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सोमवार, 23 अगस्त 2010

सांसदो के साथ-साथ एम्मेले और कारपोरेटर लोगों की तनख़वाह भी बढ़ानी चाहिए

पेशे से मैं एक वकील हूँ, अपने मुवक्किलों की ओर से अदालत में पैरवी करता हूँ, उन्हें सलाह देता हूँ और इस के अलावा उन की ओर से कुछ अन्य कानूनी काम भी करता हूँ। मेरी आमदनी का जरीया मेरी वकालत ही है। मुकदमे लड़ने के अलावा जो काम हैं उन में से कम से कम आधे कामों के लिए मुझे फीस मिल जाती है जो चालू दर के  मुताबिक होती है। मुकदमे लड़ने के लिए मुझे जो फीस मिलती है वह मुकदमा शुरू होने के वक़्त तय होती है और मुकदमे के दौरान किस्तों में मिलती रहती है। लगभग आधी फीस मुकदमे के आख़िर में जा कर मिलती है। मुकदमे चार-पाँच साल की अवधि से ले कर बीस-तीस वर्ष की अवधि तक चलते रहते हैं। मुकदमा जितना लंबा चलता है, उस मुकदमे में मिलने वाली फीस की वास्तविक कीमत में मोर्चा लगता रहता है। मुकदमे की फीस में मेरे दफ्तर के खर्चे भी शामिल होते हैं जो तय की गई फीस के लगभग आधे के बराबर होते हैं। मैं कभी किसी लंबे चलने वाले मुकदमे के निपट जाने के बाद हिसाब करता हूँ तो पता लगता है फीस में मोर्चा ही रह गया लोहा तो खत्तम। दफ्तर का खर्चा जेब से लगा। लेकिन फिर भी सब कुछ चलता रहता है, रवायत की तरहा। जब किसी मुलाज़िम या  तनख़वाह लेने वाली जमातों की तन्ख़्वाह बढ़ाई जाती है तो बड़ी कोफ़्त होती है। मियाँ मीर तक़ी 'मीर' का ये शैर याद आने लगता है....
कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
जिन सांसदों को हम ने चुन के संसद में भेजा, जब उन की तनख़्वाह बढ़ने की चर्चा होने लगी तो हमारी भी जान जलने लगी कि 'आखिर इन की तनख़्वाह क्यों बढ़ाई जा रही है?' ये जान तब तक जलती रही जब तक तनख़्वाह बढ़ नहीं गई। जब तनख्वाह बढ़ने की खबर पढ़ ली तो जान पर ठंडक पड़ी। जब पढ़ लिया कि बेचारों की तनख्वाह पचास हजार भी नहीं थी वह भी अब जा कर हुई है, तो उन पर दया आने लगी। उधर दिल्ली में रहने का खर्चा ही कितना है, कैसे अब तक अपना खर्चा चला रहे होंगे। वो तो ग़नीमत है के जो भी मिलने जाता है कुछ चावल गांठ में जरूर बांध ले जाता है वर्ना दि्ल्ली में रहने के लाले पड़ जाते। सुना है सरकार ने मकान मुहैया करा रखे हैं वर्ना तो किराए का मकान लेने में भी परेशानी आ जाती। एक तो कोई देता