हे, पाठक!
पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए महारथी मैदान में डट गए। लोगों ने तलाशना शुरू किया, है कोई नया चेहरा हो मैदान में? सब जगह पुराने ही चेहरे नजर आए, कोई नया नहीं। पार्टियाँ वैसी की वैसी हैं, जैसी वे पहले थीं। बस सब के चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। जिस चेहरे पर जितनी ज्यादा झुर्रियाँ चढ़ी हैं, उस पर उतना ही पाउडर और फेस क्रीम भी चुपड़ दिया गया है। इस बीच कोई नयी पार्टी नहीं जनमी। कहीं से खबर, इशारा भी नहीं, कि कोई गर्भ में पल रही हो। या तो रानी माँ बाँझ हो गई है, या राजा निरबंसिया हो चुका है। ऐसे में आ गया, चुनाव। लोग जान गए, कि किसी को वोट डाल दो परिणाम वही होगा जो होना है। नया कुछ भी पैदा नहीं होने वाला। मैया जितने बच्चे ले कर जच्चा खाने गई है, उन्हें ही ले कर वापस लौटेगी। कुछ फरक पड़ भी गया तो इतना कि घर में बच्चों के सोने बैठने की जगह बदल जाएगी। जब भी रात को सोने जाएंगे पहले की तरह लड़ेंगे। बेडरूम से फिर से वैसी ही आवाजें आएंगी। सुबह खाने पर वैसे ही लड़ेंगे। चिल्लाएंगे, वो वाला ज्यादा खा गया। मैं भूखा रह गया।
हे, पाठक!
सब को पता है, कि इस बार भी न बैक्टीरिया पार्टी और न ही वायरस पार्टी दोनों ही महापंचायत में कमजोर रहेंगी, कोई भी ऐसा न होगा जो अपने दम पर पंचायत कर ले। खुद बैक्टीरिया और वायरस पार्टियों को यकीन है कि ऐसा ही होगा। फिर भी वे मैदान में आ डटी हैं। वायरस पार्टी ने घोषणा कर दी है, उन का नेता ही महापंचायत का हीरो होगा। पार्टी के परवक्ता जी से सूत जी महाराज टकरा गए तो उन से पूछा कि कास्ट पूरी न मिली तो कैसे होगा? तो बोले वह बाद की बात है, बाद की बात बाद में देखी जाएगी। हम में हिम्मत है, हम सब कर सकते हैं। हम महापंचायत का हीरो घोषित कर सकते हैं, हम ने कर दिया। किसी और में दम हो तो कर के देखे। सूत जी बोले- बहुत डायरेक्टरों ने हीरो घोषित कर दिये और हीरोइन ढूंढते रह गए। फिलम का मुहुर्त शॉट डिब्बे में बन्द हो कर रह गया। सूत जी को जवाब भी तगड़ा मिला- उन डायरेक्टरों को फाइनेन्सर न मिला था। रोकड़ा ही नहीं था तो हिरोइन कहाँ से लाते? फिलम तो डिब्बे में बंद होनी ही थी। हमारे पास फाइनेंसर बहुत हैं देखते नहीं जाल पर कितने दिन से हीरो का चेहरा चमक रहा है। यह सब फाइनेंस का ही कमाल है। फाइनेंस से सब कुछ हो सकता है।
हे, पाठक!
जब फाइनेंस की बात चली तो सूत जी ने स्मरण कराया। इत्ता ही फाइनेंस पर बिस्वास था तो छह महिने पहले जब न्यू क्लियर डील का मसला आया, तभी लाइन क्लीयर क्यूँ नहीं कर दी। परवक्ता जी बोले-तब की बात और थी। हम चाहते तो यही थे। पर तब फाइनेंसर पीछे हट गए। बोले अभी फाइनेंस रिस्की है। छह महीने बाद करेंगे। अभी करेंगे तो छह माह बाद फिर करना पड़ेगा। फिर अभी तुम आ बैठे तो जनता विपदग्राही हो लेगी। लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर न्यू क्लीयर डील तो हम भी चाहते हैं। तुम करो चाहे वे करें, हम फाइनेंसरों को क्या फरक पड़ेगा? तुम बैठ गए तो शरम के मारे कर नहीं पाओगे, यह लटकती रहेगी। उधर परदेस में हमारे धंधों की पटरी बैठ जाएगी।
आज का समय यहीं समाप्त, कथा जारी रहेगी......
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
रविवार, 19 अप्रैल 2009
पब्लिक सीखे डिरेवरी ; जनतन्तर कथा (16)
हे, पाठक!
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
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आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में : जनतन्तर कथा (15)
हे, पाठक!
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
जो चमकाए देस उन को हम चमकाए देत : जनतन्तर कथा (14)
हे, पाठक!
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
पाँच बरस चल गया साँझे का चूल्हा : जनतन्तर-कथा (13)
हे, पाठक!
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)
ग्यारहवीं महापंचायत पूरी तरह से ऐतिहासिक थी। वायरस पार्टी की सरकार तेरह दिन चली। विश्वास मत पर घंटों बहस हुई। बहस के बाद मतदान होता, उस से पहले ही सरकार ने हार मान ली। अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी? अपनी समझ में कुछ नहीं आया। दो बातें समझ में आती हैं, एक तो यह कि शायद सरकार बनने के बाद रुतबे से ही कुछ मनसबदार टूट जाएँ, ट्राई मारने में क्या बुराई है। फिर ट्राई मारी गई और फेल हो गए। दूसरा यह कि जानते थे, सरकार न बचा पाएँगे। फिर भी 13 दिन का प्रधान होना क्या बुरा है? वह भी तब जब न्यौता मिला हो, इतिहास में तो दर्ज हो ही जाएँगे। एक तीसरा विकल्प और भी, कि इस से संसद में भाषण का अवसर तो मिलेगा। टीवी पर करोड़ों लोग एक साथ देखेंगे। कुछ नहीं तो प्रचार मिलेगा। खैर मकसद कुछ भी रहा हो। तेरह दिन की शहंशाही खत्म हो गई। भारतवर्ष ने तो एक दिन में चमड़े के सिक्के चलते देखे हैं, यह कौन सी नई बात हुई।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
तेरह दिन की सरकार : जनतन्तर-कथा (11)
हे, पाठक!
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
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