पेशे से मैं एक वकील हूँ, अपने मुवक्किलों की ओर से अदालत में पैरवी करता हूँ, उन्हें सलाह देता हूँ और इस के अलावा उन की ओर से कुछ अन्य कानूनी काम भी करता हूँ। मेरी आमदनी का जरीया मेरी वकालत ही है। मुकदमे लड़ने के अलावा जो काम हैं उन में से कम से कम आधे कामों के लिए मुझे फीस मिल जाती है जो चालू दर के मुताबिक होती है। मुकदमे लड़ने के लिए मुझे जो फीस मिलती है वह मुकदमा शुरू होने के वक़्त तय होती है और मुकदमे के दौरान किस्तों में मिलती रहती है। लगभग आधी फीस मुकदमे के आख़िर में जा कर मिलती है। मुकदमे चार-पाँच साल की अवधि से ले कर बीस-तीस वर्ष की अवधि तक चलते रहते हैं। मुकदमा जितना लंबा चलता है, उस मुकदमे में मिलने वाली फीस की वास्तविक कीमत में मोर्चा लगता रहता है। मुकदमे की फीस में मेरे दफ्तर के खर्चे भी शामिल होते हैं जो तय की गई फीस के लगभग आधे के बराबर होते हैं। मैं कभी किसी लंबे चलने वाले मुकदमे के निपट जाने के बाद हिसाब करता हूँ तो पता लगता है फीस में मोर्चा ही रह गया लोहा तो खत्तम। दफ्तर का खर्चा जेब से लगा। लेकिन फिर भी सब कुछ चलता रहता है, रवायत की तरहा। जब किसी मुलाज़िम या तनख़वाह लेने वाली जमातों की तन्ख़्वाह बढ़ाई जाती है तो बड़ी कोफ़्त होती है। मियाँ मीर तक़ी 'मीर' का ये शैर याद आने लगता है....
कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
जिन सांसदों को हम ने चुन के संसद में भेजा, जब उन की तनख़्वाह बढ़ने की चर्चा होने लगी तो हमारी भी जान जलने लगी कि 'आखिर इन की तनख़्वाह क्यों बढ़ाई जा रही है?' ये जान तब तक जलती रही जब तक तनख़्वाह बढ़ नहीं गई। जब तनख्वाह बढ़ने की खबर पढ़ ली तो जान पर ठंडक पड़ी। जब पढ़ लिया कि बेचारों की तनख्वाह पचास हजार भी नहीं थी वह भी अब जा कर हुई है, तो उन पर दया आने लगी। उधर दिल्ली में रहने का खर्चा ही कितना है, कैसे अब तक अपना खर्चा चला रहे होंगे। वो तो ग़नीमत है के जो भी मिलने जाता है कुछ चावल गांठ में जरूर बांध ले जाता है वर्ना दि्ल्ली में रहने के लाले पड़ जाते। सुना है सरकार ने मकान मुहैया करा रखे हैं वर्ना तो किराए का मकान लेने में भी परेशानी आ जाती। एक तो कोई देता नहीं। (स्साला एमपी है बाद में खाली न करे तो, और किराया भी न दे तो क्या कल्लेंगे) ये भी सुना है के उन को रेल, मोटर हवाई जहाज का किराया भी सरकार देती है, वरना होता ये के एक बार दिल्ली चले जाते तो वापस घर कैसे लौटते? या घर आ जाते तो संसद में कैसे पहुँचते? गैरहाजरी लग जाती। शायद तनख्वाह भी कट जाती (मुझे नहीं मालूम कि गैर हाजरी लगने पर उन की तनख़्वाह कटती है या नहीं?) मुलाज़िम लोगों का जब तनख़्वाह में ग़ुजारा नहीं होता, तो वे बख़्शीश पे ग़ुजारा करते हैं। ऐसा ही कोई जुग़ा़ड़ ये एमपी लोग भी जरूर किया करते होंगे, सब नहीं तो ज़्यादातर ज़रूर किया करते होंगे।
अब आज कल जितनी महंगाई हो गई है उस में तो पचास हजार भी कहाँ लगेंगे। वे मुलायम और लालू यूँ ही थोड़े ही संसद में उठ-उठ कर पड़ रहे थे। आख़िर कोई तो वज़ह रही ही होगी। सुना है लालू जी ने तो फिर भी घास-वास खाने की आद़त डाल रक्खी है, बेचारे मुलायम क्या करेंगे? उन का ये उठ-उठ पड़ना वाक़ई वाज़िब था। अब खबर आ रही है कि वेतन बढ़ा कर अस्सी हज़ार से कम से कम एक रुपया तो अधिक कर ही दिया जाएगा। वाकई सरकार बड़ी ग़रीब नवाज है। अब लालू-मुलायम जैसों की सोच रही है तो कभी न कभी हमारे लिए सोचने का नंबर आ ही जाएगा, इस अहसास से ही गुदगुदी होने लगती है। तनख़्वाह इतनी कर दी जाए तो फिर सांसद लोगों की थोड़ी तो परेशानी कम हो ही जाएगी और वे शायद अपने वोटरों के बीच ज़्यादा आने लगेंगे। फिर अदालत में भी कुछ चक्कर ज़्यादा लगने लगेंगे। फिर हमें राशन कार्ड दुरुस्त करवाने को शायद कारपोरेटर को तलाशना न पड़े सांसद जी से ही काम चला लिया करेंगे।
मुझ से पूछो तो इन की तनख़्वाह कम से कम एक लाख जरूर कर दी जानी चाहिए। इस से बड़े फ़ायदे होंगे। कम तनख़्वाह वालों को अपनी-अपनी तनख़्वाह बढ़ाने में सुभीता हो जाएगा। वे सांसद जी से कह सकेंगे और वे टाल नहीं सकेंगे। अभी तो वे ये कह देते हैं कि हमें ही कितनी तनख़्वाह मिलती है? मैं तो कहता हूँ के एम्मेले लोगों और कारपोरेटरों की तनख़वाह भी बढ़ा देनी चाहिए। मुंसीपेल्टी के सड़क बुहारने वाले, और नाली में घुस कर कचरा निकालने वाले भी अपनी बोलने की आज़ादी का इस्तेमाल कर पाएँगे। अभी तो ठेकेदार उन को सरकारी न्यूनतम मजदूरी का आधा देता है। कहता है बाकी आधी में से मुझे कारपोरेटरों और मुंसीपेल्टी के अफ़सरों का घर जो चलाना पड़ता है।
मुझ से पूछो तो इन की तनख़्वाह कम से कम एक लाख जरूर कर दी जानी चाहिए। इस से बड़े फ़ायदे होंगे। कम तनख़्वाह वालों को अपनी-अपनी तनख़्वाह बढ़ाने में सुभीता हो जाएगा। वे सांसद जी से कह सकेंगे और वे टाल नहीं सकेंगे। अभी तो वे ये कह देते हैं कि हमें ही कितनी तनख़्वाह मिलती है? मैं तो कहता हूँ के एम्मेले लोगों और कारपोरेटरों की तनख़वाह भी बढ़ा देनी चाहिए। मुंसीपेल्टी के सड़क बुहारने वाले, और नाली में घुस कर कचरा निकालने वाले भी अपनी बोलने की आज़ादी का इस्तेमाल कर पाएँगे। अभी तो ठेकेदार उन को सरकारी न्यूनतम मजदूरी का आधा देता है। कहता है बाकी आधी में से मुझे कारपोरेटरों और मुंसीपेल्टी के अफ़सरों का घर जो चलाना पड़ता है।