@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 30 जून 2011

बटुए में, सपनों की रानी

हाय!
क्या जमाना था वह भी? चवन्नी चवन्नी नहीं महारानी विक्टोरिया और मधुबाला की तरह हुआ करती थी। जिसे दूर से देखा जा सकता था। तब तक चूड़ी बाजे में वह गाना भी नहीं बजा था ... मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू ... चली आ .... तू चली आ ... वरना हम मन ही मन अक्सर उसे ही गा रहे होते।


दादाजी, हमें दो पैसे देते थे। कभी दो बड़े बड़े तांबे के पैसे, कभी एक बड़ा पैसा और एक छेद वाला पहिए जैसा। एक पैसे के मोटे सेव और एक पैसे का कलाकंद उस छोटे से पेट के लिए पर्याप्त से अधिक ही होता था। तब तक स्कूल के दर्शन भी नहीं किए थे। लेकिन बालपोथी के चित्र देख-देख अक्षर पढ़ना सीख लिए थे, फिर मात्राएँ भी आने लगी थीं। बारह खड़ी बोलने में मजा आता था। कक्का किक्की कुक्कू केकै कोकौ कंकः .... कन्दोई की दुकान से अखबार के टुकड़ों में सेव-कलाकंद ले कर आते और घर के किसी एकांत कोने में बैठ कर नाश्ते का आनंद लेते हुए अखबार पढने की कोशिश करते।

सुनते थे कि पैसे की भी पाइयाँ होती थीं, तब बंद हो चुकी थीं। बिलकुल अभी आज से बंद होने वाली चवन्नी जैसी। पर कभी कभी दादा जी के पास देखने को मिल जाती थीं। एक किस्सा सुनाया जाता था कि अंग्रेज अफसर को गाँव में रुकना पड़ गया सोने के लिए उस ने किसी किसान से चारपाई का इंतजाम करने को कहा। बेचारा पूरे गाँव में मारा मारा फिरा और घंटे भर बाद आकर कहा म्हारा! तीन ही मिली। अंग्रेज को समझाने में पसीने छूट गए कि उसे चारपाई चाहिए चार पाई नहीं। किसान समझा तो बोला। तो म्हारा फैली ख्हता नै कै खाट छाईजे। वा तो म्हारा घरणे ई चार-चार छै।
शहर में सिनेमा घर तो था नहीं। दिन भर मैदान खेलने के काम आता था और रात में चारों और परदों की दीवार बना दी जाती थी, उसी में सिनेमा दिखाया जाता था। उसे फट्टा टाकिज कहा करते थे। उस में हमें पहली बार जब सिनेमा देखने का मौका मिला तो टिकट चवन्नी का था। 
फिर बड़ा पैसा, छेद वाला पैसा बंद हुआ। एक नया पैसा आ गया। अम्माँ के माथे की बिंदी जितना बड़ा और वैसा ही गोल तांबे का। इकन्नी चार पुराने पैसों के बजाए नए छह पैसों की हो गई चवन्नी पच्चीस की और रूपया 100 पैसे का। ये फायदा होने  लगा कि चवन्नी के खुट्टे लो तो चार आने के अलावा एक पैसा बच जाता। सारा हिसाब गड़बड़ा गया। फिर इकन्नी भी बंद हो गई। पच्चीस पैसे वाली चवन्नी चलती रही। वह चवन्नी नहीं थी चौथाई रुपया था, या फिर पच्चीस पैसे का सिक्का, पर उस ने चवन्नी का नाम चुरा लिया था। उस नाम को आज तक धरे रही। आज उस का भी आखिरी समय आ ही गया। 
धर हाडौ़ती में तो चवन्नी क्या अठन्नी भी सालों से बंद है। बेटी मुम्बई पढ़ने लगी तो वहाँ चवन्नी चलती दिखाई दी थी। जब भी मुम्बई जाता एक-दो चवन्नियाँ जेब में चली आतीं। पिछले पाँच बरस से मुम्बई नहीं गया हूँ, लेकिन वहाँ से आई एक चवन्नी मेरे बटुए में अभी तक पड़ी है। उसे देखता हूँ, उसे कहता हूँ। आज से तेरी भी बाजार से छुट्टी। मैं उसे बटुए से निकाल कर श्रीमती जी को पकड़ा रहा हूँ। कुछ पुराने चाँदी के सिक्के हैं जो एक कपड़े के खूबसूरत बटुए में रखे हैं, जिन्हें वे दीवाली के दिन निकाल कर धो-पोंछ कर रख देती हैं पूजा में। कहता हूँ -इस चवन्नी को भी वहीं रख दो। देखा करेंगे दीवाली के दीवाली।

