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बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

न्याय व्यवस्था : पूंजीपति-भूस्वामी वर्गों की अवैध संतान


चारा घोटाला मामले के मुकदमों में से एक का निर्णय आ चुका है। लालू को दोषी ठहराया जा कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सजा कितनी होगी यह निर्णय कल हो ही आएगा। फिलहाल लालू जी जैल पहुँच कर सजा की अवधि जानने को उत्सुक बैठे हैं। लेकिन इस निर्णय में 17 वर्ष लग गए। अभी कुछ बरस अपीलों आदि में लगेंगे। पक्षकारों में इतनी क्षमता है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकरण में नहीं दे देता है तब तक वे लड़ सकते हैं। जमानत मंजूर करवा कर फिर से राजनीति के अखाड़े में अपना खेल दिखा सकते हैं।

लेकिन 17 साल क्यों लगे? यह प्रश्न फिर से उठ रहा है। हर कोई यह नसीहत देता दिखाई देता है कि राजनैतिक मामलों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए जिस से कोई दोषी दोषी हो कर भी बहुत दिनों तक राजनीति करता नहीं रहे।

हुत लचर तर्क है यह। जब भी किसी तरह के महत्वपूर्ण अपराधिक मामले के निर्णय में देरी होना दिखाई देता है तभी यह मांग उठती है और उस पर चर्चा होती है। कुछ विशेष अदालतों की घोषणा होती है और फिर वह मांग ठंडे बस्ते में चली जाती है। हमारी व्यवस्था यही चाहती है कि जो मामले ऊपर तैरने लगें उन से निपट लिया जाए और जो ढके छुपे रह जाएं उन्हें ढके छुपे ही रहने दिया जाए।

भारतीय समाज के लिए न्याय के बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मामला है और यह जब तब आकस्मिक रूप से विचारणीय नहीं, अपितु निरंतर गंभीर विचार का विषय होना चाहिए। मेरे 35 वर्षों के वकालत के अभ्यास के जीवन में आज भी कुछ मामले हैं जो मेरी वकालत के आरंभिक वर्ष 1978 में पैदा हुए और आज तक पहले न्यायालय से उन में निर्णय नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य कारण मुकदमों के निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों का न होना, स्थापित अदालतों का जजों के अभाव में खाली पड़े रहना, न्यायालयों में सक्षम जजों का न होना और जजों को उन की योग्यता और क्षमता के अनुरूप न्यायालयों में पदस्थापित न करना और उन की क्षमताओं का सदुपयोग न करना प्रमुख हैं।

क जघन्य बलात्कार, एक आतंकी घटना के अभियुक्त, एक जघन्य हत्यारे और एक भ्रष्टाचारी राजनेता को दंडित करने के लिए न्याय की ट्रेन को त्वरित गति से चला कर गंतव्य तक पहुंचा देना ही पर्याप्त है? लाखों युवा अपने दाम्पत्य विवादों के हल के लिए न्यायालयों का द्वारा खटखटाते हैं। उन में सुलह या तलाक उन के नए जीवन का आरंभ कर सकता है लेकिन धीमी गति वाली यह न्याय व्यवस्था उन्हें युवा से अधेड़ और फिर बूढ़ा कर देती है और उन के जीवन कचहरियों के चक्कर काटते नष्ट हो जाते हैं। लाखों लोग अन्याय पूर्ण तरीके से नौकिरियों से निकाले जाते हैं, उन्हें 10-20-30-40 वर्षों तक न्याय नहीं मिल पाता। हर साल हजारों कारखाने बंद होते हैं, लाखों मजदूर कर्मचारी नौकरी से निकाले जाते हैं। उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए दूसरी जगह नौकरी तलाशने जाना होता है या फिर जीवनयापन के दूसरे साधन अपनाने होते हैं। इस मजबूरी का लाभ छंटनी करने वाले उद्योगपति अपनाते हैं। उन्हें कानूनी रूप से दिए जाने वाले लाभों को रोक कर बैठ जाते हैं और आधा-पौना-चौथाई रकम ले कर या कभी कभी सारे लाभों को छोड़ कर चले जाने को मजबूर करते हैं। सरकारें, उन के श्रम विभाग और अदालतें हाथ पर हाथ धर कर शक्तिहीन होने या प्रक्रिया का रोना लेकर बैठी रहती हैं।

