हे, पाठक!
अगले दिन जब अखबार देखा तो पता लगा वाकई प्रान्त के भूतपूर्व और वर्तमान मुख्यमंतरी नगर में पधारे थे, एक वायरस पार्टी का तो दूसरा बैक्टीरिया पार्टी का। बैक्टीरिया पार्टी वाला कह रहा था कि वायरस पार्टी की सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर था। उस को को फिजूलखर्ची बहुत सुहाती थी सरकार के स्तर पर भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी। नतीजा हुआ कि भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया। वायरस पार्टी के लोग ही अपनी सरकार पर पाँच हजार करोड़ का घोटाला करने के आरोप लगाते रहे। वायरस मुख्यमंतरी ने अपने चुनाव क्षेत्र के नगर में कंक्रीट की सड़कें बिछा कर विकास किया, जिस से हर गली में वायरस की कार को जाने में परेशानी न हो। लेकिन सड़कों के किनारे बनी नालियाँ सड़ती रहीं। वायरस मुख्यमंतरी प्रान्त भर में अपने बड़े-बड़े मुस्कुराते चित्रों के बच्चे को रोज एक गिलास दूध पिलाने की हिमायत करता रहा, लेकिन दारू की दुकानें इतनी खोल दीं कि पिताओं का पैसा दारू में चला गया, बच्चे का दूध कहाँ से आता? बैक्टीरिया पार्टी का ताजा मुख्य मंतरी पार्टी के प्रान्तीय अध्यक्ष को भी साथ लाया था जिस के चेहरे पर मात्र एक वोट से हार जाने की मायूसी पसरी थी। दोनों ने पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक की। अभी तक वे क्षेत्र से पार्टी का उम्मीदवार तय नहीं कर पाए थे, इस लिए घोषणा नहीं कर सकते थे। वे कार्यकर्ताओं को परख रहे थे कि किस उम्मीदवार के साथ वे सब खड़े हो सकेंगे?
हे, पाठक!
आज कल इन पार्टी वालों को एक अजीब संकट है। पार्टी जिसे अपना उम्मीदवार बनाती है, वह कुछ को पसंद आता है, ज्यादातर को नहीं। कार्यकर्ता को जिस समय उम्मीदवार का प्रचार करना होता है, उसे उसी वक्त उम्मीदवारी का विरोध करने में श्रम करना होता है। धीरे-धीरे जब गुस्सा शांत होता है, तो वे पार्टी का झंडा तो अपने घर-द्वार पर लटका देते हैं पर मन में निमोलियाँ फूटती रहती हैं। दिखाने को उम्मीदवार के काफिले में भी चलते हैं, लेकिन मन ही मन सोच रहे होते हैं कि यह हार जाए तो संकट टले। अब की बार अपने गुरू का नंबर लगे। इस संकट से बचने को बैक्टीरिया पार्टी ने नई तरकीब अपनाई। उस ने पहले कार्यकर्ताओं को प्रचार में झोंक दिया, अब उम्मीदवार की तलाश जारी है।
हे, पाठक!
वायरस पार्टी ने उम्मीदवार की घोषणा में बाजी मार ली। सरकारी दफ्तर से बिलकुल नया उम्मीदवार पकड़ निकाला। देखो! हम कैसा सुंदर उम्मीदवार आप के लिए लाए हैं। अब तक राजनीति से बिलकुल अछूता, भ्रष्ट करने वाला दाग नहीं; जैसे पार्टी उम्मीदवार के प्रचार के स्थान पर सेब बेच रही हो। यह भ्रष्ट हो ही नहीं सकता, राजनीति में था ही नहीं। पर आप सोच सकते हैं कि सरकारी दफ्तर का इंजिनियर अफसर हो, और लोगों को विश्वास हो जाए कि वह भ्रष्ट नहीं रहा होगा, यह संभव ही नहीं है। आप ही बताइए, वेश्याओं के मुहल्ले से आई किसी खूबसूरत औरत पर, जो नाज-नखरे दिखा-दिखा कर आप को रिझा रही हो, क्या कोई यह विश्वास कर सकता है क्या कि वह आप के साथ सातों वचन निभाएगी? वायरस मुख्यमंतरी अपनी पार्टी के बेदाग सेब जैसे उम्मीदवार के भव्य चुनाव कार्यालय का उद्घाटन करने पहुँचा। उद्घाटन के ठीक पहले बिजली चली गई, अंधेरा छा गया। बैक्टीरिया की नई सरकार पर षड़यंत्र कर के बिजली गुल करने के आरोप लगाए जाने लगे। बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया। इंतजार होने लगा कि बिजली आ जाए। कोई-कोई इसे अपशगुन भी कहने लगा। पर पण्डित जी बोले मुहूर्त निकला जा रहा है। वायरस मुख्यमंतरी ने अंधेरे में ही फीता काट दिया।
हे, पाठक!