मंगलवार, 28 जून 2011

"शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"

निशा, शायद यही नाम है, उस का। उस का नाम रजनी या सविता भी हो सकता है। पर नाम से क्या फर्क पड़ता है? नाम खुद का दिया तो होता नहीं, वह हमेशा नाम कोई और ही रखता है जो कुछ भी रखा जा सकता है। चलो उस लड़की का नाम हम सविता रख देते हैं।

ह ग्यारह वर्ष से जीएनएम  यानी सामान्य नर्सिंग और दाई का काम कर रही है। ग्यारह साल कम नहीं होते एक ही काम करते हुए। इतना अनुभव हो जाता है कि कोई भी अधिक जटिलता के काम कर सकता है। वह भी चाहती है कि उसे भी अधिक जटिल काम मिलें, नौकरी में उस की पदोन्नति हो। पर इस के लिए जरूरी है कि वह कुछ परीक्षाएँ और उत्तीर्ण करे। उस ने प्रशिक्षण  में दाखिला ले लिया। साल भर पढ़ाई की। जब परीक्षा हुई तो परीक्षक की निगाहें उस पर गड़ गईं। उस के काम में कोई कमी नहीं लेकिन फिर भी ... परीक्षक ने कहा पास नहीं हो सकोगी। होना चाहती हो तो कुछ देना पड़ेगा। उसे अजीब सा लगा, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया। परिणाम आया तो वह अनुत्तीर्ण हो गई। फिर एक साल पढ़ाई, फिर परीक्षा और परिणाम की प्रतीक्षा ...

इस बार वही परीक्षक ट्रेनिंग सेंटर के आचार्य की पीठ पर विराजमान था, कामचलाऊ ही सही, पर पीठ तो आचार्य की थी। उस ने सविता को देखा तो पूछा
-तुम पिछले साल उत्तीर्ण नहीं हुई? उस ने उत्तर दिया
-कहाँ सर? आप ने मदद ही नहीं की।
-मैं ने तो तुम्हें उपाय बताया था।
-नहीं सर! वह मैं नहीं कर सकती। हाँ कुछ धन दे सकती हूँ।
-सोच लो, धन से काम न चलेगा।
-सोचूंगी।
 कह कर वह चली आई। सोचती रही क्या किया जाए। आखिर उस ने सोच ही लिया। वह फिर आचार्य के पास पहुँची, कहा
-सर ठीक है जो आप कहते हैं मैं उस के लिए तैयार हूँ। पर मेरी दो साथिनें और हैं, उन की भी मदद करनी होगी। वे दो दो हजार देने को तैयार हैं। आचार्य तैयार हो गए। सविता को चौराहे पर मिलने के लिए कहा।
सविता चौराहे तक पहुँची ही थी कि स्कूटर का हॉर्न बजा। आचार्य मुस्कुराते हुए स्कूटर लिए खड़े थे। वह पीछे बैठ गई। स्कूटर नगर के बाहर की एक बस्ती की ओर मुड़ा तो सविता पूछ बैठी।
-इधर कहाँ? सर!
-वह तुम्हारी अधीक्षिका थी न? वह आज कल दूसरे शहर में तैनात है उस के घर की चाबियाँ मेरे पास हैं, वहीं जा रहे हैं। क्या तुम्हें वहाँ कोई आपत्ति तो नहीं?
-ठीक है सर! वहाँ मुझे कोई जानता भी नहीं।

