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मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

किस का कसूर

कविता

किस का कसूर 

दिनेशराय द्विवेदी 

जब कोई अस्पताल
मरीज के मर जाने पर भी
चार दिनों तक वेंटिलेटर लगाकर
लाखों रुपए वसूल लेता है
तब किसी डॉक्टर का कोई कसूर नहीं होता।


कसूर होता है अस्पताल का
जिसमें कारपोरेट प्रबंधन होता है
बैंकों से उधार ली गई वित्तीय पूंजी लगी होती है,और
न्यूनतम संभव वेतन पर टेक्नीशियन काम कर रहे होते हैं

वित्तीय पूंजी का स्वभाव यही है
वह अपने लिए इंसानों का खून मांगती है
खून पीती है और दिन-रात बढ़ती है
सारा कसूर इसी वित्तीय पूंजी का है

क्या है यह वित्तीय पूंजी?
जो रुपया हम जैसे छोटे छोटे लोगों ने
अपनी मासिक तनख्वाह से
हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से
पेट काटकर बचाया, और
बुरे वक्त के लिए बैंकों में जमा कराया
वहीं वित्तीय पूंजी है

वही रुपया बैंकों ने कंपनियों को
उद्योगों और अस्पतालों को ऋण दिया
और वही ऋणीअब हमारे लिए
बुरा वक्त पैदा कर रहे हैं

इन बैंकों पर सरकारों का नियन्त्रण है
सरकारों पर पूंजीपतियों का
इसलिए किसी डॉक्टर का कसूर नहीं है
अब आप जानते हैं कसूर किसका है?
04.12.2017

रविवार, 3 दिसंबर 2017

व्यायाम किया और दर्द गायब

फिस मुश्किल से आधा किलोमीटर था, साथ में हमेशा बहुत सारी फाइल्स होने और रास्ते में ट्रेफिक न होने के कारण पैदल न जा कर अपनी एक्टिवा से जाता था। वापसी में एक दिन उसे बहुत सारी मोटरसाइकिलों के बीच घिरा पाया। निकालने को मशक्कत करनी पड़ी। पीछे से उठाना भी पड़ा। बस यह पीछे से उठाना भारी पड़ गया। अचानक कमर में कुछ चटखा और लगा कि रीढ़ की हड्डी में कुछ हुआ है। शाम तक साएटिका जैसा दर्द होने लगा। मैं ने अपने एक सरजिकल एड कंपनी के सेल्समेन मित्र को बताया तो उसने कमर पर बांधने की बैल्ट लाकर दे दी जो रीढ़ को सीधा रखने में मदद करती है। मैं उसे बांधने लगा। ुकुछ दिन में कमर सामान्य रहने लगी। लेकिन मैं बैल्ट को कम से कम अदालत जाने के पहले से घर लौटने तक बांधने लगा। 

कोई महीने भर पहले फिर ऐसा हुआ की एक्टिवा को पीछे से उठा कर हटाने की नौबत आ गयी। पहले तो मैं ठिठका, फिर आसपास देखा। ऐसा कोई नहीं था जिस से मैं निस्संकोच मदद के लिए बोलता। कमर पर बेल्ट भी बंधी थी। आखिर खुद ही एक्टिवा को उठा कर निकाला। फिर वैसा ही चटखा हुआ। फिर से साएटिका जैसा दर्द होने लगा। कभी तो इतना कि चलते चलते दो कदम रखना भी दूभर हो जाता। रुकना पड़ता और दर्द हलका होेने पर आगे चलता। अब तो नौबत यह हो गयी कि सुबह शाम एक एक गोली दर्द निवारक लेनी पड़ने लगी।

