@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

रोटियाँ ! ज्वार, बाजरा, मक्का और गेहूँ के आटे की रोटियाँ !

जी हाँ, जब से घर में रोटियाँ बनती देखीं, गेहूँ की ही देखी। बनाने में आसान और खाने में आसान, स्वादिष्ट भी। पर कभी कभी दादी ज्वार की रोटियाँ थेपती थी और तवे पर सेकने के बाद आग में सेकती थी। उस का स्वाद कुछ और ही हुआ करता था। हमारे इलाके में उस जमाने में मक्का का प्रचलन कम था। लेकिन मेरे ननिहाल में बहुत। मेरी माँ को मक्का की याद आती तो वह मक्का की बनाती। मक्का के ढोकले भी बनाती जिसे हम तिल्ली के तेल के साथ खाते। बाजरा हमारे यहाँ बिलकुल नहीं होता। लेकिन जिस तरह लोग बाजरे की रोटियों का उल्लेख करते हम सोचते रह जाते।

फिर कोटा आए तो हम शौक से हर साल मक्का की रोटियां सर्दी में खाने लगे। फिर ज्वार का भी साल में कुछ दिन उपयोग करने लगे। लेकिन इस साल हम तीनों ही अनाज खूब खा रहे हैं। इस का कारण तो नहीं बताऊंगा। लेकिन अपना अनुभव जरूर बताऊंगा।

जब से ये तीनों अनाज हम खाने लगे हैं। पेट में गैस बनना कम हो गयी है। कब्ज बिलकुल नहीं रहती। कारण पर विचार किया तो पाया कि। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों के आटा मोटा पिसता है और उस में चौकर की मात्रा अधिक रहती है। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों में संभवतः कैलोरी भी कम होती है जिस से आप का पेट खूब भर जाता है और शरीर में कैलोरी कम जाती है। यदि मक्का को छोड़ दें तो ज्वार और बाजरे के दाने छोटे होते हैं जिस से उन के छिलके का फाइबर भी खूब पेट में जा रहा है।

मुझे एक बात और याद आ रही है। एक शाम हम शहर के बाहर एक पिकनिक स्पॉट पर घूमने गए तो वहाँ नया ग्रिड स्टेशन बनाने का काम शुरू हो गया था और नींव की खुदाई के लिए मजदूर लगे थे। ये सभी झाबुआ (म.प्र.) से आए थे।  शाम को पास में ही बनाई गई अपनी झौंपड़ियों के बाहर पत्थर के बनाये चूल्हों पर औरतें रोटियाँ सेंक रही थी। हम पास गए तो देखा। औरतें सफाई से खूबसूरत बड़ी-बड़ी मक्का की रोटियाँ थेप कर तवे पर डाल रही थीं। सिकाई भी ऐसी कि एक भी दाग न लगे और रोटी पूरी सिक जाए। मैं ने पास में टहल रहे एक मजदूर से बात की। उस ने बताया कि वे मक्का ही खाते हैं। उन्हें इसी की आदत है। हालांकि यहाँ मक्का का आटा गेहूँ से महंगा मिलता है। वह बताता है कि गेहूँ की रोटी एक दो दिन लगातार खाने पर उन्हें दस्त लग जाते हैं। जब कि मक्का सुपाच्य है।

मुझे लगता है कि शहरी जीवन में जिस तरीके से शारीरिक श्रम कम हुआ है और मोटा अनाज खाना छोड़ दिया गया है उस से भी पेट के रोगों में वृद्धि हुई है। यदि हम सप्ताह में एक-दो बार मोटे अनाजों की रोटियाँ खाने लगें तो शायद पेट के रोगों से अधिक बचे रहें। अब  पूरी सलाह तो कोई चिकित्सक ही दे सकते हैं।

