@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 4 जून 2010

जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा

ल बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आए। भाकपा (मार्क्स.) के नेतृत्व वाले वाममोर्चे को करारी शिकस्त का मुहँ देखना पड़ा। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को अच्छी-खासी जीत मिली। आम तौर पर इस तरह के नतीजे देश के दूसरे भागों में आते रहते हैं, वहाँ भी, जहाँ वाम का अच्छा खासा प्रभाव है। केरल में कभी वाम मोर्चा सरकार में होता है, तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा। लेकिन वहाँ कभी इतनी हाय-तौबा नहीं देखने को मिलती। जितनी कल देखने को मिली। उसका कारण है कि पिछले 33 वर्ष में बंगाल में वाम-शासन का जो दुर्ग रहा, उस में कोई  सेंध नहीं लगा पाया। इस के बावजूद कि केन्द्र में लगातार विरोधी-दलों की सरकारें विद्यमान रहीं। आज बंगाल में वाम की स्थानीय निकायों में हार पर जो हल्ला हो रहा है उस का कारण यही है कि उस दुर्ग में बमुश्किल एक छेद होता दिखाई दे रहा है। इस छेद के दिखाई देने में बाहरी प्रहारों का कितना योगदान है और कितने अंदरूनी कारण हैं, उन्हें एक सचेत व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मेरी मान्यता तो यह है कि किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।

स घटना ने राजनीतिक रूप से सचेत प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। मैं उस से अप्रभावित कैसे रह सकता था? मेरे मन-मस्तिष्क पर उस की जो भी प्रतिक्रिया हुई, मैं ने उसे कुछ शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया,।फलस्वरूप अनवरत पर कल की पोस्ट ने आकार लिया। एक सामयिक और कुछ चौंकाने वाले शीर्षक के कारण ही सही पर बहुत मित्र वहाँ पहुँचे। कइयों ने उस पर प्रतिक्रिया भी दी। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया को सहज रूप में एक ईमानदार प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया। उन ने भी जो राजनैतिक सोच में मुझसे अधिक सहमत होते हैं, और उन ने भी जो अक्सर बहुत अधिक असहमत रहते हैं। चाहे इस घटना पर उन की प्रतिक्रिया कुछ भी रही हो। विशेष रूप से स्मार्ट इंडियन जी, सुरेश चिपलूनकर जी, अनुनाद  सिंह जी और अशोक पाण्डेय जी की घटना पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रियाएँ उन के अपने-अपने लगभग स्थाई हो चुके सोच के अनुसार ही थीं। मुझे उन पर किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब होता जब उन से ऐसी प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।  हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।

