@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 23 जून 2009

संक्रमण, लालगढ़ और.... चलिए छोड़िए, आप तो गाना सुनिए....

प्रदूषित जल कोटा जैसे नगर में भी अब भी एक समस्या बना हुआ है। आजादी के पहले भी कोटा में पूरे नगर को नलों के माध्यम  से चौबीसों घंटे जल का वितरण होता था।  सड़कों के किनारे सुंदर सार्वजनिक नल लगे हुए थे।  पानी ऐसा कि पीते ही प्यास को तृप्ति मिले। ऐसा क्यों न  होता?  आखिर कोटा रियासत की राजधानी थी। जितना सुंदर हो सकती थी बनाई गई थी और जो सुविधाएँ दी जा सकती थीं उपलब्ध कराई गई थीं।

बरसों पहले बिछाई गई पाइप लाइनें समय के साथ गलने लगीं, उन में लीकेज होने लगे। समय समय पर उन्हें बदला गया।  नगर का विस्तार हुआ और आवश्यकता के अनुसार जल वितरण  व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। अब पूरे नगर में उच्च जलाशय बनाए गए हैं। जिस से 24 घंटे जल वितरण को समयबद्ध जल वितरण  में बदला जा सके।  उन का प्रयोग भी आरंभ हो चुका है। लेकिन इस सब के बीच लाइनें लीकेज होती रहती हैं।  भूमि की ऊपरी सतह में मौजूद जीवाणु युक्त जल का उस में प्रवेश भी होता ही है। हर साल प्रदूषित पानी से संबंधित बीमारियाँ भी इसी कारण से आम हैं।

मैं ठहरा अदालत का प्राणी। वहाँ पानी की उपलब्धता के अनेक रूप हैं।  चाय की दुकानों पर, प्याउओं पर पानी उपलब्ध है। जहाँ जब जरूरत हो वहीं पी लो। यह कुछ मात्रा में तो प्रदूषित रहता ही है।  इस से बचाव का एक ही साधन है कि आप अपने शरीर की इम्युनिटी बनाए रक्खें।  वह बनी रहती है।  पर कभी तो ऐसा अवसर आ ही जाता है जब इस इम्युनिटी को संक्रमण भेद ही लेता है।  रविवार को एक पुस्तक के विमोचन समारोह में थे वहाँ जल पिया गया या उस से पहले ही कहीं इम्युनिटी में सेंध लग गई।

सोमवार उस की भेंट चढ़ा और मंगल भी उसी की भेंट चढ़  रहा है।  लोग समझते हैं कि वकील ऐसी चीज है कि जब चाहे अदालत से गोल हो ले। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है।  एक मुकदमे में नगर के दो नामी चिकित्सकों को गवाही के लिए आना था।  जिन्हें लाने के लिए मैं ने और मुवक्किल ने न जाने क्या क्या पापड़ बेले थे।  स्थिति न होते हुए भी अदालत गया। दोनों चिकित्सक अदालत आए भी लेकिन जज अवकाश पर थे। बयान नहीं  हो सके।  अब अदालत गया ही था तो बाकी मामलों में भी काम तो करना पड़ा ही।

अदालतों की हालत बहुत बुरी है। सब जानते हैं कि अदालतों की संख्या बहुत कम है। लेकिन उस के लिए आवाज उठाने की पहल कोई नहीं करता।  वकीलों को यह पहल करनी चाहिए।  इस से उन्हें कोई हानि नहीं अपितु लाभ हैं।  पर एक व्यक्ति के बतौर वे असमंजस में रहते हैं कि इस से उन के व्यवसाय के स्वरूप पर जो प्रभाव होगा उस में वे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में टिक पाएँगे या नहीं।

भारतीय समाज वैसे भी इस सिद्धांत पर अधिक अमल करता है कि जब घड़ा भर लेगा तो अपने आप फूट लेगा। उसे लात मार कर अश्रेय क्यों भुगता जाए।  लालगढ. की खबरों की बहुत चर्चा है।  कोई कुछ तो कोई कुछ कहता है। सब के अपने अपने कयास हैं।  लेकिन मैं जो न्याय की स्थिति को रोज गिरते देख रहा हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि जो व्यवस्था अपने पास आने वाले व्यक्ति को पच्चीस बरस चक्कर लगवा कर भी न्याय नहीं दे सकती। उस में न जाने कितने लालगढ़ उत्पन्न होते रहेंगे ?