रविवार, 28 दिसंबर 2008

पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने

दिसम्बर 22, 2008 को अनवरत पर एक छोटा सा आलेख था पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद जिस में मैं ने अपने दो वरिष्ठ अभिभाषकों के साथ हुए एक मुक्त वार्तालाप  का विवरण था। दोनों ही मेरे लिए आदरणीय थे और विनोद प्रिय भी। जगदीश नारायण जी के पिता नगर के प्रधान रह चुके थे और पैंतालीस बरस पहले की जिला कांग्रेस में महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। जगदीश जी भी पिता के पद चिन्हों पर थे। पर उतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाए थे। दोनों पिता-पुत्र बहुत अच्छे प्रोफेशनल वकील थे। मोहता जी ने जो व्यंग्य कहा था वह जगदीश जी पर नहीं था। आम काँग्रेसी ऐसे लगते भी नहीं, जैसा varun jaiswal ने अपनी टिप्पणी में कहा था, "लेकिन कांग्रेसी तो पूंजीपति से नही लगते |" लेकिन उन की पार्टी उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। इसी कारण से मोहता जी का इशारा उन की ओर था। 
सज्जनदास जी मोहता एक क्लासिकल समाजवादी थे। उन्हों ने तत्कालीन समाजवादी पार्टी के वे सभी काम किये थे जो एक कार्यकर्ता कर सकता था। अखबार निकाला, लेख लिखे, संगठन किया लेकिन जब से वकालत में आए तब से लेख लिखने या जलसों में शिरकत करने का ही काम रहा उनका। वकालत में वे अनुकरणीय उदाहरण रहे। बिना सोचे समझे किसी मुकदमे में हाथ नहीं डालते थे। अपने काम में चुस्त रहते। हमेशा काम करने को तैयार रहते। मैं ने उन्हें करीब बीस बरस देखा। कभी किसी अदालत में अपने या अपने मुवक्किल के किसी कारण से पेशी बदलवाते नहीं देखा। उन के मुकदमे जल्दी परवान चढ़ते थे। वे अपने मुवक्किल को पहले ही कह देते थे। मैं अदालत से पेशियाँ नहीं बढ़वाउँगा, जो होना हो सो हो। अंत तक उन का सम्मान बना रहा। उन से कनिष्ठ सभी वकील उन को गुरूजी ही कहा करते थे। मुझे भी उन से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं ने चाहा कम से कम प्रोफेशन में उन का जैसा बन सकूँ। लेकिन बहुत मुश्किल है उन के आदर्श को पाना।

उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।

जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?

उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar,  ताऊ रामपुरिया,   प्रशांत प्रियदर्शी PD,   डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार। 

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !

 आज के आम मनुष्य को अपनी रोटी कमाने से ले कर जीवन स्तर पर टिके रहने के लिए जिस कदर व्यस्त रहना पड़ रहा है उस में कई सवाल खड़े होते हैं। क्या मनुष्य ने इतना ही व्यस्त रहने के लिए इतनी प्रगति की थी? इन्हीं प्रश्नों से जूझता है, महेन्द्र 'नेह' का यह गीत ....





'गीत'       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !    

दौड़, भोर से        
शुरू हो गई                       
हॉफ रहीं                           
बोझिल संध्याऐं !                        
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

तंत्र मंत्रों से तिलिस्मों से                   
बिंधा वातावरण                       
प्रश्न कर्ता मौन हैं    
हर ओर            
अंधा अनुकरण    
वेगवती है                           
भ्रम की आँधी                           
कांप रहीं                            
अभिशप्त दिशाऐं !                       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

सेठ, साधु, लम्पटों के                    
एक से परिधान                       
फर्क करना कठिन है                    
मिट गई है इस कदर पहचान                
नग्न नृत्य                           
करती सच्चाई                           
नाच रहीं                           
अनुरक्त ऋचाऐं                       
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !                   

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

पाकिस्तान क्यों युद्ध का वातावरण बना रहा है?

मैं आज बात तो करना चाह रहा था अपने विगत आलेख पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद 
के पात्रों आदरणीय गुरूजी सज्जन दास जी मोहता और उन के मित्र जगदीश नारायण जी माथुर और इस पोस्ट पर  आई टिप्पणियों में व्यक्त विचारों के सम्बन्ध में, लेकिन यहाँ दूसरी ही खबरें आ रही हैं। एक खबर तो कल अनवरत पर ही थी- कोटा स्टेशन और तीन महत्वपूर्ण रेल गाड़ियों को विस्फोटकों से उड़ाने की आतंकी धमकी दूसरी खबर अभी अभी आज तक पर सुन कर आ रहा हूँ इसे नवभारत टाइम्स ने भी अपनी प्रमुख खबर बनाया है कि -
"भारतीय सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने भी बताया है कि बॉर्डर के दूसरी ओर (पाकिस्तान की तरफ) हलचल तेज है। पाकिस्तानी रेंजर्स को हटाकर वहां पाकिस्तानी सेना को तैनात कर दिया गया है। बीएसएफ, वेस्टर्न जोन के एडीजी यू.के.बंसल ने कहा है कि हमने बुधवार को बॉर्डर का मुआयना किया और हमने पाया कि बॉर्डर के दूसरी तरफ सैन्य गतिविधियां तेज हैं। उन्होंने कहा कि बीएसएफ किसी भी हालात से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है।"
मुम्बई पर 26 नवम्बर के आतंकवादी हमले के संबंध में एकदम साफ सबूत हैं कि हमलावर पाकिस्तान से आए थे, हमले की सारी तैयारी पाकिस्तान में हुई थी। हमलावरों में से एक को जीवित पकड़ा गया वह चीख चीख कर कह रहा है कि वह पाकिस्तानी है। लेकिन फिर भी पाकिस्तान सरकार लगातार जानबूझ कर इन सबूतों को मानने से इन्कार कर रही है। उस ने यहाँ तक कहा है कि उन के डाटाबेस में कसाब नहीं है।

कसाब का पाकिस्तान के डाटा बेस में नहीं होने का बयान देना अपने आप में बहुत ही गंभीर बात है। इस का अर्थ यह है कि पाकिस्तान अपने प्रत्येक नागरिक का विवरण अपने डाटाबेस में रखता है। हालांकि उस की अफगान सीमा पूरी तरह से असुरक्षित है और एक पुख्ता डाटाबेस बना कर रखना संभव नहीं है। फिर भी हम मान लें कि उन का ड़ाटाबेस पुख्ता है और उस में हर पाकिस्तानी नागरिक का विवरण महफूज रहता है। लेकिन कसाब तो पाकिस्तानी है उस का विवरण उस में होना चाहिए।

पुख्ता डाटाबेस में कसाब का विवरण नहीं होना यह इंगित करता है कि विवरण को साजिश की रचना करने के दौरान ही डाटाबेस से हटा दिया गया है या फिर साजिश को अंजाम दिए जाने के उपरांत। यह पाकिस्तान के प्रशासन में आतंकवादियो की पहुँच को प्रदर्शित करता है। पाकिस्तान के इस तथाकथित डाटाबेस में किसी भी उस पाकिस्तानी का विवरण नहीं मिलेगा जो किसी आतंकवादी षड़यंत्र के लिए या फिर जासूसी के इरादे से पाकिस्तान के बाहर आएगा।

पाकिस्तान के निर्माण से अब तक आधे से भी अधिक वर्ष पाकिस्तान ने सैनिक शासन के अंतर्गत गुजारे हैं। वहाँ कभी भी सत्ता पर सेना काबिज हो सकती है। सत्ता पर सेना का प्रभाव इतना है कि कोई भी राजनैतिक सत्ता तभी वहाँ बनी रह सकती है जब तक सेना चाहे। दूसरी और आतंकवादी बहुत प्रभावी हैं, उन्हें सेना का समर्थन हासिल है। यह इस बात से ही स्पष्ट है कि भारत से संघर्ष की स्थिति में तालिबान उन के विरुद्ध अमरीकी दबाव में लड़ रही सेना के साथ खड़े होने की घोषणा कर चुके हैं। आईएसआई की अपनी अलग ताकत है जो सेना और आतंकवादियों के साथ जुड़ी है।