कुछ देर में स्कूटर घर के सामने रुका। आचार्य ने ताला खोला अंदर प्रवेश किया। कमरा खोल कर सविता को बिठाया। सविता ने अपने ब्लाउज से पर्स निकाल कर चार हजार आचार्य को पकड़ा दिए।
-तुम बैठो! तुम बाहर का दरवाजा खुला छोड़ आई हो, मैं बंद कर आता हूँ।
आचार्य कमरे से निकल गया। सविता के पूरे शरीर में कँपकँपी सी आ गई। उसे लगा जैसे कुछ ही देर में उसे बुखार आ जाएगा। लेकिन तभी ..
आचार्य मुख्य द्वार बंद कर रहा था कि कुछ लोगों ने बाहर से दरवाजे को धक्का दिया। वह हड़बड़ा गया। उसे दो लोगों ने पकड़ लिया। अंदर कमरे में जहाँ सविता थी ले आए। इतने सारे लोगों को देख सविता की कँपकँपी बन्द हुई। आचार्य के पास से नोट बरामद कर लिए गए। उन्हें धोया तो रंग छूटने लगा। आचार्य के हाथों में भी रंग था।

विता को फिर से कँपकँपी छूटने लगी थी। वह सोच रही थी, जब उस के पति और ससुराल वालों को पता लगेगा तो क्या सोचेंगे?  उन का व्यवहार उस के प्रति बदल तो नहीं जाएगा? उस के और रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उस का जीवन बदल तो नहीं जाएगा? और उस के परीक्षा परिणाम का क्या होगा? सोचते सोचते अचानक उस ने दृढ़ता धारण कर ली। अब कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी परिणाम हो। उस ने वही किया जो उचित था और उसे करना चाहिए था। वह सारे परिणामों का मुकाबला करेगी। कम से कम कोई तो होगा जो यह कहेगा "शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"।

चार्य जी, जेल में हैं। पुलिस ने उन की जमानत नहीं ली। अदालत  भी कम से कम कुछ दिन उन की जमानत नहीं लेगी। अच्छा तो तब हो जब उन की जमानत तब तक न ली जाए जब तक मुकदमे का निर्णय न हो जाए।
(कल सीकर में घटी घटना पर आधारित)

सोमवार, 27 जून 2011

वर्षा से हरियाई हाड़ौती

मेरा अपना हाड़ौती अंचल मनोरम है। बरसात में तो इस की छटा निराली होती है। कुछ दिन पूर्व एक समारोह में हाड़ौती के वरिष्ठ कवि, गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से भेंट हुई, मुझे उन्हें बस तक पहुँचाने का सुअवसर मिला। मार्ग में वार्तालाप के दौरान वे कहने लगे हाड़ौती शब्द हाड़ा राजपूतों के जन्म से पुराना है। वे वास्तव में चौहानवंशी हैं। हाड़ौती में बसी उन के वंशज हाड़ा कहलाए। इस तरह हाड़ा शब्द राष्ट्रीयता सूचक है। वे बताने लगे कि हाड़ौती शब्द की उत्पत्ति सरस्वती से हुई। स का उच्चारण ह होने पर सरस्वती हरह्वती हो जाती है। जो बोलने के लिहाज से हरवती और बाद में हरौती और फिर हाड़ौती हो जाता है। आर्य वंशज जब उत्तरी हमलों के दबाव से पंजाब से दक्षिण में खिसकने लगे तो मार्ग में राजस्थान का रेगिस्तान पड़ा और उस के बाद यह हाडौती अंचल। यहाँ उन्हें पारियात्र पर्वत से निकली चर्मणवती, सिंध, परवन, पारवती (देवी) और उन की सहायक नदियाँ दिखाई दीं, पर्वत और मैदान दोनों का समिश्रण देखने को मिला और उन्हों ने इसे सरस्वती का अंचल मान कर इसे उसी के नाम पर हाडौ़ती नाम दिया। हाडौती शब्द की उत्पत्ति का यह स्वरूप कितना सही है, मैं नहीं जानता, किन्तु तर्क संगत प्रतीत होता है। इस संबंध में शब्दों के यात्री अजित वडनेरकर या अन्य विद्वान अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। 

