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शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

एक दिवाली ऐसी भी ...

दफ्तर सफाई अभियान
स बार श्राद्धपक्ष समाप्त हुआ और नवरात्र आरंभ होने के बीच एक दिन शेष था। यह दिन वार्षिक संफाई की चिन्ता में बीता। उत्तमार्ध शोभा पूछ रही थी, इस बार यह सब कैसे सब होगा? मेरा सुझाव था कि उन्हें एक महिला सहयोगी चाहिए। काम वाली बाई ने उस की विवाहिता भान्जी सुनीता के बारे में सुझाव दिया जो अपने मिस्त्री पति के साथ भवन निर्माण कार्यों पर कुली का काम करने जाती थी। मैं ने अपने मुंशी जी से दफ्तर की सफाई के लिए हिदायत दी की वे भी एक व्यक्ति को जुटाएँ और एक दिन में ही दफ्तर की सफाई का काम पूरा हो ले। हमारी खुशकिस्मती रही कि सुनीता काम पर आई उसी दिन मुंशी जी भी एक सहयोगी को साथ ले कर आ गए। हम दफ्तर की सफाई में लगे और सुनीता घर में शोभा की मदद में। सुनीता ने दफ्तर की धुलाई में भी मदद की और काम एक दिन में निपट गया। सुनीता ने 5-6 दिन काम किया। उस से सफाई का काम पूरा हुआ।  शोभा धीरे धीरे घर जमाने सजाने के काम में लगी। साथ के साथ दीवाली के लिए मीठी नमकीन पापडियाँ और मैदा के नमकीन खुरमे बनाए। सफाई का काम पूरा हो जाने से वह पूरे उत्साह में थी। 

अक्टूबर 17 की रात को खबर मिली कि बेटी पूर्वा को बुखार आ गया। सुबह तक उस का बुखार उतर गया और वह स्नान कर के अपने दफ्तर भी चली गई। मैं ने उसे सुझाया था कि वह रविवार को डाक्टर को दिखा कर दवा ले ले। लेकिन दिन में स्वास्थ्य ठीक रहने से वह आलस कर गई। रात को फिर बुखार ने आ पकड़ा। वह अपने हिसाब से दवा लेती रही। दिन में ठीक रहती और रात को फिर बुखार उसे पकड़ लेता। इधर शोभा पूरे उत्साह से तैयारी में लगी थी कि रविवार 19 अक्टूबर को खबर मिली की शोभा के पापा का स्वास्थ्य चिन्ताजनक है। हम ने तुरन्त उन से मिलने जाना तय किया। शोभा ने उस की बहिन ममता को भी बुला लिया। हम तीनों आधी रात अकलेरा पहुँचे। 

बाबूजी डॉ. हीरालाल त्रिवेदी
बाबूजी को आक्सीजन लगी थी। फेफड़ों में कफ भरा था जो बाहर निकलना चाहता था। लेकिन कमजोरी के कारम वे निकाल न सकते थे। खांसी के डर से कुछ खा भी न पा रहे थे। अगले दिन द्रव-भोजन के लिए भी पाइप लगा दिया गया। डाक्टर रोज दो बार उन्हें देखने घर आ रहा है। मेल नर्स दिन में हर दो घंटे बाद चक्कर लगा रहा था। रात को भी तुरन्त उपलब्ध था। मैं ने चिकित्सक से बात की तो जानकारी मिली की  85 वर्षी उम्र और  अस्थमेटिक होने के कारण उन के फेफड़ों में कफ के बनना नहीं रुक पा रहा है और सारी तकलीफों की जड़ वही है। चिकित्सक पूरे प्रयास में थे कि किसी भी तरह से उन की तकलीफ को कम किया जा सके और वे सामान्य जीवन में लौट सकें। मैं अगले दिन शाम शोभा को वही छोड़ वापस लौट आया। पूर्वा को सोम की रात को भी बुखार आया। मंगल की शाम वह कोटा आने के लिए ट्रेन में बैठ गई। बुध की सुबह उसे ले कर घर वापस लौटा तो रात के पौने दो बज रहे थे। सुबह 12 बजे तक बेटा वैभव भी कोटा पहुँच गया। उस के आते ही मैं पूर्वा को ले कर डाक्टर के यहाँ पहुँचा और उसे दवाएँ आरंभ कराईं।