इसी बीच किसी संबंधी के रोग के सम्बन्ध में इंटरनेट काफी सर्च किया और समाधान तलाशे। फिर ध्यान आया कि साएटिका के लिए भी तो समाधान वहाँ मिल सकता है। मैं ने तलाश करना आरंभ किया। कई विकल्प वहाँ थे जिन में एक विकल्प नियमित व्यायाम का था। व्यायाम का उल्लेख देखते ही मुझे याद आ गया कि नियमित रूप से प्रातः भ्रमण करीब डेढ़ वर्ष से बन्द सा है और व्यायाम भी। प्रातः भ्रमण तो शायद इन दिनों मेरे लिए संभव नहीं लेकिन व्यायाम तो मैं कर ही सकता था। मैं ने साएटिका के व्यायाम देखे तो पता लगा कि ये तो वही साधारण व्यायाम हैं जिन्हें में रोज करता रहा था। 

कल रात मैंने सोने के पहले बिस्तर पर कुछ व्यायाम किए तो पाया कि पेशियाँ वैसी स्टिफ नहीं हैं जैसी होने की मुझे संभावना थी। शायद यह दिन भर अदालत में अपने व्यवसायिक कामों के लिए घुटनों में दर्द होने पर भी चलते फिरते रहने के कारण था जो अब मेरी आदत सी बन गयी है। 

सुबह उठ कर मुश्किल से पाँच-सात मिनट साएटिका के लिए बताए गए व्यायाम किए। स्नान किया और नाश्ता कर के घर से निकला। आज मुझे चलने में वैसी समस्या नहीं आ रही थी जैसी पिछले कुछ दिनों से आ रही थी। साएटिका जैसा वह दर्द भी पूरी तरह गायब था। आज से फिर सोच लिया है कि कुछ भी हो यह पाँच से दस मिनट का ्व्यायाम कभी नहीं छोड़ना है।

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

बौद्धिक जाम का इलाज : शारीरिक श्रम

कुछ दिन पहले एक मुकदमा मुझे मिला। उस के साथ चार फाइलें साथ नत्थी थीं। ये उन संबंधित मुकदमों की फाइलें थीं पहले चल चुके थे। मैं ने उस फाइल का अध्ययन किया। आज उस केस में अपना वकालतनामा पेश करना था। कल शाम क्लर्क बता रहा था कि फाइल नहीं मिल रही है। मैं ने व्यस्तता में कहा कि मैं उसे देख रहा था यहीं किसी मेज पर रखी होगी।

आज सुबह जब मैं आज की फाइलें देख रहा था, वही फाइल न मिली। मैं ने भी कोशिश की पर मुझे भी नहीं मिली और बहुमूल्य आधा घंटा उसी में बरबाद हो गया। अब तो क्लर्क के आने पर वही तलाश कर सकता था।  किसी ओर काम में मन नहीं लगा। जब तक फाइल नहीं मिलती लगता भी नहीं।पर तब तक मैं क्या करता?

मैं ने अपने काम की जगह छोड़ दी। शेव बनाई और स्नानघर मे ंघुस लिया। वहां दो चार कपड़े  बिना धुले पड़े थे, उन्हें धो डाला। फिर लगा कि बाथरूम फर्श तुरन्त सफाई मांगता है। वह भी कर डाली। फिर स्नान किया और स्नानघर से बाहर आया तब तक क्लर्क आ चुका था।

मैं ने उसे बताया कि वह फाइल पेशियों वाली अलमारी में होनी चाहिए। वह तुरन्त तलाश में जुट गया। इस के पहले कि मैं कपड़े वगैरह पहन कर तैयार होता उस ने फाइल ढूंढ निकाली। मेरा दिमाग जो उस फाइल के न मिलने से जाम में फँस गया था। फर्राटे से चल पड़ा।

मुझे महसूस हुआ कि जब बौद्धिक कसरत से कुछ न निकल रहा हो तो वह कसरत छोड़ कर कुछ पसीना बहाने वाले श्रम साध्य कामों में लग जाना चाहिए, कमरों से निकल कर फील्ड में मेहनतकश जनता के साथ काम करने चल पड़ना चाहिए। राह मिल जाती है। 

