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गुरुवार, 28 मई 2009

महालक्ष्मी ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती? : जनतन्तर कथा (36)

 हे, पाठक!
अगली रात्रि का भी जब दूसरा प्रहर समाप्त होने को था, तब सनत ने संपर्क किया। दृश्यवार्ता में संपर्क बन जाने पर सूत जी बोले- सनत! मैं कल तुम्हें लक्ष्मी के भेद बताने वाला था। अब उसे ध्यान से श्रवण करो! लक्ष्मी सदैव श्रम से ही उत्पन्न होती है।  जल, वायु आदि पदार्थ प्रकृति में बिना मूल्य प्राप्त होते हैं।  लेकिन किसी गांव में जल का कोई स्रोत न हो,  और जल पर्वत की तलहटी के सोते से भर कर लाना हो तो ग्राम में लाया गया जल मूल्यवान हो जाता है।  उस में यह मूल्य उत्पन्न होता है जल को सोते से गांव तक लाने में किए गए श्रम से। केवल मनुष्य ही है जो प्राकृतिक वस्तुओं के स्थान व रूप बदल कर उन का उपयोग करता है।  इस तरह प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाने के लिए श्रम आवश्यक है।  इसी श्रम के योग से वस्तुओं में मूल्य उत्पन्न होता है।  एक हीरा भूमि के गह्यर में दबा होता है।  मनुष्य अपने श्रम से उसे पृथ्वी की गहराई से बाहर निकालता है और उसे तराश कर सुंदर व बहुमूल्य बना देता है। उस हीरे में जो भी मूल्य उत्पन्न होता है वह उसे गहराई से निकालने और तराशने में किए गए श्रम से उत्पन्न होता है।  प्राकृतिक वस्तुओं में श्रम के योग से उत्पन्न हुआ यही मूल्य लक्ष्मी है।  इसे हम प्रारंभिक लक्ष्मी कह सकते हैं।  यह आवश्यक नहीं कि श्रम सदैव ही मूल्य उत्पन्न करे।  यदि किया गया श्रम मानवोपयोगी नहीं तो वह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं करेगा।  जैसे कोई कुएँ से बाल्टी भर पानी खींच कर बाहर निकाले और उस बाल्टी भर पानी को  फिर से कुएँ में डाल दे तो वह श्रम तो करेगा किन्तु उस से कोई मूल्य उत्पन्न नहीं होगा. लेकिन जब भी मूल्य उत्पन्न होता है तो वह श्रम से ही होता है। बिना श्रम के लक्ष्मी कभी उत्पन्न नहीं होती।
एक हीरा खान
हे, पाठक! 
सूत जी के इतना कहने पर सनत ने प्रश्न किया -लेकिन ताऊ कहते थे  "भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्ष्मी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नहीं आ सकती, यह गारंटी है।  भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे।"
 सूत जी बोले -ताऊ ने बिलकुल सही कहा।  मनुष्य यदि अकेला श्रम करे तो कितना मूल्य उत्पन्न कर सकता है? बहुत थोड़ा न? जो उस के स्वयं के लिए पर्याप्त हो, या उस से कुछ अधिक।  मनुष्य के आरंभिक जीवन में ऐसा ही था।  उस का सारा दिन फल संग्रहण और शिकार में ही व्यतीत हो जाता था। दिन भर पूरा परिवार श्रम कर के भी केवल अपने जीवनयापन जितना ही जुटा पाता था।  लेकिन औजारों के आविष्कार और पशुपालन से यह संभव हुआ कि वह कुछ अधिक मूल्य उत्पन्न कर सके और कुछ खाद्य व अन्य जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र कर सके।  जब उस ने औजार परिष्कृत कर लिए खेती का आविष्कार हुआ तो वह और अधिक मूल्य उत्पन्न उत्पन्न करने लगा।  वह इतना उत्पादन करने लगा कि उपयोग के उपरांत संग्रह योग्य उपयोगी पदार्थ बचने लगे।   यही वह लक्ष्मी थी जिसे मनुष्य ने सहेजा।
औद्योगिक क्रांति
वर्तमान युग की बात करें तो आज मनुष्य स्वयं अपने परिवार के उपयोग के लिए वस्तु उत्पादन के लिए ही श्रम करता ही नहीं है।  वस्तु उत्पादन आज इतना विकसित और जटिल हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने लिए एक विशिष्ठ दक्षता का कार्य तलाशता है और उसी पर श्रम करता है।  मुद्रा के आविष्कार ने इस तरह के श्रम को आसान किया है।  अब मनुष्य को किसी भी किए गए विशिष्ठ और दक्ष कार्य के बदले मुद्रा प्राप्त हो जाती है और वह उस से अपने लिए जीवनो पयोगी वस्तुएँ क्रय कर के प्राप्त कर सकता है।   इस तरह का विनिमय बहुत पहले आरंभ हो गया था।  लेकिन आज वह चरम पर है।  इसी विनिमय ने बाजार को उत्पन्न किया है।  इसी तरह धीरे धीरे श्रम सामुहिक होता गया।  भाप, तेल और विद्युत शक्ति का उपयोग उत्पादन में आरंभ होने ने ही यूरोप की औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया।  जिस ने स्वाधीनता और जनतंत्र के मूल्य दुनिया में स्थापित किए।
सामुहिक-श्रम
 हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -अब काम समूहों में होते हैं।  हर कोई दूसरे के लिए श्रम करता है और श्रम का मूल्य मुद्रा में प्राप्त करता है।  श्रम  कर के वह जितना मूल्य उत्पन्न करता है।  वह उसे पूरा नहीं मिलता।  अपितु उसे मिलने वाला मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि बाजार में विशिष्ठ प्रकार का श्रम करने वाले कितने लोग हैं? और उस तरह का श्रम करा कर मूल्य उत्पादित कराने वाले कितने?  दुनिया में एक श्रम बाजार बन गया है। दुनिया में उत्पादित उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का भी बाजार है।  बाजार में श्रंम  और उत्पादित वस्तुएं मुद्रा में मूल्य दे कर क्रय-विक्रय की जा सकती हैं।  किसी भी श्रम बाजार में सदैव श्रम विक्रय करने वालों की अधिकता बनी रहती है।  प्रारंभ में किसी नए प्रकार की विशिष्ठता के श्रम करने वालों की कमी रहती है तो श्रम का मूल्य बहुत अधिक प्राप्त होता है और वास्तव में उन के द्वारा उत्पादित किए जाने वाले मूल्य से भी अधिक हो सकता है।  किन्तु यह अत्यन्त अस्थाई होता है।   कुछ ही काल  में उस विशिष्ठ  श्रम को करने वाले अनेक लोग हो जाते हैं और बाजार में श्रम का मूल्य उत्पादित मूल्य से बहुत कम हो जाता है।  इस श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य से उस श्रम के बदले चुकाया गया मूल्य बहुत कम होता है।  इन दोनों के अंतर का अतिरिक्त मूल्य सदैव ही उत्पादन के साधनों के स्वामियों के पास रहता है।  यही अतिरिक्त मूल्य एकत्र हो कर जब पुनः उत्पादन के उद्यम में लगाया जाता है तो वह पूंजी हो जाता है।  संग्रहीत अतिरिक्त मूल्य को ही टिप्पणीकार ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने महालक्ष्मी कहा है और ताऊ का कथन भी उचित और यथार्थ कि ताऊपने के बिना यह महालक्ष्मी पैदा नहीं  हो सकती।  धनसंचय कर उत्पादन के उद्यम का स्वामी बनना और एक ऐसा तंत्र खड़ा करना जो लगातार अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता रहे ताऊपना नहीं तो क्या है?  ऐसे ताऊओं को ही आज पूँजीपति कहा जाता है।  ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं,  वहीं श्रमजीवी जनता  इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।  ताऊ लोग अपनी महालक्ष्मी के बल पर एक-केन-प्रकरेण अपने प्रतिनिधियों को महा पंचायत में पहुँचाते हैं।  श्रमजीवियों के पास महालक्ष्मी की शक्ति नहीं,  लेकिन लक्ष्मी को उत्पन्न करने की शक्ति है।  वे अपनी शक्ति को सामूहिक रूप से संगठित करें तो ताऊ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं।  श्रमजीवी जनता के पास संगठन ही एक मात्र मार्ग है जिस के बल पर वे अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधि महापंचायत में पहुँचा सकते हैं।  नया तथ्य यह है कि हाल के चुनावों के बाद महापंचायत के 543 में से 300 चुने हुए सदस्य करोड़पति हैं।
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा? 
महाताऊ (पूंजीपति)
हे, पाठक!
इस पर सनत बोला - गुरूवर? प्रश्न का उत्तर तो मिल गया।  लेकिन आप की बात से मन में बहुत से नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं।  लगता है मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस तरह के व्यवसाय में हूँ उस में तो यह बहुत आवश्यक भी है।  सोचता हूँ एक बार मरकस बाबा की "पूँजी" को आद्योपांत पढ़ डालूँ और उस के बाद ही आप से कुछ बात करूँ।
सूत जी बोले -अवश्य पढ़ो।  वह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होने पर भी बहुत से संशयों का निवारण करती है।  उस का अध्ययन कर तुम भविष्य के लिए नए मार्ग के बारे में कुछ विचार कर सकोगे। रात्रि बहुत हो चुकी है।  मैं अब विश्राम करूंगा, और हाँ ये लम्पी दृश्यवार्ता से मुझे अधिक देर नहीं सुहाती कष्ट होने लगता है।  तुम कभी सप्ताह भर का अवकाश ले कर नैमिषारण्य आ जाओ।  यहाँ खूब बतियाएँगे, वाद-विवाद-संवाद करेंगे और एक दूसरे से सीखेंगे।  मुझे भी तुम जैसे प्रश्न करने वाले नौजवानों से ही तो ऊर्जा मिलती है।  लगातार पढ़ने-सीखने की आवश्यकता बनी रहती है।  सत्य कहता हूँ जिस दिन पढ़ना-सीखना बंद हो जाएगा उस दिन मेरा सूत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