नहीं। (स्साला एमपी है बाद में खाली न करे तो, और किराया भी न दे तो क्या कल्लेंगे) ये भी सुना है के उन को रेल, मोटर हवाई जहाज का किराया भी सरकार देती है, वरना होता ये के एक बार दिल्ली चले जाते तो वापस घर कैसे लौटते? या घर आ जाते तो संसद में कैसे पहुँचते? गैरहाजरी लग जाती। शायद तनख्वाह भी कट जाती (मुझे नहीं मालूम कि गैर हाजरी लगने पर उन की तनख़्वाह कटती है या नहीं?)  मुलाज़िम लोगों का जब तनख़्वाह में ग़ुजारा नहीं होता, तो वे बख़्शीश पे ग़ुजारा करते हैं। ऐसा ही कोई जुग़ा़ड़ ये एमपी लोग भी जरूर किया करते होंगे, सब नहीं तो ज़्यादातर ज़रूर किया करते होंगे। 
ब आज कल जितनी महंगाई हो गई है उस में तो पचास हजार भी कहाँ लगेंगे। वे मुलायम और लालू यूँ ही थोड़े ही संसद में उठ-उठ कर पड़ रहे थे। आख़िर कोई तो वज़ह रही ही होगी। सुना है लालू जी ने तो फिर भी घास-वास खाने की आद़त डाल रक्खी है, बेचारे मुलायम क्या करेंगे? उन का ये उठ-उठ पड़ना वाक़ई वाज़िब था। अब खबर आ रही है कि वेतन बढ़ा कर अस्सी हज़ार से कम से कम एक रुपया तो अधिक कर ही दिया जाएगा। वाकई सरकार बड़ी ग़रीब नवाज है। अब लालू-मुलायम जैसों की सोच रही है तो कभी न कभी हमारे लिए सोचने का नंबर आ ही जाएगा, इस अहसास से ही गुदगुदी होने लगती है। तनख़्वाह इतनी कर दी जाए तो फिर सांसद लोगों की थोड़ी तो परेशानी कम हो ही जाएगी और वे शायद अपने वोटरों के बीच ज़्यादा आने लगेंगे। फिर अदालत में भी कुछ चक्कर ज़्यादा लगने लगेंगे। फिर हमें राशन कार्ड दुरुस्त करवाने को शायद कारपोरेटर  को तलाशना न पड़े सांसद जी से ही काम चला लिया करेंगे।  
मुझ से पूछो तो इन की तनख़्वाह कम से कम एक लाख जरूर कर दी जानी चाहिए। इस से बड़े फ़ायदे होंगे। कम तनख़्वाह वालों को अपनी-अपनी तनख़्वाह बढ़ाने में सुभीता हो जाएगा। वे सांसद जी से कह सकेंगे और वे टाल नहीं सकेंगे। अभी तो वे ये कह देते हैं कि हमें ही कितनी तनख़्वाह मिलती है? मैं तो कहता हूँ के एम्मेले लोगों और कारपोरेटरों की तनख़वाह भी बढ़ा देनी चाहिए। मुंसीपेल्टी के सड़क बुहारने वाले, और नाली में घुस कर कचरा निकालने वाले भी अपनी बोलने की आज़ादी का इस्तेमाल कर पाएँगे। अभी तो ठेकेदार उन को सरकारी न्यूनतम मजदूरी का आधा देता है। कहता है बाकी आधी में से मुझे कारपोरेटरों और मुंसीपेल्टी के अफ़सरों का घर जो चलाना पड़ता है। 