पिछले सोमवार से वर्षा ने इस हाडौ़ती अंचल में प्रवेश किया। बुध से शुक्र तक खूब मेघ खूब बरसे। अनेक वर्षों बाद आषाढ़ मास के पूर्वार्ध में इतनी वर्षा हुई कि सभी नदियाँ किनारों से ऊपर बहने लगीं। सारे प्रकृति हरिया गई। फिर वर्षा ने कुछ अवकाश लिया, पर मौसम अभी शीतल और नम बना हुआ है। मेघों ने सूर्य को ढका हुआ है। मंद मंद शीतल पवन बहती रहती है। आज सुबह मैं अदालत के लिए निकला तो मार्ग में दोनो और के सारे वृक्ष हरिया गए थे। पिछले सोमवार से पहले दिखाई देने वाला पीला रंग कनेर के पुष्पों और अमलतास के बचे खुचे पुष्पगुच्छों तक सीमित हो चुका था। प्रथम वर्षा कितनी जीवनदायिनी हो सकती है हरियाई प्रकृति से पता लगता है। लोग शनि-रवि को लोग नगर त्याग कर आस-पास बह निकली जलधाराओं के किनारे जा पहुँचे। वहीं उन्हों ने भोजन बना कर आमोद के साथ इस प्रकृति उत्सव का आरंभ कर डाला। यह प्रकृति उत्सव अभी दो माह भादौं के उत्तरार्ध तक चलना है। इस बीच कुछ वृद्ध वृक्ष धराशाई हो गए, आषाढ़ के उत्तरार्ध से वर्षारंभ मानने से चल रहे विवाह समारोहों में बाधा पड़ी, बस पुलिया से नाले में खिसक गई और एक नई दुलहिन को नदी पार कराने को जो व्यवस्था करनी पड़ी आप इन चित्रों में देख सकते हैं -

अचानक तेज वर्षा में यातायात

वर्षा के थपेड़े से गिरा एक बुजुर्ग वृक्ष
चालक ध्यान नहीं रख पाया बस का पहिया पुलिया से नीचे चला गया, बचे 60 यात्री

हवा भरी ट्यूब, उस पर चारपाई, चारपाई पर नई ब्याही दुलहिन और उस के कपड़ों की गठरी को पार कराई गई नदी
 

रविवार, 26 जून 2011

न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन

राजस्थान में गर्मी के मौसम में अप्रेल के तीसरे सप्ताह से जून के आखिरी सप्ताह तक उच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालयों का समय सुबह 7 बजे से 12 बजे तक का हो जाता है और जून के प्रथम से चौथे सप्ताह तक दीवानी न्यायालय में अवकाश हो जाता है। इस से यह सोचना कि कुछ न्यायालयों में ताला पड़ा रहता होगा गलत है। हमारे यहाँ ऐसा कोई न्यायालय है ही नहीं जो केवल दीवानी न्यायालय का काम देखता हो। सभी न्यायालयों को दीवानी और अपराधिक दोनों प्रकार का काम करना होता है। जैसे कनिष्ठ खंड सिविल न्यायाधीश के न्यायालय को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ भी होती हैं। इस तरह अपराधिक मुकदमों की सुनवाई इन अवकाशों में होती रहती है। इस के अतिरिक्त सभी दीवानी काम करने वाले विशेष न्यायालय जैसे मोटरवाहन दुर्घटना दावा अधिकरण, श्रम न्यायालय, परिवार न्यायालय और सभी राजस्व न्यायालय चलते रहते हैं। वकीलों को नित्य ही अदालत जाना पड़ता है। 

