ईमेल पता दें। फिर व्यक्तिगत बहस करेंगे।
रोहित भाई,
मैं इतनी बातें यहाँ न तो करना चाहता था और न लिखने में मजा आता है। मैं सोचता था कि अपने चिट्ठे पर कभी इस पर लिखूंगा। लेकिन द्विवेदी जी ने फँसा लिया।
वैसे एक बात मान लें कि संसार में शायद ही तर्क का कभी लाभ होता है क्योंकि कितना भी गर्म पानी अन्तत: ठंढा हो ही जाता है। (यह एक श्लोक का अर्थ है)
बात ग्रंथों की तो मैं अभी इतना समय नहीं दे पाता कि सबको पढ़ लूँ। लेकिन धीरे-धीरे पढ़ना है।
आज ही देखिए मेरे कई घंटे फालतू के लिखने में चले गए। ऐसी बहस बहुत जगह देखी है। लेकिन बार-बार छोड़ देता था।
ईश्वर को सिर्फ़ मान लेना भी बड़ी समस्या नहीं है लेकिन देश के लिए सोचने में और कुछ करने में जीवन बीते यही काफी है। ईश्वर का मुद्दा बताता है कि हमें रोटी-कपड़ा-मकान आदि की चिन्ता नहीं है। बहस का मजा लेना अपना समय गँवाने जैसा है जबतक कि देश में सबकुछ ठीक नहीं हो जाता।
उम्मीद है आप मेरी बातों को समझेंगे।
अब बारी अनवर जमाल जी की।
पहली बात आपमें एक आदत है कि आप हर जगह टिप्पणी करते हैं और एक लिंक इस्लाम-पंथ का जरूर दे देते हैं।
अब बहस की बात।
शुरु करते हैं आपकी पहली बात से। क्या तर्क है! एक घर है जिसमें सालों से गंदगी लगी हुई है और न घरवाले दोषी हैं न घर दोषी(मतलब अगर मिट्टी का घर रहा तो या झोंपड़ी रही तो गंदा होने की उम्मीद ज्यादा है)। यानि इस महामंत्र के अनुसार सब कुछ ऐसे ही चलता रहे।
अब सनातन धर्म का पक्ष आप किसलिए लेते हैं, यह मैं ही नहीं सभी लोग जानते हैं जिन्होंने आपकी कहीं भी टिप्पणी पढ़ी है।
इस्लाम के जिन वाक्यों को चिपकाया गया है उनमें कौन सी ऐसी बात है जो अद्भुत है? वैसे हजारों ग्रंथ संस्कृत आदि में हैं। आधार और बड़े ग्रंथों की तो बात ही छोड़िए नीतिशतक जैसे या सरल भाषा में दोहावली जैसे किताबों में ऐसे वाक्य भरे पड़े हैं।
इस्लाम की अवैज्ञानिकता के लिए इतना काफी है कि कुरआन अन्तिम ग्रंथ और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर हैं। किसी अक्लमन्द आदमी को यह पच ही नहीं सकता कि अब कोई महान व्यक्ति पैदा नहीं होगा। सारा सत्य का जिम्मा अकेले इस्लाम के अलावे इस हद तक कौन उठाता है।
सारी वैज्ञानिकता का ठेका आप लोग संभाल रहे हैं, अच्छा है लेकिन मानव जाति को आप जैसे धर्म-प्रचारकों ने क्या दिया है, जरा विस्तार से बताएंगे। आपने देश को क्या दिया है? यह बताइए। दुआ, नमाज और सुबह-सुबह चार बजे नींद को तोड़ती हुई आवाज जब मस्जिदों से निकलती है तो वैज्ञानिकता का सबूत मिलता है।
आपके द्वारा कुरआन में विज्ञान का असफल प्रयास वाला आलेख छापा गया है वह भी देखा। कुछ लिंक भी देखे। जिन बातों को पाँच साल का बच्चे सपने में देखता है और बोलता है उसे विज्ञान कहकर कुरआन की हँसी उड़ा रहे हैं।
एक दावा करना है। सुना है कि कुरआन की आयतें वैसे ही कोई नहीं लिख पाया है। बीस लाख रूपये की बाजी लगाइये। एडवांस में अरबी सीखने के लिए भी ……। मेरा दावा है कि मैं उस तरह की आयत लिखकर दिखाऊंगा। आसमानी किताब का झूठ बहुत चला लिया आप लोगों ने।
ऐसे ही रामशलाका प्रश्नावली को कम्प्यूटर कहा गया और मैंने वैसा बनाकर दिखाया।
और शोर थोड़ा कम ही। जैसा लिंक में बताया है वैसा कितने लोग हैं। पैसे से पैसे कमाने वाली बात को ही देखें तो बैंक में या बीमा कम्पनियों में काम नहीं करना होगा।
आपने सब बातों को जो चाहा है वह अर्थ निकाल लिया है।
कई फिल्मी गानों के आध्यात्मिक अर्थ मैं बता सकता हूँ। अर्थ अपने से निकाल कर जमीन को आसमान बना लेना बहुत मुश्किल नहीं है। एकदम छोटी बातें जिनमें कोई वजन नहीं है उन्हें विज्ञान का जामा पहना दिया गया है।
इस्लाम का ज्ञान नहीं हैं मुझे। ऐसा आपके द्वारा कहा गया है। अजीब बात है जहाँ जाओ ज्ञान का ठेका किसी न किसी ने ले ही रखा है। यहाँ आप हैं। कोई आलोचना करे तो उसे ज्ञान ही नहीं ह, यह कहकर नकारना जायज नहीं है। यह बात सही है मैं इस्लाम के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता।
आग जलाती है, आग के बारे में आम आदमी के लिए इतना काफी है। उसमें हाथ डालकर देखने की जरूरत नहीं है।
अभी चला। कल देखता हूँ कि कौन क्य कहता है?
.
भाई लोगों, यह Blogger profile not available वाले ROHIT कौन हैं..
यदा कदा कई ब्लॉग पर इनकी विद्वता-सँतृप्त टिप्पणियाँ बाँचता रहा हूँ । और... मैं इनकी पकाऊ टिप्पणियों का कायल भी हूँ ।
इनका शिष्यत्व ग्रहण करने का मन हो आया है... प्रभो आप जहाँ कहीं भी अदृश्य हो... कृपा करके दर्शन दो । मैं भगवान के सम्बन्ध में आपकी अवधारणाओं को मान लूँगा, पहले यह तो विश्वास हो कि भगवान नें आपको भी कोई पता ठिकाना कुल गोत्र तो अवश्य ही दिया होगा ... फिर, , आप जैसी उनकी अनुपम कृति भला छद्म कैसे रह सकती है ?
आदरणीय द्विवेदी जी, आपके पोस्ट के मूल विषय को रसातल में यूँ ढकेला जाते देख कर मैंनें भी यह घृष्टता कर ली... क्षमा करेंगे ।
अनवर जमाल साहब,
अभी ध्यान आया कि द्विवेदी ने दोजख और नर्क दोनों लिखा है।
धर्म सिर्फ़ देश और मानव है न कि इस्लाम और नमाज।
अमर कुमार जी,
बहस में कुछ देर के लिए अक्सर मूल विषय रसातल में जाता ही है। और कभी-कभी व्यक्तिगत विद्वत्ता और श्रेष्ठता का जो प्रलाप शुरु होता है वह मूल विषय को खा जाता है।
इसलिए इससे घबड़ाने की जरूरत नहीं है।
इसी से समझ लिया हाय कि मैंने आजतक इतनी बार और इतनी बड़ी टिप्पणी कहीं नहीं की।
@चँदन कुमार मिश्र
मेरा सवाल और खेद-निवेदन आपसे तो नहीं ही है,
अतएव आपका स्पष्टीकरण अनिधिकृत है ।
यहाँ भट्टा-परसौल खड़ा करने का औचित्य ?
ओह जाय की जगह हाय हो गया।
अमर कुमार जी,
अनिधिकृत नहीं अनधिकृत होगा।
दिनेश जी, आपके लेख के लिए बहुत धन्यवाद.
मैं खास कर आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ मुझे भगत सिंह जी के लेख से रूबरू करने के लिए. हैरानी होती है कि व्यवस्था ने कैसे इन रचना/ विचारों को छुपा रखा था/है.
आब तो आपका follower भी हो गया हूँ.
'उत्तरार्ध' जी को जन्मदिन कि हार्दिक शुभकामनायें
शुभ रात्रि .
इस्लाम की विशेषता
@ आदरणीय चंदन कुमार मिश्र जी ! नास्तिक भाई एक लंबे अर्से से मेरे 36 ब्लॉग्स पर अपनी पोस्ट के लिंक दे रहे हैं। हमने तो कभी आपत्ति नहीं की। बहस से संबंधित अगर कोई लेख कहीं मौजूद है तो आपको आपत्ति क्यों ?
आप लोग बहस भी छेड़ते हैं और फिर सुबूत और नज़ीर भी देखना नहीं चाहते ?
घर और झोंपड़ी की कोई बात मैंने कब कही है ?
आप ख़ुद ही कह रहे हैं और ख़ुद ही ऐतराज़ कर रहे हैं। ख़ुद उदाहरण देकर उसपे ऐतराज़ करना किस तर्क शास्त्र में आपने पढ़ लिया है भाई ?
मैं ख़ुद एक ‘यूनिक सनातन धर्मी‘ हूं, मनु महाराज को महर्षि मानता हूं और अपना मार्गदर्शक भी। उनके आदर्श को पालनीय मानता हूं और ख़ुद को मनुवादी ऐलानिया कहता हूं। इसीलिए मैं सनातन धर्म का समर्थन करता हूं। मेरी टिप्पणियों में धर्म के नाम पर धंधा करने वालों का विरोध होता है, जैसे कि मैंने बाबा रामदेव का विरोध किया है। बाबा रामदेव का विरोध एक नाकाम राजनीतिज्ञ का विरोध है, हवा पानी की तरह ऋषिगणों ने योग की शिक्षा सदा ही मुफ़्त में दी है। जिसे सिखाने की वह भारी फ़ीस वसूल रहे हैं। उनके ग़लत आचरण का विरोध हरगिज़ हरगिज़ मनु महर्षि का विरोध नहीं है। यह अंतर आपके सामने स्पष्ट रहना चाहिए।
आपने लिखा है कि इस्लाम के नियम भारतीय साहित्य में भरे पड़े हैं।
इस्लाम के जिन वाक्यों को चिपकाया गया है उनमें कौन सी ऐसी बात है जो अद्भुत है? वैसे हजारों ग्रंथ संस्कृत आदि में हैं।
आपने सही बात लिखी है। आपने मान लिया है कि इस्लाम सनातन सत्य की शिक्षा देता है। जो आपने मान लिया है, यही तो इस्लाम का दावा है। सत्य का साक्षात्कार भारतीय मनीषा ने बहुत पहले कर लिया था लेकिन बाद में बहुत से विकार इसमें बढ़ा दिए गए जैसे कि छूतछात, सती प्रथा, स्त्री शिक्षा निषेध, समुद्र पार यात्रा निषेध, ब्याज आधारित लेन देन और नियोग आदि। हिंदू धर्मग्रंथों में महानतर सत्य भी लिखा हुआ मिलेगा और उसी के आस पास आपको उस महान सत्य के विरूद्ध जाने वाला असत्य रूपी क्षेपक भी मिलेगा। जिसे पढ़कर आप जैसे लोग नास्तिक बन जाते हैं। इस्लाम में ऐसा नहीं है। ब्याज हराम है तो है। इसे काटता हुआ कोई विचार आपको मिलेगा ही नहीं और अगर कोई हेर फेर करता हुआ मिलेगा तो आप तुरंत पहचान लेंगे। इस्लामी साहित्य में जिन लोगों ने क्षेपक का प्रयास किया, क़ुरआन के आधार पर उसे तुरंत ही पहचान लिया गया। पहली विशेषता तो यह है इस्लाम की।
दूसरी विशेषता यह है कि अगर कहा गया है कि सभी इंसान एक मां-बाप की औलाद हैं। सभी इंसान की हैसियत से बराबर हैं। आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के माल में वंचितों का भी एक हिस्सा है तो यह सिर्फ़ कह कर ही छोड़ नहीं दिया गया। बल्कि इसे व्यवहार में भी ढाल कर दिखाया गया है।
अगर कहा गया है कि विधवा भी एक इंसान है तो इस्लाम ने उसे अपने रूप और शरीर की देखभाल का समुचित अधिकार भी दिया है और उसके पुनर्विवाह की अनुमति भी दी है और फिर इसे समाज में साकार करके भी दिखाया है। आपको भारतीय ग्रंथ देखने का बड़ा शौक़ है तो ज़रा बताइये तो कि भारतीय धर्मग्रंथों में विधवा के पुनर्विवाह का प्रावधान कहां है ?
और किस महान भारतीय आदर्श पुरूष ने किसी विधवा से विवाह किया है ?
यही है इस्लाम की विशेषता !!!
मानव जाति को अनवर जमाल जैसे धर्मप्रचारकों ने क्या दिया ?
...आपको इस्लाम की जो शिक्षाएं मैंने दिखाई हैं, उनमें तो आप अवैज्ञानिकता दिखा नहीं पाए और फिर वही काम किया कि आपने इस्लाम की शिक्षा का अर्थ अपनी तरफ़ से ख़ुद निकाला और उस पर ऐतराज़ कर डाला।
इस्लाम की अवैज्ञानिकता के लिए इतना काफी है कि कुरआन अन्तिम ग्रंथ और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर हैं। किसी अक्लमन्द आदमी को यह पच ही नहीं सकता कि अब कोई महान व्यक्ति पैदा नहीं होगा।
क्या आप बताएंगे कि इस्लाम कहां कहता है कि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब स. के बाद अब कोई महान आदमी नहीं होगा ?
क्या दुनिया हज़रत अली, इमाम हसन, इमाम हुसैन और इमाम जाफ़र और ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रह. आदि को महान आदमी के तौर पर नहीं जानती ?
हां, उनके बाद अब कोई पैग़ंबर नहीं होगा। पैग़ंबर का अर्थ महान आदमी नहीं होता है।
कमी आपकी अपनी जानकारी में है और ऐतराज़ कर रहे हैं आप इस्लाम पर ?
एक दावा करना है। सुना है कि कुरआन की आयतें वैसे ही कोई नहीं लिख पाया है। बीस लाख रूपये की बाजी लगाइये। एडवांस में अरबी सीखने के लिए भी ……। मेरा दावा है कि मैं उस तरह की आयत लिखकर दिखाऊंगा।
आप बीस लाख रूपये की बाज़ी लगाकर क़ुरआन जैसा ग्रंथ लिखना चाहते हैं तो हम तैयार हैं। जब चाहे आप लिखा पढ़ी कर लीजिएगा।
अंत में आपने ख़ुद कहा है कि
‘यह बात सही है मैं इस्लाम के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता।‘
भाई बहुत ज़्यादा तो छोड़िए आपको इस्लाम के बुनियादी विश्वास की जानकारी भी सही नहीं है। जैसे जैसे आप इसे बढ़ाएंगे आपकी ग़लतफ़हमियां दूर हो जाएंगी।
आपने यह भी पूछा है कि
मानव जाति को आप जैसे धर्म-प्रचारकों ने क्या दिया है, जरा विस्तार से बताएंगे। आपने देश को क्या दिया है? यह बताइए। दुआ, नमाज और सुबह-सुबह चार बजे नींद को तोड़ती हुई आवाज जब मस्जिदों से निकलती है तो वैज्ञानिकता का सबूत मिलता है।
लोगों को लाउडस्पीकर की आवाज़ से निश्चय ही तकलीफ़ होती होगी। इसके लिए मैं सभी लोगों से माफ़ी चाहता हूं। मेरा मत है लाउडस्पीकर पर अज़ान नहीं दी जानी चाहिए। इससे शोर प्रदूषण होता है। यह काम पैग़ंबर साहब के तरीक़े से हट कर हो रहा है लिहाज़ा लोगों को कष्ट दे रहा है।
आप पूछते हैं कि मैंने देश को क्या दिया है तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि देश की अखंडता की रक्षा के लिए मैं 325 लोगों एक बड़े ग्रुप के साथ कश्मीर गया और कुपवाड़ा और सोपोर जैसे आतंकवाद ग्रस्त सीमांत प्रदेश में ज़मीनी स्तर पर काम किया है। आपकी नज़र में यह काम भी तुच्छ और निंदनीय हो तो मैं क्या कर सकता हूं ?
इस्लाम के प्रभाव से मैं किसी भी प्रकार का नशा नहीं करता, न शराब का और न गुटखे आदि का। मैं न तो ब्याज लेता हूं और न ही देता हूं। अपने वालिद साहब की विरासत में अपनी बहनों को हिस्सा दे रहा हूं। मेरे वालिद साहब ने भी दिया है अपनी बहनों को। मैंने दहेज नहीं लिया और अपनी पत्नी को मेहर निकाह के समय ही अदा कर दिए। वह बीमार पड़ जाएं तो उनका इलाज कराता हूं और आजकल तो बीमारी में उनके पैर भी मैं दबाता हूं। आयु के ऐतबार से सभी औरतों को मां और बहन की नज़र देखने की कोशिश करता हूं। निर्धनों को मु़फ़्त दवा देता हूं। उनका इलाज ज़्यादा रक़म चाहता है तो दोस्तों से कलेक्शन करके भी देता हूं। मेरे दोस्त भी यही कर रहे हैं। मेरे एक मित्र ने तो 12 ऐसे बच्चे गोद ले रखे हैं जो या तो अनाथ हैं या फिर उनके मां-बाप उन्हें पालने की ताक़त नहीं रखते। कश्मीर में ज़लज़ला आया तो एक ट्रक सामान मैंने और मेरे दोस्तों ने वहां भेजा और मेरे मित्र सहायता के लिए ख़ुद भी गए। गुजरात में ज़लज़ला आया तो वहां भी यही सब किया।
इस तरह के कामों की सूची लंबी है। मैंने इन कामों के फ़ोटो और इनका तज़्करा नेट पर नहीं डाला तो आपने यह समझ लिया कि ईश्वर में आस्था रखने वालों ने, नमाज़ पढ़ने वालों ने देश और समाज को कुछ दिया ही नहीं।
यह भी आपकी जानकारी की कमी ही तो कहलाएगी।
कृप्या विचार करें।
जनाब अनावर जमाल साहब ने ...दिनेश जी के इस आलेख पर मेरा ध्यान दिलाया और मेरे विचार जानने चाहे.....
----मूल आलेख पर मैंने अपनी तर्क-युक्त टिप्पणी दे दी है...जिसका मूल अर्थ है कि भगत सिंह ने इस आलेख में स्वयं को आस्तिक ही सिद्ध किया है...एवं वे स्वर्ग में आनंद से हैं....विस्तार से जानने के लिए मूल आलेख पर टिप्पणी पढ़ें ....