सोने के अंडे देने वाली सुनहरी बत्तख

ज शाम मैं ने काफी बनाई, मैं और मेरा क्लर्क दोनों पीने बैठे। अपार्टमेंट के चौकीदार का बेटा मेरे यहाँ टीवी पर कार्टून चैनल देख रहा था।

किसी ने सुनहरे रंग की एक बत्तख मोटू पतलू को यह कह कर बेच दी कि ये सोने के अंडे देती है। उन्हें बत्तख को संभालने का कोई अनुभव तो था नहीं। बत्तख उन के पास से छूट भागी। पीछे पीछे मोटू पतलू चिल्लाते हुए भागे। मेरी सोने के
अंडं देने वाली बत्तख,. कोई तो पकड़ो उसे। अब जिस के वह हाथ आ जाती वही मोटू पतलू से अच्छी खासी रकम ऐँठ सकता था। तो लोग साथ में भागने लगे। कोई दस-पाँच लोग पीछे भागने लगे तो बत्तख नदी में कूद पड़ी। लोग उस के पीछ नदी में कूदै। बत्तख पार निकली तो उस का सुनहरा रंग नदी के पानी में उतर चुका था। बत्तख को उस का मालिक भी मिल गया। उस के हाथों में जाते ही बत्तख ने एक सफेद अंडा दे डाला।


मोटू-पतलू ने जब देखा कि पाँच हजार के महंगे दाम में खरीदी बत्तख साधारण अंडे दे रही है तो उन्हों ने माथा पीट लिया। पर जो लोग मोटू पतलू के साथ भाग रहे थे वे तो मोटू पतलू के पीछे पड़ गए कि उन्हें तो फोकट ही भागना पड़ा जिस का हर्जाना वे मोटू पतलू से वसूलेंगे।

इस अंत पर आ कर मैं औऱ मेरा क्लर्क दोनों एक साथ चिल्लाए -यही तो अपना मुकदमा है।

दरअसल मेरे मुकदमे में साथ भागने वालों ने मोटू-पतलू पर 420, 406, 467, 468, 120-बी भा.दं.संहिता में प्रथम सूचना रिपोर्टे दर्ज करवा दी हैं। मुझे कल उन दोनों की अग्रिम जमानत की अर्जी पर बहस करनी है। बस यहाँ फर्जी बत्तख की जगह खेती की जमीन पर बनाई गयी आवासीय योजना के भूखंडों के फर्जी सौदे हैं। असल 420 मजे ले रहा है।

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

कुटाई वाले गुरूजी

पिताजी अध्यापक थे, और तगड़ी कुटाई वाले थे। स्कूल में अक्सर उन के हाथ मे डेढ़ फुट लंबा काले रंग का डंडा हुआ करता था। पर वो डराने के लिए होता था, मैंने कभी उस का प्रयोग किसी पर मारने के लिए करते उन्हें नहीं देखा। हाँ हाथों और लातों का वे जम कर प्रयोग करते थे। उन की ये कुटाई आसानी से शुरू नहीं होती थी। पर जब हो जाती थी तो दूसरे ही उन्हें रोकते थे उन का खुद का रुकना तो लगभग असंभव था। मैं एक बार स्कूल में उस कुटाई का शिकार हुआ था। उस का किस्सा फिर कभी शेयर करूंगा। पर घर पर तो साल में दो-एक बार अपनी पूजा हो ही जाती थी। वैसे उन में एक बात बहुत अच्छी थी कि वे ठहाके लगाने में कम न थे। यदि वे बाहर होते तो उन के लौटने की सूचना बाहर कहीं उन के ठहाके की आवाज से हो जाती थी। इधर घर में दादाजी और दादी जी के सिवा सब सतर्क हो जाते थे।