मेरी मान्यता है कि कल जिन-जिन मित्रों ने अनवरत की पोस्ट पढ़ी और जिन ने उस पर  प्रतिक्रिया व्यक्त की उन सभी की मनुष्य और समाज के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं है। वे सभी चाहते भी हैं कि मनुष्य समाज अपने श्रेष्ठतम रूप को प्राप्त करे। यह दूसरी बात है कि मनुष्य समाज के श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारी अवधारणाएँ अलग-अलग हैं और वहाँ तक पहुँचने के हमारे मार्गों के बारे में भी गंभीर मतभेद हैं। लेकिन मनुष्य समाज का श्रेष्ठतम रूप तो एक ही हो सकता है। मेरी यह भी मान्यता है कि उस श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारे पास अभी तक केवल अवधारणाएँ ही हैं। वह ठीक-ठीक किस तरह का होगा? यह अभी तक पूरी तरह भविष्य के गर्भ में छुपा है। मनुष्य समाज के उस श्रेष्ठतम रूप तक पहुँचने के बारे में मतभेद अघिक गंभीर हैं, इतने कि हम उस के बारे में तुरंत तलवारें खींचने में देरी नहीं करते। हर कोई अपने ही मार्ग को सर्वोत्तम मानता है। बस यहीं हम गलती करते हैं। हम अपने-अपने मार्ग के बारे में यह तो सोच सकते हैं कि वह सही है, आखिर तभी तो हम उस पर चल रहे हैं। लेकिन हम अंतिम सत्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकते कि वही वास्तव में सही मार्ग है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे तय हो कि वास्तव में सही मार्ग कौन सा है? निश्चित ही आने वाला समय इस चीज को तय करेगा। मेरा यह भी मानना है कि एक समष्टि के रूप में जनता सदैव बुद्धिमान होती है। वह शायद अभी यह तय करने में समर्थ नहीं कि उस के लिए कौन सा मार्ग सही है। लेकिन वह सभी मार्गों को परखती अवश्य है। जब उसे लगता है कि कोई मार्ग सही है तो उस पर चल पड़ती है। उस मार्ग पर चलते हुए भी वह लगातार उसे परखती है। जब तक उसे लगता है कि वह सही चल रही है, चलती रहती है। लेकिन जब भी उसे यह अहसास होने लगता है कि कोई उसे गलत रास्ते पर ले आया है, या कि जिस रास्ते पर उस से ले जाने का वायदा किया गया था उस से भिन्न रास्ते पर ले जाया जा रहा है। तो उस अहसास को वह तुरंत प्रकट करती है। लेकिन नए मार्ग पर भी वह तुंरत नहीं चल पड़ती। उस के लिए वह रुक कर तय करती है कि अब उसे किधऱ जाना चाहिए?

बंगाल की जनता ने ऐसा ही कुछ प्रकट किया है। उसे अहसास हुआ है कि वह मंजिल तक पहुँचने के लिए पिछले अनेक वर्षों से जिस मार्ग पर चल रही थी वह एक चौराहे पर आ कर ठहर गया है, और उसे तय करना है कि कौन सा मार्ग उसे अपनी मंजिल तक पहुँचाएगा।
जिन मित्रों ने कल प्रतिक्रिया जनित मेरी रचना को पढ़ा है और उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए उस पर अपने हस्ताक्षर किये हैं, मैं उन सभी का आभारी हूँ, उन्हों ने मुझे यह अहसास कराया है कि मैं एक सही मार्ग पर हूँ।

बुधवार, 2 जून 2010

कामरेड! अब तो कर ही लो यक़ीन, कि तुम हार गए हो



कामरेड!
अब तो कर ही लो यक़ीन
कि तुम हार गए हो

अनेक बार चेताया था मैं ने तुम्हें
तब भी, जब मैं तुम्हारे साथ था
कदम से कदम मिला कर चलते हुए
और तब भी जब साथ छूट गया था
तुम्हारा और हमारा

याद करो!
क्या तय किया था तुमने?
छियालीस बरस पहले
जब यात्रा आरंभ की थी तुमने
कि तुम बनोगे हरावल
श्रमजीवियों के
तुम बने भी थे
शहादतें दी थीं बहुतों ने
इसीलिए
सोचा था बहुत मजबूत हो तुम

लेकिन, बहुत कमजोर निकले
आपातकाल की एक चुहिया सी
तानाशाही के सामने टूट गए
जोश भरा था जिस नारे ने किसानों में
'कि जमीन जोतने वालों की होगी'
तुम्हारे लिए रह गई
नारा एक प्रचार का
मैं ने कहा था उसी दिन
तुम हार गए हो
लेकिन तुम न माने थे

त्याग दिया मार्ग तुमने क्रांति का
चल पड़े तुम भी उसी मतपथ पर
चलता है जो जोर पर जो थैली का हो
या हो संगठन का
ज्यों ज्यों थैली मजबूत हुई
संगठन बिखरता चला गया
तुमने राह बदल ली
हो गए शामिल तुम भी
एकमात्र मतपथ के राहियों में
हो गए सेवक सत्ता के
भुला दिए श्रमजीवी और
झुलसाती धूप में जमीन हाँकते किसान
जिनका बनाना था एका
बाँट दिया उन्हें ही
याद रहा परमाणु समझौते का विरोध
और एक थैलीशाह के कार कारखाने
के लिए जमीन