लेकिन मेरे जैसे वकीलों को जिन के पास प्रमुखतः दीवानी मुकदमों का काम होता है, एक विश्राम मिल जाता है। हम चाहें तो इन दिनों बेफिक्र हो कर यात्रा पर जा सकते हैं। क्यों कि अवकाश होने से बाहर जाने वाले वकीलों को न्यायालय सहयोग करता है। अधीनस्थ भारतीय न्यायालयों के लिए इस तरह का सहयोग करना आसान है। उन की दैनिक सूची में 80 से सौ सवा सौ तक मुकदमे प्रतिदिन रहते हैं। वास्तविक काम सिर्फ 20-30 मुकदमों में हो पाता है। शेष मुकदमों में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। सुबह सुबह ही पेशकार को पता लग जाता है कि कौन कौन वकील आज नहीं है, वह उन के मुकदमों की पत्रावलियाँ अलग निकाल लेता है और न्यायाधीश की सहमति ले कर उन में अगली पेशी दे देता है।

ब सुबह की अदालतें और दीवानी अदालतों के अवकाश समाप्त होने को हैं। अगले बुध से न्यायालय सुबह 10 से 5 बजे तक के हो जाएंगे और दीवानी अदालतें भी आरंभ हो जाएंगी। मैं ने आज ही अपने कार्यालय को संभाला। अवकाश के दिनों में जिस तरह मैं काम करता रहा उस तरह से बहुत सी पत्रावलियाँ सही स्थान पर नहीं थीं। उन्हें सही किया और कामों की सूची बना ली। आम तौर पर वकीलों को इस काम के लिए बदनाम किया जाता है कि वे मुकदमों में पेशियों पर पेशियाँ ले कर मुकदमों को लंबा करते रहते हैं और यह मुकदमों में देरी का सब से बड़ा कारण है। लेकिन ऐसा नहीं है। मुकदमे तो इसलिए लंबे होते हैं कि अदालतें कम हैं, वे क्षमता से तीन-चार गुना काम प्रतिदिन रखती हैं, जिन में से तीन चौथाई से दो तिहाई में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। इस का नतीजा यह है कि वकील की डायरी में भी प्रतिदिन उस की क्षमता से तीन-चार गुना काम होता है। यदि वह अपनी क्षमता के अनुसार ही काम रखे तो उस में से तीन चौथाई में केवल पेशी बदल दी जाए तो उस के पास दिन का चौथाई काम ही रह जाए। 
स मामले में एक उदाहरण मेरे पास है। पिछले दो वर्ष से मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में किसी मुकदमे में पेशी एक माह से अधिक की नहीं दी जाती थी। अदालत लगभग तीस मुकदमे ही अपने पास रखती थी और चाहती थी कि हर मुकदमे में काम हो। यह अदालत अक्सर दो से तीन वर्ष में मुकदमों का निर्णय कर भी रही थी। लेकिन फास्ट ट्रेक अदालतों के समाप्त होने से मोटरयान अधिनियम की एक सहायक अदालत समाप्त हो गई। उस में लंबित सारे मुकदमे इसी अदालत के पास आ गए। अब वहाँ प्रतिदिन 60-70 मुकदमों की सूची बनने लगी है। वही दो तिहाई मामलों में पेशी ही बदलती है। पेशी भी अब दो-तीन माह से कम की नहीं लगाई जा रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में तुरंत वृद्धि की जाए। फिलहाल अमरीका की तुलना में भारत में केवल 15 प्रतिशत न्यायालय हैं और ब्रिटेन की तुलना में 25 प्रतिशत। न्याय नहीं के बराबर हो तो एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करना फिजूल है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मेरा प्रयत्न रहता है कि मेरे कारण किसी मुकदमे में पेशी न बदले। मेरी यह कोशिश जारी रहेगी।