हुआ ये कि हम बाराँ में दादा दादी के साथ रहते थे, पिताजी मोड़क स्टेशन पर मिडिल स्कूल के हेड मास्टर थे और महीने में एक दो बार ही घर आ पाते थे। मुझे पेचिश हो गयी थी, जो कभी कभी कम हो जाती थी, पर मिटती नहीं थी। वैद्य मामाजी की सब दवाइयाँ असफल हो गयी थीं। पेचिश के कारण मुझ पर खाने पीने की इतनी पाबंदियाँ थीं कि मै तंग आ गया था। आखिर दादा जी ने पिताजी को डाँटा कि छोरे को चार माह से पेचिश हो रही है, खून आने लगा है, और तुझे कोई परवाह ही नहीं है। किसी डाक्टर को दिखा के, बैज्जी की दवाई बहुत हो गयी। छोरे के हाड ही नजर आने लगे हैं। आखिर पिताजी डाक्टर के यहाँ ले जाने को तैयार हुए।

उन दिनों दो डाक्टर पिताजी के शिष्य थे और बाराँ सरकारी अस्पताल में ही तैनात थे। घरों पर भी मरीज देखते थे। उन में एक डाक्टर बी.एल चौरसिया थे। उन के पास ले गए। डाक्टर चौरसिया अक्सर हाड़ौती में ही बोलते थे। पिताजी मुझे ले कर उन के पास पहुँचे। मेरी तकलीफ डाक्टर को बताई। तो डाक्टर बोला -बस गुरूजी अतनी सीक बात छे, टट्टी बन्द न होरी नै। अब्बाणू कराँ छा बन्द। (बस गुरूजी, इतनी सी बात है, टट्टी बन्द नही हो रही है। अभी कर देते हैं।)
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डाक्टर ने अपने पास वाली अलमारी खोली और सैंपल की दवा निकाली। चार गोली थी। कहा -देखो या गोळी एक अबाणू दे द्यो। एक रात में सोती बखत दे दीज्यो। जे खाल टट्टी बंद हो ज्या तो मत दीजो। अर न होव तो खाल रात मैं एक दे दीजो। बस काम खतम। (देखो ये गोली अभी दे दो, एक रात में सोते समय दे देना। जो कल टट्टी कल बंद  हो जाएँ तो ठीक नहीं तो एक कल रात को सोते समय दे देना। बस काम हो जाएगा।)

पिताजी ने डाक्टर को फीस देने के लिए जेब से रुपए निकाले।डाक्टर बोला- रैबादो गुरूजी, फीस तो अतनी दे दी कै दस जनम ताईं भी पूरी न होव। म्हूँ डाक्टर ही बणग्यो। थानँ अतनो मार्यो छे कै हाल ताइँ भी मोर का पापड़ा दूखे छे। पण एक बात छे थाँ ने म्हाँई आदमी बणा द्या। नै तो गनखड़ा की नाई गर्याळान मैं ई भैराता फरता। (रहने दो गुरूजी फीस तो आप इतनी दे चुके कि दस जनम तक भी समाप्त नहीं होगी। मुझे डाक्टर ही बना दिया। आपने इतना मारा है कि अभी तक पीठ की पेशियाँ दुखती हैं। पर एक बात है कि हमें आदमी बना दिया वर्ना कुत्तों की तरह गलियों में ही चक्कर लगाते रहते)

इतना कह कर डाक्टर चौरसिया ने जो कर ठहाका लगाया तो पिताजी ने उस का भरपूर साथ दिया। मैं तो उन दोनों को अचरज से देखता रह गया।

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

“तेलुगू कहानी” गोर्की का पात्र

“तेलुगू कहानी”

गोर्की का पात्र 

वी. चंद्रशेखऱ राव

अनुवादक - पी.वी. नरसा रेड्डी

गोर्की की कहानी का अनुवाद कराकर दोगे न? वैसे तो आज रात कोई केस भी नहीं आनेवाला है। हमारे स्त्री-शक्ति संगठन की ओर से एक स्मारिका का विमोचन कराना चाहती हूँ। यह कहानी उसमें ज़रूर होनी चाहिए। प्लीज! ना मत कहना। दो कप चाय, तुम्हारे एकांत को भंग न करने का वादा करती हूँ, आफकोर्स, कृतज्ञतापूर्वक स्मारिका की एक प्रति पारिश्रमिक के तौर पर दे दूँगी।