अब मान भी लो
कि तुम हार गए हो
नहीं मानना चाहते
तो, मत मानो
बदल नहीं जाएगा, सच
तुम्हारे नहीं मानने से
देखो!
वह अब सर चढ़ कर बोल रहा है

नहीं मानते,
लगता है तुम हारे ही नहीं
थक भी गए हो
जानते हो!
जो थक जाते हैं
मंजिल उन्हें नहीं मिलती

जो नहीं थके
वे चल रहे हैं
वे थकेंगे भी नहीं
रास्ता होगा गलत भी
तो सही तलाश लेंगे
तुम रुको!
आराम करो
जरा, छांह में
मैं जाता हूँ
उन के साथ
जो नहीं थके
जो चल रहे हैं 
 

मंगलवार, 1 जून 2010

'गुलाम तब जागे' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सप्तम सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के छह सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का सप्तम सर्ग "गुलाम तब जागे" प्रस्तुत है ......... 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

  सप्तम सर्ग
'गुलाम तब जागे'

युद्ध-भूमि हूँकार रही, जन-जीवन को ललकार रही है
देख, अयश की करवालें दुश्मन की, तुझे पुकार रही है

आत्म समर्पण कर दे, बस तेरा कोई उद्धार नहीं है
करने को प्रतिकार, छूट है-प्राण बशर्ते भार नहीं है,
हाय कबीलों की धरती-अलविदा ! जिन्दगी हार रही है
आग व्यक्ति में भड़की जो, बाजी पर बाजी मार रही है

घुटनों के बल, सिर झुका मनुज बैठा है, असि गुर्राती है
समता के शव दे पाँव शान्ति, शासन की रानी आती है


होंठ सिले जिन लोगों के, 'उफ' करना है अपराध भयंकर
पेट पीठ से सटे हुए, पर मरना है अपराध भयंकर
पत्थर से सिर मार, बहाने गढ़ना है अपराध भयंकर
बहे सहारा की रेती में उन के खून पसीना बन कर
बहन हरम में बन्द, शान्त हो भाई पी ले खून-जहर
आजादी तुझे उबलने की जैसे चूल्हे पर घी कड़-कड़
तड़-तड़ कोड़ों की मार पीठ पर, दोपहरी घुघुआती है
दासों के कन्धों पर चढ़ लो, कला कुमारी आती है

गढ़ने को वास्तु कला का जो आदर्श, पिरामिड गढ़ना है
बढ़ने को इच्छित मंजिल का जो ध्येय, पूर्णता-बढ़ना है
उत्कर्ष चतुर्दिक जीवन का युग मांग रहा, तम हरना है
है पौरूष तो दुर्जेय घाव का चिन्ह धरा पर करना है
इतिहास बनाने को अपना, पन्नों को खूँ से भरना है
निर्माण यज्ञ यह पहला है, बलि के पशुओं को मरना है


कटते हैं मुण्ड करोड़ों के, काली त्योहार मनाती है
मुर्दों का लेकर हव्य सभ्यता की देवी मुसकाती है

निर्माण यज्ञ-जा भूल मनुज अस्तित्व तुम्हारा बाकी है
आ थाम जुआ यह बे लगाम, हाँ, नाम हमारा बाकी है
जो प्यास लगे तो चाट होंठ हाँ, काम हमारा बाकी है
जो भूख लगे तो खा ठोकर, आराम हमारा बाकी है
निर्माण यज्ञ-खूँ से खेतों को पाट, 'सहारा' बाकी है
सब काम अधूरा बाकी है, अन्जाम करारा बाकी है

रख लाश नींव में पहले, फिर ईंटों की बारी आती है
शासन-दर्शन-विज्ञान नीति के गीत दिशाएँ गाती हैं