दो दिनों से "प्यासा" फिल्म का यह गीत गुनगुना रहा हूँ।  चलिए आप भी सुन लीजिए .......

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

रविवार, 21 जून 2009

"टापू में आग" एक लघुकथा


'लघुकथा'

 टापू में आग 
  • दिनेशराय द्विवेदी

साधु की झोपड़ी नदी के बीच उभरे वृक्ष, लताओं और रंग बिरंगे फूलों से युक्त  हरे-भरे टापू पर थी। एक छोटी सी डोंगी। साधु उस पर बैठ कर नदी पार कर किनारे आता और शाम को चला जाता। कई लोग उस की झोंपड़ी देखने भी जाते। धीरे धीरे लोगों को वह स्थान अच्छा लगा कुछ साधु के शिष्य वहीं रहने लगे। लोगों ने देखा। साधु ने बहुत अच्छी जगह हथिया ली है, तो वे भी वहाँ झौंपडियाँ बनाने लगे। शिष्यों को अच्छा नहीं लगा, उन्हों ने लोगों से कुछ कहा तो वे साधु की निंदा करने लगे। शिष्यों ने साधु से जा कर कहा -लोग टापू पर आ कर बसने लगे हैं।  आप की निंदा करते हैं। हम सुबह शाम कसरत करते हैं आप की आज्ञा हो तो निपट लें। साधु के मुहँ से निकला- साधु! साधु! और फिर कबीर की पंक्तियाँ सुना दीं- 

निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय। 
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।। 

लोगों की संख्या बढ़ती रही, निन्दकों की भी।  साधु के आश्रम में सुबह, शाम, रात्रि हरिभजन होता। अखाड़े में शिष्य जोर करते रहते।  लोग सोचने लगे,  साधु टापू पर से चला जाए तो आराम हो, हमेशा जीवन में विघ्न डालते रहते हैं।  लोगों में साधु के बारे में अनाप-शनाप कहा करते।  साधु से उस के शिष्य जब भी इस बारे में कुछ कहते, साधु उन्हें कबीर का वही दोहा सुना देता - निन्दक नियरे राखिए......

एक दिन साधु शिष्यों सहित नदी पार बस्ती में गया हुआ था।  बस्ती में ही किसी शिष्य ने बताया कि टापू पर आग लगी है।  वे सभी नदी किनारे पहुंचे तो क्या देखते हैं लोग साधु की झौंपड़ी में लगी आग को बुझाने के बजाए उस में तेल और लकड़ियाँ झोंक रहे हैं।  यहाँ तक कि टापू पर शेष डोंगियाँ भी उन्हों ने उस में झोंक दीं। शिष्य टापू पर जाने के लिए शीघ्रता से डोंगियों में बैठने लगे। साधु ने मना कर दिया। सब नीचे भूमि पर आ उतरे।

एक शिष्य ने प्रश्न किया -गुरू जी, आप ने टापू पर जाने से मना क्यों किया?
गुरूजी ने उत्तर दिया -अब वहाँ जाने से कुछ नहीं होगा।  लोग तेल और लकड़ियाँ झौंक रहे हैं, अब कुछ नहीं बचेगा।  यह कह कर साधु अपने शिष्यों सहित वहीं किनारे धूनी रमा कर बैठ गया।