सूत जी ने माना, वे सठिया गए हैं : इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (35)

हे, पाठक! 
सूत जी को नैमिषारण्य पहुँचे तीन दिन व्यतीत हो गए।  चौथे दिन वे कार्यालय पहुँच कर पीछे से दो माह में हुई गतिविधियों के बारे में जानकारी ले रहे थे कि चल दूरभाष ने आरती सुना दी।  दूसरी ओर सनत था  -गुरूवर प्रणाम!  मैं भी सकुशल इधर लखनऊ पहुँच गया हूँ।  यहाँ आ कर मैं ने दो माह के हिन्दी चिट्ठे देखे। पता लगा एक हिन्दी चिट्ठे अनवरत पर जनतन्तर कथा के नाम से श्रंखला लिखी जा रही थी और उस में आप और हम दोनों पात्र के रूप में उपस्थित हैं।  हमारे बीच का अधिकांश वार्तालाप भी ज्यों का त्यों वहाँ लिखा गया है।  राजधानी में अन्तिम  रात्रि को आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों और मरकस बाबा के बारे में जो कुछ बताया था उसे तो वहाँ जैसे का तैसा लिख दिया गया।  पर आज ब्लाग पर एक टिप्पणी अच्छी नहीं लगी।
सूत जी - क्यों अच्छी नहीं लगी? ऐसा उस में क्या है?
सनत --गुरूवर! मैं यह आप को बता नहीं सकता। आप को खुद ही 'अनवरत' चिट्ठे पर जा कर पढ़ना चाहिए। हाँ, एक और चिट्ठे  'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' में उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया में आलेख लिखा है जिस में मरकस बाबा का शक्तिशाली समर्थन किया गया था।  पर अनवरत के चिट्ठाकार ने उस आलेख की भाषा पर आपत्ति की और उस चिट्ठे ने इस आपत्ति को संवाद के उपरांत स्वीकार कर लिया।
सूत जी - कुछ बताओगे भी या पहेलियाँ ही बुझाओगे?
सनत -गुरूवर! आप स्वयं पढ़िए, मैं ने दोनों चिट्ठों के पते आप के गूगल चिट्ठी पते पर भेज दिए हैं। मैं रात्रि दूसरे प्रहर आप से अन्तर्जाल पर दृश्य-वार्ता में भेंट करता हूँ।  प्रणाम!

हे, पाठक!
सूत जी ने दिन में अनवरत चिट्ठे पर पूरी जनतन्तर कथा पढ़ डाली। उस पर आई टिप्पणियाँ पढ़ीं और मन ही  मन मुस्कुराते रहे।  तदनन्तर उन्हों ने दूसरे चिट्ठे का आलेख भी पढ़ा।  उन की मुस्कुराहट में वृद्धि हो गई।  साँयकाल अपनी कुटिया में वापस लौटे और रात्रि के दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा करने लगे।  रात्रि का दूसरा प्रहर समाप्त होते होते सनत से संपर्क हुआ।  वह देरी के लिए क्षमायाचना कर रहा था। पर सूत जी ने देरी को गंभीरता से नहीं लिया।  वे तो सनत से बात करना चाहते थे। दोनों ने वार्ता आरंभ की....
सनत -गुरूवर! आप ने पढ़ा सब कुछ?
सूत जी -  हाँ, पढा। जनतंतर कथा रोचक है।  इस में तो भारतवर्ष के गणतंत्र बनने से ले कर आज तक की चुनाव कथा संक्षेप में बहुत रोचक रीति से लिखी है।
सनत -आप ने अंतिम आलेख और उस पर टिप्पणियाँ पढ़ीं?
सूत जी -  हाँ सब कुछ पढ़ा है, और वह   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर'  भी पढ़ लिया है।
सनत- तो आप को बुरा नहीं लगा?
सूत जी -  बिलकुल बुरा नहीं लगा,  अपितु बहुत आनंद आया।  बहुत दिनों बाद इस तरह का विमर्श पढ़ने को मिला।
सनत -मैं तो आप के प्रति टिप्पणी पढ़ कर असहज हो गया था बिलकुल   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' की तरह।
सूत जी -  मुझे तो आनंद ही आया।  वह क्या ..... ज्ञानदत्त पाण्डे ... यही नाम है न टिप्पणी करने वाले सज्जन का?
सनत - हाँ, यही नाम है।
सूत जी - सनत! ज्ञानदत्त पाण्डे जी सही कहते हैं, मैं यथार्थ में सठियाने लगा हूँ।
सनत -गुरूवर! आप इसे स्वीकारते हैं?
सूत जी -हाँ भाई, स्वीकारता हूँ। यथार्थ को स्वीकारने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? सठियाया व्यक्ति जब कोई बात करता है तो उस से अनायास ही कुछ बातें छूट जाती हैं।  संभवतः यह आयु का ही दोष है।  जब व्यक्ति को लगता है कि उस के पास अब बहुत कम समय रह गया है तो वह अपनी बात को संक्षिप्त बनाने में चूक जाता है। संभवतः इसे ही सठियाना कहते हैं। मेरी भी तो आयु बहुत हो चली है। मुझे ही पता नहीं कितने वर्ष का हो चला हूँ। संभवतः उन्नीस-बीस शतक तो हो लिए होंगे।  उस दिन त्रुटि मुझ से ही हुई थी।  तुम भी उसे भाँप नहीं सके।

हे, पाठक! 
सूत जी की इस स्वीकारोक्ति से सनत स्तम्भित रह गया। उस ने सूत जी से पूछा -कैसी त्रुटि? गुरूवर!  मुझे भी तो बताइए। मैं भी जान सकूं कि क्या है जो आप ने नहीं बताया और मैं भी नहीं भाँप सका?
सूत जी - उस दिन मैं ने तुम्हें बताया था कि ......
..... जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी, तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो-दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है। 
सनत -हाँ, बताया था गुरूवर! पर इस में क्या त्रुटि है, सब तो स्पष्ट है।
सूत जी -नहीं सब स्पष्ट नहीं है।  यहाँ लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। उन के भेद बताना मुझ से छूट गया था।  इस भेद को सब से पहले मरकस बाबा ने ही स्पष्ट किया। वही तो उन का सब से महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। और देखो, मैं उस रात तुम्हें वही बताना विस्मृत कर गया।
सनत - गुरूवर! कैसे दो स्वरुप और उन के भेद, कौन सा महत्वपूर्ण सिद्धान्त?
जी सूत -वही संक्षेप में तुम्हें फिर बता रहा हूँ, जिस से तुम्हारे मन में कोई संशय नहीं रह जाए।
सूत जी आगे कुछ बता पाते उस के पहले ही विद्युत प्रवाह चला गया।  सनत का घर अंधेरे में डूब गया।  कम्प्यूटर भी कुछ ही देर का मेहमान था। सूत जी को सनत का चेहरा दिखाई देना बंद हो गया।  दृश्यवार्ता असंभव हो चली।
सनत बोला- गुरूवर! विद्युत प्रवाह बंद हो गया।  कथा यहीं छूटेगी।
कोई बात नहीं कल फिर बात करेंगे।
हे, पाठक!
कथा का यह अध्याय भी चिट्ठे की सीमा के बाहर जा रहा है।  हम भी आगे की कथा कल ही वर्णन करेंगे।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

कल की कथा में पढ़िए....
महालक्ष्मी  ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती?

मंगलवार, 26 मई 2009

इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (34)

 
 हे, पाठक!
सूत जी ने शीतल जल ग्रहण किया।  कण्ठ में नमी पहुँची तो आगे बोले -सनत! तुम लाल फ्रॉक वाली बहनों के बारे में जानना चाहते थे कि ये अलग क्यों हैं? लेकिन पहले कुछ और बातें जान लो।  पशु पालन के युग में लक्ष्मी गैयाएँ हुआ करती थीं। उन के पीछे युद्ध लड़े गए। फिर जब कृषि आरंभ हो गई और राजशाही का य़ुग आया तो लक्ष्मी ने भू-संपत्ति का रूप ले लिया।  लेकिन जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी  तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है।  पूँजी के साम्राज्य की विषद व्याख्या सब से पहले मरकस बाबा ने की।  उन्हों ने बताया कि इस युग का सब से प्रधान वैषम्य यही है कि श्रमोत्पन्ना पर श्रमजीवियों का अधिकार नहीं है।  जब तक यह वैषम्य हल नहीं होता तब तक समाज में अमानवीयता रहेगी, युद्ध रहेंगे, बैर रहेगा।  इतिहास में हल हुए वैषम्यों का अध्ययन कर उन्हों ने वर्तमान वैषम्य को हल करने के मार्ग का अनुसंधान किया कि दुनिया के श्रमजीवी एक हो कर श्रमोत्पन्ना पर सामुहिक रुप से अधिकार कर लें।  इसी अवस्था को उन्हों ने समाजवाद कहा।  यह भी कहा कि इस अवस्था में श्रमजीवी श्रम के अनुपात में अपना-अपना भाग प्राप्त करते हुए उत्पादन के साधनों को इतना विकसित करें कि मामूली श्रम से प्रचुर उत्पादन होने लगे।  तब ऐसी अवस्था का जन्म होगा जिस में लोग यथाशक्ति श्रम करेंगे और आवश्यकतानुसार उपभोग करने लगेंगे।  ये लाल फ्रॉक वाली बहनें स्वयं को उन  मरकस बाबा की ही अनुयायी कहती हैं।  ये अन्य दलों से इसीलिए भिन्न हैं, क्यों कि ये उस  वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध होने की बात कहती हैं, जब कि अन्य दल इस वैषम्य को शाश्वत मानते हैं और पूँजी लक्ष्मी की सेवा में जुटे हैं। 

हे, पाठक!
सूत जी इतना कह कर रुके।  जल पात्र से दो घूँट जल और गटका।  इसी बीच सनत फिर पूछ बैठा -गुरूवर! जब लाल फ्रॉक वाली सब बहनें इस वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध हैं तो फिर इन के अलग अलग खेमे क्यों हैं?  और आपस में मतभेद क्यों हैं?
सूत जी बोले -मरकस बाबा ने यह भी बताया था कि लक्ष्मी की इस नयी अवस्था के स्वरूप ने श्रमजीवियों को पुरानी भू-संपत्ति की प्रधानता की अवस्था की अपेक्षा नयी स्वतंत्रताएँ प्रदान की हैं।  इसी नयी अवस्था ने किसानों को उन के अथाह मानव श्रम का लक्ष्मी के विस्तार के लिए उपयोग करने के लिए सामंतों की पराधीनता से मुक्ति दिलाई।  उसी ने मनुष्यों को स्वतंत्रता की सौगात दी। जिस से मनुष्य किसी एक सामंत का बन्धुआ नहीं रहा।  इसी अवस्था ने बाजार को जन्म दिया।  जिस में उत्पादन साधनों के स्वामी अपने माल को कहीं भी किसी को भी विक्रय कर सकते थे और मुक्त श्रमजीवी भी कहीं भी किसी को भी अपने श्रम को बेच सकते थे।  मुक्त बाजार और श्रमजीवियों की आवश्यकता ने सामंती शासनों को  नष्ट करने का बीड़ा उठाया और दुनिया के एक बड़े भाग को उस से मुक्त करा दिया।  आधुनिक जनतंत्र को जन्म दिया, वयस्क मताधिकार से शासन चुनने का अधिकार दिया।  दुनिया के लोगों को एक नया सुखद अहसास हुआ।  इस सुखद अहसास के चलते नए वैषम्य का वर्षों तक अहसास ही नहीं हुआ।  मरकस बाबा ने कहा था कि जब य़ह अवस्था चरम विकास पर पहुँच कर पतन की ओर बढ़ने लगेगी, जब  वैषम्य अत्यन्त तीव्र हो उठेगा तभी इसे हल करना संभव हो सकेगा,  तब तक नयी अवस्था का आगमन दुष्कर होगा।  लेकिन एक बार स्वर्ग द्वार दृष्टिगोचर हो जाने पर कौन रुकता है? यदि मृत्यु पश्चात स्वर्ग प्राप्ति सुनिश्चित हो जाए तो लोग तुरंत मृत्यु के वरण को तैयार रहने लगेंगे।  तो नए नए विश्लेषण आने लगे, नए नए सिद्धान्त प्रतिपादित हुए, उन के अनुरूप ही कार्यनीतियाँ तय होने लगीं।  इन्हीं  ने मरकस बाबा के अनुयायियों में मतभिन्नता उत्पन्न की और विश्व में सैंकड़ों दल उत्पन्न हो गए।  भारतवर्ष में ही इन की संख्या सौ से कम न होगी। 

हे, पाठक! 
सूत जी तनिक रुके तो सनत का अगला प्रश्न तैयार था।  -इस तरह तो इन बहनों को श्रम जीवियों का विपुल समर्थन प्राप्त होना चाहिए था। विगत बाईस वर्षों से लग भी रहा था कि जहाँ ये पैर जमा लेती हैं, वह अंगद का पाँव हो जाता है।  फिर यह क्या हुआ कि इन की संख्या इस बार आधी ही रह गई? 
सूत जी बोले -सनत! लगता है आज मुझे सारी रात निद्रा नहीं लेने दोगे।  मुझे सुबह नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान करना ही है।  मैं तुम्हारे इस प्रश्न का तो उत्तर दे रहा हूँ।  अब अगला प्रश्न मत करना।  हाँ जिज्ञासाएँ उत्पन्न हों तो  उन्हें स्वयँ अपने प्रयत्न से भी शान्त करने का प्रयास करना सीखो।  फिर कभी भी तुम नैमिषारण्य आ सकते हो। वहाँ तुम्हारी जिज्ञासाओं को शान्त करने के साथ बहुत से मुनिगण भी इस का लाभ उठा सकेंगे। 
-गुरूवर! जैसी आज्ञा।  आप विश्राम करें मैं ने आप को आज बहुत सताया, उस के लिए क्षमा करें? सनत संकोच से बोला। 
हे, पाठक! 
सूत जी ने आज अंतिम रूप से बोलना आरंभ किया -सनत!  इन लाल फ्रॉक वाली बहनों का मुख्य काम था श्रम जीवियों निकट बने रहना, उन में एकता स्थापित करना और उस का विस्तार करना। लेकिन एक अवसर प्राप्त होते ही वे संप्रदायवाद के विरोध के बहाने लक्ष्मी-साधकों के सहयोग में आ खड़ी हुईं।  जिन श्रमजीवियों की एकता स्थापित की थी, श्रेष्ठ रोजगार के वैकल्पिक साधनों की व्यवस्था किए बिना उन के रोजगार के वर्तमान साधनों को छीनने के लिए तत्पर हो गईं और राज्य शक्ति का उपयोग किया।  अंत में एक ऐसे बिंदु पर जिस का कोई स्पष्ट प्रभाव श्रमजीवी जनता पर नहीं पड़ रहा था, लक्ष्मी-साधकों का साथ छोड़ कर कथित संप्रदायवादियों के साथ खड़े हो गए।   जब जनता के पास जाने का समय आया तो क्षुद्र लक्ष्मी-साधकों के साथ तीसरे मोर्चे का दिवा स्वप्न संजोने लगे। इन गतिविधियों ने श्रमजीवियों के बीच वर्षों में कमाई गई विश्वसनीयता को खंडित कर दिया।जब विश्वसनीयता खंडित होती है तो सात जन्म तक साथ निभाने का वचन लेने वाले पति-पत्नी भी एक दूसरे के नहीं रहते तो श्रमजीवी उन का साथ क्यों न छोड़ देते? यही उन के साथ हुआ।  उन्हें जनता ने सही सबक सिखाया है।  बल्कि यह सबक सिखाने में जनता ने बहुत देर कर दी।  यह सबक तो उसी समय सिखाना चाहिए था जब ये बहनें विपथगामी हो गयी थीं। 
सूत जी ने अंतिम वाक्य कहा तो सनत बोल पढ़ा।  गुरुवर! अब आप विश्राम करें।  आप ने उत्तर भी दे दिया और अनेक ज्वलंत प्रश्न मेरे मस्तिष्क में छोड़ दिए हैं।  आप की आज्ञा से स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न करूंगा।  पर लगता है मुझे शीघ्र ही नैमिषारण्य आना पड़ेगा,  और आते रहना पड़ेगा।

हे, पाठक!
सूत जी प्रातः नैमिषारण्य के रवाना हो गए।  सनत उन्हें रेलगाड़ी में बिठा कर आया।  गाड़ी चल देने के उपरांत सनत सोच रहा था,  नैमिषारण्य यात्रा शीघ्र ही करनी पड़ेगी।  हो सकता है वहाँ बार बार जाना पड़े।  सनत के लिए जनतन्तर कथा यहाँ समाप्त नहीं हुई थी, यह तो आरंभ था। 
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शनिवार, 23 मई 2009

सब पूँजी के चाकर : जनतन्तर कथा (33)

हे, पाठक!
साँयकाल सनत राजभवन की रौनक देखने चला गया और सूत जी नगर भ्रमण को।  नगर में लोग अपने कामों व्यस्त रहते हुए बीच बीच में माध्यमों पर मंत्रीपरिषद को शपथ लेते देख रहे थे।  कुछ नए चेहरों को छोड़ कर सब वही पुराने चेहरे थे।  किसी में विशेष उत्साह दिखाई नहीं पड़ता था।  उमग भी रहे होंगे तो केवल वे लोग जिन के निकट के लोग मंत्री परिषद में शामिल हो गए थे।  यह सोचने की रीत बन गई थी कि चलो अपना आदमी मंत्री परिषद में स्थान पा गया, कभी वक्त पड़ा तो काम  आएगा।   राजधानी अपने पुराने ढर्रे पर आने लगी थी।  चुनाव की चहल पहल समाप्त हो चुकी थी।  सूत जी ऐसे ही नगर भ्रमण करते रहे।  जब उन्हें अनुमान हो चला कि सनत वापस लौट आया होगा, तो वे भी यात्री निवास पहुँच गए।  सनत उन की प्रतीक्षा कर रहा था।  उस से पूछा कैसा रहा समारोह? तो उत्तर मिला -पहले की तरह, कुछ विशेष नहीं था।  हाँ, गठबंधन के एक दल के लोगों द्वारा शपथ ग्रहण न कर पाने की चर्चा जरूर थी।  भोजनादि से निवृत्त हो कर दोनों विश्राम के लिए कक्ष में पहुँचे तो सूत जी बोले -मैं सोचता हूँ मुझे कल नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए। 
सनत यह सुनते ही उदास हो कर बोला -गुरूवर! इस बार आप का साथ बहुत रहा।  अनेक बातें सीखने को मिलीं, आप चले जाएंगे तो बहुत दिनों तक मन नहीं लगेगा।  मैं भी कल ही निकल लूंगा।  आप बहुत कहते रहे नैमिषारण्य आने के लिए।  इस बार समय निकलते ही आऊंगा, कुछ दिन रहूँगा, आप से बहुत कुछ जानना, सीखना है।  लेकिन गुरूदेव! मेरा कल का प्रश्न अनुत्तरित है।  उस का उत्तर तत्काल जानने की इच्छा है।  यदि आप बता सकें तो आज की रात ही उसे स्पष्ट करें।

 हे, पाठक!
सूत जी बोले -सनत! अवश्य बताऊंगा। तुम निकट आ कर बैठो।
सनत सूत जी की शैया के निकट ही जा बैठा।  सूत जी कहने लगे -तुम्हारा प्रश्न था कि क्या वायरस दल चौथाई मतों के आस पास ही बना रहेगा, क्या इस से अधिक प्रगति नहीं कर पाएगा?
देखो भाई, यह युग पूँजी का युग है।  सारी सांसारिक गतिविधियों का संचालन पूँजी करती है।  पूँजी की शक्ति यह है कि वह सदैव स्वयं की वृद्धि के लिए काम करती है।  वस्तुतः पूँजी ही अपनी समृद्धि की आवश्यकताओं के लिए मर्त्यलोक पर राज्य करती है।  वह समय समय पर अपने अवरोधों को नष्ट  करती रहती है।  पूँजी सदैव मनुष्यों की बलि लेती है।  वह कभी किसी को उस के श्रम की पूरी कीमत नहीं देती।  यही उस की समृद्धि का रहस्य है।  वही उसे भोग पाता है जो उस पर नियंत्रण कर लेता है।  पूँजी की समृद्धि से ही किसी देश की समृद्धि आँकी जाती है।  जनतंत्र में जो महापंचायत है उस पर पूँजी ही का नियन्त्रण रहता है।  वह चुन चुन कर अपने सेवकों को महापंचायत में लाती है।  उस का प्रयत्न रहता है कि  महापंचायत उस के श्रेष्ठतम सेवकों के हाथों में बनी रहे।  सेवकों में इतनी कुशलता होनी चाहिए कि वे जनता का समर्थन लगातार प्राप्त करते रहें।   जनता के आक्रोश को विद्रोह की स्थिति तक न पहुँचने दें।  बैक्टीरिया दल उस का सब से अच्छा सेवक है।  यही कारण है कि उस ने सब तरह के साधनों और प्रयत्नों से उसे वापस महापंचायत में पहुँचाने में सफलता प्राप्त कर ली।
सूत जी थोड़ा रुके तो सनत बोल पडा़ -मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह गया।


हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसी में छिपा है।  यथार्थ यह है कि लाल फ्राक वाली बहनों को छोड़ दें तो सभी मौजूदा दल पूँजी के चाकर हैं।  लेकिन उसे सब से अधिक पसंद वह है जो जनता में विद्रोह को रोके रखे और पूंजी स्ववृद्धि करती रहे।  अब हम वायरस दल की बात करें तो वह सदैव कुछ इस तरह का काम करता रहता है जिस से जनता संप्रदायों के आधार पर बंटी रहे।  उस दल की उत्पत्ति का आधार ही संप्रदाय है।  यह सही है कि जिस संप्रदाय का वह पक्षधर है वह भारतवर्ष का सब से बड़ा संप्रदाय है।  लेकिन उस की अनेक शाखाएँ हैं, ऊंच-नीच के विभाजन हैं।   इस कारण यह आधार उस की लोकप्रियता को संकुचित करता है।  इस संप्रदाय के आधे मत भी वह कभी प्राप्त नहीं कर सका और न कर सकेगा। इस कारण से  वायरस दल कभी भी अपनी चौधाई स्थिति से नहीं उबर सकेगा।  उसे अपने विकास के लिए अपना आधार बदलना पड़ेगा, और यदि वह ऐसा करता है तो वह फिर वायरस दल नहीं रह जाएगा।   इस के लिए उसे एक नया रूप चाहिए और एक नया नाम भी।  कुछ समझ आया सनत? -सूत जी ने पूछा।

-सब समझ आ रहा है।   सनत बोला -लेकिन आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों को पृथक क्यों रखा?

सूत जी बोले- वे यथार्थ में अन्य दलों से भिन्न थीं।  उन का उद्देश्य जनता को पूँजी पर बलि होने से मनुष्यों की रक्षा करना था।  लेकिन यह एक लम्बी कहानी है।  मुझे कण्ठ में रुक्षता अनुभव हो रही है, कुछ शीतल जल दो।
-अभी लाता हूँ गुरुदेव यह कह कर  सनत जल लाने के लिए उठा लेकिन जल ऊष्ण था।  वह दूरभाष पर यात्री निवास के सेवक को शीतल जल भेजने को कहने लगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 22 मई 2009

मिथ्याभिमान का टूटना : जनतन्तर कथा (32)

हे, पाठक!
इधर राजधानी में अब सरकार निर्माण का काम चल रहा है।  इस काम में बड़े बड़े दिग्गज जुटे हुए हैं।  पहले घोषणा हुई थी कि पैंसठ मंत्री बनेंगे।   लेकिन रात-रात में पंगा हो गया।  आज का दिन ही पंगेबाजी का था, आखिर कैसे न होता? कुछ लोग कह रहे थे मुहुर्त निकलवाने में गलती हो गई, कुछ लोग कहते थे कि ज्योतिषियों का अब कोई ईमान-धरम नहीं रहा, सब भविष्यवाणियाँ असफल हो गईं।  उन से मुहुरत निकलवा कर ही गलती की।  तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं।  गठबंधन का एक दल रूठ गया था।  उसे पूरा हिस्सा चाहिए था, उसे मांगा जो मिल जाए तो दूसरा रूठ जाए।  सच में कितना कठिन होता है ये गठबंधन की सरकार बनाना। सोचते थे कि लाल फ्रॉक से पीछा छूटा। अब सरकार दबाव में नहीं रहेगी। स्वतंत्र  रह कर काम कर सकेगी।  लेकिन यह भ्रम ही साबित हुआ। तुलसी बाबा सही कह गए -पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।  बाबा ने सोचा भी न होगा कि पराधीनता इस तरह की भी होगी।


हे, पाठक!
 राजधानी में गरमी बहुत थी।  दिन का भोजन कर सनत और सूत जी यात्री विश्रामगृह में ही विश्राम करने लगे।  बाहर का काम संध्या पर छोड़ दिया।  वैसे भी संध्या में नयी सरकार का हाल लेना था।  सनत पूछने लगा -गुरुवर! लाल बहनों का क्या होगा? दस दिन पहले बहुत कूद रही थीं कि सरकार में उन की अहम भूमिका होगी।  जनता ने निर्णय दिया तो उछल-कूद बंद हो गई।  सारी बहनें घर से बाहर ही नहीं निकल रही हैं। जरूर उन्हें घर की चिंता सता रही होगी।  उन की धुरविरोधी इधर मन्त्री बन रही है, साथ ही धमकी भी दे रही है कि तुम्हारी खंड सरकार अब गिरवाती हूँ।
सूत जी बोले -जनता ने बिलकुल सही निर्णय दिया, लाल फ्रॉकधारी बहनों को सही स्थान पर पहुँचा दिया।  इन को दो-तीन खंडों में सरकारें चला-चला बहुत मिथ्याभिमान हो चला था कि वे अब चुनावी तंतर से भारतवर्ष को बदल डालेंगी।  उन का मिथ्याभिमान टूटना जरूरी था।  वे जनता को साथ ले कर चली थीं।  जनता को भरोसा दिलाया था कि वे उन्हें संगठित करेंगी। संगठन की ताकत से धनिकों, परदेसियों की पूंजी और भूस्वामियों के जाल को तोड़ेंगी।  जहाँ जहाँ उन्हों ने जनता संगठित की वहाँ वहाँ वे फली फूलीं।  जनता ने खंड़ों का राजकाज भी उन्हें सोंपा।  लेकिन, प्रभुता पाई काहे मद नाहीं, राजकाज ने बहनों के चरित्र को बदलना शुरू कर दिया।  वे सोचने लगीं अब जनता को संगठित करने का दुष्कर काम कौन करे? जनता पेटी वाला मत देने ही लगी है। जैसे इन तीन खंडों में राजकाज मिला वैसे ही पूरे भारतवर्ष में भी मिलेगा।  वे लग लीं मतों को जुगाड़ में, जनता का संगठन बिसरा दिया। जनता उन्हें बिसराने लगी।

हे, पाठक!
सनत ने प्रश्न किया -पर गुरुवर! मुझे तो लगता है कि जनता ने उन्हें पाँच बरस के बीच पिछली सरकार गिराने का सबक सिखाया है। सब लोग यही कह रहे हैं।  पर आप बिलकुल दूसरी बात कह रहे हैं?
सूत जी आगे बोले - सनत! यह बहुत पेचीदा बात है।  बैक्टीरिया दल सर्वधर्म समभाव की बात करता है उसे ही धर्म निरपेक्षता कहता है। यदि वह किसी एक धर्म के प्रति अनुराग दिखाने लगे तो लोग उसे पसंद करेंगे? नहीं न? जनता बहुत विभागों में बंटी है, इस लिए ऐसा कभी नहीं होता कि सारी जनता एक साथ किसी को पसंद कर ले।  अब तुम इधर ही देख लो वायरस दल को चौथाई जनता से अधिक का मत कभी नहीं मिला।  उस का कारण है कि उस ने स्वरूप ही ऐसा बनाया है जिसे चौथाई जनता से अधिक लोग पसंद कर ही नहीं सकते।  यह दल अब कुछ कुछ इसे समझने भी लगा है।  वह स्वयं का रूप बदलने का प्रयत्न भी करता है।  लेकिन जैसे ही वह ऐसा करता है लेकिन बहुत सी जनता उस का साथ छोड़ने लगती है।  यह दल उस से घबरा जाता है और पुराने रूप में लौट आता है।  अब  चौथाई या उस से कम जनता का समर्थन उस की नियति बन गई है।
तो क्या वायरस दल इस से अधिक कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा? सनत ने फिर प्रश्न किया।
सूत जी बोले -इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें फिर कभी दूंगा।  अब कुछ विश्राम कर लो। दुपहरी ढलते ढलते तुम्हें राजभवन जाना होगा।  नयी सरकार का नयापन नहीं देखोगे?
सनत को सूत जी का सुझाव मानना पड़ा। लेकिन वह पूछ बैठा -ऐसा लगता है आप राजभवन नहीं जाएंगे?
-मेरा बिलकुल मन नहीं है। तुम जाओ मैं उस समय कुछ नगर भ्रमण करना चाहता हूँ। यह कह कर सूत जी विश्राम करने लगे।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

 

गुरुवार, 21 मई 2009

उत्सव मत्तता और शांतम् ज्वालाः : जनतन्तर कथा (31)

हे, पाठक!
अगले तीन दिन तक सूत जी और सनत दोनों विभिन्न दलों के कार्यालयों में गए और लोगों से मिलते रहे।  बैक्टीरिया दल में उत्सव का वातावरण था जैसे उन्होंने परमबहुमत प्राप्त किया हो और जैसे वे संविधान को ही बदल डालेंगे।  उत्सव मनाने वाले लगता था मत्त हो उठे हैं। किसी को यह ध्यान ही नहीं था कि अभी भी  दल बहुमत से बहुत दूर है।  गठबंधन के खेतपति जोड़ने पर भी बहुमत नहीं था।  किन्तु नेता आत्मविश्वास से भरपूर नजर आते थे। वे जानते थे कि अब स्थिति यह आ गई है कि समर्थन देने वालों की पंक्तियाँ लग लेंगी।  हुआ भी यही।  पुराने समय में किसी राजा द्वारा किसी नगर पर विजय प्राप्त  कर लेने के उपरांत नगर के श्रेष्टीगण जिस तरह नजराना ले कर उपस्थित होते थे वैसे ही छोटे छोटे दल जो पहले से ही छोटे थे या फिर जो नाई के यहाँ केश सजवाते सजवाते मुंडन अथवा मुंडन के समीप के किसी केश विन्यास को प्राप्त कर बैठे थे पंक्ति बद्ध हो कर थाल सजा लाए थे। थाल सुंदर सजीले कपड़ों से आवृत थे। लेकिन उन के नीचे कठिनाई से विजय प्राप्त करने वाले खेतपतियों के सिर हिलते दिखाई पड़ जाते थे।  इन में एक व्यक्ति सर्वाधिक चिंतित दिखाई पड़ता था।  पिछले दिनों इस के लिए नए घर का संधान किया जा रहा था जो चुनाव परिणामों के उपरांत रोक दिया गया था।  उसे लगता था कि इस बार कांटों का ताज पहनाया गया है उसे।  वह लगातार कह रहा था कि निवेश बढाना पड़ेगा, नियोजन उत्पन्न करना पड़ेगा। वरना .... वरना क्या? लोग यहाँ से धक्का मारने में देरी भी नहीं करेंगे।

हे, पाठक!
उधर वायरस दल में कल तक जो मायूसी का वातावरण था वह अब कुछ कम होने लगा था।  वहाँ कुछ थे जो इन परिस्थितियों की प्रतीक्षा में थे।  वे तुरंत उठ खड़े हुए थे और प्रतीक्षारत प्रधान जी के दल मुखिया का पद त्याग देने के विचार का स्वागत कर रहे थे।  लगता था कि घरेलू अखाड़ा जो बहुत दिनों से किसी मल्ल की प्रतीक्षा में था उसे शीघ्र ही बहुत से मल्ल मिलने वाले हैं।  पर तभी भारतीय संस्कृति आड़े आ गई।  शोक के दिनों में तो खटिया पर सोने और पादुकाएं धारण करने की भी मनाही होती थी ऐसे में अखाड़ा कैसे सजाया जा सकता था।  पर लोग तो अखाड़े के निकट जा खड़े हुए थे। यहाँ तक कि पड़ौसी ताक झाँक करने लगे थे कि कब जोर आरंभ हो और वे अपनी मनोरंजन क्षुधा का अंत करें।  अंत में कुछ बुजुर्गो ने संस्कृतिवटी की कुछ खुराकें दीं तो प्रतीक्षारत प्रधान जी महापंचायत में दलप्रधान बने रहने को तैयार हो गए।  बेचारा अखाड़ा फिर रुआँसा हो गया।  जिन लोगों ने जोर करने की ठान ली थी वे अपने घरों को जाकर अभ्यासरत हो गए, जिस से निकट भविष्य में अवसर मिलने पर अखाड़े में पिद्दी साबित न हों।  

हे, पाठक!
इन लोगों ने मायूसी हटाने का एक बहाना और तलाश लिया था।  वे कह रहे थे, आखिर अच्छी शास्त्रीय कविता, या संगीत समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं।  हम समझ रहे थे कि लोग हमारी इस कला को आसानी से आत्मसात कर लेंगे।  संस्कारी लोग हैं, प्रसन्न होंगे और खूब तालियाँ बजाएंगे।  लेकिन अब पता लगा कि लोगों को तो शास्त्रीय कला को देखे वर्षों ही नहीं शताब्दियाँ हो चुकी हैं। वे न ताल समझते हैं और न राग-रागिनियों का ही कोई ज्ञान उन में है। यहाँ तक कि उन्हें काव्य के सब से प्रचलित छंदों तक का ज्ञान नहीं रहा है।  रामायण और महाभारत के छंद तो दूर रहे। वे तो मानस की चौपाई, दोहा सोरठा तक नहीं समझते।  उन्हें तो सीधे सादे सुंदरकांड के मध्य में भी फिल्मी धुनों में सजे भजनों और कीर्तनों की आदत हो गई है।  वे गायक को क्या समझें उन्हें तो चीखते आधुनिक यंत्रों की आदत पड़ चुकी है।  अब हम अपने अभियान में पहले शास्तीय संगीत और छंदशास्त्र सिखाएंगे जिस से वे हमारी इन शास्त्रीय कलाओं को सीख सकें।  सब से अधिक शीतलता इस बात से पहुँची थी कि उन्हें ही पराजय का मुख नहीं देखना पड़ा है, लाल फ्राक वाली बहनें भी तो बुरी तरह पराजित हुई हैं।  उन में से अनेक ने इस बात के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया कि लाल फ्रॉक वाली बहनों के प्रेमी उन्हें सताने को नहीं आएंगे और आए भी तो उन्हें मारने के ताने तो मुख में होंगे।

हे, पाठक!
 अब सूत जी को नेमिषारण्य से बुलावे आने लगे हैं।  वहाँ बहुत से मुनिगण उन की कथा से दो माह से वंचित हैं। वे जनतंतरकथा का उन के श्रीमुख से श्रवण करना चाहते हैं और वार्तालाप कर अपनी सुलगती जिज्ञासाओं को भी शान्त करना चाहते हैं।  कहीं ऐसा न हो कि जिज्ञासाओं की लपटें इतनी प्रबल हो जाएं कि नेमिषारण्य की हरियाली को संकट हो जाए।  सूत जी ने उत्तर भेज दिया है कि वे अधिक दिनों राजधानी में न रुकेंगे।  बस वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि महापंचायत में प्रधान के अभिषेक का समरोह देख जाएँ, उन की मंत्रीपरिषद की सूरत देख लें। उस के बाद वे राजधानी में एक पल को भी न रुकेंगे तुरंत नेमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देंगे।




बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 17 मई 2009

सब से बड़ा अंतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच : जनतन्तर कथा (30)

हे, पाठक! 
सनत और सूत जी प्रातः नित्य कर्म से निवृत्त होते उस के पूर्व ही माध्यमों ने परिणामों के रुझान दिखाना आरंभ कर दिया।  प्रारंभिक सूचनाओं से ही अनुमान हो चला था कि सरकार तो बैक्टीरिया दल का गठबंधन ही बनाएगा।  वायरस दल पिछड़ने लगा और उन के एक नेता से पूछा गया कि यह क्या हो रहा है? तो वे कहने लगे अभी तो पूरब और दक्खिन के परिणाम आ रहे हैं, हिन्दी प्रदेशों के आने दीजिए।  लेकिन उधर के परिणामों ने भी उन्हें निराशा ही परोसी।  बैक्टीरिया दल में उत्साह का वातावरण छा गया, भक्तगण फुदकने लगे।  नाना प्रकार के वाद्ययंत्र बजाने वाले स्वतः ही आ गए बजाने लगे। बहुत से लोग नृत्य करने लगे।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उन्हें कुबेर की नगरी लंका या इन्द्रलोक का साम्राज्य मिल गया हो।  जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया वैसे वैंसे उन की प्रफुल्लता बढ़ती गई। 


हे, पाठक!
इधर उत्सव मनाया जा रहा था उधर दूसरे शिविरों में बहुत मायूसी थी।  वायरस दल को तो साँप सूंघ गया था। पहले जहाँ बढ़-चढ़ कर माध्यमों के अभिकर्ताओं का स्वागत किया जाता था, आज उन से अनायास ही चिढ़ पैदा हो रही थी।  अनेक लोग जनता को ही कोस रहे थे।  उन्हें छोटी-छोटी बातें भी गालियाँ जैसी प्रतीत हो रही थीं।  बैक्टीरिया दल का साथ छोड़ कर अपना राग अलापने वाले सब घाटे में रहे थे, उन का सफाया हो गया था।  कल तक जो सरकार बनाने के स्वप्न देख रहे थे, आज वहाँ सन्नाटा था।  वायरस दल का साथ छोड़ जिन ने बैक्टीरिया दल का हाथ थामा था उन के पौ-बारह हो गए थे।  लाल फ्रॉक वाली बहनों के घर भी मातम था।  जनता का साथ छोड़ने का उन्हें भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा था।  पहले अपनी धीर-गंभीर बातों से जिस तरह वे लोगों का मन मोह लेती थीं। आज उस का भी अभाव हो गया था।  अपनी ऊपरी मंजिल पर बहुत जोर डालने पर भी वह प्रकाशवान नहीं हो रही थी।  कोई सिद्धान्त ही आड़े नहीं आ रहा था जिस के पीछे मुहँ छुपा लेतीं।


हे, पाठक!
परम आदरणीय माताजी और गंभीर हो गई थीं, उन की गंभीरता ने उन के सौन्दर्य को चौगुना बढ़ा दिया था।  वे घोषणा कर चुकी थीं कि महापंचायत में उन का नेता अर्थशास्त्री ही रहेगा और जनता से किए गए सब वादे पूरे किए जाएँगे।  अर्थशास्त्री जी राजकुमार की चिरौरी कर रहे थे कि महापंचायत के बाहर उन्हों ने जो कौशल प्रदर्शित किया है उस से अब वे अंदर भी नेतृत्व करने के योग्य हो गए हैं।  लेकिन राजकुमार को आखेट की सफलता ने मत्त कर दिया था। वह वन को हिंस्र पशुओं से हीन कर उसे उपवन बनाने की शपथ ले रहा था।  सब से अधिक धूम थी तो परामर्श की थी।  विजय वरण करने वाले कह रहे थे कि वह सब को एकत्र कर मंत्रणा करेंगे।  तो पराजय स्वीकारने वाले भी सब को एकत्र कर मंत्रणा करने की इच्छा रखते थे।  जिस से अगले युद्ध के लिए अभी से तैयारी आरंभ की जाए।  अगले दिन दक्खिन की रानी यान से राजधानी आने वाली थी उस का कार्यक्रम स्थगित हो गया था।  उस से पहले साँय उस से मिलने जाने वाले वीर बाहुबली के पूरे दिन दर्शन ही नहीं हुए।  वह कहाँ?  किस ?  अनुष्ठान में व्यस्त थे पता नहीं लग रहा था। 


हे, पाठक! कब दुपहरी हुई पता ही नहीं लगा।  बाहर गर्मी कितनी बढ़ गई थी? इस का अहसास नहीं था।  दोपहर का भोजन वहीं कक्ष में ही मंगा लिया गया था।  वहीं दिन अस्त हो गया।  रात के भोजन  लिए सूत जी सनत के साथ भोजनशाला पहुँचे तो स्थान रिक्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी।  भोजनशाला  ने आज विशिष्ठ व्यंजन बनाए थे।  दोनों भोजन कर बाहर नगर में निकले तो जलूसों का शोर देखने को मिला। विजय के अतिरेक में कोई दुर्घटना न हो ले इस लिए बहुत लोगों ने अपनी दुकानें शीघ्र ही बन्द कर दी थीं।  आखिर दुकान की हानि होती तो कोई उस की भरपाई थोड़े ही करता।  दोनों शीघ्र ही वापस यात्री आवास लौट आए।  सनत पूछने लगा -गुरूवर! यह क्या हुआ?  इस की तो कल्पना ही नहीं थी?
-ऐसा नहीं कि कल्पना ही नहीं थी।  वास्तव में जनतंत्र में सब से बड़ा अतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच ही रहता है।  शासक शक्तियों को कुछ अंतराल के उपरांत जनता से स्वीकृति लेनी होती है जिस की एक पद्यति बना ली जाती है। पद्यति शासक शक्तियों के अनुकूल होते हुए भी जनता उसे भांप लेती है।  वह शासक की शक्ति को सीमित रखने का प्रयत्न करती है।  जैसे शासक जनता को बाँट कर रखना चाहता है वैसे ही वह भी शासक शक्ति के प्रतिनिधियों को बाँट कर रखना चाहता है।  जिस से वह जितनी शासक शक्तियों से अधिक  से अधिक राहत प्राप्त कर सके।
इतना कहते कहते सूत जी अपनी शैया पर विश्राम की मुद्रा में आ गए।  सनत कुछ पूछना चाहता था।  लेकिन फिर यह सोच कर कि सुबह पूछेगा स्वयं भी अपनी शैया पर विश्राम के लिए चला गया।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....