निर्माण यज्ञ-समिधा, देवों की शक्ति इला के देश खड़ी
अधिकार धरा का चुरा, स्वर्ग की लिए वितण्डा हुई बड़ी
मुट्ठी भर आदमखोरों की सम्पदा-कठोर हिया, बहरी
श्रम का अपमान सदा करती, श्रमिकों के दल से सदा लड़ी
समिधा-जो जलती हवन-कुण्ड में, श्रम के दाग ललाट, तरी
नर हव्य बना जिस दिव्या का, संस्कृति की सब से मधुर कड़ी

'ब्राह्मण' मैं देता फूँक तुझे, उफ, दाल न गलने पाती है
यह यज्ञ ? गुलामी की तौकें जग को पहनाई जाती हैं

रेशम के चिकने वस्त्र बना, पर तेरे भाग लंगोटी है
केशर उपजा, पर तेरे हिस्से बस सूखी दो रोटी है
कन्या कर पैदा दे मुझ को-दीनों में न हया होती है
दासत्व ग्रहण कर पैर दबा, तेरी किस्मत ही खोटी है
आचार नीति सब कहते हैं-सब ठीक, बात जो होती है
शासक का न्याय निराला है, शासित की दुनिया छोटी है

यूनान, मिश्र, ईरान, सिन्धु  की, दुनिया गाथा गाती है
मन थिरक नाचता है छमछम और बुद्धि खड़ी चकराती है

सौ का ले कर के भाग एक कानून बनाये जाता है
खेतों में गलते लाखों जन की एक कमाई खाता है
हैं हाथ हुनर के फौलादी, खटने-खपने से नाता है
लाखों हाथों के बने महल में, एक खाट फैलाता है
जब मुफ्तखोर, ईमानचोर, अपने ........ .......... है*
हर शास्त्र विगत युग का उस के डाके को सत् ठहराता है

धरती जो दुनिया से ऊपर, जब वही विधान बनाती है
तब श्राद्ध सत्य का होता है, तब मानवता झुक जाती है


चौखटा चरर-मर करता है जब बहुत पुराना होता है
जो धर्म ग्रन्थ इक तरफा है वही निशाना होता है
मत धूल झोंक इन आँखों में-'होगा' जो हरदम होता है
वह देख नियति सर्पिणी त्रस्त, 'सर्वज्ञ' देख ले रोता है
करवट चौखटा बदलता है, उपदेश धर्म-गुरू देता है
इस पर भी काम न चलता है तब ढोंग न्याय का होता है

माँ गई, हमारा राज गया, परिवर्तन मेरी थाती है
जब तर्क खड़ा हो जाता है तब क्रान्ति खड़ी हो जाती है

हे भाग्य विधायक कृषक-मजूरे, धरती के भगवान हमीं
हे त्याग मूर्ति ध्यानस्थ मनीषी, मन्दिर के पाषाण हमीं
ता-थेई-छमाछम महलों में नूपुर ध्वनि, मदिरा-पान हमीं
व्यापार, सम्पदा, लक्ष्मी की है कृपा हमीं, मुस्कान हमीं
तारों को देख उंगलियों पर जो गिनते उसके मान हमीं

चीनी दीवार, पिरामिड की जब कीर्ति-ध्वजा फहराती है
तब घाव पीठ के गिनता हूँ वो सूरज इस का साक्षी है


दासत्व हमें मंजूर नहीं - दासत्व हमें मंजूर नहीं
मजदूर सही हैं किन्तु बदलने में खुद को मजबूर नहीं
शोषण के पुतले होशियार अब अन्त तुम्हारा दूर नहीं
आँखों में उंगली देंगे अजगरी दृगों से घूर नहीं
देवता तू सही मेरा है पर, मानव तो अंगूर नहीं
जो बेच हमें तू कह दे-है यह पुण्य विधान, कसूर नहीं

सामन्त हमारा बाप? - झूठ वह कुलांगार, कुलघाती है
जब बात करें हम जीने की तो फटती उस की छाती है