भारत सरकार के मंत्रीमंडल ने इसी माह 'न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन' (“National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms) का कार्यक्रम हाथ में लेना तय किया है जिस में पाँच वर्षों में 5510 करोड़ रुपयों का खर्च आएगा। इसमें से 75 प्रतिशत का वहन केन्द्र करेगा और शेष का संबंधित राज्य। पूर्वोत्तर राज्यों के मामलों में केन्द्र 90 प्रतिशत खर्च उठाएगा। इस योजना के अंतर्गत नीतिगत और विधि संबंधी परिवर्तन, प्रक्रिया में परिवर्तन, मानव संसाधन विकास, सूचना तकनीक का उपयोग और अधीनस्थ न्यायालयों के भौतिक मूलढांचे का विकास सम्मिलित होंगे। कहा यह गया है कि वर्तमान में मुकदमों के निस्तारण में औसतन 15 वर्ष का समय लगता है इसे 3 वर्ष तक ले आया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो न्याय व्यवस्था में तेजी से सुधार देखने को मिलेंगे। लेकिन बिना अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह असंभव है जिस के लिए कुछ भी स्पष्ट रूप से इस कार्यक्रम में नहीं कहा गया है।

शनिवार, 25 जून 2011

एक और असहाय औरत

सा नहीं है कि ब्लाग जगत में वृद्धजनों की उपेक्षा और उन की समस्याओं पर विचार न हुआ हो। पहले भी समय समय पर विचार होता रहा है। हो सकता है कोई ब्लाग भी केवल वृद्धजनों पर बना हुआ हो।  लेकिन अनवरत की पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है और कैसी होगी, नई आजादी? के बाद इस विषय पर अनेक ब्लागों पर पोस्टें लिखी गई और एक बहस इस बात पर छिड़ गई कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस के पीछे क्या कारण हैं। हम इस विषय पर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। लेकिन वे एकांगी ही होंगे। क्यों कि हम अपनी अपनी दृष्टि से उन पर विचार करेंगे। वास्तविकता तो यह है कि भारत एक विशाल देश है और इस देश में अनेक वर्ग हैं। हर वर्ग में इस समस्या के अनेक रूप हैं। लेकिन हर जगह पर कमोबेश हमें वृद्धजनों की उपेक्षा दिखाई पड़ती है। वास्तव में इस समस्या पर समाजशास्त्रीय शोध होना चाहिए। शोध में आए निष्कर्षों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उस पर विचार करते हुए समस्या की जड़ों को खोजने का प्रयत्न होना चाहिए। इस दिशा में हो सकता है कुछ शोध हो भी रहे हों। यदि हम समस्या की जड़ों तक पहुँचें तो फिर उन्हें नष्ट करने का सामाजिक प्रयास किया जा सकता है। 

क्त दोनों पोस्टों में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह एक सामान्य निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बीच घटित हुई थी। लेकिन इसी नगर में तीन दिन बाद ही एक दूसरी घटना सामने आई जो इस समस्या का दूसरा पहलू दिखा रहा है। आप को उस की बानगी दिखाए देते हैं ...

हुआ यूँ कि प्रभात  मजदूर वर्ग से है। उस ने कड़ी मेहनत से कमाई की और किसी तरह बचत करते हुए    यहाँ छावनी इलाके में एक दो मंजिला मकान बना लिया। भूतल के चार कमरों में किराएदार रखे हुए हैं और प्रथम तल उस के स्वयं के पास है। उस के तीन बेटियाँ और एक बेटा राजेश है। सभी बेटियाँ शादीशुदा हैं और भोपाल में रहती हैं। प्रभात भी अक्सर अपनी बेटियों के पास ही रहता है। कभी कभी कुछ समय के लिए कोटा आ कर रहता है। किराएदारों से किराया वसूलता है और वापस भोपाल चला जाता है। राजेश को शराब की लत लग गई। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। राजेश उदयपुर जा कर मजदूरी करने लगा। वहाँ उसे शराब पीने से रोकने वाला कोई नहीं था। वह अधिक पीने लगा। धीरे-धीरे शराब ने उस के शरीर को इतना जर्जर कर दिया कि वह बीमार रहने लगा और आखिर डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। इस बीच उस की पिता से बात हुई होगी तो पिता ने उसे कह दिया कि वह कोटा आ कर क्यों नहीं रहता है। हो सकता है उस ने पिता को शराब के कारण हुई अपनी असाध्य बीमारी के बारे में न बताया हो। 