यह इस दिवाली की पूर्व पीठिका थी। त्यौहार का उत्साह पूरा नष्ट हो चुका था। बच्चे घर आ पहुँचे थे उन में भी एक बीमार थी और उन की माँ घर पर नहीं थी।  अब और कुछ व्यंजन घऱ पर बनाने का तो कुछ नहीं हो सकता था। मैं बिजली के बल्बों की कुछ इन्डिया मेड लड़ियाँ पहले से ला चुका था। मैं ने और बेटे ने उन्हें अपने घर के बाहर की दीवारों पर सजाया। घर को भी कुछ ठीक ठाक किया।  बच्चों के घऱ आने पर माँ के हाथ का भोजन उन की सब से प्रिय वस्तुएँ होती हैं। लेकिन वे इस बार इस से महरूम थे। हम तीनों ने घर के काम बाँट लिए थे और करने लगे थे। 

दीवाली की रात हमारा घर
वैभव बाजार से कुछ मिठाइयाँ और नमकीन ले आया, अब दीवाली इन्हीं से मनानी थी। दीवाली की शाम आ गई। दीपक तैयार किए गए। शोभा हर त्यौहार और उस से जुड़े धार्मिक कर्मकाण्डों को निभाना मेरी अरुचि के बावजूद नहीं भूलती। बल्कि सतर्क रहती है कि मेरे कारण कोई चीज छूट न जाए। मुझ से इन सब की तार्किकता पर बात करने को कभी तैयार नहीं होती। मैं भी उस के इस जनवादी अधिकार को कभी नहीं छेड़ता और घर में "शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व बनाए रखने का पक्षधऱ हूँ। वह अपने पापा की सेवा में होने पर भी फोन से पूर्वा और वैभव को निर्देश देती जा रही थी कि उन्हें क्या क्या करना है? कैसे दीपक जलाने हैं, कैसे लक्ष्मीपूजा करनी है आदि आदि....  दोनों उन निर्देशों का पालन भी अपने तरीके से कर रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ की वैभव पटाखे नहीं लाया। मै ने पूछा भी तो कहने लगा , बेकार की चीज है, धन भी बहाओ, कान खराब करो, गन्दगी फैलाओ और हवा भी खराब करो, क्या मतलब है? हमारी यह दिवाली पूरी तरह आतिशबाजी विहीन रही। पर रात को जो बाहर पटाखे चलने लगे तो त्यौहार के शोर-शराबे की कमी भी जाती रही। रात को भाई अनिल उस की पत्नी और बेटी शिवेशा सहित मिलने आ गया तो घर में कुछ रौनक हो गयी।

पूर्वा और शिवेशा
पूर्वा को रात बुखार कम था। सुबह तक बिलकुल जाता रहा। आज वह ठीक है। सुबह का भोजन पूर्वा और वैभव ने मिल जुल कर बनाया।  लेकिन पिछले 5-6 दिनों के बुखार की कमजोरी से उसे बार बार नीन्द आए जा रही है।  दिन में मेरे दो सहयोगी वकील मिलने आए और दो घंटे उन के साथ बिताए। वैभव का नियोजन मुम्बई में है वह साल में तीन चार बार ही घऱ आ पाता है। वह अपने मित्रों से मिलने निकल गया है। मैं भी कहीं जाना चाहता था पर पूर्वा को अकेला घर पर छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा है। अब तो शायद वैभव के लौटने पर ही जा सकूंगा या फिर पूर्वा साथ जाने को तैयार हुई तो उस के साथ कहीं जा सकता हूँ।

 दोनों बच्चे रविवार को फिर से अपने अपने नियोजनों के लिए निकल लेंगे। वे हैं तब तक दिवाली शेष है। वैसे भी दिवाली हो चुकी है, बस उस का उपसंहार शेष है। वह भी जैसे तैसे हो लेगा। पूर्वा उठ गई है, पूछ रही है वैभव कहाँ गया है? शायद उसे चाय की याद आ रही होगी। चलो मैं पूछता हूँ, वह बनाएगी या मैं बनाऊँ .....