उठ पर्ण कुटी दे चिनगारी महलों में आग लगा दूंगा
खेतों में नाचे सर्वनाश, लक्ष्मी का गर्व मिटा दूंगा
जो दाग लुकाठी मुझे तरी उस पर तेल पटा दूंगा
रे नर भक्षी, ले मांस नोच - ले नोच, मगर बदला लूंगा
लूंगा मैं तेरा सर उतार, मिट्टी में खान मिला दूंगा

दे मार हथौड़ा तोड़ पोत वो-प्रलय घटा घहराती है
मुण्डों की माला दिए गले में क्रांति कराली आती है

दासों की साँसों में बहने लग गए देख-उन्चास पवन
खौलते खून की दरिया में नाचती भवानी खोल वसन
इतिहास कमीना काँप रहा, ले देख, निपोड़े दीन दशन
युग-युग के घुटते प्राण मनाते आज मौत का पर्व, जशन
है कहाँ धर्म, दर्शन, शासन के दगाबाज मक्कार नियम

कह दे आका से जा कर - अब दाल न गलने पाती है
युग से जो आग सुलगती थी अब धधक-धधक चिल्लाती है


खामोश गुलामी !  वृत्त देख, वापस जा कगारों में
जब तक यह खड़ी व्यवस्था है, दम क्या तेरे हूँकारों में
मेरी हैं गहरी जड़ें जमीं धरती में, चांद सितारों में
दस-बीस विटप तू काटेगा, होगी कमी क्या बहारों में
तू गर्म, अभी क्या समझे आ, शासन की छाँव, सुधारों में
तू भोला क्या जाने, तेरा सुख है मेरी तलवारों में

भावी विघ्नों !  हो शान्त, महीषी स्वस्ति पाठ करवाती है
सम्राट वरण करने को देखो वसुंधऱा अकुलाती है

