@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

उन्हें जज नहीं, तोते चाहिए

ख़्तर खान अकेला (हालांकि फोटो बता रहा है कि वे अकेले नहीं) को आप द्रुतगामी ब्लागीर कह सकते हैं। वे वकील हैं और पत्रकारिता से जुड़े हैं। दिन भर अदालत में वकालत का काम करना और फिर दफ्तर करना। दफ्तर में जब भी वक़्त मिल जाए ब्लागीरी करना। ज़नाब ने 7 मार्च 2010 को अपने ब्लाग की पहली पोस्ट ठेली थी, आज यह पोस्ट लिखने तक उन की 1517वीं पोस्ट प्रकाशित हो चुकी थी। यदि वे दफ़्तर से निकल न चुके होंगे तो आज की तारीख में अभी और पोस्ट आने की संभावना पूरी पूरी है, यह पोस्ट लिखने तक यह संख्या 1518 ही नहीं 1520 भी हो सकती है। नवम्बर के 25 दिनों में पूरी 160 पोस्टें ठेली हैं ज़नाब ने। कब पाँच सौ, कब हजार और कब डेढ़ हजार पोस्टें डाल चुके पर चूँ तक भी नहीं की। कोई स्वनामधन्य होता तो अब तक के हर शतक पर एक-एक पोस्ट और ठेल कर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ प्राप्त कर चुका होता। पर अख़्तर भाई हैं कि उन से कुछ कहो तो कभी मुस्कुरा कर और कभी हँस कर टल्ली मार जाते हैं। 
ब हम कोटा के वकील हड़ताल कुछ ज्यादा करते हैं। यह भी एक कारण है कि जो जो वकील ब्लागीर (मुझ समेत) हुआ सफल हो गया।  चार दिन पहले अख़्तर भाई ने लिखा, -कोटा के वकीलों की हड़ताल बनी मजबूरी। अब ये कोटा के वकीलों की मजबूरी थी या फिर हमारे मौजूदा नेताओं की। पर तीन दिन से अदालत में काम बंद है। आज मैं अदालत से जल्दी खिसक आया था। शाम होते होते पता लगा कि हड़ताल लंबी चलने वाली है, हो सकता है ये साल हड़ताल में पूरा हो जाए। इस साल की तरह फिर से हड़ताल को खत्म करने के लिए वकीलों के नेता बहाना तलाशने लगें।
ब हमारे यहाँ अभिभाषक परिषद के चुनाव हर साल होते हैं और विधान के मुताबिक 15 दिसंबर तक चुनाव होने जरूरी हैं और नए साल के पहले कार्यदिवस पर नयी कार्यकारिणी परिषद का कामकाज सम्भाल लेती है। इस बार प्रस्ताव आया कि चूँकि पिछले साल हमें चार माह की हड़ताल करनी पड़ी थी, मुख्य मंत्री ने कुछ आश्वासन दिए थे वे अब तक पूरे नहीं किये हैं। इस कारण से हमें लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। मौजूदा कार्यकारिणी अच्छा संघर्ष चला रही है इस लिए संघर्ष के समापन तक चुनाव स्थगित कर दिया जाए। यूँ कहा जाता है कि वर्तमान कार्यकारिणी पर भाजपा के लोग शामिल हैं। पर ये इंदिरागांधी से सीधे प्रेरणा ले रहे थे। कि आपातकाल बता कर अपनी उमर बढ़वा लो। प्रस्ताव असंवैधानिक था और वकीलों की आमसभा ने उस पर बहस से ही इन्कार कर दिया। चुनाव होना तय हो गया। लेकिन कार्यकारिणी ने दूसरे दिन से ही तीन दिन की सांकेतिक हड़ताल की घोषणा कर दी। दबे स्वर में लोग कह रहे हैं कि कार्यकारिणी का सोच यह है कि पिछली ने चार माह हड़ताल कर के नयी कार्यकारिणी को सौंप गए थे। अब मौजूदा कार्यकारिणी नयी को हड़ताल का कार्यभार न सोंप कर जाएँ तो कहीं ऐसा न हो उन्हें ग़बन का आरोप झेलना पड़े। 
यूँ मुझे व्यक्तिगत तौर पर भारत के समाजवादी या हिन्दू राष्ट्र होने तक की हड़ताल मंजूर है। वकालत के अलावा और भी बहुत जरीए हैं खाने-कमाने के। पर आखिर हड़ताल से काम बंद होता है और पहले से ही चींटी की चाल से चल रही न्याय की गाड़ी और धीमी हो जाती है। मैं जब ये बात कहता हूँ तो वकील मित्र कहते हैं पहले ही कौन न्याय हो रहा है जो रुक जाएगा, नुकसान तो हमें हो रहा है, जेब में पैसे आने ही बंद हो जाते हैं। मैं उन्हें कहता हूँ कि वकालत की गाड़ी दौड़ाने का एक तरीका है। जितनी अदालतों में जज नहीं है वहाँ जजों की नियुक्ति के लिए लड़ो, अदालतों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे इकट्ठे हो रहे हैं, अधिक अदालतें खोलने के लिए लड़ो। जल्दी फैसले होंगे तो अदालतों की साख बढ़ेगी, ज्यादा मुकदमे आएंगे। सरकारें फिजूल का बहाना बनाती है कि जजों के लिए काबिल लोग नहीं मिलते। वकीलों में तलाश करने जाएँ तो बहुत काबिल मिल जाएंगे। पर उन्हें काबिल वकील नहीं चाहिए। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि कोई कामकाजी वकील उत्तीर्ण ही न हो। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि वे ही उत्तीर्ण होते हैं जो साल-छह महीने से वकालत छोड़ कर सिर्फ किताबें रट रहा हो। उन्हें तोते चाहिए, जज नहीं। 
धर हड़ताल शुरू होने के पहले दिन से श्रीमती जी मायके चली गई हैं। मैं ने तो घर संभाल लिया है। आज हड़ताल समाप्त होने की खबर सुन कर वापस लौटने की उम्मीद थी। पर कल सुबह का अखबार जो कुछ बतायेगा उस से मैं ने तो उम्मीद छोड़ दी है। अब अख़्तर भाई इन दिनों क्या कर रहे हैं ये तो वही बताएंगे। चाहें तो आप पूछ कर देख लें।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कविता के अलावा

म चीजों को, लोगों को, दुनिया को बदलते हुए देखना चाहते हैं, लेकिन उस के लिए करते क्या हैं? कोई कविता लिखता है, कोई कहानी कोई भारी भरकम आलेख और निबन्ध। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? पढ़िए शिवराम अपनी इस कविता में क्या कह रहे हैं . . .
 
कविता के अलावा
  • शिवराम
जब जल रहा था रोम
नीरो बजा रहा रहा था वंशी
जब जल रही है पृथ्वी
हम लिख रहे हैं कविता


नीरो को संगीत पर कितना भरोसा था
क्या पता
हमें जरूर यक़ीन है 
हमारी कविता पी जाएगी
सारा ताप
बचा लेगी 
आदमी और आदमियत को
स्त्रियों और बच्चों को
फूलों और तितलियों को 
नदी और झरनों को


बचा लेगी प्रेम
सभ्यता और संस्कृति 
पर्यावरण और अंतःकरण

पृथ्वी को बचा लेगी 
हमारी कविता


इसी उम्मीद में 
हम प्रक्षेपास्त्र की तरह 
दाग रहे हैं कविता
अंधेरे में अंधेरे के विरुद्ध 


क्या हमारे तमाम कर्तव्यों का 
विकल्प है कविता

हमारे समस्त दायित्वों की 
इति श्री 


नहीं, तो बताओ 
और क्या कर रहे हो आजकल 
कविता के अलावा ?

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

आप ने कुत्ता पाला या नहीं?