यह नमूना है, उस तंत्र का जिसे जनतन्तर कहते हैं, लेकिन जो जनतन्तर है नहीं। जनतन्तर होता तो पार्टी में मेंबर बनाने की कुछ तो योग्यता होती, कुछ तो दायित्व होते? पर यहाँ तो कुछ भी नहीं। कोई आया और फारम भर गया, मेंबर हो गया। फारम भी दिखाने को भरने पड़ते हैं जिस से मेंबरशिप दिखा सकें। मेंबर को उस के बाद कोई पूछता तक नहीं, नगर पालिका मेंबर की उम्मीदवारी किसे दें यह तक उस से पूछा नहीं जाता। सब कुछ ऊपर बैठे टॉप वायरस-बैक्टीरिया ही तय कर लिया करते हैं, बरसों के मेंबर झाँकते रह जाते हैं। बिना मेंबर बने ही सेब-नाशपाती को टिकट मिल जाता है। असली जनतन्तर तो अभी सात समुंदर पार दिखता है, जहाँ पार्टी की उम्मीदवारी के लिए पहले पार्टी में काम करना पड़ता है और फिर मेंबरों के वोट तय करते हैं कि कौन उम्मीदवार होगा? जैसे बालक घर में टीचर-स्टूडेंट का खेल खेलते हैं, वैसे ही भारतवर्ष के बालिग लोग जनतंतर-जनतंतर खेल रहे हैं।
हे पाठक!
कुछ दिन यह जनतंतर-जनतंतर का खेल खेला जाएगा। इस में जनता को वोट देने को भी कहा जाएगा। लेकिन जनता किसे वोट दे? एक तरफ बैक्टीरिया तो दूसरी तरफ वायरस। ये दोनों रहेंगे तो हरारत भी होगी और बुखार भी झेलना पड़ेगा।
समय हो चला है, आज की कथा को यहीं विराम।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
चैत्रादि नव-वर्ष पर हार्दिक शुभ कामनाएँ!
चैत्रादि नव-वर्ष विक्रम संवत् 2066 शक संवत् 1931 के नवीन सूर्य को नमन
सभी पाठकों को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
-दिनेशराय द्विवेदी-
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चित्र- जैसलमेर (राजस्थान) का एक सूर्योदय
गुरुवार, 26 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (1) : हरारत होने लगी
हे, पाठक!
यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है। कुछ मैं कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं। पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है। एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं। वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं। सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है। होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है, पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है। लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं। दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें। जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं। शायद नहीं ही होते हैं। तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं। इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं। इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।
हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है। बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है? जरा मेरा हाथ तो देखो जी। बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है। वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है। फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो। अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है। इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।
हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है। वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है। अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या बेड पर लंबायमान। जूते भी नहीं खोलता। उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है। बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए, जूते भी नहीं खोले? कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है। बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है। बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।
हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम। लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है। कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती हरी थी। हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई। उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे। मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा। मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया। बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं। पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल। मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं। पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं। फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी। फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था। तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं। मैंने कार बाएँ कर ली। पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं। हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया। तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं। मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था। सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।
हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी। पार्किंग में कोई जगह खाली न थी। कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया। सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं। हम काम में लग गए। दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए। बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची। मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो? टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक। फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....
यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है। कुछ मैं कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं। पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है। एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं। वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं। सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है। होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है, पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है। लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं। दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें। जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं। शायद नहीं ही होते हैं। तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं। इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं। इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।
हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है। बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है? जरा मेरा हाथ तो देखो जी। बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है। वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है। फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो। अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है। इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।
हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है। वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है। अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या बेड पर लंबायमान। जूते भी नहीं खोलता। उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है। बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए, जूते भी नहीं खोले? कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है। बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है। बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।
हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम। लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है। कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती हरी थी। हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई। उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे। मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा। मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया। बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं। पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल। मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं। पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं। फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी। फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था। तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं। मैंने कार बाएँ कर ली। पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं। हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया। तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं। मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था। सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।
हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी। पार्किंग में कोई जगह खाली न थी। कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया। सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं। हम काम में लग गए। दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए। बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची। मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो? टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक। फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....
मंगलवार, 24 मार्च 2009
चुनावी स्थिति पर एक विचार; क्या दोगे बाबू?
क्या दोगे बाबू
* दिनेशराय द्विवेदी
कोई जीते, कोई हारे?
या बिछी रह जाए
या झाड़ पोंछ कर
फिर बिछ जाए
किस को है मतलब
इन सब से
मतलब बस इतना सा है
चूल्हा अपना जलता रह जाए
वोट बहुत दिया रामू ने
पीले झंडे वालों को
सपना देखा
बदलेगा कुछ तो
जीवन में, पर
कुछ ना बदला
वही किराए का
रिक्षा खींचा
हफ्ता वही दिया
ठोले को
वही रूखी बाटी खाई
दाल वही बेस्वाद साथ
नींद न आई रातों
इक दिन भी
बिन थैली के साथ
कुछ ना बदला
ये था रामू का हाल
शामू से पूछा तो
थी वही कहानी
रंग बदला था
बस झण्डे का
बाकी सब कुछ
वैसा का वैसा था
कुछ ना बदला
बदल गए हैं
बस रामू शामू
नहीं देखते अब वे
झण्डों के रंगों को
करते हैं सवाल सीधा
क्या दोगे बाबू?
इंतजाम करोगे?
कितनी रातों की नींदों का?
सोमवार, 23 मार्च 2009
भगत सिंह उवाचः ......
आज भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव के शहीदी दिवस पर कोटा के श्रमजीवी विचार मंच ने एक पर्चा वितरित किया है। इस पर्चे में भगतसिंह आज क युवाओं और नागरिकों को संबोधित कर रहे हैं। क्या कहते हैं वे जानिए खुद .....
- मैं जानता हूँ कि आप मेरी कुर्बानी का आदर करते हैं। लेकिन मैं ने यह कुर्बानी इसलिए नहीं दी कि भावी पीढ़ियाँ मेरा आदर करें। बल्कि इस लिए कि मेरे देश की तरुणाई जागे, उस का खून खौले। वे मृत्यु की परवाह किए बिना देश और देशवासियों की आजादी और उन्नति के लिए हर प्रकार की गुलामी, गैर बराबरी और अवनति के बंधनों तो तोड़ फेंक दें।
- सोचिए, अपने और देश-दुनिया के हाल के बारे में सोचिए!
- सोचिए, और अपने हुक्मरानों से सवाल कीजिए कि आखिर इस बदहाली की जिम्मेदारी किस की है? यह जिम्मेदारी इन हुक्मरानों की कैसे नहीं है?
- सब को शिक्षा सब को काम, सब को रोटी, कपड़ा और मकान, सब को चैन सब को आराम, जो दे सके ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
- हमारे वक्त में हम ने पाया कि साम्राज्यवादी बेड़ियों में फँसी सामंती समाज व्यवस्था यह सब नहीं दे सकती, हम उस से लड़ें।
- ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली लेकिन अब अमरीकी साम्राज्यवाद के अप्रत्यक्ष जाल में हम लगभग फँस गए हैं।
- सामंती बाहुबली अपनी सत्ता बनाए हुए हैं। पूँजी वादी व्यवस्था असुरक्षा और अनिश्चय के भंवर जाल में फँस गई है।
- विद्यमान व्यवस्था के पेचोखम कौन समझेगा?
- मैं पूछता हूँ आप लोग, देश की युवा पीढ़ी नहीं तो और कौन?
विनीत-
रविवार, 22 मार्च 2009
मैं रेशा हूँ एक उदास, इस चुनाव के मौसम में
चुनाव आ रहे हैं, पैरों तक आ चुके हैं। कुछ दिनों में घुटनों पर आ जाएंगे। फिर न जाने कहाँ कहाँ का सफर करते हुआ सिर पर भी आ लेंगे। सांसद चुने जाएँगे, फिर वे देश की सरकार चुनेंगे। अखबार, टीवी न्यूज चैनल चुनाव पूर्व अखाड़ों में हो रही उखाड़ पछाड़ की खबरों से भरपूर हो चुके हैं। इधर ब्लागरी में भी इस का असर देखने को मिलने लगा है। लेकिन पिछले दस सालों से चुनावों के प्रति एक उदासीन भाव जो मन में जमा है वह उखड़ता नहीं दिखाई पड़ रहा। हर बार मन की टंकी में बरसाती पानी के साथ आई मिट्टी की तरह कुछ उदासीनता जम जाती है। जमते जमते हालत यह हो गई है कि गरदन तक मिट्टी ही मिट्टी भरी है। पानी के लिए बस थोड़ी सा स्थान शेष है। वह कब भरेगा यह तो समय बताएगा?
लोग बताते हैं कि इस बीच इन उम्मीदवार की काली-गोरी संपत्ति में इजाफा हुआ है। इसे सच मानने के अलावा चारा भी नहीं क्यों कि बिना संपत्ति के जीतने के लिए चुनाव लड़ना संभव नहीं है। इन की एक मात्र राजनैतिक योग्यता यह है कि ये बरसों से रा.स्वं.सं के कार्यकर्ता रहे हैं और सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह अपनी माली हालत को बचाए रखने के स्थान पर उच्चता के शिखर पर ले गए हैं जिस ने उनके राजनीति प्रवेश प्रशस्त किया है। उन के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा में विरोध के स्वर उठे कि जो व्यक्ति आज तक भाजपा का सदस्य नहीं है उसे टिकट दे दिया गया। आखिर लंबी कतार में सब से आगे वह व्यक्ति आ गया जो दूर दूर तक कतार में कभी नजर नहीं आया।
इस उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि भाजपा में दोहरी सदस्यता है, यह दल रा.स्वं.सं और उस के पारिवारिक संगठनों के कार्यकर्तओं को भी अपना सदस्य ही मानती है। ऐसा भी विचार आता है कि मूल राजनैतिक दल तो रा.स्वं.सं ही है। भाजपा तो उस का प्रकटीकरण मात्र है। यह धारणा जनता में जाती है तो उस के लाभ और हानियाँ दोनो ही हैं। काँग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर सकी है कि इस क्षेत्र से कौन उम्मीदवार होगा। यह तो सही है कि काँग्रेस किसी प्रभावशाली उम्मीदवार को सामने लाने में समर्थ हो सकी तो श्याम शर्मा की चुनौती कोई मायने नहीं रखती। देखिए चुनाव में होता क्या है?
रहा सवाल अपना, तो अपने राम इतना परिदृश्य देखने के बाद भी उदासीन ही हैं। राम जानते हैं, कोई जीते फर्क कुछ नहीं पड़ने का। इसी लिए भक्त तुलसीदास जी कह गए 'कोऊ नृप होऊ हमें का हानी'। अभी तक तो ऐसा ही चल रहा है। वे आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से और ये आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से। कल कोई कह रहा था कि दोनों की रस्सियाँ दिनों दिन टूट टूट के छोटी हुई जा रही हैं बस इधर उधर से टुकड़े जोड़ जोड़ के काम चला रहे हैं। आगे गली में रस्सियों के बहुत से छोटे छोटे टुकड़े आपस में मिल कर फुसफुसा रहे थे। इन पुरानी रस्सियों के साथ जुड़ जुड़ कर मजा नहीं आ रहा, ऐसा न करें कि सारे छोटे टुकड़े मिल कर उन से लंबे हो जाएँ। बीच में एक बंदा बोल रहा था कि एक बड़ी रस्सी तो होनी चाहिए। इन बातों से भी हमारी उदासी नहीं टूट रही है। हम तो रस्सी नहीं रेशा हैं। यह भी पता नहीं कि उस उधड़ती-टूटती रस्सी से निकले हैं या फिर सीधे कपास-जूट के खेत से आ रहे हैं। हाँ, इतना जरूर जानते हैं कि रस्सी बनती रेशे से है और बहुत सारे रेशे मिल कर एक साथ घूमने लगें तो नई रस्सी बन जाती है।
हाड़ौती से दो लोक सभा सदस्य चुने जाने हैं। एक झालावाड़ से और दूसरा कोटा से। झालावाड़ क्षेत्र में बारां जिला भी शामिल है। वहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सुपुत्र भाजपा के उम्मीदवार हैं। इस क्षेत्र के लिए वे अब भी पराए हैं। उन्हें इसी लिए चुना गया था कि वे भाजपा की दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री के पुत्र हैं और शायद क्षेत्र की तरक्की के कुछ काम आएँ। उन की तरक्की को जनता ने ऐसा परखा कि उन के क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से छह में कुछ माह पहले ही कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुन कर भेजा। यदि मतदान का पैटर्न वही रहा तो भाजपा वहाँ हारी हुई है। उन के मुकाबले एक महिला उर्मिला जैन को काँग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है। ये अन्ता के विधायक प्रमोद भाया की धर्मपत्नी हैं और उन के सामाजिक कामों में उन के साथ कंधे से कंधा लगा कर चलती हैं। पहली बार राजनीति में उतर रही हैं। भाया जहाँ एक धनाड्य व्यापारी परिवार से आते हैं, उन्हों ने अपनी संपत्तियों में अपने बूते कई गुना इजाफा किया है और लगातार पिछले पन्द्रह वर्षों से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। यही कारण है कि पिछली बार काँग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर उन्हों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और अपना दम दिखाते हुए विधायक बने, बाद में उन्हें काँग्रेस ने स्वीकार कर लिया। इस बार काँग्रेस से चुनाव लड़ा और जीता। अपने प्रभाव के कारण बाराँ जिले की चारों विधानसभा सीटें काँग्रेस को दिलवाईं। इस क्षेत्र पर काँग्रेस अध्यक्षा कुछ कृपालु दीख पड़ती हैं। तभी तो बाराँ जिले के आदिवासी क्षेत्र में जब तब खुद सोनिया और राहुल आते-जाते हैं और कभी कभी अचानक भी। यदि यह सीट भाजपा से छीन ली जाती है तो भाजपा को तो हानि होगी ही। वसुंधरा का अहं भी कई गुना पराजित हो चुका होगा।