* यहाँ पाण्डुलिपि में कुछ शब्द अपाठ्य हैं।

सोमवार, 31 मई 2010

मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणाम


ज सुबह अदालत में जब हम चाय के लिए  जा रहे थे तो वरिष्ट वकील महेश गुप्ता जी ने पीछे से आवाज लगाई। मैं मुड़ा तो देखता हूँ कि पंचानन गुरू मौजूद हैं। वे मुझे याद कर रहे थे। वे कोटा की पहली पीढ़ी के वामपंथियों में से एक हैं। अपने जमाने में उन्हों ने इस विचार को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। बाद में  अपने गांव के पास के कस्बे अटरू में जा कर वकालत करने लगे, साथ में पुश्तैनी किसानी थी ही। अब जीवन के नवें दशक में हैं। गुरू ने पूछा -कहाँ जा रहे थे? मैं ने कहा चाय पीने।  उन्हो ने पलट कर पूछा-कौन पिला रहा है? मैं ने कहा जो भी सीनियर होगा वही पिलाएगा। उन्हों ने फिर पूछा -हम भी चलते हैं, अब कौन पिलाएगा? उत्तर मैं ने नहीं महेश जी ने दिया - अब तो सब से सीनियर आप ही हैं, लेकिन जब छोटे कमाने लगें तो उन का हक बनता है। तो यूँ मेरा हक है। हम सब केंटीन की ओर चले।
चाय का आदेश देते हुए महेश जी ने कहा एक चाय फीकी आएगी। गुरू बोले -फीकी किस के लिए? मैं तो अब भी घोर मीठी पीता हूँ। महेश जी ने जवाब दिया यह मधुमेह का राजरोग मुझे लगा है। गुरू कहने लगे -मधुमेह तो तो सब रोगों की जननी है। अब कोई रोग आप को छोड़ेगा नहीं। महेश जी ने उत्तर दिया -आप सही कहते हैं। इस का कोई इलाज भी नहीं, एक इलाज है पैदल चलना। मैं ने कहा श्रम ने ही तो मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया है, वह छूटेगा तो रोग तो पकड़ेगा ही। गुरू जी कहने लगे तुम भी डार्विन में विश्वास करते हो क्या? मैंने कहा करता तो नहीं, पर सबूतों का क्या करें? कमबख्त ने सबूत ही इतने दिए कि मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुरू जी ने गीता का जिक्र कर दिया। कहने लगे -वहाँ भी कहा तो यही है, कि मनुष्य काजन्म तो 84 लाख योनियों के बाद होता है, सीधा-सीधा विकासवाद की ओर संकेत है। पर उन्हों ने सबूत नहीं दिए सो पंडितों ने अपनी रोटियाँ उस पर सेक लीं।फिर वे किस्सा सुनाने लगे -
Planet of the Apes'मेरे गांव में एक बूढ़ा पटवारी बिस्तर पर था जान नहीं निकलती थी। बेटे कहने लगे बहुत दुख पा रहे हैं जान नहीं निकल रही है। मैं गीता ले कर वहाँ पहुँचा कि तुम्हें गीता सुना दूँ। दो दिन में उसे गीता के दो अध्याय सुनाए। तीसरे दिन तीसरा अध्याय सुनाने गया तो पूछने लगा। गाँव में डिस्टीलरी की बिल्डिंग  का खंडहर खड़ा है, सैंकड़ो एकड़ उस की जमीन है, डिस्टीलरी की इस जमीन का क्या होगा? मैं ने उसे गीता का तीसरा अध्याय नहीं सुनाया। बेटों को कहा कि जब तक डिस्टीलरी की चिंता इन्हें सताती रहेगी ये कष्ट पाते रहेंगे। उस के बाद मैं उसे गीता सुनाने नहीं गया।? 
ब तक चाय समाप्त हो चुकी थी। सब उठ लिए। गुरू जी मेरे लिए काम सौंप गए। जब श्रम ने मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया तो उस का श्रम से विलगाव क्या असर करेगा? जरा इस पर गौर करना। मैं ने कहा -निश्चित ही वह मनुष्य का विमानवीकरण करता है। यही तो इस युग का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। मनुष्य का अंतर्विरोधों का हल करने का लंबा इतिहास है, वह इस अंतर्विरोध को भी अवश्य ही हल कर लेगा। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' तो आपने पढ़ी ही होगी। 
स के बाद गुरूजी चल दिए। मैं भी अपने काम में लग गया। मैं घर लौटने के बाद इस प्रश्न  से जूझता रहा कि  क्या मनुष्य इस अंतर्विरोध को हल कर पाएगा? 
प लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? आप राय रखेंगे तो इस विषय पर सोच आगे बढ़ेगी। ब्लाग जगत में कुछ साथी गंभीर काम करते हैं, उन से गुजारिश भी है कि उन के ज्ञान में हो तो बताएँ कि, क्या ऐसी कोई शोध भी उपलब्ध हैं,  जो मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणामों के बारे में कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं?

शनिवार, 29 मई 2010

'पितृभाग' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का षष्टम सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के पाँच सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का छठा सर्ग "पितृभाग" प्रस्तुत है ......... 

परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

  षष्टम सर्ग
'पितृ भाग'
  
पुरुषार्थ पुरुष का जाग !  जाग !


ओ अम्बर के विस्तार ! बरस
द्रुत, नील नदी के कूल परस
धू - धू जल रहे सहारा की 
छाती को कर दे शान्तॉ, सरस
नीरस बालू की रेती में
निर्माण, शुभोदय - राग जाग !


पुरुषार्थ -पुरुष का भाग जाग !


दजला का बन्धु फरात उठे
यूनानी झंझावात उठे
सागर मन्थन का रत्न अमल
नव कीट विहँस जलजात उठे 
विष पी कर जो अमृत बाँटे
सुकरात-धरा का त्याग जाग !

आलोक-पुरुष का भाग जाग !

ईरान काफिला बढ़ने दे
दुर्जेय हिन्दुकुश चढ़ने दे
खैबर - बोलन की घाटी है
पूरब का सूरज पढ़ने दे
मह - मह जीवन सरसिज गमके
बढ़ चलने का अनुराग जाग !


विश्वास- पुरुष का भाग जाग !

मिस्री घाटी की रात मधुर 
तराओं की बारात मधुर 
अम्बर में दहता चाँद सुघड़
हर प्रात, रात की बात मधुर

सपने की बात सताती है
क्यों आज रुलाई आती है
जो हाथ पिरामिड गढ़ते हैं
उन की फटती छाती है

यूनान हाय, संग छूट गया
मीतों की बैठक खाली है
वह चिन्तन का अन्दाज यहाँ
वैसे अब कहाँ सवाली हैं ? 

दजला मेरा !   मेरा ईराँ !
नरगिस - सी आँखें याद न आ
छैनी अपना फन भूल गई
तो भूल मुझे अब तू भी जा

फारस की बुलबुल वो - चहकी
आँखों में शीरीं बाग जाग !
व्यामोह पुरुष का भाग जाग !

झुरमुट - उपवन
प्यारे - प्यारे
आ सुस्ता ले
दर्द भुला ले

दाड़िम की मीठी छइयाँ है
पर्वत की मीठी ठइया है
झेलम का झलमल पानी है
पानी में चंचल नइया है

जीवन में धार बहाव बहुत 
इस पर्वत पर ढुलकाव बहुत
है मेह बहुत, दुलराव बहुत
हाँ, सच यह भी ठहराव बहुत

बेजोड़ सिन्धु की घाटी है
केशर चर्चित यह माटी है
प्राणों को क्षण में जो बांधे
ऐसी इस की - परिपाटी है

आ प्रिये जुड़ा लें प्राण तनिक
अंगूर - बेलि में कुंज तले
आ, वेणि सजा दूँ मैं तेरी
तब तक गीतों का दौर चले

हाथों को कहता हूँ तब तक 
 रहने को महल बना डालें
सोने के गढ़ लें आभूषण
भूषण से अंग सजा डालें

सुख - दुख के साथी ढोरों को
जल पी ले, कह दूँ, सोतों में
अब सांझ हुई, जोड़े - जोड़े
पंछी जाते हैं खोतों में
मानस के आसन पर शोभित
सूरज-भू-गो-द्युति-नाग-जाग !


देवता - मनुज के भाग जाग !

आवास, गेह, जन, कुटुम्ब सभी
हर दिन त्योहार मनाते हैं
हर सुबह निकलते हैं सूरज
हर सांझ डूब वे जाते हैं

जाड़े की पीली धूप मधुर
स्वर्णाभ चमकता कुन्तल है
चम्पा की कली बड़ी भोली 
यह चीन देश की दुलहन है

भाई की बहना प्यारी है
बहना का भैया प्यारा है
हर और ठिठोली होती है
चाऊ का भैया क्वाँरा है...



खुशहाल किसानी बनी रहे
वाणी से अमृत झरा करे
गो-धन से गेह रहे पूरित
मित्रों से जनपद भरा करे

कागज की पाती पर दिल का 
अदला - बदला आबाद रहे
पाताल दिव्य धरती, अम्बर
पुरे पुर का धन याद रहे

जीवन-श्रम से श्रम मांग रहा
यौवन-क्रम से क्रम मांग रहा
जागरण-नये युग की गाथा
बीते युग का भ्रम भाग रहा

दो होंठ हिले जब दौर चला
दो हाथ जुड़े - पलकें डोलीं
सरगम में डूब गई महफिल
दो पाँव बढ़े - अलकें डोलीं

समता की धारा बहने दे
तन कोटि, प्राण इक रहने दे
यूनान-सिन्धु से मिस्र तलक
क्या बात हुई मत कहने दे



गौतम, लोओजी गाता है
युग पर युग बीता जाता है
बढ़ चलने की मजबूरी है
हर कदम नया रंग लाता है

धरती पर एक विधान नया
जीवन की एक अवस्था है
है दृष्टि नई, चिन्तन नूतन
जीवन में एक व्यवस्था है
जीवन को गति जो देती है
वह साम्य-सौम्य-शुचि आग जाग !