---यहाँ सभी टिप्पणीकार स्वयं को आस्तिक सिद्ध कर चुके हैं ...चन्दन जी तो स्वयं को भगवान ही सिद्ध कर चुके हैं.....सत्य ही है आत्मा सो परमात्मा....अहम ब्रहमास्मि...यही तो ईश्वर के होने का स्वयं सिद्ध प्रमाण है कि उसपर सब बहस कर रहे हैं ......नास्तिक भी जब कहता हैकि एश्वर नहीं है वह भी ईश्वर का मन में विचार कर रहा होता है.....
----विज्ञान के अनुसार कुछ नहीं से कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता... ईश्वर की कल्पना मानव ने की ..इसका अर्थ है कि वह होगा तभी तो कल्पित हुआ....कल्पित तब हुआ जब मानव अपने ज्ञान के उस स्तर पर पहुंचा ...जैसे आज तक कम्प्युटर क्यों नहीं बना ...जब मानव उस ज्ञान के स्तर पर पहुंचा तब बना....पर कम्प्युटर तो ...always existed in time...बस रस्तित्व में आने की देर थी....यही ईश्वर का हाल है....
डा. अमर कुमार जी
कितनी दिलचस्प बात है.
मुझे आपकी टिप्पड़िया उबाऊ और पकाऊ लगती है.
और आपको मेरी.
हालाकि आप कह रहे है कि आप मेरी पकाऊ टिप्पड़ियो के कायल है.
पता नही ये कितना सच है या झूठ? लेकिन मै विल्कुल सच बोलूंगा
कि मै आपके उबाऊ और पकाऊ विचारो का बिल्कुल भी कायल नही हुँ. बल्कि अत्यन्त नफरत करता हूँ.
उसका भी एक कारण है .
क्यो कि मै आज तक आपकी उम्र के जितने भी लोगो से मिला हूँ उनके धर्म के प्रति और देश के प्रति विचारो मे काफी परिपक्वता , और सुलझापन पाया है. और जब मै उनकी तुलना आपके उन विचारो से करता हूँ जो मै यदा कदा ब्लागो पर देखा करता हूँ तो आपके विचार उनकी तुलना मे काफी निचले स्तर के लगते है.
आपने कहा कि आप मेरा शिष्यत्व ग्रहण करना चाहते है. चलिये आपने भले ही ये एक व्यंग्य या मजाक के रुप मे कहा हो फिर भी इसका जबाब ये है कि उम्र के स्तर पर मै इस लायक नही कि आपको अपना शिष्य बनाऊँ
और विचारो के स्तर पर मै आपको इस लायक नही समझता की आपको अपना शिष्य बनाऊ.
आप मेरी पहचान जानना चाहते है तो जब मुझे आपसे कोई मतलब ही नही है और न ही मुझे आपसे कोई रिश्तेदारी बनानी है तो फिर मै आपको अपना कुल गोत्र क्यूँ बताऊ ?
आप सशर्त कह रहे है कि आप मेरी भगवान सम्बन्धी अवधारणा मान लेँगे.
अरे भाई मुझे क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो मै आपको भगवान संबधी अवधारणाये मनवाऊ.
आप भगवान को माने या ना माने. मुझे कोई मतलब नही है.
सत्य को न मानने से सत्य बदल नही जाता.
और रही बात मेरी टिप्पणियो की जो आप यदा कदा ब्लागो पर देखते रहते है.
तो भाई मेरे दो ही विषय है एक अपने धर्म से जुड़े मुददे और दूसरा देश से जुड़े मुददे.
इन दो मुददो पर जिस भी ब्लाग पर चर्चा होगी .मै वहाँ आपको अवश्य मिलूंगा और बहस भी करुंगा .
और मुझे नही लगता कि इसके लिये मुझे आपकी परमिशन की आवश्यकता है.
आशा है आपको सारे प्रश्नो का उत्तर मिल गया होगा.
..वास्तव में वकील साहब उस पत्र की अर्थवत्ता नहीं समझे....बिंदु वार ...पत्र का अर्थ यह है........
१...समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है..."
------अर्थात --भगत सिंह यह मानते हैं कि प्रकृति कोइ वस्तु है ...यही तो ईश्वर है...
२..."..मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी
क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? "
-------- तो मनुष्य गरीब क्यों होता है , क्यों कोइ अमीर घर में पैदा होता है कोइ गरीब घर में ..मनुष्य अपने आप क्यों गरीब घर में पैदा होना चाहेगा? यह प्रकृति-न्याय है ...कर्म फल ...
३...".. ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?.."
------------ताकि भगत सिंह जैसे वीर स्वयं यह कार्य करने आगे आसकें , मानव परमुखापेक्षी ( ईश्वर मुखापेक्षी ) न होजाय ...कर्म न करे ..और प्रकृति को अकर्म का फल देना पड़े.....
४..."सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है। "
--------मिथ्या ज्ञान है भगत सिंह का...समय समय पर अन्यायी व अत्याचारी राजाओं का दमन प्रजा द्वारा किया गया है, यथा राजा वेन का जंघा भंग ..तथा धर्म नहीं ...पंथ,संप्रदाय सदा राज्य का समर्थक बनते हैं ..धर्म में कहीं भी पंथ या सम्प्रदाय बनाने की बात नहीं है , धर्म व्यक्तिगत होता है....सामयिक-धर्मानुसार-निबाह के कारण ( देश की स्वतन्त्रता -सबसे बड़ा धर्म ) भगत सिंह को धर्म का वास्तविक स्वरुप जानने का मौक़ा नहीं मिला...सिर्फ कुछ अंग्रेज़ी पुस्तकें ही पढ़ पाए थे ...इसीलिये ये विचार बने...
५...".ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। ....ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए ...जब अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, जो कि सर्वशक्तिमान है ।"
-----------एक दम सत्य विचार हैं ....यहाँ पर भगत सिंह वास्तव में आस्तिक ..बन जाते हैं ....बस .यही तो ईश्वर की महत्ता है ...
६....."इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए ....
----अर्थात ईश्वर है तो पर .. ईश्वर से काम निकालने के बाद उसे फेंक देना चाहिए ,क्या यह आस्तिकता नहीं है.? है ,और उसके साथ है वास्तव में अज्ञान जनित,नास्तिकता का ऊपरी चोला..
७ ...."स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।"
------------अर्थात ईश्वर तो है ..परन्तु वे स्वार्थ के लिए प्रार्थना नहीं करना चाहते.....जब सारे जीवन ईश्वर की प्रार्थना नहीं की...सिर्फ देश भक्ति के लिए काम किया तो अब क्यों करू ....वस्तुत: वे सारे जीवन देश के लिए क्यों काम करते रहे ....क्या उनहोंने ठेका लिया हुआ था ....अंग्रेज़ी राज में मस्त रहते क्या हानि थी ....कोऊ नृप होय हमें का हानी ....परन्तु नहीं उनके संस्कार कहते थे कि.....उन्हें ऊपर जाकर उस परम सत्ता..प्रकृति..या ईश्वर..या अपनी आत्मा ...को जबाव देना है कि उन्होंने एक नेक कर्म क्यों नहीं किया......अतः उन्होंने देश-भक्ति का का मार्ग चुना....
----------------अतः वास्तव में अपने इस पत्र द्वारा ही भगत सिंह आस्तिक सिद्ध होते हैं.....और वे स्वयं नहीं जानते थे कि वे क्या हैं....उत्सर्ग की राह पर( जो स्वयं ईश्वर की राह है ) उन्हें ईश्वर के बारेमें सैद्दान्तिक ज्ञान न था..न उन्हें जानने की आवश्यकता थी....क्योंकि ..कर्मंयेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन....
-------और वे निश्चय ही स्वर्ग के अधिकारी हैं......तथा वहाँ आनंद पूर्वक मुस्कुरा रहे होंगे...
.चँदन कुमार मिश्र
:-) आपका असँदर्भित सँदर्भ :
शब्द-सुधार के लिये धन्यवाद
इस पोस्ट की आत्मा को कुचल कर, आइये हमलोग अब कुछ देर सँधि-विच्छेद और शब्द-विग्रह खेल लें !
@ चिरँजीवी ROHIT जी,
बेनामी रह कर टट्टी की आड़ से जवाब देना आसान है, पर मुझे अपने को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि मैं ऎसे टुच्चेपन में विश्वास नहीं करता । न जाने क्यों आप अपने को लगातार शिखँडी सिद्ध करना चाहते हैं, एक ब्लॉग विशेष पर आप His Mistress's Voice के रूप में ही अधिक सोहते हैं । कृपया अपने को वहीं बघारें, बेवज़ह पोस्ट को गलत मोड़ देने की कोशिश न करें ... यह मुझे " अधजल गगरी ... " सरीखा लगता है । इसके टिप्पणी के बाद मैं आपको कोई प्रत्युत्तर देने की ज़हमत नहीं करने वाला हूँ । Beco'z You are a waste ! :-(
डा .अमर कुमार जी
इतना गुस्से से लाल मत होइये.
आपकी सेहत के लिये ठीक नही है.
और अगर आपकी जबाब सुनने की क्षमता न हो तो सवाल मत किया करिये.
दूसरी बात मै क्या हूँ? .ये मुझे अच्छी तरह पता है. आप मुझे न समझाइये की मै क्या हूँ.
और आप क्या है ? ये जानने मे मे मुझे रत्ती भर भी इंट्रेस्ट नही है.
अपनी शिखंडी की परिभाषा अपने पास रखिये.
केवल उम्र मे बड़े होने से कोई बुद्धिमान नही हो जाता .
अपनी गंदी भाषा का प्रयोग करके अपनी पोल मत खोलिये.
आप इस ब्लाग जगत के मालिक नही है. जो आपसे पूछ कर मै टिप्पणी करुंगा.
मेरा जहाँ मन चाहेगा वहाँ टिप्पणी करुंगा.
और मै बेनामी नही हूँ .मेरा नाम रोहित है.
संवाद के लिये इतना परिचय काफी है.
और जैसा की मैने पहले कहा कि मुझे आपसे रिश्तेदारी नही बनानी है. जो आपको अपना कुल गोत्र बताऊँ.
और सबसे बड़ी बात आप होते कौन है . मुझको आर्डर देने वाले?
और अंत मे एक सलाह दूंगा .
नवरत्न तेल लगाइये कूल रहिये.
मेरे चक्कर मे पढ़कर अपना खून मत जलाइये.
@ - रोहित बेटा ! जिन पुराणों में तू जगत का सच लिखा मान रहा है , उन्हें डुबा दे बेटा , तब ही तुझे ज्ञान मिलेगा !
बड़ों की नसीहत मान, भड़क मत । धर्म कुछ संस्कार भी सिखाता है। बहुत कुछ सीखना है तुझे । पुरूषार्थ कर तू , बहस न कर ।
@ - गुप्त डाक्टर जी ! आप मानते हो अद्वैतवाद को और हम मानते हैं त्रैतवाद को । व्याख्या का भेद है परंतु आत्मा , प्रकृति और ईश्वर को आप भी मानते हो और हम भी ।
धर्म में भ्रष्टाचार और पोपलीला न होती तो भगत सिंह नास्तिक न बनता ।
समाधान आर्य धर्म है , तुम्हारी पोपलीला नहीं ।
पुराणों पर वैदिक तोप नामक पुस्तक पढ़ो ।
वाह! वाह! देर से ही सही, मैं भी पहुँच गया।
रोहित जी और अमर जी दोनों के लिए द्विवेदी जी ने थोड़ी सी जगह दे दी है और टिप्पणियों की संख्या बढ़ती जा रही।
मैंने तो बाजी लगाने की बात की तो अनवर जमाल साहब ही गायब हैं।
अब श्याम गुप्ता से।(डॉ नहीं)
भगतसिंह क्या थे मुझे अब मालूम हुआ कि श्याम जी ने उनके उपर 80-90 साल शोध करके जान लिया।
निष्क्रिय लोगों के लिए भगतसिंह नहीं हैं। नर-नारायण को देखिए और ईश्वर की बात छोड़िए। आपके बस का नहीं लग रहा है भगतसिंह को समझना। हाँ सही है कि अंग्रेजी किताबों को पढ़ना कुछ हद प्रभावित करता हो लेकिन अंग्रेजी या तमिल किताब पढ़ने से चीनी किसी को नमकीन नहीं लगती, यह तो जानते ही हैं आप!
आपके सवालों और जवाबों का मैं जवाब देने की कोशिश करता हूँ।
परम आर्या साहब
नाम के आगे परम लगाने से कोई परमानन्द नही बन जाता .
आप अपनी वैदिक तोप अपने पास रखिये.
आपका ब्लाग पहले देखा था.
पता ही नही चला कि आप कहना क्या चाहते है.
जिनको आप डुबाने की बात कर रहे है उसको डुबाने के लिये कई लोग आये.
वो खुद डूब गये. लेकिन उनको नही डूबा पाये.
और आप मुझे पुरुषार्थ के बारे मे न बताइये.
मै अपने पुरुषार्थ का ढिँढोरा नही पीटता हूँ.
मै बड़ो का आदर करता हूँ लेकिन आदर करने का मतलब ये नही है की उनकी न मानने लायक बाते मान लूँ.
आप आर्य समाजी है तो रहिये लेकिन मुझे आर्य समाजी बनाने की कोशिश न करिये.
मुझे अपनी राह पता है.
श्याम जी,
एक किताब है रामकृष्ण परमहंस की 'अमृतवाणी' मैंने इस किताब तब पढ़ा जब 12-13-14 साल का था। तर्क सीखने और करने के लिए बहुत अच्छी किताब है। लेकिन तर्क भी शब्दों के जाल होते हैं। सच्चाई क्या है, यह जीवन दिखाता है तर्क और किताब नहीं।
एक कहानी सुनिए। एक गुरु ने सभी शिष्यों को शिक्षा दी कि सभी में नारायण है। एक महान शिष्य था आपकी तरह।
एक दिन एक हाथी चला आ रहा था। रास्ते पर शिष्य खड़ा था। उसने सोचा कि मैं हटूँ क्यों? मैं भी नारायण, हाथी भी नारायण, महावत भी नारायण फिर नारायण को नारायण से डर कैसा? लोग समझाते रहे लेकिन वह नारायण बना रहा और हाथी ने पटका और हाथ-पैर टूट गए। हाथी ने कुचला नहीं।
कहने का मतलब कि भगवान कहने से कोई भगवान नहीं हो जाता और मैंने जो कहा वह ऐसे ही कहा था।
बात भगतसिंह की।
1) 'भगत सिंह ने इस आलेख में स्वयं को आस्तिक ही सिद्ध किया है...एवं वे स्वर्ग में आनंद से हैं...'
कल आप कह सकते हैं कि भगतसिंह एक अवतार भी हैं। हाँ स्वर्ग और मोक्ष की धारण आलग-अलग है। वे स्वर्ग में हैं, जैसे आपने उन्हें वहाँ जाकर देखा है। या फिर भगतसिंह ने आपको खबर दी है कि वे स्वर्ग में हैं।
2) 'नास्तिक भी जब कहता हैकि एश्वर नहीं है वह भी ईश्वर का मन में विचार कर रहा होता है.....'
कैसी बेवकूफी की बातें करते हैं। जब कोई बच्चा परी के बारे सुनता है तो सोचता है। इसमें कौन सी बड़ी बात है कि आप टपक पड़े। अब विषय पर कोई विचार ही नहीं करे, यह पता नहीं आपने कैसे सोच लिया।
अब मत कहिएगा। मैंने गलत समझ लिया आपकी बातों को।
3)'.जैसे आज तक कम्प्युटर क्यों नहीं बना ...जब मानव उस ज्ञान के स्तर पर पहुंचा तब बना....पर कम्प्युटर तो ...always existed in time...बस रस्तित्व में आने की देर थी....यही ईश्वर का हाल है....'
यही बात ईश्वर के संबंध में क्यों नहीं मान लेते? क्या सन् 1800 में लोग कम्प्यूटर का अस्तित्व मानते थे। नहीं, कम्प्यूटर शब्द तक नहीं था तब। उसी तरह जब ईश्वर सामने आएगा तब स्वीकारिएगा। ये नहीं कि पहले से ही सब कुछ मानकर बैठ जाएँ।
जब कोई अस्तित्व में आए तभी तो होता है या है कहा जा सकता है।
4) 'भगत सिंह यह मानते हैं कि प्रकृति कोइ वस्तु है ...यही तो ईश्वर है..'
ईश्वर जैसी कोई वस्तु अगर प्रकृति होती तो ईश्वर के बारे कही जाने वाली एक भी बात तो मानी ही जाती। किसी भी धर्म में ईश्वर के बारे जो कुछ कहा गया है वह प्रकृति के संबंध सत्य नहीं है। क्योंकि प्रकृति में न स्वर्ग है न नर्क है, न अलौकिक है, न चमत्कार है, न शाप है न वरदान है न व्रत है न पर्व-त्यौहार हैं, न कुछ है।
आप होते कौन हैं प्रकृति के बारे में अपना सिद्धान्त झाड़ने वाले।
5) 'तो मनुष्य गरीब क्यों होता है , क्यों कोइ अमीर घर में पैदा होता है कोइ गरीब घर में ..मनुष्य अपने आप क्यों गरीब घर में पैदा होना चाहेगा? यह प्रकृति-न्याय है ...कर्म फल ...'
कुछ भी प्रकृति-न्याय नहीं है। आप भाग्यवाद को बढ़ावा दे रहे हैं और निष्क्रिय होने का सबूत भी।
अमीर और शोषक आदमी गरीबी का मुख्य कारण है न कि भाग्य और कर्म-फल। वैसे भी फल एक नहीं बहुत से कारणों पर निर्भर करता है। मेरा मानना है कि जब तक किसी काम में किसी भी तरह आदमी का हाथ है तब तक भाग्य और कर्मफल की बात छलावा है।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि मैं एक परीक्षा देता हूँ। उसकी लिखित परीक्षा में मैं उत्तीर्ण हो गया। (कारण है मेरा सवालों का जवाब देना। सवालों का जवाब देना मतलब मेरा उन सवालों का जानना जो पूछे गए थे। जानने का कारण है मेरा पढ़ना। पढ़ने का कारण है मेरी परीक्षा की तैयारी। तैयारी क्योकि मैं परीक्षा देनेवाला हूँ, यह मुझे मालूम है। इन सब बातों में कर्मफल नहीं है।) कारण बहुत से हैं। जैसे- शिक्षक का मेरे जवाबों को सही मानना और ज्यादा अंक देना। ऐसा शिक्षक के भाग्य या कर्मफल से नहीं स्वाध्याय से हुआ। अब मैं साक्षात्कार देने जाता हूँ। मैं नहीं चुना जाता। इसका कारण भाग्य नहीं मैं और साक्षात्कार लेने वाले थे। क्योंकि मैं उन्हें पसंद नहीं आया। या मैंने जो जवाब दिए वे उनको अच्छे नहीं लगे। क्यों अच्छे नहीं लगे? क्योंकि उनकी अपनी सोच बन चुकी है। सोच बनी कैसे? वातावरण, चिन्तन, मनन, अध्ययन और जीवन से। इसमें कहीं से भाग्य नहीं आता है लेकिन आप कहेंगे मेरा कर्मफल है यह!