उस रात को प्रसूति वार्ड में मैं एक हाउस सर्जन की हैसियत से ड्यूटी पर था। सरला ने गोर्की का कहानी-संग्रह, नोट बुक और कलम टेबिल पर इस तरह पटक दिए कि मानो सविनय आदेश दे रही हो। सरला मेरे साथ हाउस सर्जन कर रही थी। तब तक 'दास कापिटल' के मुख्य अंशों पर नर्स-छात्रों को दो घंटे भाषण देकर आई। अब वह मेरे साथ मुठभेड़ करने लगी।

सरला को देखता हूँ तो मुझे अचरज हो जाता है। बीस बरस भी अभी पार नहीं किए, पता नहीं उसे इतनी परिपक्वता कैसे आई? आम तौर पर इस उम्र की लड़कियाँ मधुर कल्पनाओं में भटकती हुई एक असहज और मायूस माहौल में जीती हैं। लेकिन सरला ने इतनी छोटी उम्र में कालेवह हमेशा वर्ग-रहित समाज के बारे में सपने देखती रहती है। स्त्री समस्याओं पर परचियाँ और पुस्तकें छपाते हुए और ख़ास मुद्दों पर जुलूस और धरना आयोजित करते हुए हमेशा व्यस्त रहती है। मुझे पलायनवादी कहकर पुकारती है और मेरी कहानियों को बिलकुल समय गुज़ारनेवाली सामग्री कहकर मज़ाक उड़ाती है। फिर भी सरला मेरी इकलौती अंतरंग सहेली है। हम दोनों मिलकर न कटनेवाली शामों को और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ावों को नापते रहते हैं। जो भी हो अपनी स्मारिका की कहानी के लिए मुझे चुन लेना मैं अपने लिए बड़ी बात मानता हूँ।

रात को कोई आठ बजे एक औरत की प्रसूति हुई थी। तब से कोई काम नहीं था। ड्यूटी पर लगी गाइनाकॉलॉजिस्ट डॉक्टर वसुंधरा जी भी कोई काम न रहने के कारण अस्पताल में चक्कर काटने के लिए चली गई। पी.जी. डाक्टर तथा सर्जन राधा पी.जी. के साथ 'उमराव जान' सेकेण्ड शो सिनेमा देखने चली गई। दोनों स्टाफ नर्स छात्र नर्सों के साथ घुल-मिलकर आपस में पुरानी यादों को बाँटने लगीं।

गोर्की के कहानी-संग्रह पर हाथ लगाते ही न जाने क्यों मेरा शरीर रोमांचित हो उठा। जल-प्रपात की तरह प्रवाहमान साहित्यानुभूति को मैंने अंजुरी में भरने का प्रयास किया। उस स्तब्ध रात को पल पर भर के लिए आराम कर रहे सागर की तरह अस्पताल सो रहा था। छोटे बच्चों के अचानक नींद से जागकर रोने की आवाज़ों के सिवा मानव अस्तित्व से संबंधित और कोई चिह्न नज़र नहीं आ रहा था। नोटबुक के अंदर पन्ने थके-हारे सफेद से एनीमिया पेशेंट की तरह फड़फड़ाने लगे।

अनुवाद करने वाली कहानी का नाम हैं - 'ए मैन इज बौर्न', जंगल के बीच में झुरमुटों के आड़ में प्रसव-पीड़ा से कराहती हुई अकेली औरत को मदद करने वाले एक मुसाफिर की कहानी है वह। मुसाफिर को प्रसूति चिकित्सा के संबंध में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। फिर भी जो कुछ उसने जाना उसी के मुताबिक वह उस औरत को मदद करता है। उस माँ को बहुत शरम और नाराज़गी होती है, फिर भी और कोई चारा भी तो नहीं था। दोनों के बीच में गहन मैत्री स्थापित हो जाती है। एक अपरिचित औरत जो ज़िन्दगी और मौत से लड़ रही थी, उससे स्पंदित होकर उस मुसाफिर ने जो साहसिक कार्य किया है वह अचंभे में डाल देता है। गर्भ से बाहर निकलनेवाले शिशु के सर को दोनों हाथों से पकड़कर सुरक्षित बाहर खींच लेना, समीप स्थित समुंदर के सच्चे मानवीय गुणों का प्रतीक है।