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

‘मेड इन इण्डिया’

‘मेड इन इण्डिया’  
  • दिनेशराय द्विवेदी
आइए हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आइए हमारे याँ
डॉलर की जरूरत नहीं,
बस कौड़ियाँ ले आइए
हमारी जमीन, जंगल, नदियाँ
मजदूर हाजिर हैं, सब
आप की सेवा में तत्पर, सावधान¡

हमें और कुछ नहीं चाहिए
बस मजदूरों को दे दीजिए काम
उन्हें मजूरी न भी दें, तो कुछ नहीं
हमारे यहाँ मजदूर मजूरी वसूले
ऐसी उस की औकात कहाँ?
चाहें तो खूब बेगार कराइए

कानून?
वे तो हैं ही नहीं
कुछ हैं भी तो हमारे इन्सपेक्टर,
सब हम ने बधिया कर दिए हैं
कुछ सींग-वींग मारते हैं,
तो क्या?
उन को सैंडविच का टुकड़ा डालना
आप बेहतर जानते हैं।

अदालत?
वे हम ने खोली हैं
पर अफसर हम लगाते नहीं
वे खाली पड़ी रहती हैं।
अफसर कभी लगाते भी हैं
तो वह कुछ करे
उस के पहले उसे हम
हटा देते हैं

वहाँ तक मजूर जाता नहीं
चला जाए तो कई साल
कुछ पाता नहीं
मजूर अनुभवी है, जानता है
काम छोड़, कुछ दिन-महिनों की
मजूरी के लिए
बरसों चक्कर काटना फिजूल है
न्याय से उस का नहीं
केवल सेठों का नाता है

आप आइए तो हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आपके लिए तैयार हैं
सभी सामान
यहीं का माल, यहीं का मजूर
खूब बनाइए
जो भी बिक जाए
दुनिया के बाजारों में
हमें कुछ नहीं चाहिए
बस केवल
‘मेड इन इण्डिया’
की मोहर लगाइए


रविवार, 10 अगस्त 2014

बधाइयाँ... बधाइयाँ...!