* 'अर्थात ईश्वर है तो पर .. ईश्वर से काम निकालने के बाद उसे फेंक देना चाहिए ,क्या यह आस्तिकता नहीं है.? है ,और उसके साथ है वास्तव में अज्ञान जनित,नास्तिकता का ऊपरी चोला.'
कैसी मूर्खता की बातें करते हैं। इस बिन्दु के पहले कहते हैं कि भगतसिंह सच कह रहे हैं कि मनुष्य ने ईश्वर को पैदा किया। अज्ञानजनित नास्तिकता भगतसिंह में है ही क्योंकि आप खुदीराम बोस से भी आगे हैं। शहीदों का सम्मान करना भी नहीं आता। आलोचना करना गलत नहीं लेकिन अपने को या अपनी बातों को परम सत्य बना लेना महामूर्खता है।
पहले आप तय कर लें कि आप कहना क्या चाहते हैं? कुछ भी कहीं लिख देते हैं। स्याही और कागज नहीं लगने का फायदा मत उठाइये।
नास्तिकों का न्याय
@ आदरणीय चंदन कुमार मिश्र जी ! यहाँ आपको तो सवाल करने की छूट है लेकिन हमें जवाब देने की इजाज़त नहीं है ।
हमें आपकी 20 लाख रुपये की शर्त भी मंजूर है और हमने 2 कमेँट करके आपके पूछने पर यह भी बता दिया है कि हमारे जैसे धर्म प्रचारक मानवता को और देश को क्या दे रहे हैं ?
लेकिन भारी पड़ते देख कर वकील साहब ने हस्बे आदत वे दोनों कमेंट उड़ा दिये। लो कर लो नास्तिकों से बहस !
अब उन दोनों कमेंट्स को मेरे ब्लॉग अहसास की परतें पर देख लीजिएगा , एक ब्रेक के बाद ।
धन्यवाद !
अमर कुमार जी,
शब्दों की तरफ़ ध्यान दिला दिया तो आप अपना दर्शन झाड़े बिना माने नहीं।
जमाल साहब!
मैं द्विवेदी जी से आपके लिखे को छापने के लिए कहता हूँ। क्योंकि कोई कितना भी कटु वाक्य लिखे मुझपर ज्यादा असर नहीं होगा। अभी आप लिखिए कि आपने क्या दिया है देश को। अभी द्विवेदी जी तुरन्त कुछ नहीं करेंगे।
श्याम जी,
'-ताकि भगत सिंह जैसे वीर स्वयं यह कार्य करने आगे आ सकें , मानव परमुखापेक्षी ( ईश्वर मुखापेक्षी ) न होजाय ...कर्म न करे ..और प्रकृति को अकर्म का फल देना पड़े.....'
जब कोई स्वयम ही कुछ महान उद्देश्य लेकर आग आएगा तब भगवान का कोई महत्व रहा कहाँ? क्योंकि महान उद्देश्य किसी के पेट में नहीं होते। वे अपनी समझ से पैदा होते हैं। और फिर लाखों लोग तो एक ही संसार में एक ही बात देखते हैं। फिर भगतसिंह कोई एक ही क्यों होता है?
यानि भगतसिंह का आपके ईश्वर पर कोई जोर नहीं चलता।
कहानी तो है कैकयी और सरस्वती वाली।
श्याम जी,
शरणागति और गीता का श्लोक भी याद रखें।(18वें अध्याय का 69वाँ श्लोक)
अब।
."स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।"
इस महान वाक्य का आपने ठीक वैसे ही अर्थ लगाया है जैसे एक पंडित ने मुझे बताया था। अच्छा तो नहीं लेकिन बता दूँ कि भगवान का अर्थ क्या बताया उस पंडित ने? बलवान मतलब जिसके पास बल हो। धनवान मतलब जिसके पास धन हो और भगवान मतलब जिसके पास भग हो(स्त्री का गुप्तांग)यानि संसार की सभी स्त्रियाँ ही भगवान हैं।
मैं और जगहों पर तर्क या बहस भले ही करता रहूँ लेकिन देश और शहीदों पर मेरे दिमाग में खुराफ़ात नहीं है।
आप खुद कितनी घटिया सोच रखते हैं, इसका नमूना 'परन्तु नहीं उनके संस्कार कहते थे कि.....उन्हें ऊपर जाकर उस परम सत्ता..प्रकृति..या ईश्वर..या अपनी आत्मा ...को जबाव देना है कि उन्होंने एक नेक कर्म क्यों नहीं किया......अतः उन्होंने देश-भक्ति का का मार्ग चुना....' है।
ओह! कैसे कैसे लोग हैं। कोई अपनी जान और जवानी देश के लिए खर्च करता है वह भी नि:स्वार्थ होकर लेकिन यह देशवासी उसे स्वार्थ का कार्य बता रहा है। मतलब भगतसिंह अपने उपर जाने पर जवाब देने के चलते देश के लिए लड़ते हैं। ऐसी बातों पर मुझे आपसे कोई तर्क नहीं करना?
विवेकानन्द ने अंग्रेजों और अमेरिकनों की गोद में जीवन का कीमती समय लगा दिया। वे क्यों नहीं लड़े देश के लिए। अब यह नहीं कहना है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आध्यात्मिक गुरु हैं वे!(सुभाष चन्द्र बोस की नजर में)
एक छोटा सा उदाहरण काफी होगा कि सौ साल से पुराना रामकृष्ण मिशन है, आर्य समाज है, सारे संगठन हैं किसने देश को वैसा दिया जो भगतसिंह ने दिया।
जब कोई क्रान्तिकारी यह सोचता तक नहीं कि उसके देश के लिए जान देने से या देश के लिए जीवन लगा देने से उसे भविष्य में कोई लाभ होगा या कोई पद मिलेगा तब आप जैसे आदमी सोचते हैं कि नही वे देश के लिए उपर वाले के डर से लड़ रहे थे। एकदम घटिया विचार! शब्द संयम के साथ ही लिख रहा हूँ वरना आगे जा चुका होता।
भगत सिँह एक महान आत्मा थे. महापुरुष थे. उन्होने देश के लिये बहुत कुछ किया.
और अपनी 23 साल की छोटी जिँदगी मे अनेक कष्ट सहे.
और भगवान के बारे मे और उसकी दुनिया के बारे मे अपने विचार रखे.
लेकिन इसका मतलब ये नही है कि उन्होने जो विचार रखे वो पत्थर की लकीर हो गया.
वो भी एक इंसान थे.
कोई भगवान नही थे कि जो कह दिया वो ही सत्य हो गया.
उन्होने अपने छोटे से जीवन मे जो कष्ट सहे. समाज के लोगो की पीड़ा देखी. जो गरीबो की स्थिति देखी.
वो सब देखकर उनके मन मे भगवान के प्रति एक निराशा उत्पन्न हुयी. जिसको उन्होने पत्र मे लिख दिया.
जो स्वाभाविक भी है.
लेकिन इसको पत्थर की लकीर मानकर बहस करना बेकार है.
रोहित जी,
मैंने पहले भी कहा ऐसे तर्कों का कोई लाभ नहीं। सिर्फ़ समय की बरबादी और बेवजह बातचीत है।
भगतसिंह हों या कोई हों सभी को सोचने, बोलने और अपने विचार रखने का हक है। वैसे भगतसिंह ने जो लिखा है उसमें और आज की हालत में कोई फर्क नहीं पड़ा है। इसलिए यह बहाना नहीं चलेगा कि उस समय उन्होंने गरीबी आदि देखकर ऐसी बातें कहीं।
अब बहस बेकार हो रही है। जो जहाँ है वहीं रहेगा। लेकिन अनवर जमाल साहब को जवाब देकर मैं भी छुट्टी लूंगा इस बहस से।
जमाल साहब,
भारत के प्रकाशन विभाग से एक किताब है- शब्द-संस्कृति उसमें देवर शब्द का वर्णन है और साथ ही सैकड़ों संस्कृत शब्दों का इतिहास-भूगोल भी।
छूतछात, सती प्रथा, स्त्री शिक्षा निषेध, समुद्र पार यात्रा निषेध, ब्याज आधारित लेन देन आदि प्राचीन भारत में नहीं हैं। यह सब सन् 16-1700 के बाद की बातें हैं।
असहमति और विवाद तभी होते हैं जब कुछ सोचने वाले लोग हों। जिस किताब को एक ही आदमी ने लिखा हो और वह भी बहुत छोटी किताब, उसमें आदमी सब याद रख सकता है कि क्या-क्या लिखा है? लेकिन जब कोई बहुत बड़ी किताब लिखेंगे या हजार पात्रों वाला नाटक लिखेंगे, तब निश्चित रुप से सैकड़ों गलतियाँ होंगी।
मैं धार्मिक कर्मकांड को खुद पसंद नहीं करता लेकिन विधवाओं के साथ किसी बुरे व्यवहार की चर्चा प्राचीन या मध्यकालीन इतिहास में नहीं है। जैसे राम की माता कौशल्या आदि सतीप्रथा का शिकार नहीं होती हैं।
नियोग पर भी संदेह है। क्योंकि अगर दशरथ को पुत्र नहीं हुए तो उन्होंने अपनी जवानी में ही क्यों नहीं इसे अपनाया?
वैसे मेरा विश्वास है कि रामायण और महाभारत आदि घटित हुए नहीं हैं। किसी घटना को कविता में पूरी कल्पना से बयान किया गया है।
पैगम्बर का अर्थ उपदेशक होता है।
(पैग़ंबर, पैगंबर, पैगम्बर, देवदूत, नबी, रसूल; वह धर्माचार्य जो ईश्वर का संदेश लेकर मनुष्यों के पास आनेवाला माना जाता हो (विशेषकर मुस्लिम) ; "ईसा,मुहम्मद,मूसा आदि पैग़ंबर माने जाते हैं")
कितने अतार्किकता से आप कहते हैं कि इस बात में भी अवैज्ञानिकता दिखाऊँ कि प्यासे को पानी दो और किसी को मत सताओ। अजीब हाल है!
मान लें कि जब कोई चोर किसी रास्ते से जाता है तब रास्ते का काँटा हटा देता है ताकि उसे वापस लौटने और भागने में आसानी हो, तो उसे महात्मा नहीं कहने लगेंगे। क्योंकि आदमी सौ प्रतिशत अच्छा बनकर तो जी सकता है लेकिन सौ प्रतिशत बुरा बनकर नहीं।
इससे साफ पता चलता है कि किसी अच्छी बात से मुझे कितनी नफ़रत है कि मैंने इन अच्छी बातों की न तो आलोचना की है न इन्हें अवैज्ञानिकता वाला बताया है।
विधवा पुनर्विवाह की बात। पहले यह सुनिए।
अगर आप कुछ अलग नहीं करें तो आपको कौन याद रखेगा। अगर अज्ञेय को शेखर: एक जीवनी से, तुलसी को मानस से, बुद्ध को अहिंसा और प्रेम से, मैकमिलन को साइकिल से याद रखा जाता है वैसे ही एक दो अलग बातों की वजह से ही आपको कोई याद रखने वाला है।
धर्म सब कुछ को ज़हरीला बनाता है । और दुनिया धर्म के बगैर ज्यादा बहतर हो सकती है । क्रिस्टोफ़र हिचेन्स भी यही कहते हैं-
गॉड इज़ नॉट ग्रेट(हाऊ रिलीजन पॉइज़न्स एवरीथिंग)
जारी........
मैं नास्तिक हूँ और मुझसे भारतीय और धर्म के बारे में या धर्मग्रन्थों के बारे ज्यादा पूछना वैसे ही जैसे इतिहास के विद्वान से गणित पूछना।
'आपको भारतीय ग्रंथ देखने का बड़ा शौक़ है तो' का क्या मतलब है? पहले तो आप कहते हैं कि आप सनातन धर्म यानि हिन्दू धर्म को आदर देते हैं फिर यह वाक्य आपके अन्दर की बात को अपने आप सामने ला देता है।
जो क्रूरताएँ और घटिया बातें कुरआन में लिखी गई हैं, उन्हें भी बताइए।
'हां, उनके बाद अब कोई पैग़ंबर नहीं होगा। ' यह वाक्य मेरी ही बात की पुष्टि करता है। इसे उलट कर या बदल कर कहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
वैसे सारी कमी मेरी जानकारी में ही है? क्यों? क्योकि सारा ज्ञान आप लोगों ने हथिया लिया है।
बात रहा अपने नेकी का ढोल पीटने का तो ऐसे अन्य धर्मों के भी लोग हैं जो बारह नहीं सैकड़ों बच्चों को गोद लेकर उनकी देखभाल कर रहे हैं। वैसे मुझे लगता है कि बारह में सब मुसलमान ही होंगे।
कमी किसी में हो सकती है। लेकिन अन्य धर्मों वाले कुछ आलोचना आसानी से कर जाते हैं, जैसे हरेक हिन्दू के घर में कोई राम की आलोचना तो कृष्ण की तो कोई शिव की करता है। लेकिन आप लोगों में मैंने ऐसा नहीं देखा।
यह सम्भव है कि किसी धर्म के चलते लोगों में गलत चीजें नहीं आती हों बल्कि लोग खुद उसे बना लेते हों। बात झोपड़ी और घर की तो आप समझ ही नहीं सके कि मैंने यह बात किस लिए कही है?
उपमा और उदाहरण समझते नहीं और कह देते हैं-'घर और झोंपड़ी की कोई बात मैंने कब कही है ?
आप ख़ुद ही कह रहे हैं और ख़ुद ही ऐतराज़ कर रहे हैं। ख़ुद उदाहरण देकर उसपे ऐतराज़ करना किस तर्क शास्त्र में आपने पढ़ लिया है भाई ?'
'लोगों ने धर्म के नाम पर जो अधर्म समाज में स्थापित कर रखा है, उसकी ज़िम्मेदारी न तो धर्म पर आती है और न ही धार्मिक जनों पर'
इसका क्या मतलब है?
इस बारे मैं लिख चुका हूँ। आप मेरे लिखे को फिए से पढ़ें कि इस पर मैंने क्या कहा है?
मैं क्या मान चुका हूँ यह आप कैसे जान सकते हैं- 'आपने सही बात लिखी है। आपने मान लिया है कि इस्लाम सनातन सत्य की शिक्षा देता है। जो आपने मान लिया है, यही तो इस्लाम का दावा है। '
विधवा विवाह की बात के लिए यह बताइए कि क्या आपने सम्पूर्ण भारतीय ग्रन्थों को पढ़ लिया है? मैं तो यह दावा कर नहीं सकता। संक्षिप्त नहीं सम्पूर्ण पुराणों को पढ़ लें, उम्मीद है यह मिल जाएगा।
बात मेरे दावे की। मैंने कुरआन जैसी किताब लिखने की बात नहीं की है। बल्कि कुछ आयतें वैसे लिखकर दिखाने की बात की थी।
हाँ अगर शर्त मंजूर है तो अरबी सीखने के लिए खर्च कौन करेगा। शोध कराने वाले खर्च उठाएँ।
वास्तव में मंजूर हो तो सम्पर्क करें।
जमाल साहब,
वैसे चाहता हूँ कि आओ रामशलाका बनाकर दिखाइये।
प की जगह ओ लिखा गया। आओ नहीं आप।
@ आदरणीय चंदन बाबू ! चलिए जाने दीजिए , तैश में आने से क्या फ़ायदा ?
जब आपका ग़ुस्सा शाँत हो जाए तो इस मुददे पर फिर से बात कर लेंगे ।
आपके अरबी पढ़ने से लेकर आपके खाने पीने और निवास तक का हरेक चीज़ का बंदोबस्त कर दिया जाएगा । किसी भी दिन आप देवबंद तशरीफ़ ले आइये ।
आपका हार्दिक स्वागत है !
जमाल साहब,
तैश में आया ही नहीं मैं। वरना इतनी टिप्पणी करता ही नहीं। आगे बाद में आपके ब्लाग पर जल्द ही दिखता हूँ।
मित्रों!
उन सभी का बहुत बहुत धन्यवाद! जिन्होंने इस ब्लाग पर चली बहस में भाग लिया। भाई अनवर जमाल, रोहित और चंदन कुमार मिश्र ने बहुत तीखी बहस की और अपने अपने पक्ष पर बने रहे।मैं सुबह अदालत गया हुआ था, वापस लौटा तो अनवर जमाल की शिकायत भी मिली कि उन की दो टिप्पणियाँ मैं ने गायब कर दी हैं। मैं ने जाँच की तो वे स्पेम में पकड़ी गईं। उन्हें वापस लाया गया। उन में कौन सी बात ऐसी थी कि ब्लागस्पॉट का ऑटो-स्पेम-डिटेक्श सिस्टम उन्हें स्पेम में ले गया, ये मेरी समझ में भी नहीं आया। तकनीकी लोग ये अधिक ठीक से बता सकते हैं।
मेरी समझ में अपने पक्ष पर बने रहना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन यदि किसी को अपने आधार हिलते दिखाई दें तो उन पर पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए। दूसरी बात यह कि हमें आपस में कटुता से काम नहीं लेना चाहिए और एक दूसरे का सम्मान बनाए रखना चाहिए। बहस में हम कुतर्क न करें तो अच्छा है, कुतर्कों की कोई जमीन नहीं होती जिस तरह से इन्हें पेश करने वाला खुद जानता है कि वह कुतर्क कर रहा है उसी तरह सामने वाले को भी तुरंत पता लग जाता है और बहस के कोई मायने नहीं रह जाते। आगे की बहस बेमानी होती चली जाती है।
जहाँ तक इस प्रश्न का झगड़ा है कि ईश्वर है या नहीं, तो यह बहस वैदिक युग से चली आ रही है और निश्चित ही इस का अंत भी शीघ्र नहीं होने वाला। ये अभी लम्बे समय तक चलती रहेंगी। जो यह समझ कर बहस में उतरा है कि आज ही इस का अंत कर देगा, उसे क्या कहा जाए यह उसे स्वयं ही तय कर लेना चाहिए।
पति-पत्नी जीवन भर साथ निभाते हैं, उन के बीच आरंभ से बहुत मतभेद होते हैं और अंत तक भी बने भी रहते हैं। लेकिन फिर भी वे अपने परिवार को पूरी जिम्मेदारी के साथ संभालते हैं। इसी तरह हम सब लोग जो इंसान हैं। उन पर भी इस मानव समाज और धरती को संभाले रखने का जिम्मा है। हमें आपसी मतभेदों के रहते अपनी जिम्मेदारियों को निभाना होगा। दुनिया की खूबसूरती और खूबियों कमतर होने से बचाना और बढ़ाना होगा। हम इन आपसी विवादों को एक ओर रख कर इस जिम्मेदारी को निभाएँ तो बेहतर है।
रामशलाका और आयतें बन चुकी हैं यदि उन से मानवता को जो लाभ हानि होने हैं वे हो चुकी हैं और होती रहेंगी। हमें तो वे नए सूत्र लिखने हैं जिन से धरती के मनुष्य जीवन को बेहतर बनाया जा सके।
मेरा इस पोस्ट को लिखने का मकसद इतना ही था कि हम मतभेदों के रहते हुए भी यदि लक्ष्य एक हो तो धरती के मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने क लिए साथ काम कर सकते हैं। यह हो सकता है और होगा। जो इस के आड़े आएंगे, वे नहीं रहेंगे। न उन के जीवन रहेंगे और न ही उन के जीवन की कोई सुस्मृति।
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कुल मिलाकर अच्छी बहस रही... मैंने यद्मपि भाग नहीं लिया, दर्शक मात्र रहा, पर काफी कुछ सीखा इस से... दोनों पक्षों के बीच इस बहस का कोई हल नहीं निकलेगा यह तय था क्योंकि आस्तिकों की 'आस्था' तर्क और तथ्य के लिये कोई गुंजाइश छोड़ती ही नहीं... बहरहाल आस्तिकों को अपनी संख्या कम हो जाने की आशंका में कतई भयभीत नहीं होना चाहिये... अंधेरा क्योंकि सोते हुऐ को सुकून देता है इसलिये बना ही रहेगा, फिलहाल तो !