लोगों ने देखा कि टापू की आग तेजी से भड़क उठी।  टापू पर जो कुछ था सब भस्म हो गया।  कुछ लोग ही बमुश्किल बची खुची डोंगियों में बैठ वहाँ से निकल सके।   साधु बहुत दिनों तक वहीं किनारे पर धूनी रमा कर बैठा रहा।  दिन में शिष्य बस्ती में जाते, साधु की वाणी का प्रचार करते और वापस चले आते।  धीरे-धीरे जब टापू पर सब कुछ जल चुका तो आग स्वयमेव ही शांत हो गई।  बची सिर्फ राख।  टापू की सब हरियाली नष्ट हो गई, टापू काला पड़ गया।  फिर बरसात आई राख बह गई। टापू पर फिर से अंकुर फूट पड़े, कुछ ही दिनों में वहाँ पौधे दिखने लगे।  फिर रंग बिरंगे फूल खिले।  दो एक बरस में ही फिर से पेड़ और लताएँ दिखाई देने लगीं। काला टापू फिर से हरियाने लगा।  एक दिन देखा गया, साधु और उस के शिष्य फिर से डोंगी में बैठ टापू की ओर जा रहे थे।



शनिवार, 20 जून 2009

हम धरती के जाए "गीत" * महेन्द्र नेह


"गीत" 

 हम धरती के जाए

  • महेन्द्र नेह 

आज तुम्हारी बारी है
जो जी आए कर लो 
कलजब वक्त हमारा आए
तो रोना मत भाई!

तुमने हमें निचोड़ा
जीना दूभर कर डाला 
भाग हमारे मढ़ा 
अंधेरा, मकड़ी का जाला 

हम हैं धरती के जाए
हम सब कुछ सह लेंगे 
अंधियारा कल तुम्हें सताए
तो रोना मत भाई!

तुमने जंगल, नदी, खेत
सब हमसे छीन लिए 
संविधान के तंत्र मंत्र से 
बाजू कील दिए 

तंत्र-मंत्र के बल पर 
अब तक टिका नहीं कोई 
कल यह सब वैभव छिन जाए
तो रोना मत भाई! 

तुमने हमें चबाया सदियों,
भूख न मिट पाई 
हविश मनुज के लहू 
पान की तनिक न घट पाई 
.
हम तो हैं मृत्युंजय 
हम को मार न पाओगे 
काल तुम्हारे सिर मंडराए, 
तो रोना मत भाई!


*******************







बुधवार, 17 जून 2009

कहाँ से आते हैं? विचार!

सांख्य विश्व की सब से प्राचीन दार्शनिक प्रणाली है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि वह हमारे देश में पैदा हुई और हम उस के वारिस हैं।  किन्तु जब मैं मूल सांख्य की खोज में निकला तो मुझे यह क्षोभ भी हुआ कि मूल सांख्य को लगभग नष्ट कर दिया गया है।  आज सांख्य का मूल साहित्य विश्व में उपलब्ध नहीं है।  प्राचीन काल में सर्वाधिक लोकप्रिय इस दर्शन की समझ भारतीय जनता में इतनी गहरी है कि आज बहुत से ग्रामीण बुजुर्गों के पास उस का ज्ञान परंपरा से उपलब्ध मिल जाता है।

इस संबंध में मुझे राजस्थान के वरिष्ठ गीतकार हरीश भादानी जी का सुनाया एक संस्मरण याद आ रहा है। उन्होंने प्रोढ़ शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों के साथ भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसी के दौरान वे प्रौढ़ शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए राजस्थान के किसी ग्राम में पहुँचे। वहाँ प्रोढ़ों और बुजुर्गों की एक बैठक बुलाई गई। ग्राम में कोई भी स्थान उपयुक्त न होने से यह बैठक किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए एक कमरे की इमारत की छत पर हुई जिसे धर्मशाला कहा जाता था। इस इमारत का रख-रखाव ग्रामसभा के जिम्मे था और यह सार्वजनिक कामों में ही आती थी। बैठक में भादानी जी के बोलने के उपरांत जब ग्राम के बुजुर्गों को बोलने को कहा गया तो उन में से एक 60 वर्षीय वृद्ध खड़ा हुआ और शिक्षा के महत्व पर धाराप्रवाह बोलने लगा। करीब एक घंटे के भाषण  में उस ने सांख्य दर्शन की जो सहज व्याख्या की उस से भादानी जी सहित सभी श्रोता चकित रह गए।  भादानी जी को उन दिनों व्याख्यान देने वालों को मानदेय़ देने का अधिकार था। उन्हों ने उन बुजुर्ग को प्रस्ताव दिया कि उन्हों ने सब की सांख्य की जो क्लास ली है उस के लिए वे मानदेय देना चाहते हैं।  कुछ ना नुकुर के बाद  बुजुर्ग ने वह मानदेय लेना स्वीकार कर लिया।  उन को धन दिया गया जिसे बुजुर्गवार ने तुरंत उस धर्मशाला के रखरखाव की मद में दान कर दिया।  हरीश जी ने अपने लिपिक को उस धन की रसीद बना कर हस्ताक्षर कराने को कहा। रसीद बन गई और जब बुजुर्गवार से हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्हों ने प्रकट किया कि वे तो लिखना पढ़ना नहीं जानते। अगूठा करेंगे।