इन परिस्थितियों में पाकिस्तान की सरकार पूरी तरह निरीह नजर आ रही है। फौज, आईएसआई और आतंकवादी की मंशा के विपरीत कोई भी निर्णय कर पाना पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के विरुद्ध आत्महत्या करना जैसा है। यदि अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे पाकिस्तान को आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करनी ही पड़ती है तो पाकिस्तान एक गृहयुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हो जाएगा। एक ही बात पाकिस्तान को गृहयुद्ध से बचा सकती है वह यह कि भारत उस पर हमला कर दे। पाकिस्तान द्वारा भारत से युद्ध का वातावरण बनाने के पीछे यही उद्देश्य काम कर रहा है।

इन परिस्थितियों में यह तो नितांत आवश्यक है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए सेनाओं को तैयार रखना पड़ेगा। भारतीय कूटनीति की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि किसी भी प्रकार के युद्ध में कूद पड़ने के पहले पाकिस्तान अपने गृहयुद्ध में उलझ जाए।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

कोटा स्टेशन और तीन महत्वपूर्ण रेल गाड़ियों को विस्फोटकों से उड़ाने की आतंकी धमकी

 देश के महत्वपूर्ण दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग पर स्थित कोटा रेलवे स्टेशन सहित कोटा मंडल से होकर गुजरने वाली तीन रेलगाडियों को आतंककारियों द्वारा बम से उडाने की कथित धमकी के बाद कोटा स्टेशन और नगर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई है। मामले की जांच पडताल में मिलेट्री इंटेलीजेंस सहित अन्य गुप्तचर एजेंसियों को शामिल किया गया है।

राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) के पुलिस उप अधीक्षक तृप्ति विजयवर्गीय ने आज बताया कि रेलवे पुलिस के कोटा थाना प्रभारी को गत 18 दिसम्बर को ही एक पत्र मिल गया था जो मुंबई से 12 दिसंबर को डाक में छोड़ा गया है। इस पत्र में कोटा से गुजरने वाली तीन रेल गाडियों सहित कोटा स्टेशन को बम से उडाने की आतंकी धमकी दी गई है।  पत्र मिलने के बाद इस के बारे में गोपनीयता बनाए रखी गई और सबसे पहले प्राथमिक रूप से रेल गाडियों और रेलवे स्टेशन की सुरक्षा को मजबूत करने के अलावा विभिन्न इंटेलीजेंस एजेंसियों की मदद ली गई।

विजयवर्गीय ने बताया कि जिन गुप्तचर एजेंसियों की जांच में मदद ली जा रही है, उनमें मिलेट्री इंटेलीजेंस भी शामिल है। इसके अलावा पुलिस की इंटेलीजेंस ब्रांच और रेलवे की विजीलेंस टीम भी स्थिति पर लगातार निगाह बनाए हुए है। उल्लेखनीय है कि जीआरपी के थाना प्रभारी को भेजे गए कथित धमकी भरे पत्र में 25 दिसम्बर को कोटा रेलवे स्टेशन सहित कोटा मंडल से गुजरने वाली तीन रेल गाडियों को बम से उडाने की धमकी दी गई है।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद

जब हम चाय पीने केन्टीन पहुँचे तो सर्दी की धूप में बाहर की कुर्सियों पर दो वरिष्ठ वकील चाय के इंतजार में मूंगफलियाँ छील कर खा रहे थे। हम भी पास की कुर्सियों पर बैठे और चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर में हमने पाया कि मूंगफलियों की थैली सज्जनदास जी मोहता के हाथों में है और वे दो मूंगफली निकालते हैं एक जगदीश नारायण जी को देते हैं और एक खुद खाते हैं। फिर इसी क्रिया को दोहराते हैं।

मुझे यह विचित्र व्यवहार लगा। मैं ने पूछा ये क्या है भाई साहब?