...
रोहित जी,
जब भगतसिंह के विचार पत्थर की लकीर नहीं तो ग्रंथों को कैसे पत्थर की लकीर मान लिया आपने।
@ प्रिय प्रवीण शाह जी ! Same to you.
बहस में दोनों पक्षों के विचार पढ़े, अच्छा ज्ञान वर्धन हुआ :)
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मेरे विचार से नास्तिक जैसा कुछ नहीं होता , हर व्यक्ति मूलरूप से आस्तिक ही है। निराशाजन्य परिस्थियों में बड़े से बड़ा आस्तिक भी खुद को नास्तिक के भुलावे में रख लेता है।
ईश्वरीय सत्ता को कई नहीं नकार सकता । कहीं राम के नाम से तो कहीं रहीम के नाम से । लेकिन एक सत्ता सर्वोपरि है जो समस्त सृष्टि का सञ्चालन कर रही है। और उस सत्ता में आस्था रखने वाला हर शख्स आस्तिक है।
पुनर्जन्म को नकारा नहीं जा सकता। सभी धर्म और दर्शन पुनर्जन्म को मानते हैं।
प्रत्यक्षम किम प्रमाणं ? अवतार स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण है, पुनर्जन्म का।
अवतार नामक बालक , कोई पहला प्रकरण नहीं है पुनर्जन्म का। समय समय पर ऐसे दृष्टांत सामने आये हैं । चूँकि हमारे पास पूर्व जन्म की स्मृतियाँ शेष नहीं रहती इसलिए पूर्वजन्म की गुत्थी अनसुलझी रह जाती है ।
इस विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है । पुनः टाइप करने के श्रम से बचने के लिए ये लिंक दे रही हूँ। जिसमें इसी विषय पर मेरे तथा साथी ब्लॉगर्स/पाठक के विचार हैं।
(1)--पुनर्जन्म और लिंग परिवर्तन - भ्रम अथवा सत्य .
http://zealzen.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html
(2)--यदि ईश्वर एक है तो भेद-भाव क्यूँ है ? -- आस्तिकता बनाम नास्तिकता
http://zealzen.blogspot.com/2011/04/blog-post_06.html
सार्थक चर्चा के लिए आभार।
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भगत सिंह के इस पत्र की मूल प्रति के बारे में कुछ जानकारी मिलेगी क्या?
भगतसिंह के पत्र की मूल प्रति के बारे में।
जी हाँ, आप भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज खरीद लें, उसमें 250वे पृष्ठ पर यह पत्र है, चमनलाल वाली किताब में। भगतसिंह के इस पत्र का हिन्दी अनुवाद किया था शिव वर्मा ने। और भगतसिंह की इस रचना को उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना माना जाता है। अपने भाई रणधीर सिंह से सिख धर्म, केश कटवाने और मिलने के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ कहा था, जब भगतसिंह लाहौर जेल में थे।
यह रचना 5-6 अक्टूबर 1930 को हुई होगी, ऐसा कहा गया है।
मेरा आशय था कि भगत सिंह का मूल पत्र किस संग्रहालय में रखा है?
मैंने चमनलाल जी से पूछा है। अब देखिए कब तक जवाब देते हैं। फिर आपको बता दूंगा।
http://www.shahidbhagatsingh.org
http://www.shahidbhagatsingh.org/index.asp?link=atheist
http://drchaman.wordpress.com/page/17/
http://www.sikhcybermuseum.org.uk/People/randhirsingh.htm
http://chamanlal-jnu.blogspot.com/
इन लिंकों को देख सकते हैं।
श्री स्मार्ट इंडियन जी,
लीजिए जवाब भेज दिया है चमनलाल जी ने।
"
ये लेख मूलत अँग्रेजी मे लिखा गया और लाला लाजपत राय की अँग्रेजी पत्रिका the people के 27 सितंबर 1931 के अंक मे छपा, तीन मूर्ति दिल्ली मे उपलबद्ध है।
चमन लाल "
@चंदन कुमार मिश्र,
भगत सिंह के जिस पत्र की बात आप लोगकर रहे है, क्या (प्रोफेसर चमन लाल के अलावा) आप में से किसी ने कभी वह मूल पत्र या उसका पठनीय चित्र देखा है? क्या वह पत्र (टेक्स्ट या अनुवाद नहीं) इंटरनैट पर देखा जा सकता है?
बिना पत्र देखे उसका प्रचार-प्रसार करना अपने आप में अन्ध-श्रद्धा या अन्ध आस्तिकता (blind faith) ही कहलायेगी। नास्तिकता की बात करने वालों को दूसरों से अपनी बात पर साक्ष्यहीन आस्था करने की आशा करने के बजाय बात कहने से पहले सबूत रखना अपेक्षित ही है।
पुनः, लम्बी-लम्बी टैंजेंशियल बहस में मेरी कोई रुचि नहीं है, यदि किसी के पास मूल पत्र का पठनीय चित्र या उसका लिंक हो, तो कृपया बताने की कृपा करें। अगले दो-एक दिन तक मैं अधिक जानकारी की आशा में यहाँ फिर आउंगा।
@ स्मार्ट इंडियन जी,
भगतसिंह के जिस लेख को सारी दुनिया प्रामाणिक मानती है। आप उसे गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो इस खोज में जुट जाइए। आप घर बैठे उसे गलत मानते हैं तो मानते रहिए। इस से किसी को क्या फर्क पड़ता है? जो सच है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। फिर भी आप चाहते हैं कि उसे चुनौती दी जाए तो भारत की अदालतें इस मुकदमे को सुनने को तैयार हैं। भारत आइए और एक मुकदमा अदालत में मेरे और चंदन जी और उन तमाम लाखों लोगों के विरुद्ध पेश कीजिए जो इस आलेख को प्रामाणिक मानते हैं। अदालत दूध का दूध पानी का पानी कर देगी। बिना किसी सबूत के एक काल्पनिक ईश्वर पर विश्वास करने वाले से इस से अधिक क्या कहा जा सकता है।
@ स्मार्ट इंडियन जी,
हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है। हम यह बहस करने गए भी नहीं थे। आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे।
श्रीमान स्मार्ट इंडियन जी,
अब तो हँसी आ रही है। क्योंकि चमनलाल जिंदा हैं और भगतसिंह पर सबसे ज्यादा अधिकृत लेखक हैं। आप कुलतार सिंह भगतसिंह के भाई हैं, जीवित हैं, उनसे मिल सकते हैं या वीरेन्द्र संधू उनकी भतीजी हैं, अभी बूढ़ी भी नहीं हैं, उनसे मिल सकते हैं और तो और छोड़िए मनोज कुमार की शहीद 1965 में आई थी, उस समय भगतसिंह की माँ भी जिंदा थीं।
सब लोग गलत हैं और रामायण आदि सारे ग्रंथ जिनका समय भी पता नहीं तो लेखक की बात कौन करे कि जो माने जाते हैं वही हैं। लेकिन अब आपसे जवाब-सवाल मैं भी नहीं करना चाहता, आप द्विवेदी के सुझाव से अदालत में मुकद्दमा ठोकिए। तुरन्त और कुछ लिख देता हूँ।
आदरणीय द्विवेदी जी,
पहले आपसे कुछ कहूंगा। आप बुरा मत मानिएगा कि किसी पर कुछ आरोप लगा रहा हूँ। सुज्ञ जी यानि हंसराज जी का जवाब आपने देख लिया है और फिर आपके जवाब पर उनका जवाब भी देख लीजिए। ये लोग कहते हैं कि ये नास्तिकों का सम्मान करते हैं लेकिन बार-बार अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष करते वही हैं जिससे ये इनकार करते हैं। सबूत के लिए आप सुज्ञ का नवीनतम जवाब देख लें।
इन स्मार्ट इंडियन को मैंने ही लिंक दिया था भगतसिंह के आलेख के लिए। लेकिन ये यहीं युद्ध नहीं ज्ञान-युद्ध शुरु कर देंगे, मैं नहीं जानता था। फिर भी मैं वीरेन्द्र संधू का पता लगाकर और कुछ चीजें इन्हें अभी बताऊंगा ही।
इससे अब वाद-विवाद मैं भी नहीं करना चाहता लेकिन इनको वह सब तो बताना ही होगा।
अब बता रहा हूँ।
स्मार्ट इंडियन जी,
पहले तो यह बताऊँ कि कांग्रेस सरकार ने भगतसिंह के दस्तावेजों को सामने आने नहीं दिया 1972-73 तक। यही कारण है कि शहीद(1965 में बनी, इसे देख लीजिए या देखे होंगे) में भगतसिंह के इस वैचारिक पक्ष का अच्छा से दर्शन नहीं हो पाता वरना जरूर दिखाया जाता। लेकिन एक चीज तो आपको मालूम है कि 1928 से 1931 तक भगतसिंह-चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 'हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ(हिसप्रस) नाम से आन्दोलन चला। लेकिन इस आन्दोलन के पहले नौजवान भारत सभा नाम से 1926 में भगतसिंह के नेतृत्त्व में पंजाब में आन्दोलन शुरु किया जा चुका था।
8-9 सितम्बर को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में बैठक हुई और भगतसिंह के पहले से चल रहे 'हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ' का नाम मार्क्स और एंजेल्स से प्रभावित होने के कारण बदल कर समाजवादी शब्द जोड़ लिया गया। इसमें मार्क्सवादी चिंतन को मानने में सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा और भगतसिंह शामिल थे।
1925 काकोरी बम कांड के बाद प्रजातांत्रिक संघ बिखरा हुआ था। 8-9 सितम्बर 1928 को चार प्रांतों के दस क्रान्तिकारी शामिल हुए। मेरे समझ से शहीद में इसी दृश्य के लिए गाना है 'कोई पंजाब से कोई यूपी से है कोई बंगाल से'। याद रखिए भगतसिंह पर मनोज कुमार की शहीद ही सबसे अच्छी फिल्म है, बाद की फिल्में तमाशा ज्यादा हैं। हाँ तो इस बैठक में चन्द्रशेखर आजाद शामिल नहीं हुए(सुरक्षा की दृष्टि से)। इसमें पंजाब और बिहार से दो-दो और एक राजस्थान के साथी शामिल हुए। अफसोस है कि बिहार के दोनों साथियों ने, जिन्होंने समाजवाद शब्द का विरोध किया था, बाद में पुलिस के लिए लाहौर केस में गवाही दी।
समाजवाद शब्द शामिल करने में भगतसिंह का साथ दिया विजयकुमार सिन्हा, शिव वर्मा(जिन्होंने मैं नास्तिक क्यों हूँ का अनुवाद किया है), सुखदेव, जयदेव कपूर और सुरेन्द्र पांडे ने किया।
यहाँ ध्यान देने लायक बात यह है कि शहीद में नौजवान भारत सभा लिखित रुप में दिखाया गया है, फिल्म की शुरुआत में ही। और सबसे जरूरी बात कि समाजवाद शब्द जुड़ा क्यों? यह सोचिए। और यही नहीं शहीद के एक गाने में संगठन का नाम भी दिखाया गया है, एकदम साफ साफ लेकिन संक्षिप्त अंग्रेजी में।
यानि जब सरकार ने भगतसिंह के दस्तावेजों के साथ आना-कानी की तब भी शहीद-1965 तक समाजवाद जैसी बात सामने है।
भगतसिंह की जेल नोटबुक भी उपलब्ध है जो जेल में लिखी गई है। उसे देखकर जो बातें उसमें नोट की गई हैं, कोई भी समझ सकता है कि यह आस्तिकों द्वारा नहीं की गई है। और समाजवाद या मार्क्सवाद हर जगह छाया हुआ है।
भगतसिंह पर मन्मथनाथ गुप्त और विष्णु प्रभाकर जैसे लोगों ने भी लिखा है। और ये दोनों आपके तुलसी से ज्यादा विश्वसनीय हैं, इतना तय है क्योंकि प्रभाकर ने 14 साल लगाकर आवारा मसीहा लिखी थी, जितनी मेहनत शायद ही कोई कर सकता है। हाँ प्रभाकर गाँधीवादी थे और उनके मित्रों ने उनकी आलोचना भी की जब भगतसिंह की जीवनी उन्होंने लिखी। राजपाल एंड सन्स से छपी है। अब पूछिएगा यह श्रद्धा क्यों? मन्मथनाथ गुप्त, प्रभाकर, शिव वर्मा सब क्रान्तिकारी रहे हैं। और मन्मथ जी दो दिन जेल जाकर पेंशन लेनेवाले क्रान्तिकारी नहीं हैं, यह ध्यान रखिए, इन्होंने विदेशी सुख नहीं भोगे हैं।
मन्मथनाथ गुप्त को काकोरी ट्रेन डकैती यानि 1925 से लेकर 1947 तक जेल में रहना पड़ा।
http://en.wikipedia.org/wiki/Hindustan_Socialist_Republican_Association
जितनी खोज आप इस सच्चाई की कर रहे हैं उतनी खोज तो रामायण और गीता की कभी नहीं की होगी।
यहाँ समाजवादी शब्द आपको नास्तिकता के लिए काफी नहीं लगता। एक सिख होने पर भी पगड़ी नहीं रखना(बाद में भी नहीं रखा) जिस वजह से रणधीर सिंह ने एक बार मिलने से ही इनकार कर दिया था।
अच्छा होता आप एकबार सम्पूर्ण दस्तावेज को पढ़ लेते।
।http://www.shahidbhagatsingh.org/dastavez/hindibook.pdf और http://samajvad.wordpress.com/2009/09/ देखिए। लेकिन जो भगतसिंह की किताब है वह अच्छी नहीं है इस साइट पर। हो सकता है कि आप डाउनलोड कर भी लें तो पढ़ नहीं पाएँ। ढंग से नहीं है।
अब बाकी बाद में। वैसे आपको अगर इतना शोध करना है तो आइए, हम भी साथ देंगे।
लेकिन इस जाँच का मकसद और मतलब आखिर है क्या?
मैं नास्तिक क्यों हूँ कि एक भी बात ऐसी नहीं थी जो मैं नास्तिक होने के पहले जानता न था। मैंने वह आलेख ही नास्तिक होने के बाद पढ़ी। और उसका उदाहरण इसलिए देना पड़ता है कि लोग कुछ समझें वरना हमारे जैसे आदमी की बात को गम्भीरता से लेने में उन्हें शर्म और पता नहीं क्या क्या हो जाती है?
यह एक छोटा सा पत्र है कोई चंद्रमा को दो टुकड़े करने की बात तो नहीं थी कि इसपर इतना शक हो गया। हम भला चमत्कार की बात करते तो कुछ सही भी था लेकिन यह क्या?
http://en.wikipedia.org/wiki/Talk%3ABhagat_Singh
और हाँ 2009 के दस्तावेज में कुलतार सिंह के हस्ताक्षर भी हैं और प्राक्कथन भी उन्हीं का है, ये सब भी जाँच कर सकते हैं।
http://www.scribd.com/doc/9728510/Jail-Note-Book-of-Shahid-Bhagat-Singh
भी देख सकते हैं।
लेकिन वही सवाल कि आखिर इस बात की जाँच क्यों हो रही है? इसका उद्देश्य तो हम भी खूब समझते हैं।
वैसे खोजबीन बुरी बात नहीं। लेकिन विवेकानद के हस्ताक्षर और उनके हाथ की छाप भी मैंने युगनायक विवेकानन्द में देखी है जो उनकी सबसे बड़ी जीवनी है। अब मैं भी उसकी सत्यता पर संदेह करके जाँच शुरु कर दूँ?
और सब छोड़िए, इतना तो लग ही रहा है कि भगतसिंह की बात से चोट पहुंच रही है। एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि वह आलेख उन्होंने नहीं लिखा तब भी क्या फर्क पड़ जाता है? उसमें ऐसा क्या लिखा है? उसके सवालों के जवाब हैं?
सारा खेल समझ में तो आ ही रहा है। अन्त में आप मुकद्दमा ठोंकिए, हम मुफ़्त में मशहूर हो जाएंगे। क्यों?
द्विवेदी जी,
लीजिए आपके इस लेख पर भी टिप्पणियों की संख्या 100 हो गई।
चंदन जी,
किसी भी सत्य को सामने लाना एक फर्ज है। उसे करने पर न कभी पाबंदी लगी है और न लगेगी।
मेरा मानना है कि फिजूल की बहस के बजाए हमें जो भी जानकारी मिलती है उसे लोगों के सामने रखना चाहिए। हम रखते हैं और रखते रहेंगे। भौतिकवादियों का संघर्ष चार्वाकों के पहले से ले कर कपिल (सांख्य)से गुजरते हुए आज तक जारी है। सांख्य की मूल अवधारणा को विज्ञान ने साबित किया है। हमारी अपनी एक परंपरा है हमे उस का निर्वाह करते रहना चाहिए।
भाववादियों के पास बहस करने के लिए कल्पना के सिवा कुछ नहीं है। वे पाँचों इंद्रियों से जाने जा सकने वाले जगत को मिथ्या और स्वप्न समझते हैं, जब कि काल्पनिक ब्रह्म को सत्य। वे तो उस अर्थ में भी ब्रह्म को नहीं जान पाते जिस अर्थ में शंकर समझते हैं।
सोते हुए को आप जगा सकते हैं लेकिन जो जाग कर भी सोने का अभिनय करे उस का क्या?