सांख्य प्राचीन भारत में इतना लोकप्रिय था कि श्रीमद्भगवद्गीता में गीताकार ने एकोब्रह्म का प्रतिनिधित्व कर रहे श्रीकृष्ण से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ।  यही कपिल मुनि सांख्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। मूल सांख्य तो खो चुका है, उसे हमारे ही लोगों ने नष्ट कर दिया। वह कहीं मिलता भी है तो उन के आलोचकों के ग्रन्थों के माध्यम से, अथवा दूसरे ग्रंथों में संदर्भ के रूप में।  मुनि बादरायण (कृत) ने ब्रह्मसूत्र (के शंकर भाष्य) में कपिल की आलोचना करते हुए कपिल के जगत-व्युत्पत्ति संबंधी सूत्र को इस प्रकार अंकित किया (गया) है .....
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्! -कपिल
अर्थात् - कपिल कहते हैं कि अचेतन आदि-पदार्थ (प्रधान) ही स्वतंत्र रूप में जगत का कारण है।

इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी।  विचार को धारण करने के लिए एक भौतिक मस्तिष्क की आवश्यकता है।  इस भौतिक मस्तिष्क के अभाव में विचार का अस्तित्व असंभव है।  मस्तिष्क होने पर भी समस्त विचार चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम से अर्थात इस भौतिक जगत और उस में घट रही घटनाओं से उत्पन्न होते हैं।  उन  के सतत अवलोकन-अध्ययन के बिना किसी प्रकार मस्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न हो सकना संभव नहीं। कोई लेखन, कविता, कहानी, लेख, आलोचना कुछ भी संभव नहीं; ब्लागिरी? जी हाँ वह भी संभव नहीं। 


हरीश भादानी जी का एक गीत...
सौजन्य ...harishbhadani.blogspot.com/

कल ने बुलाया है...

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
  • हरीश भादानी

मंगलवार, 16 जून 2009

'कविता' प्यास

प्यास
  • दिनेशराय द्विवेदी
 असीम है जीवन 
उस की संभावनाएँ भी

हम चाहते हैं पूरा
मिलता है बहुत कम
शायद असीम का
करोड़, करोड........करोडवाँ अंश

प्यास तो रहेगी शेष
हमेशा ही
वह कभी नहीं बुझेगी

प्यास चिरयौवना है
अमर है
प्रेम का असीम स्रोत है

चाहता हूँ 
बनी रहे,
अनंत तक, 
प्यास
मेरे साथ
सब के साथ 

************** 
 

रविवार, 14 जून 2009

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या : पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़ज़ल

रविवार के अवकाश में आनंद लीजिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की  एक ग़ज़ल का 
 

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
बात होठों पे चली आए ज़रूरी है क्या
दिल में तूफान ठहर जाए ज़रूरी है क्या

कितने अंदाज़ से जज़्बात बयाँ होते हैं
वो इशारों मे समझ जाए ज़रूरी है क्या

क्या वो करते हैं? कहाँ जाते? कहाँ से आते
तुम से हर बात कही जाए ज़रूरी है क्या

नाव टूटी है तो क्या खेना नहीं छोड़ूंगा
नाव लहरों में ही खो जाए ज़रूरी है क्या

मुश्किलें देख के तू परेशाँ क्यूँ है
ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या