कोटा क्षेत्र में बूंदी जिला भी आता है। यहाँ से भाजपा ने अपना नया उम्मीदवार श्याम शर्मा को घोषित किया है। इन शर्मा जी की खसूसियत यह है कि ये उम्मीदवारी मिलने तक भाजपा के सदस्य नहीं थे और राज्य सरकार के निर्माण विभाग में अफसरी कर रहे थे। अपने विभाग में उन की कोई उपलब्धि हो न हो पर उन्हों ने अपनी इंजिनियरिंग का कमाल बाहर बहुत दिखाया। किसी तरह भारत विकास परिषद में स्थान बना कर भाजपा की प्रान्तीय सरकार के अनुग्रह से एक बस्ती के बीच (जिस का एक निवासी मैं भी हूँ) भूमि आवंटित करवा कर उस पर एक औषधालय खोला। बिना किसी अनुमति के उस औषधालय को एक पाँच मंजिला अस्पताल में परिवर्तित कर दिया। जब वहाँ औषधालय बन रहा था तो बस्ती के लोग आशंकित थे कि उन की आवासीय शांति अब भंग होने वाली है। इस लिए इस औषधालय को बनने से रोका जाए। एक भले काम को रोकने के अभियान को रोकने में मेरी भी भूमिका रही। लेकिन कुछ समय बाद ही जब वह एक बड़े अस्पताल में तब्दील होने लगा और उस का कचरा और प्रदूषण बस्ती को प्रभावित करने लगा तो उन से बस्ती के लोगों को लड़ना पड़ा। वह लड़ाई अभी भी जारी है। जिस का केवल एक ही असर है कि बस्ती के पार्क की भूमि अस्पताल को नजर होने से बच गई। अस्पताल में चैरिटी और सरकारी अनुदानों का पैसा और मुफ्त सरकारी भूमि लगी है लेकिन अस्पताल पूरी तरह से एक निजि व्यावसायिक अस्पताल की तरह चल रहा है।लोग बताते हैं कि इस बीच इन उम्मीदवार की काली-गोरी संपत्ति में इजाफा हुआ है। इसे सच मानने के अलावा चारा भी नहीं क्यों कि बिना संपत्ति के जीतने के लिए चुनाव लड़ना संभव नहीं है। इन की एक मात्र राजनैतिक योग्यता यह है कि ये बरसों से रा.स्वं.सं के कार्यकर्ता रहे हैं और सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह अपनी माली हालत को बचाए रखने के स्थान पर उच्चता के शिखर पर ले गए हैं जिस ने उनके राजनीति प्रवेश प्रशस्त किया है। उन के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा में विरोध के स्वर उठे कि जो व्यक्ति आज तक भाजपा का सदस्य नहीं है उसे टिकट दे दिया गया। आखिर लंबी कतार में सब से आगे वह व्यक्ति आ गया जो दूर दूर तक कतार में कभी नजर नहीं आया।
इस उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि भाजपा में दोहरी सदस्यता है, यह दल रा.स्वं.सं और उस के पारिवारिक संगठनों के कार्यकर्तओं को भी अपना सदस्य ही मानती है। ऐसा भी विचार आता है कि मूल राजनैतिक दल तो रा.स्वं.सं ही है। भाजपा तो उस का प्रकटीकरण मात्र है। यह धारणा जनता में जाती है तो उस के लाभ और हानियाँ दोनो ही हैं। काँग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर सकी है कि इस क्षेत्र से कौन उम्मीदवार होगा। यह तो सही है कि काँग्रेस किसी प्रभावशाली उम्मीदवार को सामने लाने में समर्थ हो सकी तो श्याम शर्मा की चुनौती कोई मायने नहीं रखती। देखिए चुनाव में होता क्या है?
रहा सवाल अपना, तो अपने राम इतना परिदृश्य देखने के बाद भी उदासीन ही हैं। राम जानते हैं, कोई जीते फर्क कुछ नहीं पड़ने का। इसी लिए भक्त तुलसीदास जी कह गए 'कोऊ नृप होऊ हमें का हानी'। अभी तक तो ऐसा ही चल रहा है। वे आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से और ये आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से। कल कोई कह रहा था कि दोनों की रस्सियाँ दिनों दिन टूट टूट के छोटी हुई जा रही हैं बस इधर उधर से टुकड़े जोड़ जोड़ के काम चला रहे हैं। आगे गली में रस्सियों के बहुत से छोटे छोटे टुकड़े आपस में मिल कर फुसफुसा रहे थे। इन पुरानी रस्सियों के साथ जुड़ जुड़ कर मजा नहीं आ रहा, ऐसा न करें कि सारे छोटे टुकड़े मिल कर उन से लंबे हो जाएँ। बीच में एक बंदा बोल रहा था कि एक बड़ी रस्सी तो होनी चाहिए। इन बातों से भी हमारी उदासी नहीं टूट रही है। हम तो रस्सी नहीं रेशा हैं। यह भी पता नहीं कि उस उधड़ती-टूटती रस्सी से निकले हैं या फिर सीधे कपास-जूट के खेत से आ रहे हैं। हाँ, इतना जरूर जानते हैं कि रस्सी बनती रेशे से है और बहुत सारे रेशे मिल कर एक साथ घूमने लगें तो नई रस्सी बन जाती है।