चानक 13 वर्ष बाद राजेश अपनी पत्नी चंद्रिका के साथ कोटा पहुँच गया। उन के कोई संतान नहीं है। पिता ने बेटे-बहू को आया देख कर उन्हें घर में घुसने नहीं दिया और खुद मकान के ताला लगा कर कहीं निकल गया। हो सकता है वह बेटियों के पास भोपाल चला गया हो। दो दिन तक राजेश-चंद्रिका घर के बाहर ही बैठे रहे। इस बीच लगातार बारिश होती रही। दोनों ने सामने के मकान के छज्जे के नीचे पट्टी पर सोकर उन्हों ने रात गुजारी। सुबह जब तेज बारिश में दरवाजे के बाहर लोगों ने उन्हें बैठे देख पूछताछ की। उन्होंने लोगों सारा घटनाक्रम बताया दिया। उनका कहना था कि पिता जब तक मकान में घुसने नहीं देंगे, तब तक वो यहीं बैठे रहेंगे। इस पर लोगों ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस बेटे-बहू को समझा कर थाने लेकर गई। वहां बेटे ने पिता के खिलाफ पुलिस को शिकायत दी है। पुलिस मामले की जांच कर रही है। फिलहाल पिता वापस नहीं लौटे है। पिता की तलाश जारी है। 

ह परिवार पहले वाले परिवार से भिन्न है। यहाँ बेटे को इकलौता होते हुए भी पिता ने घर से निकाल दिया। बेटा भी ऐसा गया कि उस ने 13 वर्ष तक घर का मुहँ नहीं देखा। शराब ने उस के शरीर को जब जर्जर कर दिया और डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। उसे लगने लगा कि अब वह जीवित नहीं रहेगा तो अपनी पत्नी को ले कर अपने पिता के पास आ गया। उस की मंशा शायद यह रही हो कि अब उस की हालत देख कर उस के पिता उस पर रहम करेंगे और उस का इलाज ही करा देंगे। यदि इलाज न हो सका तो कम से कम उस के मरने के बाद उस की पत्नी को रहने का ठिकाना तो मिल ही जाएगा। यहाँ यह लग सकता है कि बेटा जब कुपथ पर चला गया तो घर से उसका निष्कासन करना सही था। लेकिन आज जब बेटा बीमारी से मरने बैठा है तो उसे घर में न घुसने देना कितना उचित है? एक पुत्र अपने पिता के संरक्षण में कुपथ पर कैसे चला गया?  पिता सिर्फ अपनी कमाई को जोड़ कर घर बनाता रहा और पुत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह कुपथ पर गया तो उसे सुधारने का प्रयत्न किए बिना उस का घर से निष्कासन कर देना क्या उचित कहा जा सकता है? बेटे ने 13 वर्ष कैसे गुजारे किसी को पता नहीं। बेटे का विवाह बेटे ने स्वयं किया है या उस के पिता ने उस का विवाह निष्कासन के पहले कर दिया था, यह पता नहीं है। 

र इस सब में बेटे की पत्नी का क्या कसूर है? उस के पास तो इस के सिवा कोई सहारा नहीं है कि वह मजदूरी करे और अपना जीवन यापन करे। कम से कम कानून उसे अपने पति के पिता से कोई मदद प्राप्त करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। चूंकि वह अपने ससुर के साथ नहीं रही है। इस कारण से घरेलू हिंसा कानून भी उस की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिर परिवार का क्या अर्थ रह गया है?

शुक्रवार, 24 जून 2011

प्रयास

मित्रों, 




ब्लाग कचहरी

एक नया प्रयास है,


ऊपर चित्र पर क्लिक कर देखें 

और बताएँ, कैसा है?

गुरुवार, 23 जून 2011

कैसी होगी, नई आजादी?

पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है


... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?

लिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता  को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है  ...

1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;
3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।

  
दालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी। 

प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध  बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?

चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है