ब जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। पर्याप्त संख्या में सक्षम जज पैदा करने की जरूरत है। हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत का पांचवां हिस्सा है। इसका आकार बढ़ा कर पांच गुना करने की जरूरत है। पर आजादी के 67वें वर्ष में भी उस के लिए कोई योजना हमारे पास नहीं है। आज भी हम न्याय को छीन झपट कर खा रहे हैं। 


जादी से ले कर आज तक भारतीय समाज में अन्याय के इस अजगर ने अपने पैर फैलाए हैं और धीरे-धीरे जीवन के हर पक्ष में वह पहुंच गया है। उस का रूप इतना भयंकर और विशाल हो चुका है कि उस से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। लेकिन उस की जड़ें हमारी व्यवस्था में है। वह इसी शोषणकारी पूंजीपतियों भू-स्वामियों के हितो के लिए संचालित व्यवस्था की अवैध संतान है। चाह कर भी यह व्यवस्था उस से निपटने में अक्षम है। इस से केवल, और केवल वह जन-पक्षधर व्यवस्था ही निपट सकती है और उसे परास्त कर सकती है जिस के नियंत्रण में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का कोई दखल न हो।

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता

1985 में मैं ने अपने लिए पहला वाहन लूना खरीदी थी, दुबली पतली सी। लेकिन उस पर हम तीन यानी मैं, उत्तमार्ध और बेटी पूर्वा बैठ कर सवारी करते थे। स्कूटर के भाव ऊँचे थे और बजाज स्कूटर  आसानी से नहीं मिलता था। फिर पाँच सात साल उसे चला लेने के बाद एक विजय सुपर सैकण्ड हैंड खरीदा, उसे पाँच सात साल चलाने के बाद एक सेकण्ड हैंड बजाज सुपर से उसे बदल डाला। 2003 से मारूति 800 मेरे पास है। उसी साल बेटे के लिए एक हीरो होंडा स्पेंडर बाइक खरीदी थी जो इस साल निकाल दी उस के स्थान पर होंडा एक्टिवा स्कूटर ले लिया है।

ड़तीस साल पहले लूना खरीदी थी तो अपने घर से अदालत तक साढ़े छह किलोमीटर के सफर में बमुश्किल पाँच दस कारें रास्ते में दिखाई पडती थीं। दस साल पहले जब मारूति खरीदी तब अदालत परिसर में 11 बजे के बाद पहुँचने पर उसे पार्क करने की जगह आराम से मिलती थी। लेकिन अब हालत ये है कि अदालत परिसर के भीतर तो उसे पार्क करने के लिेए 10 बजे के पहले ही जगह नहीं रहती। यदि मैं 11 बजे के बाद अदालत पहुँचूँ तो अदालत के आसपास सड़क पर जो पार्किंग की जगह है वहाँ भी उसे पार्क करने की जगह नहीं मिलती मुझे अदालत से कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर अपनी कार पार्क करनी पड़ती है। पिछले दस वर्षों में बहुत तेजी से मोटर यानों की संख्या बढ़ी है।

2003 में मैं ने अपने एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। वे उस की फीस मुझे कार खरीदवाने में खर्च करना चाहते थे। मैं सकुचा रहा था कि इस कार के पेट्रोल का खर्च सहन कर पाउंगा या नहीं। हम डीलर के यहाँ पहुंचे मारूती 800 पसंद की और डीलर ने मात्र 500 रुपए जमा कर के कार हमें सौंप दी। बाकी सारा पैसा बैंक ऋण से डीलर के पास आ गया। हमें कार की कीमत का 20 प्रतिशत बैंक को देना था वह उन मित्र ने जमा कराया। उस वक्त आप की जेब में पाँच सौ रुपए हों तो आप नयी कार घर ला सकते थे। सरकार की नीतियों ने कार खरीदना इतना आसान कर दिया था। इस आसानी ने ग्राहक की इस संकोच को कि वह कार के रख रखाव का खर्च उठा पाएगा या नहीं दूर भगा दिया था। 

रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजि बैंकों और निजि फाइनेंसरों की इस कर्ज नीति ने मोटर यान खरीदना इतना आसान बना दिया था कि सड़कें कुछ ही सालों में इन वाहनों से पट गई। नगर में पार्किंग की जगह का अकाल हो गया। घरों में खरीदे गए वाहनों को रखने की जगह नहीं थी। इस कारण कालोनी की 20 से 40 फुट चौड़ी सड़कों पर रात-दिन भर वाहन खड़े नजर आने लगे। यहाँ तक कि कालोनी वासियों में पार्किंग को ले कर झगड़े होने लगे, पुलिस के पास मामले बढ़ने लगे, यहाँ तक कि इन झगड़ों में हत्याएँ होने के मामले भी अनेक नगरों में दर्ज हुए। खैर, पब्लिक का क्या? वह आपस में लड़ती-झगड़ती रहे तो देश के पूंजीपति शासकों को बहुत तसल्ली मिलती है कि उन की  लूट की कारगुजारियों पर तो लोगों की निगाह नहीं जाती।


मारा देश तेल का बहुत बड़ा उत्पादक नहीं है। उसे क्रूड बहुत बड़ी संख्या में आयात करना पड़ता है जो डालर में मिलता है। इस तरह देश को इन वाहनों के लिए क्रूड का आयात बढ़ाना पड़ा, उस के लिए डालर देने पड़े। हर साल डालर की जरूरत बढ़ने लगी। देश हर जायज नाजायज तरीकों से डालर लाता रहा। डालर की कीमत बढ़ती रही। हम ने 2005 से आज तक किस तरह क्रूड ऑयल का आयात बढ़ाया है इस सारणी में देखा जा सकता है।  


1986 में हमारा क्रूड का आयात 300 हजार बैरल प्रतिवर्ष के लगभग था। 1999 में यह 800 हजार बैरल, 2001 1600 हजार बैरल, 2007 में 2400 हजार बैरल, 2009 में 3200 बैरल तक पहुँच गया। इसी मात्रा में हमें डालर खरीद कर तेल के बदले देने पड़े। इन डालरों को खरीदने के लिए हमें अपना क्या क्या बेचना पड़ा है इस का हिसाब और अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। अब तो शायद बेचने के लिए हमारे पास मिथ्या सम्मान तक शायद ही बचा हो। देश के आजाद होने से जो थोड़ा सा स्वाभिमान हम ने अर्जित किया था वह तो हम कभी का बेच चुके हैं या गिरवी रख चुके हैं जिसे छुड़ाने की कूवत अभी दूर दूर तक पैदा होनी दिखाई नहीं देती। 

ब तक की सरकारों ने यदि देश में सार्वजनिक परिवहन को तरजीह दी होती तो हमें इतना क्रूड खरीदने की जरूरत नहीं होती न स्वाभिमान गिरवी रखना पड़ता और दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सभी तरह के मीडिया के कर्मचारियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए

मीडियाकर्मियों को जिस तरह 300 और 60 की बड़ी संख्या में नौकरी से निकाला गया है उस से यह बात स्पष्ट होती है कि पूंजीवादी आर्थिक ढाँचे में कर्मचारियों और मजदूरों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता रहती है। इस आर्थिक ढाँचे में कभी भी कर्मचारी-मजदूर किसी संविदा के मामले में पूंजीपति के बराबर नहीं रखे जा सकते। अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों की सेवा शर्तों, कार्यस्थल की सुविधाओं, वेतनमान तय करने, वेतन और ग्रेच्यूटी भुगतान, तथा नौकरी से निकाले जाने के मामलों के नियंत्रण के लिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना हुआ है। लेकिन यह कानून सिर्फ न्यूजपेपर्स और न्यूजपेपर संस्थानों पर ही प्रभावी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे कर्मचारियों को किसी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस कारण इस क्षेत्र के नियोजकों द्वारा मनमाने तरीके से नौकरी के वक्त की गई संविदा की मनमानी शर्तों के अन्तर्गत उन्हें संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इस कारण यह जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित संपूर्ण मीडिया संस्थानों को इस कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