विद्रोह-पुरुष का भाग जाग !

प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'पितृ भाग' नाम का षष्टम-सर्ग समाप्त

गुरुवार, 27 मई 2010

स्वर्ण बनाने का सूत्र

ये सज्जन अदालत परिसर में दुकान लगाते हैं, पकौड़ियाँ बनाने और बेचने में माहिर हैं। सज्जन हैं, सुबह से ही विजया के आनंद में मगन रहते हैं। दिन भर में पकौड़ियाँ और चाय बेच कर अपना गुजारा चलाते हैं। पिछले कुछ दिनों से इन की दुकान पर यह बैनर लगा दिखाई पड़ता है।



इस बैनर पर लिखा है -
तोरस, मोरस, गंधक, पारा
इनहीं मार इक नाग संवारा।
नाग मार नागिन को देही
सारा जग कंचन कर लेही।।

मैं तीन-चार दिनों से इस छंद को पढ़ रहा हूँ, इस का गूढ़ार्थ निकालने की कोशिशें भी कर चुका हूँ। लेकिन अभी तक असफल रहा हूँ। आखिर आज मैं ने इन्हीं सज्जन से पूछ लिया -भाई इन पंक्तियों का क्या अर्थ है। उन्होंने बताया तो मैं अवाक् रह गया। उन का कहना है कि यह सोना बनाने का सूत्र है। 
मैं ने पूछा -आप ने कोशिश की? तो उन का कहना था कि कोशिश तो की है, लेकिन हर बार कुछ न कुछ कसर रह जाती है। कभी रंग सही नहीं बैठता और कभी घनत्व सही नहीं बैठता। मैं ने और दूसरे देसी कीमियागरों को भी सोना बनाने की कोशिशें करते देखा है। लेकिन कभी किसी को सफल होते नहीं देखा। यह संभव भी नहीं है। सोना एक मूल तत्व है जिसे नहीं बनाया जा सकता। यह केवल तभी संभव है जब किसी दूसरे मूल तत्व के नाभिक और उस के आस पास चक्कर लगा रहे इलेक्ट्रोनों को बदल कर स्वर्ण प्राप्त किया जाए। लेकिन वह एक नाभिकीय प्रक्रिया है, यदि उस तरह से स्वर्ण बनाना संभव हो भी जाए तो वह प्रकृति में प्राप्त स्वर्णँ से कई सौ या हजार गुना महंगा हो सकता है।
फिर भी जिस किसी ने ये पंक्तियाँ लिखी हैं, उस के लिखने का कुछ तो लक्ष्य रहा होगा। हो सकता है वह मनुष्य से उस के अंदर का विष मार कर उसे कंचन की भाँति बन जाने की बात ही कह रहा हो? क्या कोई पाठक या ब्लागर साथी, इस का सही-सही अर्थ बता सकेगा?

बुधवार, 26 मई 2010

तात्कालिक मुनाफे की अर्थव्यवस्था के परिणाम

नंगे पहाड़
ज तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है। इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
मंदी
पूँजीपति वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल और उस के खरीददारों का क्या होता है।  इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी !   जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है।  और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उलटे ही प्रकार के होते हैं;  कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से, जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]* 

* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।

 फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का समापन अंश।

"वानर के नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका" शीर्षक से यह आलेख फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा 1876 में लिखा गया था और सर्वप्रथम [डाई न्यू जित, बाइंडिंग-2 नं. 44, 1895-1896] में प्रकाशित हुआ था।  इसे आप ने छह कड़ियों में पढ़ा।  एक कड़ी के रूप में यह गूगल नॉल पर उपलब्ध है। मेरा प्रयास होगा कि यह ई-बुक के रूप में उपलब्ध हो सके तथा किसी न किसी प्रकार से एक ही कड़ी के रूप में भी इस का प्रकाशन हो।