हम अपना काम कर रहे हैं, हमें यह काम संयम के साथ करते रहना चाहिए। हम वैसा करते भी हैं। पर कुतर्क का तो कोई उत्तर नहीं हो सकता न?
आदरणीय द्विवेदी जी,
आपसे सहमत लेकिन कुछ कुछ जोश या आदत से मजबूर हूँ। आपने सही कहा है। वैसे मैंने चमनलाल जी को इनकी बात भेज दी है। फिर भी कोई भगतसिंह या किसी आदर्श व्यक्ति पर उंगली उठाए तो हमें जवाब तो देना ही होगा।
लीजिए मेरा मेल और चमनलाल जी का जवाब देखिए जो पहले आया।
"
ये लेख मूलत अँग्रेजी मे लिखा गया और लाला लाजपत राय की अँग्रेजी पत्रिका the people के 27 सितंबर 1931 के अंक मे छपा, तीन मूर्ति दिल्ली मे उपलबद्ध है।
चमन लाल
Visiting Professor on Hindi Chair
The University of the West Indies,St Augustine campus,Trinidad
Professor Chaman Lal, Former Chairperson
Centre of Indian Languages
Former President,JNU Teachers Association(JNUTA)
Jawaharlal Nehru University
New Delhi-110067, India
Former President,JNUTA(2006-07
http://www.bhagatsinghstudy.blogspot.com
www.chamanlal-jnu.blogspot.com
www.drchaman.wordpress.com
www.twitter.com/DrChaman
www.facebook.com/Dr.Chaman.JNU
http://in.linkedin.com/in/chamanlaljnu
From: चंदन कुमार मिश
To: chamanlal1947@yahoo.co.in
Sent: Sunday, 26 June 2011 2:18 AM
Subject: Bhagat singh
आदरणीय प्रोफ़ेसर साहब,
फिलहाल एक सवाल है कि भगतसिंह ने मैं नास्तिक क्यों हूँ मूलत: किस भाषा में लिखा था? यह कहाँ रखी हुई है। अभी हम इसकी प्रति देख सकते हैं या नहीं। यानि भगतसिंह का यह दस्तावेज या पत्र किसी संग्रहालय में रखा है या नहीं?
अभी इतना ही।
जवाब के इन्तजार में,
चंदन कुमार मिश्र
"
चंदन जी,
बहुत बहुत धन्यवाद!
स्मार्ट इंडियन और द्विवेदी जी,
एक और प्रमाण देता हूँ। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग जिसने नेताजी और गाँधी जी दोनों के सम्पूर्ण वांगमय छापे हैं, उसकी एक किताब है 'शहीदों के खत'। 1990 में जब पद्मश्री डॉ श्याम सिंह शशि प्रकाशन विभाग के निदेशक थे तब यह किताब विनोद मिश्र ने संकलित करके छपाई। कीमत बहुत कम है, सिर्फ़ पांच रू। उसमें पृष्ठ 11 -12-13 देखिए। उससे भी वही साबित होता है कि भगतसिंह समाजवाद को मानने वाले हैं। और इसका सीधा सा मतलब है कि वे आस्तिक नहीं हैं।
कहिए तो इसकी फोटो लेकर अपने ब्लाग पर अपने पूरे जवाब के साथ लगा दूँ।
स्मार्ट इंडियन जी, आप कम से कम भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की वेबसाइट पर जाकर इस किताब की जाँच कर सकते हैं कि मैंने जिस किताब की बात कही है, वह वाकई है भी या नहीं।
http://publicationsdivision.nic.in/
लीजिए सबूत भी
http://publicationsdivision.nic.in/b_lang_index.asp#83
इस वेबपृष्ठ पर एस अक्षर से 19वें स्थान पर लिखा है।
http://publicationsdivision.nic.in/b_show.asp?id=426
उस किताब का पूरा पता भी ले लीजिए।
Shahidon Ke Khat
Author Binod Mishra
Subject Art, Culture and History
Language Hindi
Paper Binding (Rs.) 5
Description
The booklet contains some heartstirring letters from the great martyrs Bhagat Singh, Sukhdev and others, who sacrificed their lives in our national struggle for independence. These letters were written to kith and kin and also to the British authorities. The reader will have an inspiring feeling of the patriotism, courage and conviction of these great martyrs by going through these letters. The compiler, Binod Mishra is a noted journalist.
http://publicationsdivision.nic.in/Hindi/380HindiBooks.pdf
पर हिन्दी विवरण भी देख लीजिए।
आदरणीय पँडित जी..
लीजिये 108वीं हमारी भी... पर मुझे आश्चर्य तब होता है, जब बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग एक सामान्य तर्क को अपने विपरीत पाकर व्यक्तिगत आक्षेप समझ बैठते हैं और फिर मूल प्रश्न को दरकिनार कर तर्क की गोल-गोल गलियों में घूमते आरोप-प्रत्यारोप का चक्र चलाने लगते हैं ।
( यहाँ यह बात दीगर है कि इस प्रकार टिप्पणियों की सँख्या बढ़ने पर बधाईयों का आदान-प्रदान भी होता है !? )
बिना वकालतनामा के मैं यह कहना चाहूँगा कि अनुराग शर्मा ने मूल प्रति की जानकारी ही मांगी थी और बाद में गोलमोल जवाब मिलने पर इतना ज़रूर कहा कि बिना देखे किसी बात का प्रचार भी एक किस्म की आस्तिकता ही हुई तो चन्दन कहते हैं:
"यह एक छोटा सा पत्र है कोई चंद्रमा को दो टुकड़े करने की बात तो नहीं थी कि इसपर इतना शक हो गया। हम भला चमत्कार की बात करते तो कुछ सही भी था लेकिन यह क्या ?"
यह क्या है... क्या इसे टिप्पणीकार की आवेशित प्रतिक्रिया का सहज लड़कपन ही मान लिया जाये ? यहाँ तक भी बात बन सकती थी, पर आपका यह कथन कि "भगतसिंह के जिस लेख को सारी दुनिया प्रामाणिक मानती है । आप उसे गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो इस खोज में जुट जाइए । आप घर बैठे उसे गलत मानते हैं तो मानते रहिए ।".. कम से कम मुझे बुरी तरह आहत कर रहा है ( व्यथित मन लेकर सोने गया पर आखिर किसी वजह से ही.. सुबह चार बजे बिस्तर से उठ यहाँ अरदास लगा रहा हूँ )
मैं मानता हूँ कि एक नामधारी और एक बेनामी, यह दोनों लड़के अपने ज्ञान के जोश से अभद्रता की हद तक उबलने लगते हैं.. यह उनका व्यक्तित्वदोष हो सकता है... पर आपका यह कथन कि, "हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है । हम यह बहस करने गए भी नहीं थे । आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे ।" प्रश्नकर्ता के क्षोभ को किस कदर बढ़ा सकता है.. यह आप स्वयँ ही विचार करें । एक तर्कजीवी से साक्ष्य को लेकर उठाये गये बिन्दु पर ऎसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
पिछले चार वर्षों के मेरी जानकारी के आधार पर आपका व्यक्तिगत द्वेष किसी से भी नहीं रहा है, और फिर व्यक्तिगत द्वेष तो व्यक्तिगत ही होता है अतः किसी सार्वजनिक मँच पर सामाजिक महत्व के प्रश्न यथा आस्तिकता, नास्तिकता, प्रोपेगेंडा, राजनैतिक मिशन आदि पर विचार विनिमय एवँ जानकारियों के स्रोत के आदान प्रदान की सँभावनाओं को व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य से परे होना चाहिये । लगता है, टिप्पणी अनधिकृत रूप से लम्बी हो चली है.. इससे पहले कि आप मुझे दौड़ायें, मैं स्वयँ ही निकलता लेता हूँ :)
माननीय श्री अमर कुमार जी,
आपने अपने विचार रखे। अति उत्तम।(इसे भी व्यक्तिगत आक्षेप मत मान लीजिएगा)
सवाल के अनुसार मैंने कोई गोलमोल जवाब नहीं दिया था। यह आपको लगता है, कोई बात नहीं। बेनामी लड़के, जी हाँ। उम्र बताऊँ 22 साल से कम। टिप्पणियों की संख्या यहाँ किसी महाभारत रचाने के लिए नहीं लिखी थी। मैंने यूँ ही कहा कि 100 हो गईं। लेकिन फिर भी आपको इससे दुख पहुँचा तो मैं माफ़ी चाहता हूँ(वैसे यह बोलने से क्या होता है?।
मैं हमेशा वही बोलता हूँ जो मुझे लगता है लेकिन मुझमें व्यक्तिगत दोष हैं तो शायद समय के साथ-साथ दूर हो जाय।
आप कहते हैं- 'क्या इसे टिप्पणीकार की आवेशित प्रतिक्रिया का सहज लड़कपन ही मान लिया जाये ?' बोलिए इसे क्या मानूँ? आप जो कहें मैं मान लूंगा।
http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/06/blog-post.html
देख लेते तो बेहतर होता। आक्षेपों का क्रम वहीं से जारी है। मैं अपनी समझ से जवाब देता गया।
एक बार फिर से देख लें महाशय, द्विवेदी जी ने टिप्पणी संख्या 101 में क्या कहा है, उन्होंने टिप्पणियों पर कोई टिप्पणी नहीं की है। यह आपका खुद से निकाला हुआ अर्थ है। इसलिए आपके इस आरोप को मैं सिरे से खारिज करता हूँ क्योंकि 100वीं टिप्पणी लिखनेवाला व्यक्ति मैं ही हूँ।
आपसे जब अगर आपके घर का छोटा सदस्य पैसे मांगे जैसे दस साल का बच्चा 100 रु मांगे, तो आप उसका उद्देश्य पूछते हैं। मैंने भी उद्देश्य पूछा है और मैं शायद जानता भी हूँ, इसलिए आप उपरोक्त लिंक देखते तो समझ पाते कि माजरा क्या है।
और अन्त में एक परम सत्य।
अगर आपमें किसी के प्रति व्यक्तिगत द्वेष अल्पमात्रा में भी नहीं है तो आप बुद्ध हैं और हम बुद्धू। साधारण आदमी में ये गुण अगर नहीं हैं(भले ही ये दुर्गुण हैं)तो वह मिलावटी आदमी है, ऐसा मेरा अभी तक का(शायद आपके अनुसार बहुत कम)अनुभव और समझ दोनों है।
जवाब में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वाक्य था-
'
एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि वह आलेख उन्होंने नहीं लिखा तब भी क्या फर्क पड़ जाता है? उसमें ऐसा क्या लिखा है? उसके सवालों के जवाब हैं?'
और चमनलाल जी के मेल को देने का उद्देश्य था कि यह जान लिया जाय कि चमनलाल झोला छाप लेखक नहीं हैं बल्कि योग्य और भगतसिंह के अधिकृत लेखकों में हैं।
आदरणीय डॉ अमर कुमार जी,
भगतसिंह के पत्र के बारे में एक बात और कहना चाहता हूँ कि दिल्ली कहीं मंगल ग्रह पर भी नहीं है। वहाँ जाकर चमनलाल जी ने जो पता दिया है वहाँ पर देखा जा सकता है। और इसमें कुछ गलत हो तो चमनलाल सहित आधार प्रकाशन या सभी वेबसाइटों पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है कि हर जगह झूठ प्रचारि किया जा रहा है। सब के परिचित दिल्ली में होंगे ही। इतनी जिज्ञासा हो तो उन्हीं से दिखवा लें। इसमें आपको क्या गलती नजर आती है? हम किसी अदृश्य शक्ति की तो बात नहीं कर रहे थे। पूरा पता और विवरण भी मैंने पता लगाकर दिया था।
दूसरी बात, हो सकता है इससे द्विवेदी जी मुझसे भी नाराज हों जाय लेकिन मैं फिर भी कहूंगा।
मैंने किसी ऐसे ब्लागर को नहीं देखा जो दूसरों को व्यक्तिगत आक्षेप से बचने की सलाह देता हो और खुद कई जगहों पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं करता रहा हो। इसी पोस्ट से, आप खुद देखें- रोहित को आपने क्या कहा? गिनिए पहला टुच्चेपन करनेवाला, दूसरा शिखंडी जैसा व्यवहार, तीसरा उनकी टिप्पणियों को पकाऊ, चौथा अधजल गगरी, पाँचवा हिज मिस्ट्रेस वाइस, छठा अंग्रेजी में साफ शब्दों में वेस्ट,सातवाँ बघारने वाला और आठवाँ टट्टी की आड़ में जवाब देने वाला।
बस यही बात खटकती है सबको जब मैं उनकी कमियाँ गिनाता हूँ। इंटरनेट से यह सुविधा भी है कि आपको या मुझको जल्दी ही खोज सकता है कि कैसी जगह क्या लिख कर आते हैं?
अब आप ही बताइए कि आप आठ गलत संबोधन या शब्द इस्तेमाल करते हैं और व्यक्तिगत आक्षेप नहीं करने की भी बात करते हैं। मैं मानता हूँ कि बहुत जगह आपकी टिप्पणी सही भी हो सकती है लेकिन यह मैं जानता हूँ कि हर आदमी कहीं न कहीं आक्षेप लगा डालता है, कम से कम ब्लाग जगत में।
इसलिए इस व्यक्तिगत आक्षेप के प्रवचन को सभी साइटों से विदा हो जाना चाहिए। मैं पिछले 5-6 दिनों से ब्लाग जगत में सक्रिय हूँ और सिर्फ़ तीन पोस्टों पर 400 टिप्पणियों में लगभग 170-80 में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से शामिल हूँ। और यह बात मुझे लगने लगी है कि गुटबाजी हो रही है। और होना बुरी बात भी नहीं क्योंकि एक समान विचार के लोगों का ही समूह गुट है।
फिर मैं कहूंगा कि इस व्यक्तिगत आक्षेप के प्रवचन को बन्द किया जाय। मैं हर जगह यह प्रवचन सुन चुका और सारे प्रवचनकर्ता खुद यही करते हैं और दूसरों से उम्मीद करते है कि धैर्यवान बने रहो। यह बनावटीपन अच्छा नहीं।
मैं कह सकता हूँ ब्लाग जगत में बहुत और बहुत कम लोगों में इतना धैर्य है कि वे सब तटस्थ भाव से सुन लें या कहें। गाँधी या बुद्ध बनने की कोशिश नहीं करें।
एक छोटा सा सवाल है अगर किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे तो -
"बिना नास्तिक हुये भी कोई भगत सिंह(और उन जैसों पर) श्रद्धा रख सकता है या इसके लिये भी किसी नास्तिक आचार्य से ..?"
@डा० अमर कुमार
आदरणीय,
तर्क तक तो ठीक था। लेकिन प्रमाणों की तीन खेप के बाद भी यह कहा जाए कि 'आप ने जिस चिट्ठी को देखा नहीं है उसे प्रचारित करना आस्तिकता ही है,' फिर यह कह देना कि उन की लंबी बहस में कोई रुचि नहीं है, का क्या अर्थ है? यह उन की निकल लेने की घोषणा है। उन्हें शायद आशा नहीं थी कि चंदन या मैं प्रमाण प्रस्तुत कर सकेंगे। उन का सोचना रहा होगा कि अब हम यहाँ से निकल लेंगे। उन के पास भी प्रमाण पा कर इस तरह निकल लेने के सिवा कोई चारा नहीं रहा था।
ऐसे में मेरा उन्हें यह कहना कि बहस के लिए तो वे स्वयं ही पहुंचे हुए थे, अनुचित व्यहार नहीं है। हाँ, उसे कुछ रूखा अवश्य कहा जा सकता है। पर क्या करूँ बड़े भाई! बिना किसी चिकित्सक के बोले ही पिछले आठ-दस वर्षों से बिना चिकनाई की रोटियाँ खा रहा हूँ, शायद उसी का असर हो। स्मार्ट जी ने बोल्ड अक्षरों वाली अतिरिक्त टिप्पणी वहाँ चिपकाई न होती तो शायद मुझ से यह धृष्टता भी न होती।
चंदन मिश्र की ऊर्जा दाद देने लायक है। मुझे तो उन्हों ने स्मार्ट जी के निकल लेने के बाद भी अपनी बात को पूरा किया और प्रमाण प्रस्तुत किए। यदि इस ऊर्जा के साथ कोई आस्तिकता को प्रमाणित कर रहा होता तो भी मैं दाद दिए बिना नहीं रहता।
हाँ स्मार्ट जी भी इस के लिए दाद के काबिल तो हैं ही कि वे ही अंत तक टिके रहे।
@संजय @ मो सम कौन ?
संजय भाई,
क्यों नहीं। किसी व्यक्ति का आदर उस के कार्यों से होता है, न कि उस की विचारधारा के कारण। नास्तिक और आस्तिक दोनों ही प्रकार के लोगों में निंदनीय और आदरणीय लोगों की संख्या कम नहीं है।
इस पोस्ट में प्रश्न सिर्फ इतना था कि ईश्वर को न मानने पर दोजख़ (नर्क) में जाना पड़ेगा तो शायद भगतसिंह भी वहीं होंगे।
यदि वास्तव में कोई नर्क स्वर्ग हुए तो क्या उस का पैमाना ईश्वर को मानने और न मानने का विचार रखना होगा या उस के वे कर्म जो वह अपने जीवन में करता है।
वैसे आज जीवित लोगों में नर्क और स्वर्ग को मानने वालों और उसकी परवाह करने वालों की संख्या कितनी है यह सब जानते हैं।
बढियां बहस हुयी मगर जैसा कि होता आया है यह भी अनिर्णीत ही खत्म हो गयी ..
मंथन से गर्मी तो खूब उत्पन्न हुई मगर प्रकाश उतना न निकल सका ...मगर विषय ही ऐसा है ...
अतिवादी नास्तिक और आस्तिक दोनों मानवता के लिए बड़े खतरे हैं ...
कुछ समन्वय का रास्ता नहीं है क्या ?
मुझे लगता है समन्वय ही श्रेष्ठ रास्ता है ..
ईश्वर को न तो सिद्ध किया जा सकता है और न ही असिद्ध ..
मगर हाँ ईश्वरत्व का अनुभव किया जा सकता है -खूबसूरत प्रकृति के दृश्यों में ,पहाड़ों और झरनों में ,
कमनीय काया में ,बच्चे की खिलखिलाहट में ...
नास्तिकता की नीरसता और आस्तिकता की मुंदी आँख इन सबमें कहाँ आनंद पा सकती है -क्यों डॉ अमार कुमार जी ?