हो सकता है आप ने भी कुत्ता पाल रखा हो, यह भी हो सकता है कि आप ने कुत्ते पाल रखे हों। लेकिन मैं ने कभी कुत्ता नहीं पाला। पर इस का ये मतलब कतई नहीं है कि मैं कुत्तों को नापसंद करता हूँ। वे मुझे अक्सर बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुझे उन्हें पालना कतई पसंद नहीं है। यहाँ तक कि मुझे उन्हें रोटी डालना या कुछ खिलाना भी पसंद नहीं है। होता यह है कि आप ने किसी कुत्ते को रोटी डाली नहीं कि वह रोज उसी वक्त आप के घर के बाहर आ कर पूंछ हिलाना शुरू कर देता है। अब उस दिन आप के यहाँ रोटी नहीं है तो आप का मन उदास हो जाएगा। बेचारा कुत्ता दुम हिला रहा है और आप के पास उस के लिए रोटी नहीं है। आप उसे भगाना चाहेंगे तो वह भागेगा नहीं, इधर उधर देखने लगेगा, कुछ देर बाद फिर से आप की और ताकेगा और दुम हिलाएगा।
मेरे नए घर में एक दिन मेरे कनिष्ट साथी आए, मैं छत पर था वे सीधे दफ्तर में घुस गए। मैं छत से नीचे उतर रहा था तो मेरी निगाह गेट की ओर गई तो देखा गेट खुला है और अंदर एक कुत्ता खड़ा है। मैं ने उसे बाहर निकाल कर गेट लगा  दिया। दो-तीन मिनट बाद ही गेट के बाहर से कुत्तों के भोंकने और एक दूसरे को गरियाने की आवाजें आने लगीं। मैं ने गेट खोला तो जो कुत्ता गेट के अंदर आया था वह गेट से चिपका खड़ा था और मुहल्ले के कुत्ते उस पर भोंक रहे थे। गेट के बाहर मुझे देखते ही सब चुप हो गए। मेरे कनिष्ट दौड़ कर आए और कहने लगे यह कुत्ता मेरे साथ आया है और दूसरे मुहल्ले का होने के कारण आप के मुहल्ले के कुत्ते इस पर भोंक रहे हैं। उस की यहाँ उपस्थिति उन्हें यहाँ बर्दाश्त नहीं हो रही है। मैं ने उस कुत्ते को अंदर ले कर गेट लगा दिया। मुहल्ले के कुत्ते चले गए। कुत्ता गेट के पास ही बैठ गया। मैं ने कनिष्ट से पूछा क्या आप ने पाल रखा है। उन का जवाब था, पाल तो नहीं रखा, लेकिन उसे रोज रोटी डालते हैं इस लिए हिल गया है। हमारे पीछे-पीछे चल देता है। मुहल्ले की सीमा आते ही हम उसे वापस भेज देते हैं। आज भूल गए जिस से साथ आ गया। यह हमारे गेट के बाहर बैठा रहता है। इस से घर की सुरक्षा रहती है।
निष्ठ जी और कुत्ते का रिश्ता बड़ा अजीब था। कुत्ते को रोटियाँ चाहिए थीं वे कनिष्ठ जी ने उस पर दया कर के डालना आरंभ किया था। फिर कुत्ते ने रोटियां चुकाने के लिए घर की पहलेदारी आरंभ कर दी। अब उन में अनन्य संबंध स्थापित हो चुका था। वैसे हमारे यहाँ रिवाज है कि पहली रोटी गाय को डाली जाती है और बची हुई कुत्ते को। लेकिन यदि आप ने कुत्ता पाल लिया तो उस के लिए रोटियाँ बनानी पड़ती हैं। अपनी पसंद का कोई खास कुत्ता पालना हो तो उस के नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उस के लिए खास भोजन लाना पड़ता है, उसे नहलाना, टहलाना पड़ता है, और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है। अक्सर बड़े बड़े घरों, कोठियों और बंगलों में कुत्ते पाले जाते हैं, वहाँ लिखा होता है, कुत्तों से सावधान! आप ने जैसे ही बंगले की कॉलबेल बजाई नहीं कि कुत्ता भोंकना आरंभ कर देता है। जैसे घन्टी बजा कर आपने अपराध कर दिया हो। वैसे भी कॉलबेल का काम पूरा हो चुका होता है और आगे का कर्तव्य कुत्ता पूरा करता है। कुत्ते की आवाज सुन कर अक्सर कोई बंगले में दिखाई देने लगता है। अगर वह आप को जानता है तो कुत्ते को बांध देता है। यदि कुत्ता पहले से बंधा होता है तो कहता है आप बैखोफ अंदर आ जाइये, कुत्ता कुछ नहीं करेगा। मेरी धारणा है कि सब बड़े-बड़े लोग कुत्ते पालते हैं, कुत्तों के बिना उन का काम नहीं चल सकता। 
कुत्ते बड़े लोगों के बहुत काम सरकाते हैं। जैसे कोई बड़ा उद्योग लगाना हो तो पहले कुत्ता पालना पड़ता है। कोई भी बड़ा काम करना हो तो कुत्ता पालना जरूरी है, वर्ना वह भोंकने लगेगा और सब को पता लग जाता है आप क्या करने जा रहे हैं और क्यों करने जा रहे हैं। इस तरह कुत्ते पालना बड़े लोगों के लिए जरूरी कर्म है। कुत्ता पाल लिया तो वह आप की ओर से दूसरों पर भोंकता है, आप सुरक्षित रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बड़े आदमी ने पिछले दिनों कहा कि वह हवाई जहाज कंपनी चलाना चाहता था। लेकिन उस के लिए कुत्ते पालना जरूरी था और उसे कुत्ते पालना पसंद नहीं था। मुझे इस बयान पर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्यों कि मैं पहले से जानता हूँ कि कुत्ते पाले बिना कोई भी उद्योग लगाना और चलाना संभव नहीं है। मैं ही क्या यह बात तो सभी जानते हैं, यहाँ तक कि बच्चा-बच्चा जानता है। मुझे आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि वे दूसरे उद्योग कैसे चला रहे हैं?
ब भले ही यह बयान उन बड़े आदमी ने गलती से दिया हो, पर इस से बड़े आदमियों पर संकट आ गया। संकट कुत्तों पर और उन के मुखियाओं पर भी आया। आखिर यह बात दूसरे बड़े आदमी कैसे सहन करते? यह समझा जाने लगा कि सब बड़े लोग कुत्ते पाल कर ही कारोबार चलाते हैं। दूसरे ने तपाक से कहा कि किसी कुत्ते में हिम्मत नहीं कि रोटी के लिए मेरे सामने दुम हिलाए। एक संन्यासी भी मैदान में आ गए, कहने लगे कि कुछ कुत्ते उन से दुम हिलाते रोटियाँ मांगने आए थे लेकिन उन्हों ने उस की शिकायत उन के मुखिया से की तो मुखिया ने कहा कि कुत्तों को आप से रोटियाँ ऐसे नहीं मांगनी चाहिए थीं जिस से लगे कि वे अपने लिए मांग रहे हों। उन्हें रोटियाँ किसी आश्रम के लिए मांगनी चाहिए थीं। 
खैर, बात कुछ भी हो। यह बात तो सर्व सिद्ध है कि कुत्तों के बिना कारोबार नहीं चल सकता। कुछ खुले आम कुत्ते पालते हैं, कुछ चुपके-चुपके। कुछ पालते तो हैं पर सब के सामने मानते नहीं कि, पालते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कुत्तों के बिना कारोबार एक कदम भी नहीं चल सकता। जो लोग बिना कुत्ते पाले कारोबार चलाने की बात करते हैं, वे या तो निरे बेवकूफ हैं और कारोबार डुबोने में लगे हैं; या फिर वे होशियार बनने की कोशिश करते हैं। गुपचुप तरीके से अंडरग्राउंड में कुत्ते पालते हैं और साफ मुकर जाते हैं कि वे कुत्ते पालते हैं या उन्हें रोटियाँ डाल कर हिलाते हैं। वे जानते हैं कि कुत्ते पालने की यह तकनीक कुछ लोग और सीख गए तो कम्पीटीशन बढ़ जाएगा, इसी लिए झूठ-मूट मना करते हैं। वैसे मैं भी एक निरा बेवकूफ आदमी हूँ। बड़ा होने का गुर जानते हुए भी कुत्ते नहीं पालता। शायद मैं बड़ा ही नहीं बनना चाहता। पर आप बताएँ कि आप का क्या इरादा है? कुत्ते पालने का? या मेरी तरह बने रहने का? 

पाबला जी को मातृशोक

 




श्रीमती हरभजन कौर
'हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन, ज़िंदगी के मेले, इंटरनेट से आमदनी, कल की दुनिया और  कम्प्यूटर सुरक्षा' ब्लॉग वाले श्री बी.एस.पाबला जी की माता जी श्रीमती हरभजन कौर का कल 18 नवम्बर 2010 को  अपरान्ह देहान्त हो गया है। कुछ दिन पहले ही उन का पुत्र गुरुप्रीत सिंह एक सड़क दुर्घटना में घायल हुआ था और अस्पताल में भर्ती था। अपने पौत्र के घायल होने का समाचार दादी बर्दाश्त नहीं कर सकीं और उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया। उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया। चिकित्सकों के भरपूर प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

श्रीमती हरभजन कौर का अंतिम संस्कार आज 19 नवम्बर शुक्रवार को प्रातः 11 बजे भिलाई में रामनगर मुक्तिधाम में संपन्न होगा। 

पाबला जी की माता जी को 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' की विनम्र श्रद्धान्जलि!!!







गुरुवार, 18 नवंबर 2010

घूम-फिर कर, फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।

एक दिन के वकील
ज 18 नवम्बर हो गई है पिछली 15 नवम्बर के बाद अनवरत पर पोस्ट नहीं हुई। इसे समय की कमी कहा जा सकता है कुछ भौतिक और कुछ मानसिक व्यस्तताएँ रहीं। पिछली पोस्ट डॉ. अरविंद मिश्रा जी को डरावनी लगी, क्यों लगी? यह शोध का विषय है। 16 नवम्बर की दोपहर ललित शर्मा कोटा पहुँचे, ठीक 12 बज कर 3 मिनट पर कोटा की धरती  पर उन के कदम पड़े। मैं तो उन के इंतजार में था ही प्रकृति ने भी उन के स्वागत की तैयारी की हुई थी। बरसात कुछ उन्हों ने पहले ही यहाँ भेज दी थी, कुछ साथ ले कर आए थे। हमारी कार कई दिनों से सेवा की मांग कर रही थी। लेकिन ललित जी के आगमन के एक दिन पहले सेल्फ स्टार्टर ने अपना रंग दिखाया और रूँऊँऊँ......... कर के रह गया। हम ने बाइक से काम चलाया। उन के आने के दिन तो बारिश हो गयी। घर के नजदीक की सड़क के किनारे कुछ दिन पहले सीवर लाइन के पाइप डाले गये थे। मिट्टी ऊपर आई हुई थी, बरसात से वह सड़क पर आ गई। काली चिकनी मिट्टी ने फिसलने का पूरा-पक्का इंतजाम कर दिया। हम ने कार को अस्पताल पहुँचाया पूरी सेवा के लिए। बाइक पर अपना आत्मविश्वास वैसा ही रहता है जैसे साक्षात्कार देते वक्त नौकरी पाने वाले का रहता है। इस लिए बाइक को घर में ही रखा और बीस साल पुराना स्कूटर उठा कर अदालत पहुँचे। सोचा अपने जूनियर को कहेंगे कार ले चलेगा और ललित शर्मा जी को घर ले आएगा। पर ऐन वक्त जूनियर अदालत में फँस गया। 
अधरशिला
खैर, वकील मित्र राघवेंद्रपाल काम आए, अपनी स्विफ्ट डिजायर से ललित जी को स्टेशन से ला कर हमारे घर छोड़ा। रास्ते से हम कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ और खम्मन लेते आए थे, ललित जी को उन्हीं का नाश्ता कराया गया, यह बताते हुए कि अमिताभ बच्चन इन्हें खा कर कोलाइटिस के शिकार हो चुके हैं। हालांकि उन की गलती थी कि वे बासी कचौड़ी को गर्म कर के खाए थे, एक दम ताजा है। हम इस नाश्ते में शामिल नहीं थे।  बाद में राघवेंद्र बता रहे थे कि आप के मित्र बड़े इन्फोर्मल हैं, वे मेजबान की तरह मुझे कचौड़ियाँ परोसते रहे। हमें कुछ मुकदमे और निपटाने थे, हम अदालत चले गए। कम्प्यूटर पर मोर्चा संभाला ललित शर्मा ने और एक दिन के वकील हो गए। शाम को चार बजे तक लौटे तब तक न जाने क्या-क्या कर चुके थे। साढ़े पाँच बजे कार अस्पताल से फोन आया कि कार तैयार है। मैं और ललित जी पैदल ही जा कर कार ले आए। अब घूमने का कार्यक्रम था।  
मुक्तिधाम
रसात, भरमार शादियों के पहले का दिन और शहर में कीचड़। कोटा के ब्लागरों को इकट्ठा करने का अवसर ही नहीं था। कुल मिला कर केवल अख़्तर खान अकेला नजर आए, उन्हें टेलीफोन कर बुलाया। ललित जी की चंबल देखने की इच्छा थी। हमने उन्हें कई किनारे सुझाए, पर उन्हें मुक्तिधाम वाला स्थान ही रुचिकर लगा। रात के अंधेरे में हम कोटा के सब से सुंदर शमशान में पहुँचे तो वहाँ सिस्टम पर संगीत बज रहा था। निकट ही अधर शिला थी, अख़्तर ने उस का उल्लेख किया तो हम वहाँ पहुँचे। वहाँ भी कब्रिस्तान निकला। वहाँ से चौपाटी पर कुल्फी और पान खा कर अख्त़र के वकालत दफ्तर में पहुँचे जहाँ भेंट में ललित शर्मा को कोटा की जानकारी देने वाली एक पुस्तक और मुझे कुऱआन की हिन्दी प्रति भेंट में मिली। मैं ने अख़्तर भाई के कान में बोला। यार! ये ललित शर्मा को हमने क्या दिखाया? शमशान और कब्रिस्तान जैसे कह रहे हों, बेटे सारी दुनिया घूम आओ, घूम फिर कर फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।
ललित शर्मा, मैं और अख़्तर
र लौटते ही अख्त़र खिसक लिए, अगले दिन ईद थी और उन्हें  उस की तैयारियाँ भी करनी थीं। हम  ने ललित जी के साथ भोजन किया और उन्हें हिदायत दी कि वे कुछ समय बिस्तर पर बिताएँ। रात दो बजे स्टेशन के लिए निकले। ट्रेन लेट थी। चित्तौड़ जाने वाली इस ट्रेन ने तीन बज कर सात मिनट पर प्लेटफॉर्म छोड़ा। हम घर लौट कर बिस्तरशरण हुए तो सुबह साढ़े नौ बजे आँख खुली। ललित जी को फोन लगाया तो तसल्ली हुई कि वे सुबह छह बजे ही चित्तौड़ पहुँच चुके थे और अब इन्दु गोस्वामी की हिरासत में हैं और मौज कर रहे हैं।
ज फिर समय की कमी है। अदालत की छुट्टी करनी पड़ेगी। हमारे नए मकान के लिए जो भूखंड़ देखा गया है उस पर निर्माण के आरंभ का दिन है। श्रीमती शोभा भूमि पूजा की तैयारी कर रही हैं, हमें हिदायत है कि तुरंत नहा लिया जाए और बाजार से सारा सामान लाया जाए। मुहूर्त पर सब कुछ यथावत हो जाना चाहिए। अच्छा तो टा! टा!  बाय! बाय! फिर मिलते हैं...................

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जोधपुर में लाल सैलाब

भारत की समृद्धि लगातार बढ़ रही है, हमारे पूंजीपति दुनिया भर के पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। हो सकता है कुछ बरस बाद सुनने को मिले कि दुनिया के सब से अमीर सौ व्यक्तियों में चौथाई भारतीय हैं। हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर हमारे गरीब भी दुनिया भर के गरीबों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यही भारतीय व्यवस्था का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। भारत की मुख्य धारा की राजनीति इस अंतर्विरोध की उपेक्षा करती रही है और लगातार कर रही है। यह अंतर्विरोध लगातार कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इस अंतर्विरोध को हल करने वाली राजनीति की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है।  आम जनता जानती है कि देश में जितना भ्रष्टाचार है वह पूंजीपतियों का फैलाया हुआ है, उस के बिना पूंजीवाद एक कदम आगे नहीं चल सकता, उस के बिना लूट को जारी रख सकना कठिन है, लेकिन उस का इलाज भी किसी के पास नहीं है। आम लोग जानते हैं कि जिस रोग ने देश को ग्रस्त किया हुआ है वह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी राजनैतिक दलों का देश की परिस्थितियों के बारे में मूल्यांकन सतही है, और वह फटे टाट को पैबंद लगा कर चलाते रहने की चिकित्सा ही प्रस्तुत करते हैं। 
दूसरी और वाम और साम्यवादी दल हैं जिन में देश की परिस्थितियों, राजनैतिक शक्तियों के मूल्यांकन पर राय में विभिन्नता है और उसी के अनुरूप उन के राजनैतिक कार्यक्रम भिन्न हैं। लेकिन उन में एक समानता है कि वे देश के इस अंतर्विरोध को आमूल-चूल परिवर्तन के माध्यम से हल करना चाहते हैं। इस के लिए लगातार विचार-विमर्श करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अर्थात क्रांति का जनता करती है, कोई राजनैतिक दल नहीं। लेकिन राजनैतिक दलों का काम जनता को संगठित करने और उसे शिक्षित करने का अवश्य है। जब क्रांति नजदीक नहीं होती और उस के लिए किए जा रहे प्रयास परवान चढ़ते नजर नहीं आते तो क्रांतिकारी राजनैतिक शक्तियों में मतभेद होते हैं और अनेक समूह बनते दिखाई देते हैं। इस से ऐसा लगने लगता है कि जब क्रांतिकारी शक्तियाँ ही विभाजित हैं तो क्रांति की बात करना बेमानी है, शायद जनता बेड़ियों में जकड़े रहने को अभिशप्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। 
जैसे जैसे मूल अंतर्विरोध तीव्र होता जाता है और क्रांति के लिए परिस्थितियाँ पकने लगती हैं, वैसे ही इन क्रांतिकामी शक्तियाँ एक होने लगती हैं, उन की शक्ति बढ़ने लगती है। ऐसा ही एक अवसर इन दिनों भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) एमसीपीआई (यू) की दूसरी काँग्रेस में पिछले चार दिनों में देखने को मिला। सीपीआईएम नेतृत्व के गैर जनवादी रैवेये के कारण उस से अलग हुए अथवा अंदरूनी संघर्ष के कारण वहाँ से निकाले गए जुझारू लोगों ने एमसीपीआई का गठन किया था। अपने गठन के साथ ही यह पार्टी एक ऐसी शक्ति बन गई थी जो लगातार जनता के बीच काम करते हुए समान विचारधारा वाले गुटों और पार्टियों के साथ विमर्श करती है और क्रांतिकामी शक्तियों के एकीकरण के काम में जुटी है। शिवराम इसी दल के पॉलिट ब्यूरो सदस्य थे। मुझे भी पार्टी काँग्रेस में सम्मिलित होना था। लेकिन व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण में इस में शिरकत नहीं कर सका। लेकिन मुझे भी कुछ घंटों के लिए पार्टी काँग्रेस के निकट रहने का सौभाग्य मिल ही गया।
निवार को काँग्रेस का प्रातः कालीन सत्र समाप्त होने के उपरांत रैली और सभा का आयोजन था। मैं ने इस रैली में शिरकत की। जैसे ही रैली स्थल पर पहुँचा देखा कि लाल रंग का सैलाब आया हुआ है। जिधर देखता था उधर लाल कैप पहने लाल झंडे हाथों में थामे पार्टी सदस्य  दिखाई देते थे। रैली आरंभ हुई रैली में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता सम्मिलित थे और ढोल बजाते, नृत्य करते, नारों से जोधपुर नगर को गुंजाते चल रहे थे। सब से आगे एक झाँकी थी जिस में एक व्यक्ति साम्राज्यवाद का प्रतीक था जो रस्सियों से जकड़ा हुआ था जिन के दूसरे सिरे कुछ लोगों के हाथों में थे जो कि स्वयं मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के प्रतीक थे। साम्राज्यवाद हर किसी को खाना चाहता था, लेकिन ये श्रमजीवी शक्तियाँ उसे ऐसा करने से रोक रही थीं। इस झाँकी को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ तक कि रैली के साथ और पूरे शहर में तैनात पुलिस कर्मी उस झाँकी और कार्यकर्ताओं के उल्लास भरे नृत्य को देख कर आनंदित थे। वे जानते थे कि इस अनुशासित कार्यकर्ता समूह की रैली की व्यवस्था के लिए उन्हें किसी तरह के श्रम और तनाव की आवश्यकता नहीं है। रैली का जोधपुर नगर के लोगों ने स्थान-स्थान पर स्वागत किया, नेताओं को जोधपुरी साफे और पुष्प मालाएँ पहना कर उन का सम्मान किया। जोधपुर की श्रमजीवी जनता की कामना थी कि यह ताकत यूँ ही तेजी से बढ़ती रहे और अपना लक्ष्य प्राप्त करे। 
समाचार पत्रों में इस रैली के समाचार इस तरह थे.... 


शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

पल्ला झाड़

खुलने लगें जब राज
न लगें लोग जब साथ
तब खिसियाहट होती है
बिल्ली खंबा नोचती है।


जब पता लगता है
कि एक निरा मूर्ख
नौ बरस तक
उन का भगवान स्वरूप
एक-छत्र नेता बना रहा 

तब यही बेहतर कि
भक्त-गण ऐसे भगवान से
पल्ला झाड़ लें
  • दिनेशराय द्विवेदी