कह दिया उस को जो कहना था समझ जाओ 'य़कीन'
बार-बार आप को समझाएँ ज़रूरी है क्या


********************************

शुक्रवार, 12 जून 2009

रोशनी जो चराग़ रखता है

 पुरुषोत्तम 'यक़ीन' मेरे एक दोस्त ही नहीं, दिल के करीबी भी हैं।  उन की बहुत ग़ज़लें अनवरत पर मैं ने पेश की हैं। कभी उन का चित्र और परिचय आप के सामने नहीं रखा।  आज उन से मिलिए -

'यक़ीन' वैयक्तिक जीवन में पुरुषोत्तम स्वर्णकार नाम से जाने जाते हैं पिता श्री शंकरलाल स्वर्णकार और श्रीमती कलावती देवी के घर  21 जून, 1957 ईस्वी को ग्राम गढ़ीबाँदवा जिला क़रौली (राज.), में जन्मे और बी. एससी. करने के बाद आयुर्वेद ‘रत्न’, साहित्य ‘रत्न’, बी. जे. एम. सी. (जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक). की उपाधियाँ हासिल कीं। कोटा के एक उद्योग में करीब तीन वर्ष तक ऑपरेटर की नौकरी की और छंटनी के शिकार हुए।  इस के बाद चंबल स्टूडियो के नाम से अपना फोटो स्टूडियो स्थापित किया। इसी स्टूडियो में पहली बार उर्दू सीखना आरंभ हुआ तो उस में सिद्धहस्तता प्राप्त की। 
उन के अंदर के कलाकार ने उर्दू के माध्यम से आकार प्राप्त करना आरंभ किया तो ऐसा कि पाँच ग़ज़ल संग्रह  “हम चले, कुछ और चलने” ( 1994 ई.). “झूठ बोलूँगा नहीं” (1997 ई.),  “रात अभी बाक़ी है” ( 2000 ई.),  “सूरज से ठनी है मेरी” ( 2001 ई.), “चहरे सब तमतमाये हुए हैं” ( 2004 ई.), और एक राजस्थानी काव्य संग्रह  “पीर परायी नें कुण जाणैं” (2004 ई.) देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं। एक काव्य संग्रह “सोज़े-पिन्हाँ”  उन के  उर्दू ख़ुदख़त में प्रकाशित हुआ है। उर्दू, हिन्दी, राजस्थानी, ब्रज व अंग्रेज़ी भाषा की सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं एवं भाषा अकादमियों द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, ग़ज़ल-विशेषांकों, कहानी-संकलनों आदि में उन की लघुकथाऐं, गीत, ग़ज़लें, नज़्में, दोहे, तज़्मीनें, माहिया, आलेख, पुस्तक-समीक्षाऐं, रिपोर्ताज आदि गद्य व पद्य रचनाऐं प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।  
उन्हों ने ‘अभिव्यक्ति’, ‘विकल्प’, ‘कदम्बगंध’, कोटा के प्रकाशनों के अलावा कुछ अन्य लेखकों की पुस्तकों का मित्रवत सम्पादन किया है।  ग़ज़ल, अभिनय, संगीत(वाद्य), चित्रकारिता, फोटोग्राफी उन की रुचियाँ हैं।  वे कोटा नगर की विभिन्न क्रियाशील सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के एक सक्रिय व्यक्ति हैं।
 उन की एक ग़ज़ल का आनंद लीजिए...

'ग़ज़ल'

रोशनी जो चराग़ रखता है

  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


दिल में वो दुख का राग़ रखता है
आत्मा पर न दाग़ रखता है

ये न समझो कि वो न समझेगा
वो भी कुछ तो दिमाग़ रखता है

देता है रोशनी भी तेज़ उतनी
आग जितनी चराग़ रखता है

यूँ तो काँटों से भर गया है मगर
गुंचा-ओ-गुल भी बाग़ रखता है

उस से कुछ तो धुआँ भी उट्ठेगा
रोशनी जो चराग़ रखता है

उस को समझा के कौन आफ़त ले
वो ज़ियादा दिमाग़ रखता है

बेख़बर ख़ुद से हो मगर वो ‘यक़ीन’
दुनिया भर का सुराग़ रखता है


**************************