ज के जमाने में कर्मचारियों और श्रमिकों का संघर्ष केवल अपने मालिकों से नहीं रह गया है। कहीं मजदूर अपनी सेवा शर्तों की बेहतरी के लिए सामुहिक सौदेबाजी के तरीके अपनाते हैं तो सरकारी मशीनरी पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जा खड़ी होती है। इस तरह यह लड़ाई किसी एक मीडिया ग्रुप को चलाने वाले पूंजीपति के विरुद्ध न हो कर संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हो जाती है जिस का प्रतिनिधिनित्व सरकारें अपने सारे वस्त्र त्याग कर करती हैं।

स कारण यह एक संस्थान के मीडिया कर्मियों का संघर्ष सम्पूर्ण मीडिया कर्मियों का और संपूर्ण मजदूर वर्ग का हो जाता है। इस संघर्ष में मजदूर वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाली सभी ट्रेड युनियनों और राजनैतिक दलों व समूहों को सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि इस बार बहुत से सफेद कालर इस दमन का शिकार हुए हैं। उन के ढुलमुल वर्गीय चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जा सकती हैं। लेकिन वह कर्मचारी वर्ग के आपसी संघर्ष का भाग होगा। इस लड़ाई में उन मुद्दों को हवा देना एक तरह से मालिकों की तरफदारी करना है।
अब लड़ाई छँटनी करने वाले मीडिया संस्थान के विरुद्ध तो है ही साथ के साथ सरकार के विरुद्ध भी होनी चाहिए। साथ के साथ संपूर्ण मीडियाकर्मियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की और विवादों के हल के लिए तेजगति से काम करने वाली मशीनरी की व्यवस्था करने की लड़ाई सीधे सरकार के विरुद्ध चलाई जानी चाहिए। मीडिया कर्मियों को इस लड़ाई में संपूर्ण श्रमिक कर्मचारी जगत को  अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

डॉ. धाभोलकर की इस हत्या रंग लाएगी, एक दिन दुनिया अंधश्रद्धा से निर्मूल अवश्य होगी।

महाराष्ट्र सरकार शीघ्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन कानून बनाए