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

"मूल्यों की नीलामी" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का चतुर्दश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  तेरह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का चतुर्दश सर्ग "मूल्यों की नीलामी" प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

चतुर्दश सर्ग
मूल्यों की नीलामी
ठोक बजा कर माल देख लो, दुनिया है बाजार
जेब देखना पहले, पीछे डाक बोलना यार
सोना है या मिट्टी है, सब कुछ रख दिया पसार
बोल हमारा अपना होगा-दल्लाली बेकार
 
हर माल मिलेगा छह आना
पण्डित का मन्तर   छह आना
मुल्ला का जन्तर   छह आना 
गिरजा की रानी   छह आना
गंगा का पानी   छह आना 
अल्लाहो अकबर   छह आना
ईसा वो ईश्वर   छह आना
तस्वीर, सुमरनी   छह आना
हर जेब कतरनी   छह आना
गुरुद्वारा का दर   छह आना
बापू का मन्दर   छह आना
काब औ काशी   छह आना
ताजा और बासी   छह आना
हर सस्ता - महंगा   छह आना
 
गीता बाइबिल और क़ुरान का नया नया एडीसन ले लो
पक्की जिल्द, छपाई सुन्दर, गेट-अप में न्यू फैशन ले लो
 
धर्मा-धर्मी लगा दिया है
धरम-करम सब   छह आना
सीता की इज्जत   छह आना
मरियम की अस्मत छह आना
बम्पाट जवानी   छह आना
बहनों का पानी   छह आना
बेजोड़ पतुरिया   छह आना
वल्लाह संवरिया   छह आना
परदे की राधा   छह आना
कनसेसन आधा   छह आना
गालों का चुम्बन   छह आना
सीने की धड़कन   छह आना
बिन ब्याही गोरी   छह आना
औ ब्याही छोरी   छह आना
मिश्री फुलझरियाँ   छह आना
एथेंसी गुड़िया   छह आना
दजला की हूरें   छह आना
पेकिंग की नूरें   छह आना
   लिंकन की बेटी   छह आना
लन्दन का डैडी   छह आना
हर माल मिलेगा   छह आना
 
कम्पनी न घाटा सहने का व्यापार कभी करती है
लेकिन इस युग की मांग सदा दुनिया के आगे धरती है
 
लो छह आना जी   छह आना 
पण्डित अल्लामा   छह आना
बेकूफ हरामा   छह आना 
इतिहास पुरातन   छह आना
साहित्य सनातन   छह आना
मीरा औ तुलसी   छह आना
जयदेव जायसी   छह आना
पातञ्जल - शंकर   छह आना
गोरख तीर्थंकर   छह आना 
विज्ञान चिरंतन  छह आना 
दुनिया का दर्शन   छह आना 
प्लेटो और गेटे   छह आना
सड़कों पर लेटे   छह आना
एलोर अजन्ता   छह आना
वाणी का हन्ता   छह आना
सम्पादक सन्ता   छह आना
 लेखक लेखन्ता   छह आना
पायल पर सरगम   छह आना
मिलता है हरदम    छह आना
बस छह आना जी   छह आना
 
युग की देन जमाना रोये अँखियाँ दीदा खाये
बाँधो बाँध कि आँसू का सैलाब न तीर डुबोये
 
रोमियो खड़ा है    छह आना
ढोला अटका है   छह आना
राधा लहराई   छह आना
जुलियट मुसकाई   छह आना
दिलजानी  लैला   छह आना
 मजनूँ है छैला    छह आना
नौकरी न मिलती   छह आना
डालो है लगती    छह आना
सुश्री शहजादी   छह आना
नौकर संग भागी   छह आना
प्राणों का रिश्ता   छह आना
हर महंगा सस्ता   छह आना
सपनों का नन्दन   छह आना 
कसमों का बन्धन   छह आना
आशा  का दिअना   छह आना
निरमोही सजना   छह आना
निकला कस्साई   छह आना
झुट्ठा हरजाई   छह आना
अब जेब कतरता   छह आना
हाजत में सड़ता   छह आना
जूते है खाता   छह आना
फिल्मी धुन गाता   छह आना
जलने की सर्दी   छह आना
मरने की गर्मी   छह आना
जल गई नगरिया   छह आना
मर गई गुजरिया   छह आना
हर माल यहाँ है   छह आना
 
नई दुकान, नया चौराहा जयरा डग-मग डोले
माल हमारा, बोल तुम्हारे डाक जमाना बोले
 
भाई औ बहना   छह आना
सजनी औ सजना   छह आना
लहठी औ चूरी   छह आना
मन की मजबूरी   छह आना
सिन्दूर सुहागिन   छह आना
लुट गई अभागिन   छह आना
अन्तर अकुलाते   छह आना
दृग जल बरसाते   छह आना
गोदी का ललना   छह आना
पैसों का छलना   छह आना
करुणा मानवता   छह आना
पशुता दानवता   छह आना
दिल के सब रिश्ते   छह आना
हर महंगे-सस्ते   छह आना
 
जंग आँख का छूट जाएगा देख हमारा माल
त्रेता, द्वापर, सतयुग झूठे कलयुग करे कमाल
 
काजी औ हाजी   छह आना
युग-युग का पाजी   छह आना
इंसाफ करारा   छह आना
कानून सियासत   छह आना
संसद औ हाजत   छह आना
दरबार कचहरी   छह आना
जज - लाट - संतरी   छह आना
जीवन का रक्षक   छह आना
फिरता बन भक्षक   छह आना
घर की चौहद्दी   छह आना
दादा की गद्दी   छह आना
 कानून उलट दो   छह आना
हर बात पलट दो   छह आना
 चाँदी का जूता   छह आना
कश्मीरी कुत्ता   छह आना
 
नाग फाँस यह बैंक धव का कोई निकल न पाए
जो आए इस घेरे में बस, यहीं घिरा रह जाए
 
नेता का हमदम   छह आना
गिलबों का अलबम   छह आना
 यह उलटी शोखी   छह आना
हर बात अनोखी   छह आना
जनता की बानी   छह आना
बिड़ला है दानी   छह आना 
चौरा - काकोरी   छह आना
शिमला - मंसूरी   छह आना
जनखों का जोड़ा   छह आना
वीरों का जोड़ा   छह आना
 भूखों पर फायर   छह आना
पूंजीपति नायर   छह आना
जाँबाज कमेरा   छह आना
खूँखार लुटेरा   छह आना
गोली का बढ़ना   छह आना
सीने पर अड़ना   छह आना
असूर्यम्पश्या        छह आना
घनघोर तपस्या   छह आना
सब की बर्बादी   छह आना
फिल्मी आजादी   छह आना
यह लंदन वाला   छह आना
यूएसए वाला   छह आना
और बालस्ट्रीटी   छह आना
सब सिट्टी - पिट्टी   छह आना
बापू औ बेटा   छह आना
सब छोटा - जेठा   छह आना
सब सस्ता - महंगा   छह आना
 लो, लगा दिया है   छह आना
जी, सजा दिया है   छह आना
हाँ लुटा दिया है   छह आना
सरकारी बोली   छह आना
 
सब छह आना सब छह आना सब छह आना 
यादवचंद्र पाण्डेय
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए

ज हमारे देश के महान कृषि मंत्री जनाब-ए-आला शरद पंवार साहब ने कह ही दिया कि गरीबों को अनाज मुफ्त में दिया जाना संभव नहीं है, और कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश नहीं दिया था अपितु सुझाव दिया था। आप की इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? यही न कि हम अनाज सड़ा सकते हैं लेकिन बाँट नहीं सकते। सड़ाने में हमारा कुछ खर्च नहीं होता (सिवाय मलबे को साफ करने के) (और अनाज के सड़ने से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के, लेकिन उस से क्या? वह तो स्वास्थ्य और चिकित्सा विभाग का काम है, उस से उन्हें क्या लेना देना) 
लिए हम मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव ही दिया था कोई निर्देश नहीं। लेकिन उस सुझाव में भी बात तो यही छिपी हुई थी ना कि जो अनाज आप ने जनता के पैसे से खरीदा है वह काम आए और सड़े नहीं। लेकिन लगता है कि शरद पंवार को बात आसानी से समझ नहीं आती। आए भी कैसे अभी जनता ने उन्हें शानदार सबक जो नहीं सिखाया। कोई बात नहीं, जनता किसी को भूलती नहीं और अवसर आने पर प्रसाद अवश्य ही बाँटती है। जल्द ही इस का सबूत भी देखने को मिल जाएगा। इस परिस्थिति में हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अनाज क्यों सड़ रहा है? निश्चित रूप से अनाज की फसल इतनी तो नहीं ही हुई है कि वह सड़ने लगे। फिर हुआ क्या है? देश की आबादी बढ़ी है और गोदाम भी बढ़े हैं फिर अनाज के भंडारण के लिए गोदाम कम क्यों पड रहे हैं? 
नाज गोदामों में ही नहीं भरा जाता। हर घर में इतनी जगह तो होती ही है कि परिवार के वर्ष भर का अनाज वहाँ सुरक्षित रखा जा सके। पहले यही होता था कि अधिकांश लोग चाहे उन की आर्थिक हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो वे अपनी जरूरत के वर्ष, डेढ़ वर्ष का अनाज अपने घरों पर सुरक्षित कर के रखते थे। जिस के कारण बहुत सा अनाज लोगों के घरों में जा कर जमा हो जाता था। उन के भंडारण के लिए बड़े गोदामों की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन वर्ष भर का अनाज घर में एक साथ खरीद कर रख लेने की आदत लोगों में कम हुई है। अधिकांश लोग या तो बाजार से सीधे आटा खरीद रहे हैं या फिर पचास किलो का बैग खरीद कर लाते हैं और उस के समाप्त होने पर फिर से बाजार पहुँच जाते हैं। 
कुछ वर्ष पहले तक सभी सरकारी विभागों में अनाज की फसल आने पर अनाज अग्रिम कर्मचारियों को मिल जाता था। यहाँ तक कि इसी तर्ज पर अनेक उद्योगों में भी मजदूर यूनियनों ने यह मांग उठाई और मजदूरों को अनाज अग्रिम मिलने लगा था। लेकिन कुछ वर्षों से अनाज अग्रिम मिलने की बात सुनाई नहीं दे रही है। यह अनाज अग्रिम मिलने से कर्मचारी वर्ष भर का अनाज एक साथ खरीद लेते थे। इस तरह से वर्ष भर का अनाज लोगों के घरों में पहुँच जाता था और अनाज के भंडारण की समस्या ही नहीं होती थी।  
पिछले कुछ वर्षों से अनेक कारणों से लोगों के घरों में वर्ष भर का अनाज खरीदने की प्रवृत्ति समाप्त हुई है और अनाज के भंडारण के लिए गोदामों की समस्या खड़ी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए अब देश भर में नए गोदाम बनाए जाएंगे। उस के लिए पूंजी खर्च की जाएगी। उस के लिए खेती करने वाली जमीनों को अधिग्रहीत किया जाएगा। गोदामों के निर्माण कार्यों में मंत्रियों से ले कर अफसरों और ठेकेदारों के वारे-न्यारे होंगे। राजनैतिक दलों के लिए चंदा इकट्ठा करने का एक और जरिया बनेगा। गोदामों की  इस समस्या को हल करने का मुझे तो अब भी सब से बड़ा समाधान यही लगता है कि लोगों को साल भर का अनाज अपने घरों में खरीद कर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाए और उन्हें वर्ष भर का अनाज खरीदने का सबूत पेश करने को कहा जाए। निजि क्षेत्र के नियोजकों को भी कानून बना कर इस के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वे अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दें। अनाज अग्रिम के लिए दिया गया धन कर्मचारियों के वेतन से प्रतिमाह कटौती के जरिए  वापस नियोजकों को मिल जाएगा।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं

ल मैं ने नगरों के विकास में पूंजी के अनियोजित निवेश से अवरुद्ध विकास की बात की थी। आज इसी विकास का एक और पक्ष जिस की आग में उत्तर प्रदेश जल रहा है। इस से पहले सिंगूर, नंदीग्राम औऱ दादरी में इस आग के दर्शन हम कर चुके हैं। वहीं लाल पट्टी जहाँ नक्सली-माओवादी सक्रिय हैं में भी यही विषय प्रमुख बना हुआ है। औद्योगिक और नगरीय विकास के लिए खेती की जमीनों का अधिग्रहण और जंगलों की वानस्पतिक और खनिज उपज को उद्योगपतियों के हवाले कर देना इस आग का मूल कारण है। 
म सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण और नगरीयकरण विकास के लिए आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी को इस विकास के बिना जीवित भी नहीं रखा जा सकता। भारत में आज भी औद्योगिकी करण बहुत पिछड़ा हुआ है और आधी से अधिक आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। भारत जैसे देश को यदि विकास की दौड़ में बनाए रखना है तो उस का औद्योगिकीकरण आवश्यक है। औद्योगिकीकरण के बिना देश की आबादी को जरूरत की चीजें मुहैया करा पाना संभव भी नहीं है। यही तर्क आज सरकारों और शासक वर्गों की ओर से दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि किसान और माओवादियों के साथ खड़े आदिवासी इन जरूरतों और तर्कों को नहीं समझते हों। वे जानते हैं कि ये जरूरी है लेकिन फिर भी उस के लिए वे लड़ते हैं और सशस्त्र संघर्ष में उतर आते हैं। 
स लड़ाई की मूल वजह फिर वही है,  अनियंत्रित और अनियोजित विकास। विकास का अर्थ यह तो नहीं कि खेती पर निर्भर किसानों और जंगलों को अपना जीवन मानने वाले आदिवासियों की कीमत पर यह सब किया जाए। यह पहले से निश्चित है कि ओद्योगिक और नगरीय विकास तथा जांगल उपजों पर उद्योगों के अधिकार के साथ किसान और आदिवासी विस्थापित होंगे और बरबाद होंगे। कुछ रुपयों के पीछे उन्हें लगातार रोजगार देने वाली भूमि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी। जंगल अब आदिवासियों के लिए पराया हो जाएगा। उद्योगों के उत्पादों के विपणन में जब खुला बाजार पद्धति को लागू कर दिया गया है उद्योगपति जब अपने माल को मनचाही कीमत पर बेच सकता है और उस के लिए मोल-भाव कर सकता है तो किसान अपनी जमीन के लिए क्यों नहीं कर सकता। उसे अपनी जमीन मनचाही कीमत पर बेचने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? 
किसान की जमीन  की कीमत बढ़ा कर जमीन  के मालिकों के लिए तो हल निकल आएगा। लेकिन सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी में और अब उत्तरप्रदेश में जो आंदोलन हुए हैं उन की ताकत यह जमीनों का मालिक किसान नहीं है। उस के पीछे की असली ताकत वे लोग हैं जो इन खेती की जमीनों पर काम करते हैं। भूमिधर किसानों को तो उन की जमीन की कीमत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें क्या मिलेगा जो उन जमीनों पर अपना पसीना बहाते हैं। उन का रोजगार तो नष्ट हो रहा है। उन्हें तो उसी भीड़ में आ कर खड़ा होना पड़ेगा जो नगरों के चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में खड़ी दिखाई पड़ती है और जिस में से बहुतों को दिन भर बिना काम के ही गुजारा चलाना पड़ता है। निश्चित रूप से विकास गति को बनाए रखने वाली सरकारों को सोचना होगा कि खेती की जमीनों और जंगलों से बेकार हो रहे इन मनुष्यों के लिए क्या किया जाए। जमीनों के अधिग्रहण और जंगलों की उपज पर अधिकार जमाने के पहले इनम मनुष्यों के लिए व्यवस्था बनाई जाये तो ये आंदोलन, खून खऱाबा और सशस्त्र संघर्ष दिखाई ही नहीं पड़ेंगे। पर मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को जनता की जरूरतों से अधिक मतलब पूंजीपतियों के मुनाफों की होती है। वे संघर्षो से हथियार बंद बलों के माध्यम से निपटने के आदी हो चुके हैं। विकास होना चाहिए पूंजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़नी चाहिए। इंसान मरे तो मरे उस की उन्हें क्यों फिक्र होने लगी?

पूंजी का अनियोजित निवेश विकास को अवरुद्ध करता है

गर तेजी से विस्तार पा रहे हैं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के नगरीय विकास विभाग इस विस्तार से आँख मूंदे बैठे हैं। लोग नगरों में शरण पाते हैं तो उन्हें रहने को छप्पर तो चाहिए ही। रोजगार मिलने के बाद सब से पहले आदमी यही सोचता है कि उसे एक छत मिल जाए। वह उस की तलाश में लग जाता है। वह किराए का घर लेता है। जो हमेशा उस की जरूरत से बहुत छोटा होता है। जैसे तैसे कुछ बचाता है और एक अपना घर बनाने की जुगाड़ में लग जाता है। नगरों में जमीनें कीमती हैं और उस के बस की नहीं। लेकिन अपने घर की चाह बनी रहती है
सी चाह का लाभ उठाते हैं वे लोग जिन के पास लाठी है, जिनकी लाठी की राजनीतिज्ञों को जरूरत होती है और जिन के पास कुछ पैसा भी है। वे जमीनों पर कब्जा करते हैं, झुग्गियाँ डालते हैं और उन्हें किराए पर उठाते हैं, बेच भी देते हैं। सस्ती झुग्गी खरीद कर आदमी उसे पक्की करने में जुट जाता है। यह झुग्गी हमेशा अवैध होती है जब तक कि पूरी बस्ती के वोटों का दबाव सरकार पर नहीं बन जाता है। हमारे नगरीय विकास विभाग इन झुग्गियों के न बसने का और लोगों को आवास मुहैया कराने का कोई माकूल इलाज आज तक नहीं निकाल पाए। 
धर अनेक स्तरों वाला मध्यवर्ग भी बहुत बड़ा है, उसे झुग्गियाँ पसंद नहीं वह सस्ती जमीन चाहता है। नगरों के आसपास की खेती की जमीनें किसान बेच रहे हैं। उन्हें ऐसे ग्राहक मिल जाते हैं जो उन्हें इतना पैसा देने को तैयार हैं जिस से बेचना फायदे का सौदा हो जाए। खरीदने वाले लोग जमीन पर भूखंड बनाते हैं और फिर बेच देते हैं। वे अपना पैसा जल्दी निकालना चाहते हैं। सभी भूखंड जल्दी ही बिक जाते हैं। जब पहली बार ये भूखंड बिकते हैं तो बस्ती नहीं होती है। इन भूखंडों को वे ही लोग खरीदते हैं जिन के पास पैसा है और उन्हें खरीद कर छोड़ देते हैं, तब तक के लिए जब तक कि उन का अच्छा पैसा न मिलने लगे। फिर कोई जरूरतमंद आ कर उन पर मकान बनाता है। उसे देख कर कुछ लोग और आते हैं और मकान बनने लगते हैं। जमीन की कीमत बढ़ने लगती है। जब कुछ मकान बन जाते हैं तो लोग उसे बसती हुई बस्ती मान कर वहाँ अपने लिए कोई भूखंड खरीदने जाने लगते हैं। भूखंडों का बाजार बनने लगता है। लेकिन उन्हें उस कीमत में भूखंड नहीं मिलता जिस पर वे लेना चाहते हैं, जितनी उन की हैसियत है। उन की हैसियत के मुताबिक कीमत पर भूखंड मिलता है तो वहाँ जहाँ अभी बस्ती बसने नहीं लगी है। नगरों के आस पास मीलों तक के खेत बिक चुके हैं। उन पर भूखंड बना दिए गए हैं, बेच दिए गए हैं। लेकिन बस्तियाँ नहीं बस रही हैं। लोग बसना चाहते हैं। लेकिन वाजिब कीमत पर जमीन नहीं है। 
ध्य और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की इन भूखंडों में करोड़ों-अरबों की पूंजी लगी है। इस पूंजी ने जो आवासीय योजनाएँ खड़ी की हैं। उन में न बाजार हैं और न ही अन्य सुविधाएँ। इन्हें लोग अपनी मरजी और जरूरत के अनुसार बना ही लेंगे। लेकिन पार्क और खेलने के स्थान? वे इन में कभी नहीं होंगे। भूखंडों को उन के मालिक  तब बेचेंगे जब उन की मर्जी के मुताबिक भाव मिलेगा। पूंजी के इस अनियोजित निवेश ने नगरों की बस्तियों के विकास को अवरुद्ध और बेतरतीब कर दिया है। सरकारों को इस से क्या? भारत तो इसी तरह निर्मित होगा, अनियोजित और अव्यवस्थित।

रविवार, 15 अगस्त 2010

चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश

तिरेसठ बरस पहले बर्तानियाई संसद का एक कानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 लागू हुआ, और हम आजाद हो गए। हमारे देश पर अब बर्तानिया का नियंत्रण नहीं रह गया था। लेकिन हम दो देश बन गए थे। एक इंडिया और दूसरा पाकिस्तान। केवल एक गवर्नर जनरल छूट गया था। तकरीबन ढाई बरस में हमने अपना संविधान बना कर लागू किया और उसे भी अलविदा कह दिया। हम अब पूरी तरह आजाद थे। पूरी तरह खुदमुख्तार। हमने देश बनाना शुरू किया और आज तक बना ही रहे हैं। हमने जो कुछ बनाया है हमारे सामने है। महेन्द्र 'नेह' ने इन बारह दोहों में अपने बनाए देश की पड़ताल की है।
प भी गुनगुनाइये ये दोहे .......

महेन्द्र 'नेह' के बारह 'दोहे'
 तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार।।
वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ।
युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ।।


हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत।
गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत।।

अब मजहब की देह से, रिसने लगा मवाद।
इन्सानों के कत्ल का, नाम हुआ जेहाद।।


फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप।
लोक-तंत्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाँप।।

घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान।
नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान।।

फुटपाथों पर चीखता, सिर धुनता है न्याय।
न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय।।

सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय।
काले-धन की वापसी, आखिर कैसे होय।।

जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत। 
वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत।।

कहने को जनतंत्र है, सच में है धन-तंत्र।
आजादी बस नाम की, जन-गण है पर-तंत्र।।
चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश।
वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश।।

चलो चलें फिर से करें, नव-युग का आगाज।
लहू-पसीने से रचें,  शोषण-हीन समाज।।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

दर्पण झूठ बोलता है

श्री रघुराज सिंह हाड़ा हाड़ौती के शीर्षस्थ गीतकारों में से एक हैं। वर्तमान में वरिष्ठतम भी। उन्हों ने हाड़ौती के साथ साथ ही हिन्दी में भी सुंदर गीतों की रचना की है। उन के गीत जीवन से निकलते हैं और जीवन की सचाइयों को उद्घाटित करते हैं। आज प्रस्तुत है उन का एक हिन्दी गीत..........'दर्पण झूठ बोलता है'
 







 दर्पण झूठ बोलता है
  • रघुराज सिंह हाड़ा
किस से बात करें दर्पण झूठ बोलता है
मन का भेद छुपा केवल प्रतिबिंब खोलता है।
................................. दर्पण झूठ बोलता है।।

लगता है हर दर्पण धुंध लपेटे होता है
चेतन को चुप कर केवल आकृतियाँ ढोता है
दिखने-होने का अन्तर तो मन टटोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

बातों के बोपारी बोलें तो जादू जागे
भीड़ चले पीछे वो माला पहन चलें आगे
सच-सवाल कर लो तो उन का खून खौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

ऐसा शहर बसा देखा जो दिखता सुंदर था
ऊपर आकर्षक था भीतर पूरा बंजर था
विज्ञापन का बाट मगर सच कहाँ तौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई बार कुछ लोग सचाई से डर जाते हैं
(पर) मनगढ़ सपने दिखा उन्हें दर्पण बहलाते हैं
पर आत्म प्रवंचन तो जीवन में जहर घोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई कई समझौते मन समझाने आते हैं
सहमति को सुविधाओं का सुख सार बताते हैं
पर कबीर ओढ़े उसूल का कफन डोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।। 
  • मोटर गैराज, झालावाड़, (राजस्थान)