जवाब मोहता जी ने दिया। यह सर्वहारा का अधिनायकवाद है याने के समाजवाद।

मैं ने पूछा- वो कैसे?

मोहता जी ने जवाब दिया - मूंगफली की थैली मेरे हाथ में है इस लिए मैं इस में से दो निकालता हूँ, एक इसे देता हूँ और एक खुद खाता हूँ। मैं समाजवादी हूँ।


यह काँग्रेसी है, पूँजीपति! थैली इस के हाथ होती तो सारी मूंगफलियाँ ये खुद ही खा जाता।


मुझे उस दिन पूँजीवाद और समाजवाद का फर्क समझ आ गया।

रविवार, 21 दिसंबर 2008

विश्वास पर हमेशा कायम रहने का लाभ

राजस्थान में जब कृषि भूमि की सीलिंग लागू हुई तो अनेक जमींदारों की जमीनें सीलिंग में अधिगृहीत हो गईं। लेकिन अधिगृहीत भूमि का आवंटन अन्य व्यक्ति को होने के तक पूर्व जमींदार ही उस पर खेती करते रहे। जमींदारों के परिवारों में भी पैतृक संपत्ति का विभाजन न हो पाने के कारण स्थिति यह आ गई कि अनेक लोगों के पास बहुत कम कृषि भूमि रह गई। एक ऐसे ही परिवार का एक व्यक्ति सरकार में पटवारी था और अपने परिवार की सीलिंग में गई भूमि पर खेती कर रहा था।

सरकार ने उस भूमि को एक मेहतर को आवंटित कर दिया। उस पटवारी ने मुकदमा कर दिया कि उस भूमि पर वह खुद अनेक वर्षो से खेती कर रहा है और इसे दूसरे को आवंटित नहीं किया जा सकता। वह मेहतर मुकदमे का नोटिस ले कर मेरे पास आ गया और मैं ने उस की पैरवी की।

मुकदमे की हर पेशी पर वह पटवारी मुझ से मिलता और मुझे पटाने की कोशिश करता कि किसी भी तरह मैं कुछ रियायत बरतूँ और वह मुकदमा जीत जाए। वह जाति से ब्राह्मण था और बार बार मुझे दुहाई देता था कि एक ब्राह्मण की भूमि एक हरिजन के पास चली जाएगी। मैं उसे हर बार समझा देता कि मैं अपने मुवक्किल की जम कर पैरवी करूंगा। वह भी अपने वकील को कह दे कि कोई कसर न रखें। मैं ने उसे यह भी कहा कि मैं उसे यह मुकदमा जीतने नहीं दूंगा। बहुत कोशिश करने पर भी जब वह सफल नहीं हुआ तो उस ने कहना बंद कर दिया। लेकिन हर पेशी पर आता जरूर और राम-राम जरूर करता। 

मुकदमा हमने जीतना था, हम जीत गए। भूमि हरिजन को मिल गई। लेकिन उस के कोई छह माह बाद वह पटवारी मेरे पास आया और बोला। आप ने मुझे वह मुकदमा तो हरवा दिया, मेरी जमीन भी चली गई। लेकिन यदि मेरा कोई और मामला अदालत में चले तो क्या आप मेरा मुकदमा लड़ लेंगे। मैं ने उसे कहा कि क्यों नहीं लड़ लूंगा। पर मैं कोई शर्तिया हारने वाला मुकदमा नहीं लड़ता। वह चला गया।

बाद में उस ने मुझे अपना तो कोई मुकदमा नहीं दिया, लेकिन जब भी कोई उस से अपने मुकदमें में सलाह मांगता कि कौन सा वकील किया जाए? तो हमेशा मेरा नाम सब से पहले उस की जुबान पर होता। उस व्यक्ति के कारण मेरे पास बहुत से मुवक्किल आए।