अपने वादे के अनुसार यहाँ हाज़िर हूँ। अब तक जो दिखा और समझ आया और जो बहस के जाल में उलझने से पहले फिर से स्पष्ट करना ज़रूरी है:
1. मैने उस पत्र को कहीं भी झूठा नहीं कहा। मैंने तो यह भी नहीं कहा कि भारत माता ने भगत सिंह जैसी बहुत सी आस्तिक संताने भी जन्मी हैं । मैंने तो यह भी नहीं याद दिलाया कि भगत सिंह नास्तिक होने के अलावा भी बहुत कुछ थे। मैने तो सिर्फ उस पत्र की मूल प्रति की जानकारी मांगी थी। फिर भी आपने ऐसे आरोप लगाये जैसे कि मूल प्रति की जानकारी मांगना पत्र को झूठा कहना हो। एक वकील यदि इन दो बातों का अंतर स्पष्ट न देख सके (या ऐसा जताये) तो उसका मतलब क्या होता है आप अच्छी प्रकार समझते होंगे।
2. अशफाक़ उल्लाह खाँ, सरदार भगत सिंह, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आज़ाद, नेताजी बोस, तात्या टोपे, मंगल पाण्डे जैसे शहीद हम भारतीयों के दिल में सदा ही रहेंगे, उनके व्यक्तिगत या धार्मिक विश्वासों से उनकी महानता में कोई कमी नहीं आने वाली है। वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण श्रद्धेय नहीं है बल्कि अपने कर्मों के कारण हैं । उनके व्यक्तित्व को छांटकर उन्हें एक देशभक्त हुतात्मा मानने के बजाय बार बार उन्हें सिर्फ़ एक नास्तिक बताकर या उनके श्वेत-श्याम चित्र में उनके साफ़े को लाल रंगकर उनके क़द को कम करने की आदत बुरी बात है। वे अविवाहित भी थे, सिर्फ़ इतने भर से दुनिया भर के अविवाहित श्रद्धेय नहीं हो जायेंगे।
3. भगत सिंह जीवन भर आस्तिक रहे हों या बाद अपने अंतिम दिनों में नास्तिक हो भी गये हों इससे यह बात झुठलाई नहीं जा सकती कि उन्होंने जीवनभर अनेकों आस्तिक क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया है, उनसे निर्देश लिये हैं और उनके साथ प्रार्थनायें गायी हैं। उनका आस्तिकों से कोई झगडा नहीं रहा। आस्था उनके लिये एक व्यक्तिगत विषय थी जैसे कि किसी भी समझदार व्यक्ति के लिये है। उसकी नास्तिकता का अर्थ न तो आस्तिकों का मुखर विरोध था न उनकी आस्था की खिल्ली उडाना और न ही उन्हें अपना विरोधी साबित करना। पुनः, उनके व्यक्तिगत विश्वास उनके नितांत अपने थे।
5. मूल पत्र या उसकी प्रति आप लोगों ने नहीं देखी है, आपके प्रचार का काम केवल इस आस्था/श्रद्धा पर टिका है कि ऐसा पत्र कभी कहीं था ज़रूर। मेरे प्रश्न के बाद अब आप लोगों के देखने का काम शुरू हुआ है तो शायद एक दिन हम लोग मूल पत्र तक पहुँच ही जायें। जब भी वह शुभ दिन आये कृपया मुझे भी ईमेल करने की कृपा करें। मुझे आशा है कि आयन्दा से यह तथाकथित नास्तिक अन्ध-आस्था के बन्धन से मुक्त होने का प्रयास करके साक्ष्य देखकर ही प्रचार कार्य में लगेंगे। अगर ऐसा हो तो हिन्दी ब्लॉगिंग की विश्वसनीयता ही बढेगी।
6. @ हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है। हम यह बहस करने गए भी नहीं थे। आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे।
आप बडे हैं, विद्वान हैं, शायद राजनीतिज्ञ भी हैं। आपकी आज्ञा सिर माथे। अगर आपको दुख हुआ तो अब नहीं आयेंगे। जो कहना होगा अपने ब्लॉग पर कह लेंगे।
शुभकामनायें!
@ डॉ. अरविंद मिश्र
हा हा हा!
आस्तिक हों या नास्तिक। रहना तो साथ साथ है। सुंदरता का अनुभव नास्तिक से अधिक कौन कर सकता है? वह उसे उस प्रकृति का गुण और व्यवहार ही मानता है, जिस में वह स्वयं भी सम्मिलित है। वह उसे किसी की देन और उपहार नहीं समझता।
नास्तिकता कहाँ नीरस है?
क्या माता पिता का साया उठ जाने पर जीवन नीरस हो जाता है?
@स्मार्ट इंडियन
आप का यहाँ सदैव स्वागत है।
यदि विरोधी विचार न टकराएँ तो संवाद का कोई अर्थ नहीं। पर यह कह कर निकल लेना कहाँ तक उचित है कि मुझे लंबी बहस में रुचि नहीं?
इतनी देर तक टिके रहने के बाद कोई अरुचि प्रकट करे तो उसे क्या कहा जाए?
पर मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह गया। उस का उत्तर तो दे दें।
यदि यह मान लिया जाए कि नर्क और स्वर्ग हैं, तो क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?
आदरणीय स्मार्ट जी,
'कुछ लोग तो इतने से जोर ईश्वर का खूँटा गाड़ देते हैं कि बेचारा ईश्वर होता तो एक ही बार में चिपटा हो जाता। '
खैर हम तो अपने को गलत ही समझ रहे हैं(कम से कम आप लोगों की बयानबाजी के बाद से)लेकिन आप सही होते हुए बार-बार वही कर रहे हैं जैसे 'हम इस खुशी में पिएंगे शराब छूट गई'।
आपने स्टालिन्। माओ का उदाहरण मेरे लिए दिया था वह भी नास्तिकता के सवाल पर। क्या आप खुद बार-बार इस डाल से उस डाल पर नहीं जा रहे।
nationalarchives.nic.in/writereaddata/html_en_files/pdf/Microfilms_Web.pdf
http://www.nehrumemorial.com/catalog.php
http://59.180.241.203/NMML/NMMLSearch/ClassificationSearch.aspx
आप यहाँ भी जा सकते हैं। कम से कम भारतीय अभिलेखागार वाली किताब से पृष्ठ 16 पर ऐसी बात जरूर पढ़ेंगे जिससे कुछ मिल पाएगा। कुछ ज्यादा नहीं।
आप बार-बार मेरे सवालों का जवाब नहीं देते और अपनी बात कह देना चाहते हैं।
मैंने अमर कुमार जी से कहा कि सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वाक्य क्या था?
हम सब ही कौन सा बरछी-भाला या लाठी-डंडा या मिसाइलें लेकर पहुँच गए थे मार-पीट करने के लिए।
'जहां सभी लोग एक तरह से सोचते हों, वहां समझना चाहिए कि दरअसल कोई भी सोचने का कष्ट नहीं करता ।
- वाल्टर लिपमैन'
सीमोन द बोउवार, कार्ल मार्क्स. जॉन स्टुअर्ट मिल, नागार्जुन, फ्रेडरिख नीत्शे, बर्ट्रेंड रसेल,
ज्याँ पाल सार्त्र, जावेद अख्तर, चार्ली चैपलीन
जेम्स रैंडी, सावरकर, बाबा आम्टे, तसलीमा नसरीन, एच जी वेल्स, माओत्से तुंग, सुभाषिणी अली, करुणानिधि, जवाहर लाल नेहरु, पेरियार
प्रकाश करात, लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, गोर्बाचोव
, लक्ष्मी सहगल आदि लोग आस्तिक नहीं हैं। भले इनमें से कुछ विवादास्पद हैं। लेकिन आस्तिकों की संख्या कम नहीं ज्यादा ही है।
लेकिन बार-बार नास्तिकों को नीचा दिखाने में कुछ बोल जाते हैं। इसलिए नास्तिक और आस्तिक की बात को ध्यान देकर लिखा गया है।
आप हों या मैं हम रोज नई नई पोस्ट बना सकते हैं और लिख सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन वाली कहानी जिसमें कपड़े के बारे में अपने मित्र के साथ घूमने निकलता है, जैसी हालत में क्यों आ जाते हैं आप बार-बार। कहते हैं कि नास्तिक से मतलब नहीं लेकिन उद्देश्य बार-बार वही नजर आ जाता है। लेकिन अगर आप सच में इस ब्लाग पर नहीं आना चाहते तो यह आपकी इच्छा है। वैसे तीखी बहस के बाद मित्रता और अच्छी हो सकती है।
आपने फिर बिन्दुवार जवाब दिया है। लेकिन मैंने भी जवाब दिया तो आप देख चुके हैं मेरे पास आपके जवाबों की किताब ही एक-दो दिन में बन जाएगी।
संजय जी,
आपको नास्तिक आचार्यों से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं है क्योंकि भगतसिंह हमारे ब्रांड नेता नहीं और हमने पार्टी नहीं बनाई है कि अपना अधिकार उनपर इस तरह दिखाएँ कि आपको श्रद्धा भी पूछकर करनी पड़े। और किसी के कहने से श्रद्धा उत्पन्न की जा सकती है, यह सौ प्रतिशत सफ़ेद झूठ है।
आप अगर मेरे नास्तिक शब्द का अर्थ जानना चाहें तो पूरी बहस में मेरे शुरु के टिप्पणियों को पढ़ें।
कोई यहाँ लड़ने नहीं आए हैं।
वैसे भी इस तरह का सर्वाधिकार मठाधीशों आदि के पास होता है हमारे पास तो अपना मठ भी नहीं है।
अरविन्द जी,
इस तरह की बहस से कुछ फैसला होगा भी नहीं। क्योंकि आस्था से तर्क टकराए तो कुछ होगा नहीं। वैसे एक मजेदार लेख यहाँ देखिए।
http://skeptic-thinkers.blogspot.com/2011/05/blog-post.html
लेकिन मैं इतनी बात तो फिर कहूंगा कि मेरे किसी सवाल का कोई जवाब दिया नहीं गया है। बस घसीटने की कोशिश हो रही है।
और जाँच करने में इतना भी कर देता हूँ कि ब्रिटिश पार्लियामेन्ट की लाइब्रेरी को या फ्रांस के नोबेल विजेता वैज्ञानिक को, आई-आई-टी को या किसी को ईमेल कर दिया है जब जरूरी सवाल लगे हैं। आज भी उस पत्र के लिए नेहरु मेमोरीयल को मेल भेज रहा हूँ।
लेकिन अब भगतसिंह की एक एक चिट्ठी की खोजबीन शुरु करें तो सिर्फ़ अविश्वास ही दिखता है जो आस्तिकों में इस कदर तो नहीं होना चाहिए।
आप किसी को कहें सिगरेट पीना अच्छी बात नहीं और बार-बार कहें। और यह भी कहें मैं उस आदमी के सिगरेट पीने से कोई मतलब नहीं रखता, यह कैसे सम्भव है। अभी आपके हर वाक्य पर जवाब देने की इच्छा है भी और नहीं भी। लेकिन जाने दें।
पहली बात मेरे ही लिखे से है।
भगतसिंह के आस्तिक होने के आधार पर या नास्तिक होने के आधार पर हमने कोई निष्कर्ष नहीं निकाले हैं।
लेकिन आपके इस वाक्य ने फिर ठेस पहुँचाया कि हम भगतसिंह के व्यक्तित्व को छाँटकर लाल साफा पहना रहे हैं। यह बात इतनी गंदी है कि आप खुद समझिए कि आप कैसा सोचते हैं। अब मुझे इसका कोई दुख भी नहीं है कि कुछ कड़े शब्द निकलें। इसका मतलब क्या है जनाब! आप कुछ भी लिखें तो भजन हो जाता है क्या? सारा संसार अपने उपर लादने की कोशिश मत करिए। अब मैं पूरे मूड में हूँ। अजीब सोचते हैं और बहाना बना रहे हैं या बना लेंगे कि ऐसे देखते हैं, वैसे देखते हैं।
सारे अविवाहितों के बारे में आप चाहे जो सोचें लेकिन सूरदास के बाद सभी अन्धे लोगों को सम्मान से सूरदास ही कहा जाता है।
अब आपको जवाब तो देने का मन अच्छा से कर रहा है लेकिन द्विवेदी जी का ब्लाग है, वे आज्ञा दें तब। मैं एक भी वाक्य छोड़नेवाला नहीं। ये पहली कक्षा नहीं है कि आप जो चाहें कहते रहें, बच्चा परम सत्य समझकर सीखता रहे।
इतना ध्यान रखिए। आपके हर बिन्दु को सागर बना देन कहीं से बुरा नहीं है। क्योंकि आप बार बार घूम कर आते हैं नास्तिक को बुरा साबित कर देन पर लेकिन कोई फायदा नहीं क्योंकि आपले सारे सवालों के जवाब हम देते गए हैं और आपने मेरे एक भी सवाल का जवाब दिया नहीं है अभी तक ठीक से।
मुझे अपनी टिप्पणी को बोल्ड करने नहीं आता और करने से मिलेगा क्या? वही लोग किताबों में रेखांकित करतते हैं जिन्हें कुछ काम का और कुछ बेकार लगे। बोल्ड करना कुछ वैसा ही है। हमें हमारी बात इस तरह की नहीं लगती रेखांकित किया जाए। अब हम का अर्थ भी नया नया नहीं निकालिएगा क्योंकि मैं बिहार का हूँ और मैं की जगह हम ज्यादा चलता है। भोजपुरी भाषी भी हूँ जिसमें एकवचन भी हम ही होता है।
इन्तजार है बस आज्ञा का। लेकिन फायदा भी तो नहीं है क्योंकि आपके जैसे दस आदमी फिर कल मिलेंगे । वही कहेंगे। आस्तिक और नास्तिक की समझ आपको अभी तक नहीं हुई जैसा कि तीन दिन पहले आपको कह चुका हूँ।
हर बार आपकी जयकार करें, हम कोई ठेके के आदमी नहीं हैं। पत्र का बहाना लेकर आपने नास्तिकों पर अपने बयान देने शुरु कर दिए हैं।
आपके पाँचवीं बिन्दु को क्या कहें? आप चाहे सैकड़ों टिप्पणी करें, कहीं अलग कुछ दिखता नहीं। बार-बार आपको कुछ भी कहा जाय लेकिन आप वस्तुनिष्ठ नहीं व्यक्तिनिष्ठ तरीके से ही देखते आ रहे हैं। बिन्दु संख्या पाँच पर तो एक एक शब्द का जवाब देने का मन है।
आपके सवाल उठाने पर हम तो पत्र के पीछे पड़ गए लेकिन आप हमारे सवाल उठाने पर किसी भी चीज के पीछे नहीं पड़िएगा, यह तय ही लग रहा है। तीसरे बिन्दु के जवाब के पहले लाला लाजपत राय के लिए भगतसिंह ने लड़ाई लड़ी। इसका अध्ययन जरूर कर लें कि लालाजी और भगतसिंह क्या और कैसे विचार रखते थे। अब इतना आलसी मत बनिएगा कि बार बार हमीं आपको सब कुछ खोजकर भेजते रहें। अन्तिम बात ध्यान रखिए।
सच बोलूं इस चर्चा को पढ़ नहीं पाया हूँ फिर भी ये लेख आपको पेश करना चाहूँगा
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/12/blog-post_15.html
अगर इससे किसी प्रकार विषयांतर होता है तो क्षमा चाहता हूँ ...
हम कल भी आदरणीय अमर कुमार जी की टिप्पणियों के कायल थे.... हैं .....आगे भी रहेंगे , उनकी टिप्पणियाँ पढ़ कर जा रहा हूँ , बाकी चर्चा समय मिलने पर पढूंगा :)
ग्लोबल अग्रवाल यानि गौरव अग्रवाल,
आप यहाँ आए। आते ही अपना अच्छा-सा संदेश हमें सुनाया। इसके लिए धन्यवाद दूँ?
इसे कहते हैं आदमी के पेट से पीपल का पेड़ पैदा होना। क्यो?
प्रोफ़ेसर चमनलाल की बात http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0803/23/1080323063_1.htm पर एक जगह तो पूरी तरह स्वीकार है क्योंकि यह आपके या आपके मित्रों के विचारों के अनुकूल है लेकिन उसी चमनलाल जी की अन्य कोई बातें आपको नहीं माननी।
अप यह न समझिएगा कि मैं इतनी आसानी से भाग जाऊंगा। वैसे भागूंगा ही नहीं आसानी और मुश्किल का सवाल बाद में।
पहले तो तो यह बताइए कि आप कहते हैं आपने पूरी चर्चा पढ़ी भी नहीं और लिंक दे गए। माफ़ी के साथ दी या नहीं, इसे मैं ध्यान देने लायक नहीं मानता। आपने शुरुआत ही की इस गलती से कि आपने बिना पढ़े हमें अपना लिंक दिया। अगर आप पूरी चर्चा को पढ़ें और मेरे लिखे को समझें तो आप समझ जाएंगे कि भगतसिंह को मैं क्या मानता हूँ और क्यों उन्हें नास्तिक बताने पर सहमति जता रहा हूँ। मैं कोई चापलूस नहीं कि किसी भी बात तब तक प्रसन्नता जताऊँ जब तक फायदा या वाहवाही मिलती रहे।
नास्तिक लोगों पर क्या-क्या किसने कहा ह, सब देख लिया। आप लोगों ने विदूषक और जोकर किसे कहा है और क्यों कहा है, यह भी मैं समझ सकता हूँ। क्योंकि किसी के नहीं रहने पर उसके बारे में टिप्पणी करने में दोनों जगह कमी नहीं देखी मैंने। आपसे निजी तौर पर कहना चाहता हूँ कि आपकी हर बात का मेरे पास जवाब है और विस्तार से दे भी सकता हूँ। आपने पुनर्जन्म वाले आलेख पर भी अपना बयान दर्ज करा दिया है। कराते रहिए।
मेरे कहे में कुछ व्यक्तिगत टिप्पणियाँ होंगी, यह तय है क्योंकि किताब और लेखक दो वस्तु नहीं हैं।
आपके आलेख में या कहीं भी हमेशा इतना दिख ही जाता है कि बेचारे आस्तिक लोग(जिन्हें आप आस्तिक कहते हैं और समाज आस्तिक कहता है) पता नहीं किस डर से नास्तिक लोगों पर अपनी बयानबाजी ज्यादा करते हैं। यहाँ अनुरोध है कि आप मेरी सभी टिप्पणियों को पढ़ें।
आपके सभी शुभचिन्तकों और आपसे भी यह कहना है कि जिन चार-पांच बिन्दुओं को आपने परोसा है उनमें कोई जान नहीं है।
अब लीजिए विस्तार से सुन लीजिए जवाब:
1) 'शहीद भगत सिंह का परिवार उन्हें नास्तिक नहीं मानता। ....'
पहली बात उनके परिवार के लोगों में मेरी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि वे सब भगतसिंह नहीं हैं।
भगतसिंह की भतीजी वीरेन्द्र संधू जिन्होंने भगतसिंह के मृत्युंजय पुरखे नाम की किताब लिखी है और शायद लंदन में रहती हैं(अगर यह सही है कि वे लंदन में स्थाई तौर पर रहती हैं, तो उनके लिए मेरे मन में कोई सम्मान नहीं है, वजह आप खुद सोचें या न समझ आए तो बाद में), उनके भाई कुलतार सिंह जो उनकी शहादत के समय 12 साल के थे और चमनलाल की किताब का प्राक्कथन लिखा है उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया और आप और आपके मित्र इस पर सवाल खड़ा कर देते हैं, रणधीर सिंह जिन्होंने भगतसिंह से मिलने से एक बार इनकार किया था जिसके बाद भगतसिंह ने वह आलेख लिखा, इन सबोंने और सम्भवत: मन्मथनाथ गुप्त ने, शिव वर्मा ने, भूपेंद्र हूजा ने (इन सबका परिचय यहाँ देना सम्भव नहीं है), इनमें से किसी ने ऐसा नहीं कहा कि भगतसिंह 1928 के बाद आस्तिक थे या किसी काल्पनिक ईश्वरीय सत्ता में उनका विश्वास था। आप बहुत ज्यादा सबूत पर विश्वास रखते हैं तो इतना कह देना चाहता हूँ कि आपनए किसी भी धर्मग्रन्थ का कोई सबूत नहीं देखा होगा। वहाँ तो यह भी स्पष्ट नहीं है गीता की रचना किसने की?
इसलिए अपना चश्मा उतारकर सच देखने की कोशिश करें और चमनलाल के एक शोध को मानने और दूसरे शोध को न मानने का महान कार्य अंजाम न दें।
आप ज्यादा जिज्ञासु हैं और शोध के इच्छुक हैं तो मैं आपके साथ हूँ। क्योंकि शोध में मुझे मजा भी आता है। आपमें से यानि आपमें या आपके किसी मित्र में चमनलाल को गलत साबित करने की क्षमता हो तो अदालत का दरवाजा खुला है। अखबात पढ़कर शोध नहीं किया जाता। और हाँ विष्णु प्रभाकर को भी देख लें(वे गाँधीवादी होते हुए भी नास्तिक थे और राममनोहर लोहिया भी वैसे ही थे, कुछ कुछ जयप्रकाश नारायण भी वैसे ही थे, चन्द्रशेखर आजाद भी कुछ कुछ वैसे ही रहे होंगे जैसा कि संगठन के नाम से लगता है।)
इसलिए चमनलाल का इस्तेमाल नहीं करें। मैं भगतसिंह या किसी की खोजबीन में पीछे नहीं हटनेवाला।
उम्मीद करता हूँ आपके पहले बिन्दु का जवाब मैंने दे दिया। अब दूसरे बिन्दु को उठाते हैं।
2) 'भगतसिंह द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में लिखी गई डायरी में उर्दू में लिखी कुछ पंक्तियों से भी इस बात का अहसास होता है | डायरी के पेज नंबर 124 पर भगतसिंह ने लिखा है- दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो गम की घड़ी को भी खुशी से गुलजार कर दे। इसी पेज पर उन्होंने यह भी लिखा है- छेड़ ना फरिश्ते तू जिक्र-ए-गम, क्यों याद दिलाते हो भूला हुआ अफसाना।'
ओह क्या सोचते हैं और लिख देते हैं? यह बात चमनलाल ने छुपाई है क्या? उनकी किताब के 2009 संस्करण में चमनलाल स्पष्ट लिखते हैं कि शेर किसके हैं यह पता नहीं चल है। पृष्ठ 379 पर देखें। भगतसिंह की जेल डायरी के 124वें नहीं 24वें (वास्तव में पृष्ट 27) पर है यह अंश।
चमनलाल ने इसे तोड़-मरोड़कर तो लिखा नहीं है। जब वे इसे देने से नहीं डरते तो आस्तिकों को डर हो जाता है, अजीब बात है!
अब देखिए घटिया शोध की बात। जिन महानुभाव ने यह शोध किया है उनसे पूछिए कि भगतसिंह की डायरी में सिर्फ़ यही छ: पंक्तियाँ हैं या और कुछ है। आप जान लें उनकी डायरी में 90 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ़ अनीश्वरवादी दार्शनिकों, लेखकों का है और बहुत कुछ पूँजीवाद के विरुद्ध है। इतना ही नहीं साम्यवाद के पक्ष में भी बहुत कुछ है और इतना है कि किसी एक पन्ने के फुटनोट जितना भी आपके द्वारा बताए शोध का छ: वाक्य नहीं है। इसलिए सनसनी फैलाकर पचासों साल से चल रही विचारधारा पर अपना हाथ-पाँव मारने से पहले सोचना चाहिए कि आप आवारा मसीहा के लेखक नहीं हैं।
कुछ बात आपके मित्रों के लिए।
संयोगवश वहाँ भी स्मार्ट इंडियन साहब हैं। लेकिन मैं यह नहीं समझा कि अगर वे सचमुच निष्पक्षता वाले और जिज्ञासु आदमी हैं तो 2010 में 15 दिसम्बर को लिखे आपके आलेख के बाद 16+31+28+31+30+31+26= 193 दिनों तक
कहाँ थे? भगतसिंह के लिखे पर उन्होंने पहले क्यों नहीं संदेह किया? आप खुद उन्हें और अपने को फँसा रहे हैं यह लिंक देकर। आखिर आपलोग कहाँ थे इतने दिन तक। नाम लेकर बोलता हूँ - हंसराज कहाँ थे? यह इसलिए पूछा गया कि आप सच यानि सत्य के अन्वेषी नहीं बल्कि हमारे जैसे नास्तिकता के पक्षधर लोगों से द्वेष भावना रखने वाले लोग हैं। बहाना बनाते हैं कि नास्तिक आस्तिक में क्या रखा है, भगतसिंह को मत बाँटो लेकिन आप सब क्या कर रहे हैं? आपका लेख क्या दिखाना चाहता है? यही तो कि आप सब भले, देशप्रेमी और अच्छे लोग हैं और नास्तिक बुरे हैं। कभी कभार कुछ अच्छी बातें तो कोई भी कर देता है, आपने भी की है टिप्पणियों में।
सिर्फ़ नास्तिकों को परेशान करने में और उन्हें जैसे मौका मिले गलत साबित करने में ही आपसब अपनी ऊर्जा खर्च कर जाते हैं।
और एक बात सभी मित्रों तक पहुँचाइये कि विपत्ति में सही चरित्र का पता चलता है। तो आप सब जो शीलवान और सदाचारी होने का अभिनय करते फिर रहे हैं, मेरी कुछ टिप्पणियों से घबड़ा क्यों गए? क्यों अपशब्दों की बरसात करनी शुरु की? क्यों व्यक्तिगत आक्षेप को आगे बढ़ाया? धैर्य था तो बुद्ध की तरह गालियाँ भी सुन सकते थे। सच तो यह है कि आप सब नकाब पहन कर देश का, सदाचार का बस नास्तिकों के पीछे हाथ-धोकर पड़े हैं लेकिन याद रखिए नास्तिक खासकर भारतीय नास्तिक कभी भी इतना बेवकूफ़ नहीं होता जनाब।
अनुपस्थिति में बीसियों विशेषण कह डालते हैं आप सब। जी हाँ आप क्योंकि बचकानी कहानियों पर आनन्द तो आपको भी आता है। आपको भी मैं तीनों पोस्ट पर देख रहा हूँ। मैं हट क्या गया सब बहादुर और ज्ञानी लोग वहाँ आ पहुँचे।
स्मार्ट इंडियन की छ: महीने पहले की टिप्पणी यही है न!
"उनके लिये एक छोटे से जीवनकाल में नास्तिकता, गीतापाठ, देशभक्ति और शहादत सभी कर पाना सम्भव था। मगर याद रहे कि वे नास्तिक थे धर्मविरोधी नहीं। हंसी तो तब आती है जब धर्म-विरोधी विचारधारा (यथा कम्युनिस्ट, मार्क्सवादी, माओवादी, हिरण्यकश्यपवादी आदि) नास्तिकता का मुखौटा लगाकर घूमते हैं।
भगत सिंह की बात समझने के लिये आस्तिक, नास्तिक और धर्मविरोधी का अंतर समझना ज़रूरी है।
एक बार फिर आभार!"
मैं कम्युनिस्ट नहीं लेकिन इतना दावा करता हूँ कि आपमें से कोई मार्क्स के सिद्धान्त तक कभी वैचारिक रुप से पहुँच ही नहीं पाया और शायद पाएंगे भी नहीं।
यहाँ बार बार आपसब मिलकर नास्तिक-नास्तिक-नास्तिक-नास्तिक और सिर्फ़ नास्तिक शब्द को पीस रहे हैं, चबा रहे हैं और घोल कर पी रहे हैं। जितनी फुरसत किसी नास्तिक को यह सोचने की नहीं है कि वह नास्तिक नहीं है उससे कई गुनी ऊर्जा और फुरसत आप जैसे लोगों को है। तो कीजिए यही दिनभर।
इस बिन्दु के लिए इतना तो बहुत है। लेकिन एक बार कह देता हूँ कि भगतसिंह की डायरी के आधे पन्ने को आधार बनाकर शोध कर डालनेवाले लोगों से कहिए कि बाकी के 145 पन्नों पर जिनपर भगतसिंह ने लिखे हैं(कुल पन्ने 404 थे जिनमें से अलग-अलग 145 पन्नों पर भगतसिंह ने लिखा है लेकिन 100 पन्ने कहाँ हैं, इसका पता नहीं चला है क्योंकि 305 से लेकर 404 तक डायरी में नहीं हैं) उसके एक प्रतिशत के आधे का आधे से भी कम सिर्फ़ छ: पँक्तियाँ ज्यादा महत्व की कैसे हो जाती हैं। उनमें न कोई विचार है न कोई तथ्य है यानि चिन्तन और अध्ययन से नोट की हुई हैं वे।
ऐसे अगर मैं आपके प्रोफ़ाइल को देखकर आपकी जीवनी लिख डालूँ तो कैसा होगा? समझिए, उन्मादी लोगों को समझाइए।
अब तीसरे बिन्दु को लेते हैं।
अब देखिए जब भगतसिंह को फाँसी हुई तब उनके पौत्र की कल्पना तो हम कर ही नहीं सकते। उनकी बातों को कोई महत्व देना बेकार है। लेकिन देखने की बात तो यह है कि कुलतार सिंह को ऐतराज नहीं है वरना वे चमनलाल से कुछ कहते जरूर लेकिन यह बच्चा अब जवाब उनके बारे में उनसे ज्यादा जानता है। उस बच्चे यानि पौत्र में और हममें कोई फर्क नहीं है। क्योंकि हमने भी भगतसिंह की तस्वीरों से उनको देखा है और उनके पौत्र ने भी। और उनके परिवार के लोगों में कौन इतना महान था जितना भगतसिंह, ध्यान रहे बात भगतसिंह के बाद की कर रहा हूँ।
भगतसिंह के पिता 1937 से 44 तक पंजाब में एम एल ए रहे(यह बात कुलतार सिंह कह रहे हैं)।
उनके यहाँ आर्यसमाज का महत्व ज्यादा रहा।
परिवारवाद को मैं ज्यादा महत्व नहीं देता। उदाहरण चाहिए तो देता हूँ। आप नहीं सोच सकते लाल बहादुर शास्त्री जैसे महान आदमी के पुत्र आज भी कांग्रेस की मुख्य पत्रिका में हैं और पार्टी से जुड़े हैं। या गाँधी जी के खानदान के बहुत से लोग विदेशों में रह रहे हैं और भारत के लिए गाँधी का सपना कुछ हद तक भी पूरा नहीं हुआ। इसलिए कहा कि परिवार के लोग हमेशा महान नहीं रहे। आप देख सकते हैं पूरे इतिहास में कि कितने महान लोगों के माँ-बाप-भाई-बहन-रिश्तेदार के नाम लोग जानते हैं। ऐसे उदाहरण एकदम शून्य जितने हैं।
एक और बात जान लीजिए कि मैं गाँधी के सिद्धान्तों को भगतसिंह से ज्यादा महत्व देता हूँ और वे आस्तिक हैं। मैंने नास्तिक होने के बाद जाना कि भगतसिंह नास्तिक थे।
इसलिए अपने लोगों से कहिए कि बेकार में अपना खून न जलाएँ। कम्युनिस्ट भारत में तो बिल्कुल नकली जैसे हैं। मार्क्सवादी चिन्तन की आप आलोचना करते करते दस टन कागज पर स्याही उड़ेल लीजिए लेकिन यह परम सत्य है कि कार्ल मार्क्स ने एक मौलिक और उच्च सिद्धान्त प्रस्तुत किया। यह संभव है कि वह भारत के लायक उसी रुप में नहीं हो लेकिन उसकी मौलिकता और सुन्दरता पर आप जैसे सोच सकते हैं, इसमें मुझे सन्देह है। मैं धार्मिक ग्रन्थों को आदर दे सकता हूँ लेकिन आस्तिक लोग नास्तिक दर्शन को नहीं दे सकते।
इसका सबूत जल्दी मिलेगा कि मैं पुराणों पर एक आलेख लिखने वाला हूँ जिससे पता चलेगा कि मेरे जैसा नास्तिक क्या सोचता है इन ग्रन्थों के बारे में।
शायद आप यकीन ना करें ..... ऐसी चर्चा में ही मुझे भी आनंद आता है , लेकिन अभी जितना कह सकता था उतना ही कह कर जा रहा हूँ ....आपने लेख पर विचार व्यक्त करने के लिए जो समय निकाला उसके लिए आभारी हूँ आपका ..दिल से आभारी हूँ ...ये लिंक भी शायद इसलिए दिया हो ? है ना ?:)
अपने मित्रों का झुण्ड बना कर चर्चाएँ की आदत अपनी भी नहीं है दोस्त , बस ये बात है की कभी कभी वक्त से मित्रता नहीं रहा पाती :)
आपके धार्मिक वचन हैं- समत्वं योग: उच्यते। लेकिन मार्क्स ने बताया कि कैसे?
सर्वभूतहितेरता:, समानता चिल्लाते रहे धर्म और समता की बात बताई मार्क्स ने। यह अलग बात है कि उसे भारत में उस रुप में लागू नहीं किया जा सका। और वह कुछ असफल भी है। लेकिन इलेक्ट्रान के बारे में बताने वाले से पहले के वैज्ञानिक का महत्व इससे घट नहीं जाता।
अब 4)'उनके दादा भगतसिंह भगवान, किस्मत तथा कर्मों के फल के नाम पर लोगों के अकर्मण्य बन जाने के खिलाफ थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह नास्तिक थे।
http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0803/23/1080323063_1.htm'
मतलब कुछ भी कहो, कहते और तर्क-प्रमाण देते देते मर जाओ लेकिन वे आस्तिक ही थे। नहीं?
उनके दादा यह बात कितनी बेवकूफी वाली है।
बुद्ध के दादा हिन्दू थे, ईसाई यहूदी थे, मेरे पिता घोर आस्तिक हैं तो क्या मैं उनका सम्मान नहीं करता? दादा और पोते की बात कहते समय यह सोचने में कटौती क्यों कि उनके दादा भगतसिंह क्यों नहीं बन गए?
मेरा कहने का मतलब कहीं से यह नहीं है कि आस्तिक होना या नास्तिक होना देशभक्त के लिए अनिवार्य है। सबूत खुदीराम बोस जो भगतसिंह के जन्म के अगले साल 19 साल की उम्र में फाँसी चढ़े और भारत में उन्होंने जिस तरह के काम किए वही काम भगतसिंह ने भारत में और ऊधम सिंह ने इंग्लैंड में किया।
मैं बहुत से आस्तिक लोगों के विचारों को मानता हूँ, सम्मान देता हूँ लेकिन आपलोग खूँटा वहीं गाड़े रहेंगे कि नास्तिक पापी है।
यह किसने कहा कि नास्तिक होना भगतसिंह के देशभक्ति का प्रमाण है? कैसी उलूल-जलूल बातें कह देत हैं आप सब बिना जाने समझे?
भगतसिंह की पहली गिरफ़्तारी मई 1927 में हुई, जिसका संबन्ध 1926 के दशहरे के मेले में हुए बम विस्फ़ोट से था। आप सब भगतसिंह की जो फोटो देखते हैं जिनमें उनके केश हैं लेकिन खुले यानि पगड़ी नहीं है और बगल में डीएसपी गोपाल सिंह उनसे पूछताछ कर रहा है। इस समय उनकी उम्र 20 साल भी नहीं थी। और उस समय तो उन्होंने नास्तिक वाला आलेख भी नहीं लिखा था। कहने का अर्थ यह है कि नास्तिकता से देश का की ऐसा सम्बन्ध तो है ही नहीं लेकिन आप सब अपने को श्रेष्ठ साबित करने पे तुले हुए लोग हैं जिनके पास सिवाय गुस्सा और ऊटपटांग शोध के कुछ नहीं है।
आपसब बार-बार नारा लगाते हैं कि देश का संबन्ध नास्तिकता से नहीं है लेकिन यह लेख क्यों लिखा? यही बताने के लिए या कहिए भगतसिंह पर संदेह पैदा करने के लिए या अपने को महान सत्यान्वेषी बनाने के लिए।
आप भूल कर भी ऐसा नहीं करें कि कहीं कुछ देखा और लिख डाला बड़ा सा लेख। खासकर तब जब वह देश और महान लोगों से जुड़ा है।
आखिर वजह क्या है कि आप सब भगतसिंह के उस बयान के खिलाफ़ उठ खड़े हुए हैं? हमने आपके गप्पों का प्रमाण इस तरह से नहीं मांगा। लेकिन इतना तय मान लीजिए कि शोध में हम भी किसी हद तक जाने को तैयार हैं। लिखने से पहले कुछ तो सोच ही लेते।
मुझे लगता है कि बहुत से लोग मेरी इस टिप्पणी में फिर आक्षेप निकालेंगे, उनको मैंने पहले ही जवाब दे दिया है। मैं बुद्ध नहीं हूँ।
आपने शीर्षक रखा है
'भगत सिंह नास्तिक थे या आस्तिक ? चर्चा और आज का युवा'
आपका अगर यही मानना है कि सारे नास्तिक मूर्ख होते हैं तब क्या जरूरत है नास्तिकों पर समय और मेहनत खर्च करने की।
अगर किसी का नास्तिक होना इतना खटकता है तो जाइए भारत में इसके खिलाफ़ कानून बनवा लीजिए, मुकद्दमा हम जीतेंगे, दावा है।
अब कहिए चारों बिन्दुओं का जवाब मिल गया या नहीं? और कुछ सवाल हैं तो अब इस तरह मुझे लगने लगा है कि आप लोगों के किताब लिखनी पड़ेगी या अपने ब्लाग पर एक अलग सवाल खंड बनाना पड़ेगा ताकि आप आएँ, अपने सवाल पूछें और मैं जवाब दूँ।
अभी इतना काफ़ी है। काम नहीं चल पाए तो मैं भागने वाला नहीं हूँ कम से कम इस बार तो जरूर। दो ब्लागों पर सीधे लिखा कि अब टिप्पणी नहीं करूंगा लेकिन वे दोनों ब्लाग मेरे खिलाफ़ नोटिस जारी करें तो मैं हट गया। और कोई कुछ भी कह ले मेरा अपना ब्लाग तो है ही इनसब कामों के लिए।
मुझे भी लगता है कि इस टिप्पणी में मैंने विषय से हटकर जमकर व्यक्तिगत बातें की। आखिर मैं कब तक झेलता। आप लोगों के भगवान शिशुपाल की 100 गाली तक जा सकते हैं तो मैं भी 200 तक पहुँच गया हूँ।
मन हल्का करना हो तो http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/06/blog-post_17.html पढ़ लें।
अब आगे आप कहिए, क्या हाल है?