बधाइयाँ आ रही हैं, बधाइयाँ जा रही हैं, बधाइयाँ पोस्टरों पर हैं, नगरों में सड़कों के किनारे टंगे बड़े बड़े होर्डिंग्स पर हैं। बधाइयाँ तमाम तरह की सोशल साइट्स पर अटकी हैं, लटकी हैं और अटकाई, लटकाई जा रही हैं। यूँ तो हर दिन बधाइयों का दिन है, पर आज रक्षाबंधन है और हर कोई बधाइयाँ देने को आतुर है। बाजार ने हर त्यौहार की तरह रक्षाबंधन को भी अपने शिकार का दिन बनाया है। बाजार जैसा कोई मौकापरस्त नहीं, वह हमेशा ताक में रहता है कि कोई मौका मिले और लोगों की जेबें हलाल की जाएँ। त्यौहार है तो बाजार से मिठाइयाँ आ गई हैं। बहनों ने राखियाँ भेज दी हैं, साथ में वही स्कूल के जमाने में शिक्षकों द्वारा सिखाया गया 'रक्षाबंधन के पर्व पर भाई को बहन का पत्र' टाइप की भाव के अभाव से जूझती चिट्ठियाँ हैं। 
मैं सोच रहा हूँ  ...  क्यों? ... आखिर क्यों मनाया जा रहा है रक्षाबंधन का यह त्यौहार? क्या, कैसा और किसे संदेश दिए जा रहा है यह?
बहनें भाइयों को रक्षा सूत्र बांधने को दौड़ रही हैं।  वाहन ओवरलोड हो चल रहे हैं। शासन स्त्रियों के प्रति इतना उदार हो गया है। त्यौहार को मनाने में स्त्रियों का सहयोग कर रहा है। सरकारी वाहन बहनों की यात्राओं के लिए मुफ्त कर दिए हैं जिस से भाई को राखी बान्धने में बहनों को कोई बाधा न रहे। संघ के स्वयं सेवक एक दूसरे को रक्षासूत्र बांध रहे हैं। पुरोहित यजमानों की कलाइयों पर और उन के व्यवसाय के साधनों पर रक्षासूत्र बांधे जा रहे हैं। रक्षा बंधन का यह रक्षासूत्र संदेश पहुँचा रहा है ... भाई मैं ने तुम्हें राखी बान्ध दी है। अब मुझ अरक्षित की रक्षा की जिम्मेदारी तुम पर है।   यह संदेश जिसे रक्षासूत्र बांधा गया है उस तक पहुँचता है या नहीं यह तो पता नहीं पर रक्षासूत्र बांधने वाले को खुद अपनी असुरक्षा का अहसास जरूर कराता है।
स्त्री अरक्षित है, वह सुरक्षित नहीं है। उसे यह अहसास हमेशा रहना चाहिए। दुनिया के तमाम पुरुषों से उसे खतरा है, लेकिन उस की सुरक्षा भी पुरुष ही कर सकता है। कोई भी दूसरी स्त्री या कई स्त्रियाँ भी मिल कर उसे सुरक्षा नहीं दे सकतीं। पति उसे सुरक्षा नहीं दे सकता, पति के परिवार का कोई पुरुष उसे सुरक्षा नहीं दे सकता, कोई पुरुष मित्र उसे सुरक्षा नहीं दे सकता। उसे सुरक्षा सिर्फ उस के मायके के पुरुष से मिल सकती है। पिता तो वृद्ध हो चुका है, इस कारण केवल भाई ही है जो उसे सुरक्षा दे सकता है। वह भाई को रक्षासूत्र बांधने के लिए दौड़ी जा रही है। 
संघ के स्वयंसेवक संगठित हो कर भी अरक्षित महसूस कर रहे हैं और एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांध कर अपने मन समझा रहे हैं। जब कभी वे संकट में होंगे और उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होगी तो दूसरा स्वयंसेवक जरूर उस की रक्षा करेगा। रक्षासूत्र बांधने के बाद स्वयंसेवक को साँस में साँस आई है। अब कुछ तसल्ली हुई है कि उस की रक्षा करने वाला कोई है। कम से कम वे तो हैं ही जिन की कलाइयों पर उस ने रक्षासूत्र बांधा है।
पुरोहित अरक्षित है। उस की रोजी रोटी यजमान के हाथों में है। यजमान उस से यज्ञ न करवाए, यजमान से दक्षिणा प्राप्त न हो तो उस का तो जीते जी कल्याण ही हो जाए। वह हर यज्ञ के आरंभ में यजमान को रक्षासूत्र बांधता है। फिर भी आज रक्षाबंधन के दिन फिर से यजमानों को रक्षासूत्र बांधने निकल पड़ा है। उस ने अपना कोई यजमान नहीं छोड़ा है। इतने यजमानों को रक्षासूत्र बांधने के बाद भी पुरोहित की सुरक्षा कम नहीं हुई है। आजकल यजमान तब तक ही यजमान रहते हैं जब तक पुरोहित कोई अनुष्ठान कर रहा है। बाद में ...
 मुझे लगता है हर कोई अरक्षित है। नहीं है, तो भी उसे यह अहसास कराया जाना जरूरी है कि वह अरक्षित है। समाज में स्त्रियाँ पुरुषों से अरक्षित हैं, वे कमजोर हैं, अबलाएँ हैं, उन्हें सुरक्षा चाहिए जो केवल पुरुष ही दे सकते हैं। सारे शूद्र अरक्षित हैं, उन्हें उन के यजमान ही सुरक्षा दे सकते हैं। ब्राह्मण पुरोहित अरक्षित हैं उन्हें उन के महाजन यजमान सुरक्षा दे सकते हैं। प्रजातंत्र में क्षत्रीय तो अब रहे नहीं। अब राज्य की सेनाएँ हैं, पुलिस है। छोटे महाजन को बड़ा महाजन सुरक्षा दे सकता है। सारे समाज को देश को केवल वही सुरक्षा दे सकते हैं जिन्हों ने देश भर के साधनों को हथिया रखा है और धीरे धीरे सब कुछ हथियाये जा रहे हैं।
 रक्षाबंधन का यह पर्व सुन्दर अहसास करवा रहा है। देश की जनता का अधिकांश हिस्सा खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है और उपाय के रूप में रक्षा के लिए जो भी नजदीक दिखाई दे रहा है उसी को रक्षासूत्र बांध रहा है। यह त्यौहार देश और समाज की संपूर्ण संयोजित असुरक्षा को महसूस करने का त्यौहार बन गया है। स्थापित किया जा रहा है कि समाज में स्त्रिया सदैव से असुरक्षित थीं, अब असुरक्षित हैं और सदैव असुरक्षित रहेंगी (पुरुषों के कारण) और पुरुष सुरक्षा देंगे। समाज में कमजोर शूद्र और श्रमजीवी सदैव सुरक्षित रहेंगे (सक्षमों के कारण) और सक्षम उन्हें सुरक्षा देंगे। यह त्यौहार पुंसवादी समाज में पुरुषों की और सक्षमों के आधिपत्य वाले समाज में सक्षमों की पूजा का त्यौहार है, उन की अधीनता स्वीकार कराने का त्यौहार है। असुरक्षा और अधीनता के भाव को और अधिक प्रबल बनाने का त्यौहार है। नहीं?