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
बदलता मौसम, किसान और मेरी उदासी
शीतकाल
सारी सर्दी हलके गर्म पानी का इस्तेमाल किया स्नान के लिए। होली पर रंगे पुते दोपहर बाद 3 बजे बाथरूम में घुसे तो सोचा पानी गर्म लें या नल का। बेटी बोली नल का ठीक है। हम ने स्नान कर लिया। कोई परेशानी न हुई। लेकिन दूसरे दिन ही नहाने के लिए पानी गरम लेने लगे। बस दो दिनों से नल के पानी से नहाने लगे हैं। परसों तक रात को वही दस साल पुरानी एक किलो रुई की रजाई औढ़ते रहे जिस की रुई कंबल की तरह चिपक चुकी है। कोई गर्मी नहीं लगी। परसों तक उसे ही ओढ़ते रहे। लेकिन कल अचानक गर्मी हो गई। रात को अचानक पार्क के पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाने लगे तो पता चला कि आंधी चल रही है। कोई 15 मिनट तक पत्तों की आवाजें आती रहीं। चादर ओढ़ा पर वह भी नहीं सुहाया तो बिना ओढ़े ही सोते रहे, सुबह जा कर वह किसी तरह काम आया। होली
मौसम बदल रहा है। दिन में अदालत में थे कि तीन बजे करीब बादल निकलने लगे। साढ़े चार अदालत से चले कि रास्ते में बून्दें टपकाने लगे पर रास्ते में ही बूंदें बन्द हो गईं। शाम को साढ़े छह- सात के करीब हम ब्लाग पर पोस्ट पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली चली गई। कम्प्यूटर, रोशनी, पंखा सब बंद बाहर से टप टपा टप की आवाजें आने लगीं फिर पानी की रफ्तार तेज हो गई कोई बीस मिनट पानी बरसता रहा जोरों से। फिर पानी बंद हुआ। कोई पाँच मिनट बाद बिजली आ गई। अभी हवा चल रही है। पार्क के पेड़ डोल रहे हैं। पत्ते थरथरा कर एक दूसरे से टकराकर ध्वनियाँ कर रहे हैं, यहां मेरे दफ्तर तक सुनाई दे रही हैं। बरसात
हर साल पूरे साल का गेहूँ घर आ जाता है एक ही किसान के यहाँ से। पिछले साल किसी गलतफहमी के कारण नहीं आ सका था। हमने किसी और से लिया नहीं। लेकिन पिछले साल का गेहूँ बचा था, कुछ हमने इस साल मोटा अनाज ज्वार, मक्का, बाजरा का कुछ अधिक इस्तेमाल किया तो गेहूँ पिछले माह तक हो गया। बाजार टटोला तो पता लगा नया गेहूँ आने वाला है। हम ने चक्की वाले से सीधे आटा लिया दस-पन्द्रह दिन चल जाएगा।
कल अचानक बेटे को इंदौर निकलना पड़ा, मैं और धर्मपत्नी श्रीमती शोभा जी उसे छोड़ कर स्टेशन से बाहर निकले तो गेहूँ वाले किसान विष्णु बाबू मिल गए। वे किसी को स्टेशन लेने पहुँचे थे उन की ट्रेन आने वाली थी। कुछ देर बातें करते रहे। फिर कहने लगे गेहूँ कटने की तैयारी है। दस दिन में आ जाएगा। कब तक पहुँचा दूँ? मैं ने कहा हमारे यहाँ तो पिछले साल गेहूँ खरीदा ही नहीं गया, पुराना ही चलता रहा। वह एक सप्ताह पहले ही खत्म हुआ है। तो कहने लगे पड़ौसी के तैयार हो गए हैं कल ही एक बोरी तो भिजवा देता हूँ। फिर दो हफ्ते में साल का रख जाउँगा। हमें सुखद अनुभव हुआ।
ग्रीष्म
लेकिन यह कुसमय रात की आंधी और अब शाम की बरसात। शायद किसानों के लिए तो शंका और विपत्ति ले कर आई है। इस साल सर्दियों की अवधि छोटी रहने से पहले ही फसल तीन चौथाई दानों की हो रही है। तिस पर यह बरसात न जाने क्या कहर बरसाएगी। ओले न हों तो ठीक नहीं तो आधा भी गेहूँ घर न आ पाएगा। मैं सोच ही रहा हूँ कि विष्णु जी कितने चिंतित और उदास होंगे? फसल को जल्दी कटवाने की जुगत में होंगे? वादे का एक बोरी गेहूँ भी आज नहीं पहुँचा है। वे जरूर परेशान होंगे। मैं भी सोचते हुए उदास हो गया हूँ।
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