अब एक बात राहुल सांकृत्यायन की और भगतसिंह के गीता मांगने की।
पहली बात आस्तिक उधार के ज्ञान पर ज्यादा चलता है।(कुछ अपवाद सम्भव हैं)नास्तिक स्वयं हासिल करता है। कौन बड़ा वैज्ञानिक है, स्वयं तय कर लें। भगतसिंह ने गीता क्या मांग ली, आप तो उन्हें महा आस्तिक साबित कर लेंगे इतने भर से?
अब मैं छठ में घर जाता हूँ तो घाट पर सूप या अर्घ्य देने वाले पात्र को लेकर जाता हूँ, तो क्या इससे मैंने छ्ठी मैया जैसे काल्पनिक शक्ति को स्वीकार कर लिया? घर पर घर के सदस्यों की सहायता करना जब वे नास्तिक नहीं हैं, ये भी आपकी समझ में आस्तिकता है ही? आप तो मेरे एक साल में सिर्फ़ दो समय कुछ सौ मीटर घाट पर जाने को लेकर आस्तिक साबिर कर लेंगे, क्यों? मूर्खतापूर्ण कु-शोध से बचिए।
आप जानते हों तो ठीक नहीं तो बता दूँ कि रामप्रसाद बिस्मिल और खुदीराम बोस(सम्भवत:)गीता लेकर फाँसी चढ़े। हो सकता है कि गीता के जोर शोर को देखकर भगतसिंह ने गीता मांगी हो। मैं स्वयं अपने कम्प्यूटर में बहुत सारे धर्मग्रन्थों को रखे हुए हूँ लेकिन पढ़ने के लिए।
अब एक ऐसे शख्स के बारे में जिसे आप जानते ही होंगे।
नाम राहुल सांकृत्यायन, किताबें लिखीं 110 से ज्यादा, 24 या 36 भाषाओं के विद्वान माने जाते हैं और जानकारी यानी बोलने-लिखने-पढ़ने भर 100 से अधिक भाषाओं की, वस्त्र-लगभग धोती-कुर्ता, काम- भारत के सबसे विद्वान लेखकों में से अन्यतम।
सबसे पहले युवा हिन्दू संन्यासी थे। बाद में आर्य समाजी, फिर बौद्ध और अन्त में पुनर्जन्म को नहीं मानने से मार्क्सवादी। कम्युनिस्ट लेकिन भाषा के इतने आग्रही कि हिन्दी को लेकर पार्टी से अलग हो गए। हिन्दी में 80-90 से अधिक किताबें। दर्शन-इतिहास-धर्म-नाटक-कहानी-विज्ञान-समाजशास्त्र आदि पर शानदार रचनाएँ।
धर्मग्रन्थों और धर्म पर भी कई किताबें। उदाहर्ण के लिए अभी इसी वक्त मेरे पास है इस्लाम धर्म पर उनकी किताब।
तो क्या वे धर्मों पर किताब लिखने और पढ़ने से आस्तिक हो गए? संयोगवश मेरे जिले से उनका अत्यन्त निकट और अपरिहार्य संबन्ध।
उनकी जीवनी पढ़ें। अब देखिए शोध किसे कहते हैं। पटना संग्रहालय में एक विशेष भाग है जिसे उनके नाम पर राहुल सांकृत्यायन दीर्घा कहते हैं। खच्चरों पर लाद कर छ: सौ से ज्यादा पांडुलिपियाँ आदि तिब्बत आदि जगहों से लाए। वैसे वैसे ग्रन्थों की प्रति जो भारत में नष्ट हो चुके थे लेकिन कहीं बचे हुए थे उसे भी खोजकर लाए।
और हाँ, यह तो हमेशा याद रखिए कि हमें नास्तिक होने के लिए भगतसिंह की जरूरत भी नहीं है क्योंकि भगतसिंह के जन्म के पहले भी हजारों नास्तिक रहे हैं।
मैंने उपर कहा है कि नास्तिक होने के बावजूद भगतसिंह का उदाहरण हम क्यों देते हैं? यह पढ़े और समझे बिना अपने सवाल मत किया करें। लिखने में भी समय लगता है। आप खुद समझ रहे होंगे कि इतने लम्बे जवाब में समय कितना लगता है। वैसे आप सबों ने धर्मशाला समझ रखा है या कम्प्यूटर का सर्च इंजन? इतनी बातों का जवाब किसी को ऐसे नहीं देता, लेकिन नहीं देना पसन्द नहीं था इसलिए दिया।
गीता क्या मांग दी, मानो पहाड़ टूट गया। यानि इस हिसाब से कामसूत्र पढ़नेवाली हर स्त्री वेश्या या सिर्फ़ कामाचारिणी हो गई? देखिए बन्धु तर्क और शोध समोसे नहीं हैं जो दुकान पर गए, जेब से पैसे निकाले और खा कर चल दिए। शोध अगर किया भी तो इतनी जल्दी तो नहीं कर डालना चाहिए कि एक आलेख(नवभारत टाइम्स या कोई अखबार कुछ लिखे और शुरु हो गए!)देखा और भगतसिंह पर 70 टिप्पणियों वाला विद्वत्तापूर्ण आलेख छाप दिया।
हम कोई नास्तिकता की पार्टी नहीं खड़ी कर दें तो आप सब पता नहीं किस किस रुप में हमले कर डालेंगे? अभी तो सिर्फ़ विचार व्यक्त किया और आपके विचार सुने भी, तो इतनी परेशानी में हैं।
एक कहानी सुनिए और अपना नजरिया बदलिए। हम आपको आस्तिक से नास्तिक नहीं बना रहे हैं। अब आपके सभी बिन्दुओं पर विस्तार चर्चा कर ली है।
कहानी सुनिए।
एक आदमी सड़क से गुजर रहा था। रास्ते के बगल में उसने देखा बहुत से लोग एक घर बनाने के लिए पत्थर तोड़ रहे थे। वह वहाँ गया और पहले मजदूर से पूछा-' क्या हो रहा है?' मजदूर ने जवाब दिया- 'देख नहीं रह हो? पत्थर तोड़ रहा हूँ।'
आगे बढ़कर दूसरे मजदूर से वही सवाल। इस बार जवाब मिला-'रोजी-रोटी के लिए काम कर रहे हैं'
फिर आगे जाकर तीसरे मजदूर से वही सवाल और जवाब मिल-'घर बना रहे हैं।'
बस समझिए कहानी और मेरी टिप्पणियों पर सवाल खड़ा करने से पहले मेरी सभी टिप्पणियों को पढ़ और समझ डालिए। तब जाकर कोई सवाल कीजिए। क्योंकि जवाब देना आसान नहीं है सवाल कर देना बहुत आसान है।
कोई सारांश लिख दे इन १३२ (सु/कु/-) विचारों का तो शायद कुछ कहने को मिले. सरसरी निगाह पर पढ़ा तो नीरजकी बात जमी और अमरजी की बात तो हमेशा ही सही लगती है मुझे. अनुरागजी से मैं आशा करता हूँ कि वो कुछ लिखकर एक नए नजरिये से अपनी बात का विस्तार करेंगे.
जहाँ तक आस्तिकता का सवाल है तो मुझे नही लगता आस्तिकता किसी भी मानवीय कार्य में बाधक हो सकती है. आस्तिक होना कईयों के लिए मानवता के लिए कार्य करने की प्रेरणा बनते हैं. मुझे नहीं लगता उदहारण की जरुरत है. आस्तिकता/नास्तिकता दोनों की किसी व्यक्ति को एक ही तरह के काम करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. फिर अपने आप को आस्तिक और नास्तिक दोनों कहना भी एक तरह के फैशन का हिस्सा है, किसी एक वर्ग में फैशन के तौर पर कहने वाले कम-ज्यादा हो सकते है.
महान व्यक्ति भी हर इंसान की ही तरह होता है और उसके व्यक्तित्व के भी कई पहलु होते हैं. जरूरी नहीं उन सभी पहलुओं से उसकी वो महानता सिद्ध होती है. हर पहलु को अलग-अलग रूप में देखना चाहिए. कई लोग जिनके झंडे पोस्टर के नीचे हम खड़े होते हैं उनके बारे में हम सवाल ही नहीं उठाते क्योंकि हम उनके अंध भक्त होते हैं. और कई बार हम उनकी उन बातों को भी प्रचारित करते हैं जहाँ उनकी आवश्यकता भी नहीं. आस्तिक से नास्तिक और नास्तिक से आस्तिक लोग होते हैं ये उनकी निजी सोच, परिवेश और अध्ययन पर निर्भर करता है. घोर अध्ययन आस्तिक भी बनाता है नास्तिक भी. ( ओन अ साइड नोट: बिना भय और स्वार्थ के भी धर्म का प्रचार होता है. नहीं तो आज बुद्ध धर्म का अस्तित्व नहीं होता !) . सभी महान वैज्ञानिक घोर नास्तिक होते हैं ऐसा भी तो नहीं ?
और धर्म ही नहीं व्यक्ति देश या फिर कुछ भी हो. हमें आँखे खोल और हर पहलु समझकर समीक्षा करनी चाहिए. जैसे मैं भी चे-गुएआरा की टी-शर्ट पहनता था. पर अब नहीं ! खैर... आज भी लोग स्टालिन के पोस्टर के नीचे नारे लगाते हैं ! शायद मैं विषय से भटक रहा हूँ... इनफैकट मुझे तो लग तह है कि सबकुछ विषय के बाहर का ही कह गया हूँ.
अपने कहे में किसी को विवाद नहीं दीखता, वैसे ही मुझे भी नहीं दिख रहा. पर मैं अपनी गलती सुधारने को तैयार रहता हूँ (कोशिश तो करता ही हूँ) जैसे टी-शर्ट बदल दी. वैसे उस मामले मैं बहुतों को लगेगा कि मैं पहले सही था अब गलत हो गया. हर मामले में दुनिया कम से कम दो भागो में तो बँटी ही है :) अधययन किसी को टी-शर्ट पहना देती है तो किसी पहने हुए का उतार देती है. आस्तिकता/नास्तिकता भी ऐसा ही है.
जरा ध्यान दीजिए चमनलाल क्या लिखते हैं:
भगतसिंह के संबंध में उनके चिंतन के संबंध में पंजाब में शायद कुछ अन्य स्थानों पर भी काफी भ्रामक बातें फैलाई गईं। भगतसिंह के जीवन व कार्यकलापों पर बनी आठ फिल्मों द्वारा भी भगतसिंह की छवि काफी विकृत की गई। पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन के दिनों के बाद भी कुछ धार्मिक अंधविश्वासियों द्वारा भगतसिंह को शहादत के निचले स्तर का शहीद बता कर या अपने नास्तिक विश्वासों को छोड़कर धर्म में पुन: आस्थावान होने संबंधी बातें बहुत ओछे स्तर पर कही गई हैं।(20 मार्च 2003)
यहाँ एक बात याद आई कि लेनिन की जीवनी अपनी फाँसी के दिन पढ़ना मार्क्स या नास्तिकता की तरफ़ झुकाव नहीं है?
उनके विचारों को तोड़ने-मरोड़ने का सबसे अच्छा का इस पोस्ट पर श्याम गुप्त द्वारा की गई है।
एक बात ध्यान दीजिए कि 1908 में खुदीराम बोस की फाँसी के पहले की तस्वीर है लेकिन भगतसिंह की बम फेंकने बाद 1929 से 1931 तक कोई तस्वीर क्यों नहीं है? या तो तस्वीर ली नहीं गई या नष्ट कर दी गई। उनके जेल में चार किताबों के लिखने की बात भी आती है, शायद उन्हें भी इधर-उधर कर दिया।
और मैंने एक जगह लिख दिया है कि अंधविश्वास कुछ नहीं होता। विश्वास होता ही अंधा है तो ये अंधविश्वास क्या चीज है? इसलिए भगतसिंह पर विश्वास करनेवाले को अंध-श्रद्धा करनेवाला कोई न कहे। क्योंकि मानव के व्यवहार में या भगतसिंह के व्यवहार में कोई चमत्कार नहीं है।
पण्डित दिनेश राय द्विवेदी जी -भगत सिंह जी आस्तिक थे या नास्तिक थे - इस बात से किसी और के विश्वास के चुनाव पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए | हाँ, आपकी इस पोस्ट के टाईटल से ज़रूर लगता है कि यह जलते चूल्हे पर अपनी रोटियां सकने की मानसिकता से लिखी गयी है |
"शहीद भगतसिंह दोज़ख में" ... जैसा सनसनीखेज़ टाईटल आपने क्या आजकल के किसी फलते फूलते न्यूज़ (?) चैनल्स के राइटर से बनवाया ? - कि लोग खींचे आयें आपकी पोस्ट पढने ? आपकी पोस्ट छपी है १९ जून को और अभी तक मुझ जैसे लोग, जो भगतसिंह जी की इज्ज़त करते हैं, इस टाईटल से परेशान हो कर एक ब्लॉग विज़िट तो कर ही जाते हैं आपके ब्लॉग पर | अब जानती हूँ कि इस टिप्पणी के बाद खूब प्रत्यारोप लगेंगे मुझ पर और बहुत से विद्वान् (?) (नास्तिक?) जन मेरी हर लिखी बात को छीलेंगे और मेरा मज़ाक उडाएंगे|
मैंने ऊपर टिप्पणियों में देखा कि किस तरह से स्वयं को "नास्तिक " कहने वाले कई विद्वान् जन स्वयं को "आस्तिक " कहने वालों को नीचा दिखने के लिए असभ्यता भरे शब्द कहने में नहीं चूक रहे | मेरे निकटतम फैमिली फ्रेंड्स जो हैं - वे दोनों पति पत्नी रशिया से पढ़े हैं - और कट्टर नास्तिक हैं - बिल्कुल नहीं मानते कि कोई ईश्वर जैसी चीज़ है | परन्तु मैंने उन्हें कभी भी असभ्य बातें करते या शहीदों के लिए इस तरह के असम्मानजनक जुमले प्रयुक्त करते नहीं सुना कि "क्या वे नरक में हैं?"
यदि आप नास्तिक हैं - तो दोज़ख या नरक का विचार क्यों कर रहे हैं? और यदि आप आस्तिकों की ओर से कहने का कष्ट कर रहे हैं - तो क्या किसी आस्तिक ने आपको अपनी वकालत के लिए वकील रखा है कि आप उनकी ओर से ऐसी मनघडंत बातें कहें? क्या किसी आस्तिक ने आपको यह कहा है कि माननीय भगत सिंह जी के लिए ऐसे शब्द कहें ? यदि ऐसा नहीं है, तो जब आप नरक के अस्तित्व को ही नहीं मानते तो यह विचार आपने क्यों रखा ? जिस ब्लोग्पोस्ट का आपने उदाहरण दिया -- उन्होंने भी सिर्फ अपनी बात समझाने के लिए उदाहरण दिया है - कि जो न भी मानते हों उनके लिए चलो फायदा नुक्सान के हिसाब से समझाया जाए | वे खुद नहीं कर रहे है सौदेबाजी ईश्वर से, वे सिर्फ समझाने के लिए कह रहे हैं | और उन्होंने तो भगतसिंह जी का नाम तक नहीं लिया था |
आस्तिक लोग यह नहीं कहते कि हर नास्तिक नरक जाएगा - किन्तु दुर्भाग्य से आपका अध्ययन शायद सिर्फ नास्तिक शास्त्र का हुआ हो, तो आपको आस्तिक विचारधारा के बारे में अधिक जानकारी नहीं | किन्तु भगतसिंह जी का जो आपने अपमान किया है यह टाईटल लगा कर (शायद अपने ब्लॉग की विजिटर संख्या को बढाने के लिए?) वह प्रयास मनवांछित फल तो दे ही गया | अब आप आस्तिक होते तो कहती कि ईश्वर आपको इस पाप की सज़ा ज़रूर देंगे , किन्तु ईश्वर को तो आप शायद मानते नहीं हैं , तो सिर्फ घोर निंदा ही कर सकती हूँ इस प्रयास की मैं |
मैं इस विषय पर आधिकारिक रूप से कुछ कह सकने लायक नहीं हूं। फिर भी......
समस्या की जड़ यह सोच मालूम होती है कि ईश्वर कोई व्यक्ति है। नहीं,ईश्वर एक क्वालिटी है,पर्सनैलिटी नहीं।
ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर की व्यक्तिवादी अवधारणा विकसित करने की आवश्यकता इसलिए पडी होगी कि उन दिनों शासन-तंत्र व्यवस्थित न था जिसके अभाव में शक्तिशालियों की उच्छृंखलता के असीमित हो जाने का ख़तरा था।
स्वर्ग-नरक़ कोई ऐसी जगह नहीं है जिसके बीच में कोई खिड़की लगी हो जिससे होकर स्वर्गवासी नर्कभोगियों की यंत्रणा का मज़ा लेते हों। यह सब बस हमें सत्कर्मों की ओर उन्मुख बनाए रखने का प्रयास है।
आपने सुना होगा कि लिखने की कला चीन में विकसित हुई। ओशो कहते हैं कि जिन्होंने(भारत) जीवन और मृत्यु से परे की दुनिया का चिंतन किया और जिनके कारण सहस्त्राब्दियों तक ऋचाएं अनुश्रुति से हस्तांतरित होती रहीं,वे लोग लिखने जैसी मामूली कला का विकास लोग न कर पाते,यह सोचना गलत होगा। अधिक सही बात यह लगती है कि वे सत्य को बयां नहीं करना चाहते थे क्योंकि लिख दिया,तो वह सीमा में बंध गया।
ईश्वर असीमित है,वह हमारे चाहे परिभाषित नहीं होगा। उसकी केवल अनुभूति संभव है।
बहुत ही अच्छा लेख और अच्छी बहस .
इश्वर हे या नहीं पर कुछ ऐसे अनुभव मुझे जरुर हुवे हैं जो ये इशारा करते हे की कुछ न कुछ तो हे पर अभी अज्ञात हैं !मैं खुद उसकी खोज में लगा हूँ देखते हैं क्या मिलता हैं !
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