 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

पार्क या मन्दिर

कोई पन्द्रह बरस पहले मेरी कालोनी के कुछ लोगों का यह मंतव्य हुआ कि कालोनी में बने एक छोटे से पार्क में मंदिर बना दिया जाए जिस से लोगों को पूजा के लिए दूर न जाना पड़े। वे इकट्ठे हो कर मेरे यहाँ पहुँचे और अपना मंतव्य बताया। मुझे सुन कर बड़ा अजीब लगा और गु्स्सा भी आया कि बच्चों, वृद्धों व महिलाओं के खेलने घूमने की एक मात्र जगह को भी नष्ट किया जा रहा है। पार्क इतना छोटा था कि मंदिर बनने के बाद सारा पार्क ही पार्क परिसर बन जाता।

मैं ने उन्हें बताया कि इस तरह तो पार्क खत्म ही हो जाएगा। फिर पूछा कि वे कैसा मंदिर बनाना चाहते हैं। तो वे बोले कि वे मंदिर नहीं एक चबूतरा बनाना चाहते हैं जिस पर शिवलिंग स्थापित करेंगे। 

मैं ने उन्हें कहा कि यह तो अजीब होगा। बकरियाँ और कुत्ते आ कर शिवलिंग को अपवित्र करेंगे। मैं भले ही नास्तिक ठहरा पर जिस प्रतिमा में लोगों की आस्था हो उस के साथ ऐसा बर्ताव तो सहन नहीं कर सकूंगा। आप लोग छोटा सा खूबसूरत मंदिर बनाएँ जिस में शिवलिंग ही नहीं पूरा शिव परिवार भी हो। एक नियमित पुजारी भी हो जो मंदिर की सुरक्षा भी रखे तो तो प्रस्ताव मानने लायक है। पर फिर भी पार्क वाली बात मुझे नहीं जमती। आप ऐसा करें मेरे घर के आगे दस गुणा पच्चीस वर्ग फुट की जगह खाली है। इस में से दस गुणा दस वर्ग फुट में आप लोग अच्छा मंदिर बनाएँ। मैं बाह्मन का बेटा हूँ और संयोग से अपने जीवन के 15 बरस एक बड़े मंदिर में गुजारे हैं जहाँ दादा जी पुजारी थे। पूजा भी मुझे विधि विधान से करनी आती है। पुजारी का काम मैं कर लूंगा। मंदिर का इस्तेमाल आप लोग करना। हाँ जमीन मेरी होगी और मंदिर सबका होगा। पर पूजा प्रबंधन मेरे नियंत्रण में रहेगा।

पता नहीं क्यों उन्हें यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया। मंदिर का सपना भी धीरे धीरे छूट गया। आज वहाँ खूबसूरत सा पार्क है। सारी कालोनी उस का उपयोग करती है। किसी के दिमाग में वहाँ मंदिर बनाने का विचार तक नहीं आता। मुझे वह कालोनी छोड़े चार बरस हो चुके हैं।

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

प्रेमचंद के फटे जूते

व्यंग्य
  • हरिशंकर परसाई



प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सर पर किसी मोटे कपडे की टोपी, कुरता और धोती पहिने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछे चहरे को भरा-भरा बतलाती है।

पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।

दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमे से अंगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ- फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसे होगीं? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होगी - इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फ़िर भी तुम्हारे चहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब 'रेडी-प्लीज' कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही 'क्लिक' करके फोटोग्राफर ने 'थैंक यू' कह दिया होगा। विचित्र है ये अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं है, इसमे उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहिने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है।फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहिन लेते या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम 'अच्छा चल भई' कहकर बैठ गए होगे। मगर यह कितनी बड़ी 'ट्रेजडी' है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बरात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए बीबी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए। गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुसबू देती है।

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती है। तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है।

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है।

पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहें है।

तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहिने हो! मैं ऐसे नहीं पहिन सकता। फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दें।

तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है ये?