अंधविश्वास और काले जादू के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वाले डॉ. नरेन्द्र धाभोलकर पुणे स्थित अपने निवास से सुबह की सैर के लिए निकले थे कि औंकारेश्वर पुल के नजदीक मोटरसाइकिल पर सवार दो हमलावरों ने उनके सिर पर क़रीब से गोलियां दाग कर उन की हत्या कर दी। उन्हें देख कर लोगों ने उन्हें ससून अस्पताल पहुँचाया जहाँ उन की मृत्यु हो गई। पुणे के पुलिस आयुक्त गुलाबराव ने दाभोलकर की मौत की पुष्टि करते हुए बताया कि पुलिस हत्या के कारणों की जांच की जा रही है लेकिन अभी तक किसी हमलावर की पहचान नहीं हुई है।
देश और दुनिया भर के अंधश्रद्धा विरोधी और वैज्ञानिक विचार के समर्थक लोगों और उन के आन्दोलन को इस घटना से गहरा दुख पहुँचा है। अनेक राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धाभोलकर की हत्या की कड़ी निंदा करते हुए उन्हें प्रगतिवादी सोच के लिए समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता बताया है। डॉ. धाभोलकर प्रगतिवादी सोच के लिए महाराष्ट्र में  विशेष रूप से काम कर रहे थे।
हाराष्ट्र के मुख्यमंत्री  पृथ्वीराज चव्हाण ने डॉ. धाभोलकर की हत्या की निंदा करते हुए उनके हत्यारों का सुराग बताने वाले को दस लाख रुपए इनाम की घोषणा की है। राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल ने डॉ. धाभोलकर की हत्या पर क्षोभ और दुख व्यक्त करते हुए कहा कि पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को इस मामले की तह में जाने का निर्देश दिया है। पुलिस ने बताया कि 69 साल के डॉ. धाभोलकर को कुल चार गोलियां मारी गई थीं जिनमें दो उनके सिर पर लगी थीं।
माज में व्याप्त अंधविश्वासों को खत्म करने और वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिए चलाए जा रहे अभियान अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की अगुवाई कर रहे थे। साथ ही वे प्रगतिवादी विचारधारा की पत्रिका ‘साधना’ के संपादक भी थे। महाराष्टर के सतारा ज़िले के रहने वाले डॉ. धाभोलकर सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वास के ख़िलाफ क़ानून लाने के लिए महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधेयक लाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन कुछ लोग उनकी इस मुहिम के ख़िलाफ थे। इस विधेयक में जिन कृत्यों को अपराध घोषित किए जाने का प्रस्ताव था वे निम्न प्रकार हैं …
  1. भूत उतारने के बहाने किसी व्यक्ति को, रस्सी या ज़ंजीर से बांधकर रखना, पीटना, लाठी या चाबुक से मारना, पादत्राण भिगाकर उसका पानी पिलाना, मिरची का धुआं देना, छत से लटकाना, रस्सी या बालों से बांधना, उस व्यक्ति के बाल उखाडना, व्यक्ति के शरीर पर या अवयवों पर गरम की वस्तु के दाग देकर हानि पहुँचाना, सार्वजनिक स्थान पर लैंगिक कृत्य करने की जबरदस्ती करना, व्यक्ति पर अघोरी कृत्य करना, मुँह में जबरदस्ती मूत्र या विष्ठा डालना या ऐसी कोई कृति करना।
  2. किसी व्यक्ति को तथाकथित चमत्कार कर उससे आर्थिक प्राप्ति करना और इसी प्रकार ऐसे तथाकथित चमत्कारों का प्रचार और प्रसार कर लोगों को फंसाना, ठगना अथवा उन पर दहशत निर्माण करना।
  3. अतिन्द्रीय शक्ति की कृपा प्राप्त करने के लिए ऐसी अघोरी प्रथाओं का अवलंब करना जिन से जान का खतरा होता हो या शरीर को प्राणघातक जख्म होते हों; और ऐसी प्रथाओं का अवलंब करने के लिए औरों को प्रवृत्त करना, उत्तेजितकरना या उन के साथ जबरदस्ती करना।
  4. मूल्यवान वस्तु, गुप्त धन, जलस्रोत खोजने के बहाने या तत्सम कारणों से करनी, भानामति इत्यादि नामों से कोई भी अमानुष कृत्य करना या ऐसे अमानुष कृत्य करने और जारणमारण अथवा पर नरबलि देना या देने का प्रयास करना, या ऐसे अमानुष कृत्य करने की सलाह देना, उसके लिए प्रवृत्त करना, अथवा प्रोत्साहन देना।