प्रसव के बाद वह थकी हारी उस माँ को चाय बनाकर पिलाता है, उसे अनुनय पूर्वक ढाढ़स दिलाता है, बच्चे को प्यार से पुचकारकर उसकी मुसकानों में प्राचीन-स्मृतियों की आहटें सुन लेता है। अंत में 'ए मैन इज बॉर्न' कहकर मुसाफिर सगर्व अपनी राह पकड़ लेता है। साधारण मानवों में मौजूद असाधारण गुणों को उजागर करना इस कहानी की विशेषता है। सिर्फ़ आठ पन्नों की सरहदों के बीच एक करूण रसार्द्रपूर्ण जीवन का आविष्कार किया है गोर्की ने। आम आदमियों में छिपे हुए मानवीय गुणों की पहचानना और उसे व्यापक पृष्ठभूमि पर दर्शाना गोर्की ज़्यादा पसंद करते हैं। इस कहानी का अनुवाद करने के लिए अंग्रेज़ी और तेलुगु भाषा का ज्ञान पर्याप्त नहीं है, मानवता की भाषा का भी ज्ञान होना ज़रूरी है।

अचानक वार्ड के बाहर के शोरगुल से मेरा ध्यान बँट गया। स्टाफ नर्स ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए आई। 'डाक्टर साब! सर्वनाश हो गया। ताड़िकोण्डा से एक मरीज़ आई है। लगता है उसके पेट में बच्चा पल्टी खा गया है। तुरंत आपरेशन करना है। डाक्टर वसुंधरा जी न ड्यूटी रूप में हैं न घर पर। अस्पताल में कहीं भी उनका अता-पता नहीं हैं। पी.जी. डाक्टर राधा जी अपने मित्र के साथ सिनेमा देखने चली गई। अब क्या करना है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। बच्चा और जच्चा दोनों की जान खतरे में हैं।' नर्स बहुत घबरा रही थी। सरला चेहरा लटकाए खड़ी है। 'अब कैसे निपटाया जाय इस मुसीबत को? राधा जी भी नहीं हैं। मरीज़ की हालत बहुत नाजुक है। तुरंत आपरेशन करने की ज़रूरत है। अभी वह बेहोश होनेवाली है। हम तो अभी छात्र ही हैं। अब तक ढंग से औज़ार पकड़ने का तरीका भी नहीं जानते। आँखों के सामने एक मरीज़ का इस तरह प्राण खो बैठना, हमारे लिए बड़ी बुरी बात होगी।' सरला भी काफी परेशान थी।

इस अस्पताल में ऐसे हादसे बहुत साधारण-सी बात हैं, फिर भी देखते-देखते ऐसा हो जाना हमें बड़ा अपराध-सा लग रहा था। दो चार मिनटों तक चिंतित हो जाने के बाद मैंने साहसपूर्ण निर्णय ले लिया। अभी-अभी पढ़ी गई गोर्की की कहानी याद आ गई। एक मामूली मुसाफिर ने उस औरत की जो सेवा की, मन में कौंधने लगी। निस्सहाय स्थिति में एक मुसाफिर ने प्रसूति करानेवाली दाई की भूमिका निभाई। गोर्की की कहानी से प्रेरणा लेकर में आपरेशन करने के लिए तैयार हो गया।