-- क्या होरी का गोदान हो गया?

-- क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गए?

-- क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डाक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?

नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया।

वही मुसकान मालूम होती है।

मैं तुम्हारा जूता फ़िर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?

क्या बहुत चक्कर काटते रहे?

क्या बनिया के तगादे से बचने के लिए मील-दो-मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?

चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है।

कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा-

'आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरी नाम'

और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था- 'जिनके देखे दुःख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!'चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है। तुम्हारा जूता कैसे फट गया।

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठीकर मारते रहे हो। कोई चीज जो परत-दर-परत जमाती गई है, उसे शायद तमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदिया पहाड़ थोड़े ही फोड़ती है, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही 'नेम-धरम' वाली कमजोरी? 'नेम-धरम' उसकी भी जंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम' तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी।

तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो?

तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?

मैं समझता हूँ। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझाता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझाता हूँ।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो। उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो - मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जुते की बात समझाता हूँ, अंगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ।

शादी की वजह

  •  मुंशी प्रेमचन्द



ह सवाल टेढ़ा है कि लोग शादी क्यों करते है? औरत और मर्द को प्रकृत्या एक-दूसरे की जरूरत होती है लेकिन मौजूदा हालत में आम तौर पर शादी की यह सच्ची वजह नहीं होती बल्कि शादी सभ्य जीवन की एक रस्म-सी हो गई है। बहरलहाल, मैंने अक्सर शादीशुदा लोगों से इस बारे मे पूछा तो लोगों ने इतनी तरह के जवाब दिए कि मैं दंग रह गया। उन जवाबों को पाठको के मनोरंजन के लिए नीचे लिखा जाता है—


एक साहब का तो बयान है कि मेरी शादी बिल्कुल कमसिनी में हुई और उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मेरे मां-बाप पर है। दूसरे साहब को अपनी खूबसूरती पर बड़ा नाज है। उनका ख्याल है कि उनकी शादी उनके सुन्दर रूप की बदौलत हुई। तीसरे साहब फरमाते है कि मेरे पड़ोस मे एक मुंशी साहब रहते थे जिनके एक ही लड़की थी। मैने सहानूभूतिवश खुद ही बातचीत करके शादी कर ली। एक साहब को अपने उत्तराधिकारी के रूप मे एक लड़के के जरूरत थी। चुनांचे आपने इसी धुन मे शादी कर ली। मगर बदकिस्मती से अब तक उनकी सात लड़कियां हो चुकी है और लड़के का कहीं पता नहीं। आप कहते है कि मेरा ख्याल है कि यह शरारत मेरी बीवी की है जो मुझे इस तरह कुढ़ाना चाहती है। एक साहब बड़े पैसे वाले है और उनको अपनी दौलत खर्च करने का कोई तरीका ही मालूम न था इसलिए उन्होंने अपनी शादी कर ली। एक और साहब कहते है कि मेरे आत्मीय और स्वजन हर वक्त मुझे घेरे रहा करते थे इसलिए मैंने शादी कर ली। और इसका नतीजा यह हुआ कि अब मुझे शान्ति है। अब मेरे यहां कोई नहीं आता। एक साहब तमाम उम्र दूसरों की शादी-ब्याह पर व्यवहार और भेंट देते-देते परेशान हो गए तो आपने उनकी वापसी की गरज से आखिरकार खुद अपनी शादी कर ली।


और साहबों से जो मैंने दर्याफ्त किया तो उन्होने निम्नलिखित कारण बतलाये। यह जवाब उन्ही के शब्दों मे नम्बरवार नीचे दर्ज किए जाते है—


१—मेरे ससुर एक दौलतमन्द आदमी थे और उनकी यह इकलौती बेटी थी इसलिए मेरे पिता ने शादी की।

२—मेरे बाप-दादा सभी शादी करते चले आए हैं इसलिए मुझे भी शादी करनी पड़ी।

३—मै हमेशा से खामोश और कम बोलने वाला रहा हूं, इनकार न कर सका।

४—मेरे ससुर ने शुरू में अपने धन-दौलत का बहुत प्रदर्शन किया इसलिए मेरे मां-बाप ने फौरन मेरी शादी मंजूर कर ली।