  5. अपने भीतर अतींद्रिय शक्ति है ऐसा आभास निर्माण कर अथवा अतींद्रिय शक्ति संचरित होने का आभास निर्माण कर औरों के मन में भय निर्माण करना या उस व्यक्ति का कहना न मानने पर बुरे परिणाम होने की धमकी देना।
  6. कोई विशिष्ट व्यक्ति करनी करता है, काली विद्या करता है, भूत लगाता है, मंत्र-तंत्र से जानवरों की दूध देने की क्षमता समाप्त करता है, ऐसा बताकर उस व्यक्ति के बारे में संदेह निर्माण करना, इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपशकुनी है, रोग फैलने का कारण इत्यादि बताकर या आभास निर्माण कर संबंधित व्यक्ति का जीना मुश्किल करना, कष्टमय करना या कठिन करना, कोई व्यक्ति शैतान या शैतान का अवतार है, ऐसा घोषित करना।
  7. जारणमारण, करनी या टोटका करने का आरोप लगा कर किसी व्यक्ति के साथ मारपीट करना, उसे नग्नावस्था में घुमाना या उसके रोज के व्यवहार पर पाबंदी लगाना।
  8. मंत्र की सहायता से भूत-पिशाचों का आव्हान कर या आव्हान करने की धमकी देकर लोगों के मन में घबराहट निर्माण करना, मंत्र-तंत्र अथावा तत्सम बातें बनाकर किसी व्यक्ति को विष-बाधा से मुक्त करने का आभास निर्माण करना, शारीरिक हानि (क्षति) होने के लिए भूत या अमानवी शक्ति का कोप होने का आभास करा देना, लोगों को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर, उसके बदले उन्हें अघोरी कृत्य या उपाय करने के लिए प्रवृत्त करना अथवा मंत्र-तंत्र (टोटका) जादूटोना अथवा अघोरी उपाय करने का आभास निर्माण कर लोगों को मृत्यु का भय दिखाना, पीडा देना या आर्थिक अथवा मानसिक हानि पहुँचाना।
  9. कुत्ता, साँप, बिच्छु आदि के काटे व्यक्ति को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर या प्रतिबंध कर, उसके बदले, मंत्र-तंत्र, गंडा-धागा आदि अन्य उपचार करना।
  10. उंगली से शस्त्रक्रिया कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना या गर्भवती स्त्री के गर्भ का लिंग बदल कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना।
  11. (क) स्वयं में विशेष शक्ति होने या किसी का अवतार होने या स्वयं पवित्र आत्मा होने का आभास निर्माण कर या उसके बातों में आई व्यक्ति को पूर्वजन्म में तू मेरी पत्नी, पति या प्रेयसी, प्रियकर था ऐसा बताकर, उस व्यक्ति के साथ लैंगिक संबंध रखना।
    (ख) संतान न होनेवाली स्त्री को अतींद्रिय शक्ति द्वारा संतान होने का आश्वारसन देकर उसके साथ लैंगिक संबंध रखना।
  12. मंद बुद्धि के (mentally retarded) व्यक्ति में अतींद्रिय शक्ति है ऐसा अन्य लोगों के मन में आभास निर्माण कर उस व्यक्ति का धंधे या व्यवसाय के लिए प्रयोग करना।
डॉ. धाभोलकर की इस हत्या से वैज्ञानिक विचारधारा के सभी समर्थक अत्यन्त हतप्रभ हैं। लेकिन यह वैज्ञानिक विचारधारा के समर्थन में अभियान चलाने वालों के जीवन समाप्त कर देने के प्रयासों का पहला अवसर नहीं है। इतिहास में ऐसा होता आया है। लेकिन इस के बावजूद मनुष्य का अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने का प्रयास कभी रुका नहीं, वह और बलवान हो कर आगे बढ़ता रहा। अब भी इस घटना से यह अभियान रुकने वाला नहीं है वह और मजबूत हो कर आगे बढ़ेगा। हम इस अभियान को निरंतर आगे बढ़ाएंगे। एक दिन अवश्य होगा जब दुनिया अंधश्रद्धा से निर्मूल होगी।
“तीसरा खंबा” और “अनवरत” डॉ. धाभोलकर की इस हत्या कि कड़ी निन्दा करते हैं। उन्हें उन के अथक प्रयासों के लिए सलाम करते हैं। हम आव्हान करते हैं कि वैज्ञानिक विचार के पक्षधर लोग एकजुट हों और अपने अपने क्षेत्र में इस अभियान को सक्रिय हो कर गति प्रदान करें।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

अर्जेंटीना की मेहरबानी से भारत को विश्वकप में प्रवेश का अवसर ...बीजी जोशी

विश्व कप में प्रवेश के लिए एशिया कप जीतना जरूरी नहीं

जायंट किलर अर्जेंटीना ने चौथे पैनअमेरिकी हॉकी कप के फाइनल में कनाडा को ४-० से रौंद कर भारत के विश्व कप हॉकी में खेलने की संभावनाएं बढाई है। अब भारत को २४ अगस्त से इपोह में शुरू हो रहा ९वां एशिया कप जीतना जरूरी नही रहा है।

जकल हॉकी विश्व कप में दो विश्व कप क्वालिफायर (वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल) में प्रथम तीन स्थान पर रही टीमें, मेजबान व पांचों महाद्वीप के चैंपियन सहित १२ स्थान है। जर्मनी, अर्जेंटीना, इग्लैंड ने मलेशिया में खेले गए तथा बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स ने नीदरलैंड्स में आयोजित क्वालिफायर से अपने पग विश्व कप में रख दिए है। क्वालिफायर में चौथे क्रम पर रही न्यूजीलैंड ने मेजबान नीदरलैंड्स की जगह प्राप्त कर ली है। वर्ल्ड लीग स्पर्धा में अर्जित रैंकिंग के आधार पर दक्षिण कोरिया, स्पेन, मलेशिया व भारत क्रमशः विश्व कप हेतु वेटिंग लिस्ट में है। 

अर्जेंटीना ने भारत की राह आसान की

पूर्व में ही विश्व कप में पहुंच चुकी अर्जेंटीना की जगह अब दक्षिण कोरिया को मिल गई है। ऐसे में योरप, ऑस्ट्रेलिया कप में पूर्व में ही विश्व कप में पहुंच चुकी टीम के विजेता बनने पर स्पेन व मलेशिया को मौका मिलेगा। अब इपोह एशिया कप में सूत्र है दक्षिण कोरिया या मलेशिया के जीतने पर भी भारत स्वतः ही विश्व कप में खेलेगा, हां पाकिस्तान द्वारा एशिया कप जीतने पर भारत विश्व कप से बाहर हो जाएगा। अर्जेंटीना ने मांट्रियल ओलिंपिक (१९७६) में ऑस्ट्रेलिया को हरा कर भारत को सेमीफाइनल का मौका दिया था। तब प्लेऑफ में भारत टाईब्रेकर में ऑस्ट्रेलिया से हार कर स्वर्णिम अवसर खो बैठा था। विदित है कि कुआलालंपुर (१९७५) में विश्व कप विजयी भारतीय टीम को अर्जेंटीना ने पुल मैच में हराया था। आज अमेरिकी हॉकी कप में कनाडा को हरा कर भारत की विश्व कप राह में फूल बिछा दिए है। 

-बीजी जोशी

शनिवार, 10 अगस्त 2013

क्या लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही नहीं चाहते हैं?

म लोग आम भाषा में बात करते हैं। भारत में रावण बुराइयों का प्रतीक है। लेकिन आम लोग आप को उस की बढ़ाई करते मिल जाएंगे। यह कहते हुए मिल जाएंगे कि वह बहुतों से अच्छा था। लेकिन जब वे इस तरह की बात करते हैं तो वे रावण के किसी एक गुण की बात कर रहे होते हैं जो तुलना किए जाने वाले व्यक्तित्व में नहीं होता। या वे उस दुर्गुण की बात कर रहे होते हैं जो रावण में नहीं था और आज कल के नेताओं में होता है। मसलन रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की तो क्या उस के निकट आने की कोशिश तक नहीं की। वह भय और प्रीत दिखा कर ही सीता को अपना बनाने के प्रयत्न करता रहा। खैर! यह तो एक मिथकीय चरित्र था। लेकिन आम लोग सामान्य जीवन में क्रूरतम शासकों की तारीफ भी करते दिखाई दे जाते हैं। 
मेरे एक पड़ौसी अक्सर आज के जनतंत्र के मुकाबले राजाओं और अंग्रेजों के राज की तारीफ करते नहीं थकते थे। मुझे लगता था कि वे सिरे से ही जनतंत्र के विरुद्ध हैं और मैं उन से अक्सर बहस में उलझ जाता था। लेकिन धीरे धीरे मुझे पता लगा कि वे वास्तव में जनतंत्र के विरुद्ध नहीं हैं। लेकिन इस जनतंत्र के नाम पर जो छद्म चल रहा है, जिस तरह पूंजीपति-भूस्वामी एक वर्ग की तानाशही चल रही है और जिस तरीके से सत्ता में बने रहने के लिए इन वर्गों की पार्टियाँ और उन के नेता जनता को बेवकूफ बनाते हैं उस के वे सख्त खिलाफ थे और चाहते थे कि कानून का राज होना चाहिए न कि व्यक्तियों का। कानून का व्यवहार सब के साथ समान होना चाहिए। यदि अतिक्रमियों के विरुद्ध कार्यवाही हो तो सब के विरुद्ध समान रूप से हो न कि कुछ के विरुद्ध हो जाए और बाकी लोगों को छोड़ दिया जाए। 
स तरह के लोग वास्तव में यह प्रकट कर रहे होते हैं कि जनतंत्र तो ठीक है,  लेकिन आम जनता के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले लोगों और कानून का पालन न करने वाले लोगों के विरुद्ध तानाशाह जैसी सख्ती बरतनी चाहिए। लेकिन वे इसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाते और इतिहास के बदनाम तानाशाहों का हवाला दे कर कहने लगते हैं कि इन शासकों से तो वही अच्छा था। साधारण और गैर राजनैतिक लोगों से यह चूक इस कारण से होती है कि वे शासन के वर्गीय चरित्र और जनतांत्रिक पद्धति में सरकारों की भूमिका को नहीं समझ पाते। हम उन्हें इस चीज को समझाने के स्थान पर उन से बहस में उलझ पड़ते हैं। 
ज ही फेसबुक पर मेरे एक सूत्र पर टिप्पणी करते हुए राज भाटिया जी ने टिप्पणी कर दी कि "चोर लुटेरो से तो अच्छा हिटलर ही हे..." तब मैं ने उस का तुरन्त प्रतिाद किया कि "राज जी, आप गलत हैं, वह किसी से अच्छा न था। इंसानियत के नाम पर कलंक था।" मैं उन से इस बात पर वहाँ बहस नहीं करना चाहता था, क्यों कि मैं समझ रहा था कि राज जी हिटलर को अच्छा बता कर क्या कहना चाहते थे। लेकिन फिर मसिजीवी जी ने टिप्पणी की- "जरा बताए कि हिटलर चोर-लुटेरों या किसी से भी कैसे अच्‍छा हो सकता है ? खेद है कि आपका कथन शर्मनाक है।"
इस पर राज जी नाराज हो गए उन्हों ने टिप्पणी की -"जी आप को कोई अधिकार नही मुझ से प्रशन करने का, आप जैसे हालात मे खुश हे भगवान आप को उन्ही हालात मे रखे..."
राज जी ने उस के बाद मेरी टिप्पणी का उत्तर भी दिया "दिनेशराय द्विवेदी मानता हू आप की बात हिटलर इंसानियत के नाम पर कलंक हे, लेकिन उसे वहां तक लाया कोन था..? उसे वो सब करने पर मजबुर किस ने किया।....गंदी को साफ़ करने के लिये गंदी मे उतरना पडता हे, तो लोग उसे ही गंदा कहते हे, पहले सोचे वो इतना नीच कैसे हो गया... जो आम आदमी था." खैर!
स पोस्ट की बात छोडें। अपनी बात पर आएँ। वास्तव में लोग जनतंत्र भी चाहते हैं और जनहित के विरुद्ध काम कर रहे तत्वों पर सख्त तानाशाही भी। लेकिन जिस तरह का तंत्र वे चाहते हैं उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पातेष उस के लिए उन के पास उदाहरण भी नहीं हैं। वैसे हालातों में वे बदनाम और क्रूर तानाशाहों तक का उदाहरण दे बैठते हैं। 
हाँ तक मैं समझता हूँ कि वे यह चाहते हैं कि आम श्रमजीवी जनता के लिए जनतंत्र होना चाहिए लेकिन उन्हें समाज के नियम और कानून के साथ चलाने के लिए सख्ती भी चाहिए। मौजूदा पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग राजनेताओं और नौकरशाहों को भ्रष्ट कर के जिस तरह से अपनी तानाशाही चलाता है उस से निजात भी चाहिए वह निजात इन वर्गों पर तानाशाही के चलते ही संभव हो सकती है। वस्तुतः ऐसे लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही चाहते हैं। जिस में आम श्रमजीवी जनता को लोकतांत्रिक अधिकार मिलें, लेकिन उन्हें अनुशासित रखने के लिए सख्ती भी हो साथ ही पूंजीपति-भूस्वामियों के लुटेरे वर्गों और उन के सहयोगी राजनेताओं व नौकरशाहों पर तानाशाही भी हो।