'सिस्टर! पेशेंट को आपरेशन थियेटर में ले आइए। आपरेशन मैं करूँगा। ऐसे सैंकड़ों केस मैंने मैडम की बगल में खड़े होकर देखे हैं। इस हालत में इससे बढ़कर और कोई चारा नहीं है। जो भी होगा, उसकी ज़िम्मेदारी मैं अपने ऊपर ले लूँगा। आप जल्दी चलिए। एनस्थेसिस्ट को फोन कीजिए।' स्टाफ नर्स ने मेरी तरफ़ ऐसे देखा मानों ठीक से ग्लव्स पहनना भी न जाननेवाला यह लड़का आपरेशन कैसे कर पाएगा? लेकिन उसने भी जाना कि उस वक्त इससे बेहतर और कोई रास्ता नहीं था। नर्स पेशेंट को आपरेशन के लिए तैयार करने के लिए चली गई।ज की छात्राओं को इकठ्ठा कर 'स्त्री-संगठन' का आयोजन किया।

राजू! यह कैसा पागलपन है? यदि पेशेंट को कुछ हो जाए तो?' सशंकित मेरी तरफ़ देखते हुए सरला ने पूछा।
'चारों तरफ़ फैले अंधकार को देखते हुए उदास हो जाने के बजाय साहस कर एक छोटा-सा दीप जलाना उत्तम है, - ये बातें तुम्हारी ही हैं न? कहकर मैं थियटर की तरफ़ चल पड़ा।

आपरेशन थियेटर में पाँव धरते ही मेरे अंदर विचित्र परिवर्तन आया। अकसर चाहे वह वार्ड हो या क्लास रूम, अचानक एक कविता का दौर मेरे अंदर प्रवेश कर एक ज्वाला की तरह मुझ पर हावी होकर मुझे एक ट्रांस में फेंक दिया करता था। लेकिन उस वक्त मेरे मन पर कविता का प्रभाव नहीं रहा। सभी आवेगों को भूलकर एक सुशिक्षित सैनिक-सा बदल गया।

हाथ धोकर, ग्लव्स पहनकर आपरेशन टेबुल के पास चला गया। तब तक एनस्थिसिस्ट भी आ पहुँचा था। मरीज़ सभी भावनाओं से दूर बेहोश पड़ी हुई थी। 'मरीज़ के रिश्तेदार तंग कर रहे हैं। सरला जी को एक बार बाहर भेजिएगा।' घबराते हुए एक स्टुडेंट नर्स अंदर आ गई।

'आपरेशन के पहले मरीज़ का मर्द आवश्यक खून देने के लिए तैयार था लेकिन अब वह मुकर कर कह रहा है कि मैं पैसा दे देता हूँ, कहीं से खून मँगवाइए। क्या मिनटों में पैंसों से खून मिल जाता है? वह भी पाजिटिव बी ब्लड।' नर्स कुड़कुड़ाने लगी।

'मैं बाहर जाकर देखती हूँ, माजरा क्या है, तुम अपना काम सँभालो।' सरला प्यार से मेरे कंधे पर थपकी देकर चली गई।

मैंने निचले वाले पेट के ऊपर और नाभी के नीचे एक पतली लकीर-सा चीरा लगाया। न जाने क्यों मेरे हाथ काँप गए। सैंकड़ों बार ऐसे आपरेशन करते हुए देख चुका हूँ। फिर भी अजीब-सा डर, सारे शरीर में फैल गया। सारा बदन पसीने से सराबोर हो गया।

चमड़े के नीचेवाली तहों को अलग कर, उभरने वाले खून को पैडों के सहारे रोकने का प्रयत्न करते हुए गर्भाशय को पहचान लिया। अंदर शिशु को बाहर खींच लिया। वह शिशु लड़का था। बच्चे को नर्स के हाथों में थमा दिया। उसने बच्चे को सँभाला। मेरे अंदर जो कंपन और डर था, पता नहीं वह कब गायब हो गया था। सीधे लक्ष्य की तरफ़ बढ़ने वाले सैनिक की तरह आगे चल पड़ा। बाकी काम मुस्तैदी से पूरा कर हाथ धोने के लिए तैयार हुआ ही था कि पीछे से दो मुलायम हाथ मेरे कंधों पर थपकियाँ देने लगे और मेरे गाल का मृदुल ओंठों ने चुंबन किया। मैंने समझा कि वह शायद सरला होगी। मुड़कर देखता हूँ तो डाक्टर वसुंधरा मैडम थीं।

'आई ऐम प्राउड आफ यू माई बॉय! तुमने ऐसा आपरेशन किया कि मानो बरसों से तुम्हें अनुभव हो। कीप इट अप! जब तुम गर्भाशय खोल रहे थे तभी मैं आई थी। तुम्हें डिस्टर्ब करना नहीं चाहती थी, इसलिए पीछे खड़ी रह गई। तुम्हें बहुत-बहुत मुबारक। जो तुमने मुझे इस हादसे से बचा लिया। यदि सही समय पर चिकित्सा न मिलने के कारण मरीज़ को कुछ हो जाता तो अस्पताल का गौरव मिट्टी में मिल जाता। जो साहस तुमने किया है, बड़ा रोमांचक है। इस घटना को मैं, बरसों याद रखूँगी।' मैडम ने मेरी तारीफ़ की।

आपरेशन थियेटर से बाहर निकलते हुए मुझे इतनी खुशी हुई कि व्यक्त करने के लिए भाषा की कमी महसूस हो रही है। ऐसे समय में सरला का वहाँ न होने और उसके मुँह से तारीफ़ न सुन पाने की वजह से मुझे थोड़ा अफसोस हुआ।

बड़ी खुशी से मैंने ड्यटी रूम में प्रवेश किया। कमरे में बेड पर लेटी हुई सरला। 'कांग्रेट्स! सिस्टर अभी बता कर गई कि आपरेशन सक्सेस रहा है। मैं बहुत कमज़ोर महसूस कर रही थी, इसलिए तुम्हारा साथ नहीं दे पाई। मरीज़ के रिश्तेदार ने खून देने से इन्कार कर दिया था। इस आपरेशन के लिए खून की जितनी जरूरत होती है मुझे मालूम है। मेरा भी खून बी पाजिटिव है ' सरला हंसते हुए कह रही थी। लेकिन मेरी आँखों में आँसू भर आए। कितना त्याग। जब मैंने गोर्की की कहानी पढ़ी तब उस कहानी के चरित्रों की भलमनसाहत और त्याग ने मुझे विस्मित कर दिया था। ऐसे बहुत थोड़े ही लोगों के रहने के कारण ही इस सड़ी-गली, धोखेबाज दुनिया में हम जी रहे हैं। मुझे लगा जैसे सरला ही सच्चे मायने में गोर्की का जीता-जागता चरित्र है।

सोमवार, 31 जुलाई 2017

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

प्रेमचन्द



'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' प्रेमचंद का महत्वपूर्ण लेख है जिस में साम्प्रदायिकता के पाखंड को उजागर करते हुए बताया गया है कि संस्कृति और साम्प्रदायिकता का वही संबंध है जो सिंह और सिंह की खाल ओड़े गधे का होता है।


साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान क़ब्रपूजक और स्थान-पूजक नहीं है। ताजि़ये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को ख़ुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ़्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है, जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं, चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइए, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते हैं, तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं, तो हिन्दू भी अस्सी फ़ीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है, नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं, जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफ़ीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाज़ी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की क़ुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं, लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालाँकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुग़लकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।

फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फ़रियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है, तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुख़र्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार-शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, ज़मींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफ़सरों की निगाह में बड़ी इज़्ज़त है, इनकी वे बड़ी ख़ातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं, ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में ख़ूब लड़े जाओ, ख़ूब एक-दूसरे को नुक़सान पहुँचाये जाओ। उनके पास फ़रियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मज़ा यह है कि बाज़ों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये जाते हैं। इस तरह की ग़लतफ़हमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज़्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई ज़माना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के ज़माने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन ज़मानों को भूल जाइए। वह मुबारक़ दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर ग़रीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफि़क्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ़ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।