५—नौकर अच्छे नहीं मिलते थे और अगर मिलते भी थे तो ठहरते नहीं थे। खास तौर पर खाना पकानेवाला अच्छा नहीं मिलता। शादी के बाद इस मुसीबत से छुटकारा मिल गय।

६—मै अपना जीवन-बीमा कराना चाहता था और खानापूरी के वास्ते विधवा का नाम लिखना जरूरी था।

७—मेरी शादी जिद में हुई। मेरे ससुर शादी के लिए रजामन्द न होते थे मगर मेरे पिता को जिद हो गई। इसलिए मेरी शादी हुई। आखिरकार मेरे ससुर को मेरी शादी करनी ही पड़ी।

८—मेरे ससुरालवाले बड़े ऊंचे खानदान के है इसलिए मेरे माता-पिता ने कोशिश करके मेरी शादी की।

९—मेरी शिक्षा की कोई उचित व्यवस्था न थी इसलिए मुझे शादी करनी पड़ी।

१०—मेरे और मेरी बीवी के जनम के पहले ही हम दोनो के मां-बाप शादी की बातचीत पक्की हो गई थी।

११—लोगो के आग्रह से पिता ने शादी कर दी।

१२—नस्ल और खानदान चलाने के लिए शादी की।

१३—मेरी मां को देहान्त हो गया था और कोई घर को देखनेवाला न था इसलिए मजबूरन शादी करनी पड़ी।

१४—मेरी बहनें अकेली थी, इस वास्ते शादी कर ली।

१५—मै अकेला था, दफ्तर जाते वक्त मकान मे ताला लगाना पड़ता था इसलिए शादी कर ली।

१६—मेरी मां ने कसम दिलाई थी इसलिए शादी की।

१७—मेरी पहली बीवी की औलाद को परवरिश की जरूरत थी, इसलिए शादी की।

१८—मेरी मां का ख्याल था कि वह जल्द मरने वाली है और मेरी शादी अपने ही सामने कर देना चाहती थी, इसलिए मेरी शादी हो गई। लेकिन शादी को दस साल हो रहे है भगवान की दया से मां के आशीष की छाया अभी तक कायम है।

१९—तलाक देने को जी चाहता था इसलिए शादी की।

२०—मै मरीज रहता हूं और कोई तीमारदार नही है इसलिए मैंने शादी कर ली।

२१—केवल संयाग से मेरा विवाह हो गया।

२२—जिस साल मेरी शादी हुई उस साल बहुत बड़ी सहालग थी। सबकी शादी होती थी, मेरी भी हो गई।

२३—बिला शादी के कोई अपना हाल पूछने वाला न था।

२४—मैंने शादी नही की है, एक आफत मोल ले ली है।

२५—पैसे वाले चचा की अवज्ञा न कर सका।

२६—मै बुडढा होने लगा था, अगर अब न करता तो कब करता।

२७—लोक हित के ख्याल से शादी की।

२८—पड़ौसी बुरा समझते थे इसलिए निकाह कर लिया।

२९—डाक्टरों ने शादी केलिए मजबूर किया।

३०—मेरी कविताओं को कोई दाद न देता था।

३१—मेरी दांत गिरने लगे थे और बाल सफेद हो गए थे इसलिए शादी कर ली।

३२—फौज में शादीशुदा लोगों को तनख्वाह ज्यादा मिलती थी इसलिए मैंने भी शादी कर ली।

३३—कोई मेरा गुस्सा बर्दाश्त न करता था इसलिए मैंने शादी कर ली।

३४—बीवी से ज्यादा कोई अपना समर्थक नहीं होता इसलिए मैंने शादी कर ली।

३५—मै खुद हैरान हूं कि शादी क्यों की।

३६—शादी भाग्य में लिखी थी इसलिए कर ली।


इसी तरह जितने मुंह उतनी बातें सुनने मे आयी।

जमाना मार्च, १९२७




शनिवार, 31 मई 2014

कोड़ा जमाल साई

शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...

कोड़ा जमाल साई ..... 
  • शिवराम

कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई

नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...

आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...

वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...


कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...

कोड़ा जमालशाही ... 
  • शिवराम

कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई


उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....

बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...

आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...

वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी