मैं ने कभी यह सत्य नियम जाना था कि कोई भी चीज तब तक नहीं टूटती-बिखरती जब तक वह अंदर से खुद कमजोर नहीं होती चाहे बाहर से कित्ता ही जोर लगा लो। जब अंदरूनी कमजोरी से कोई चीज टूटने को आती है तो वह अपनी कमजोरी को छुपाने को बहाने तलाशना आरंभ कर देती है।
पाकिस्तान अपने ही देश के आंतकवादियों पर काबू पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है और जिस तरीके से वहाँ आतंकवादियों ने मजबूती पकड़ ली है उस से यह आशंका बहुत तेजी से लोगों के दिलों में घर करती जा रही है कि एक दिन पाकिस्तान जरूर बिखर जाएगा। इस आशंका के चलते पाकिस्तान के लोगों ने बहाने तलाशना आरंभ कर दिया है। वैसे तो तोड़-जोड़ कर बनाया गया पाकिस्तान पहले भी टूट चुका है। लेकिन उस बार उसे तोड़ने का श्रेय खुद पाकिस्तानियों को प्राप्त हो गया था। उन्हों ने देख लिया कि वे पूर्वी बंगाल की आबादी पर अपना कब्जा वोट के जरिए नहीं बनाए रख सकते हैं तो उन्हों ने उसे टूट जाने दिया। अब फिर वही नौबत आ रही है।
अब वे यह तो कह नहीं सकते कि भारत उन्हें तोड़ रहा है। क्यों कि इस में तो उन की हेटी है। इस से तो यह साबित हो जाता कि पाकिस्तान बनाने के लिए भारत को तोड़ा जाना ही गलत था।यह पहलवान चाहे हर कुश्ती में हारता हो लेकिन कभी भी अपने पड़ौसी पहलवान को खुद से ताकतवर कहना पसंद नहीं करता। इस लिए भारत तो इस तोहमत से बच गया कि वह पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहा है। अब किस के सर यह तोहमत रखी जाए? तो भला अमरीका से कोई पावरफुल है क्या दुनिया में? उस के सर तोहमत रखो तो कोई मुश्किल नहीं, कम से कम यह तो कहा जा सके कि हम पिटे तो उस से, जिस से सारी दुनिया पिट रही है।
लाहौर हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर दिया है कि अमरीका पाकिस्तान में आतंकवाद फैला रहा है और मुम्बई हमला भी उसी के इशारों पर काम कर रहे आतंकवादियों का कारनामा है। यह कारनामा इस लिए किया गया है जिस से पाकिस्तान पर इस हमले को करवाने के आरोप की जद में अपने आप आ जाए।
वकीलों से खचाखच भरी इस बैठक में पारित इस प्रस्ताव में कहा गया कि अमरीका यह सब इस लिए कर रहा है जिस से उस की बनाई योजना के मुताबिक यूगोस्लाविया के पैटर्न पर पाकिस्तान को तोड़ा जा सके। (खबर यहाँ पढ़ें) बैरिस्टर ज़फ़रउल्लाह खान द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अमरीका के इस मुंबई कारनामे पर ब्रिटेन सब से अधिक ढोल बजा रहा है जिस से किसी की निगाह अमरीका के इस कुकृत्य पर न पड़ सके। इस प्रस्ताव में पाकिस्तान पर अमरीकी हमलों की निन्दा करते हुए कहा गया है कि ये हमले पाकिस्तान के उत्तरी भाग को आगाखान स्टेट में बदलने का प्रयास है। जिस के लिए आगाखान फाउंडेशन हर साल तीस करोड़ डालर खर्च कर रहा है।
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
गुरुवार, 18 दिसंबर 2008
बहत्तर घंटे पूरे होने का इंतजार
जुकाम का आज तीसरा दिन है। परसों शुरू हुआ था तो समझा गया था कि होमियो बक्से की दवा से स्टे मिल जाएगा। पर नहीं मिला। रात बारह बजे बाद तक नाक की जलन के मारे नींद नहीं आ सकी थी और सुबह चार बजे ही खुल गई। तब से नाक एक तरफ से उस बरसाती छत की तरह टपकती रही जिस के टपके से डर कर शेर गधा हो गया था और कुम्हार ने उसे बांध लिया था। दुबारा नींद आई ही नहीं। मजबूरी यह कि अदालत जाना जरूरी है, सो गए। वरना कोई न कोई मुकदमा लहूलुहान हो सकता था। रात तक टपका जारी रहा। घर लौटे तो पत्नी जी की सलाह से कुछ नयी दवाओं को आजमाया गया। पर नाक ने अपना स्वभाव दिन भर की तरह जारी रखा।
शाम को ब्लाग पढ़ने बैठे तो अलग सा पर एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता पढ़ कर तसल्ली मिली कि एक आदमी, नहीं ब्लागर, तो है जिस को हमारे जुकाम का पता लगा। पढ़ कर बहुत तसल्ली मिली कि दवा करो तो तीन दिन में और न करो तो बहत्तर घंटों में आराम आ जाता है। हम दवा कर चुके थे। बड़ा अफसोस हुआ कि नहीं करते तो दिनों के बजाए घंटों में ठीक हो जाते। फिर कुछ गणित लगाई तो पता लगा। बात एकै ही है।
रात को वही बारह बजे बाद जैसे तैसे नींद आई। सुबह उठे तो सवा छह बजे थे। यानी बहत्तर में छह और कम हुए। नाक दोनों सूखी थी। लेकिन लग रहा था कि सांस के साथ अंदर तक कुछ असर हुआ है। सफाई वफाई करने पर पता लगा कि बहना बंद है। हम खुश हो गए। पर कुछ देर बाद ही दूसरी वाली साइड चालू हो गई। यानी नाक की साइडें शिफ्टों में काम कर रही थी।
आज भी काम कम नहीं है। एक मुकदमे में बाहर भी जाना था। मुवक्किल को कल ही बता दिया था कि नाक ने साथ दिया तो जा पाऊँगा वरना नहीं। अब लगता है कि नहीं जा सकता। उस का फोन आया तो ठीक, वरना मुवक्किल इतना होशियार है कि अपना इंतजाम खुद कर लेगा। हाँ कोटा की अदालत तो जाना ही पड़ेगा। तैयारी सब कर ली है। बहत्तर घंटे शाम को छह-सात बजे पूरे हो रहे हैं। उस के बाद भी बरसात जारी रही तो फिर अपनी नाक को नुक्कड़ वाले डाक्टर धनराज आहूजा हवाले ही करना पड़ेगा।
अब अदालत के लिए तैयार होते हैं। शाम को फिर मिलेंगे।
पुनश्च- डाक्टर प्रभात टंडन ने फरमाया है...ख़ुश रहिए और सर्दी से बचिए।
कहा है जुकाम का कारण तनाव है। अब तलाशता हूँ कि कोई तनाव था क्या? और था तो क्यों, किस कारण से?
शाम को ब्लाग पढ़ने बैठे तो अलग सा पर एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता पढ़ कर तसल्ली मिली कि एक आदमी, नहीं ब्लागर, तो है जिस को हमारे जुकाम का पता लगा। पढ़ कर बहुत तसल्ली मिली कि दवा करो तो तीन दिन में और न करो तो बहत्तर घंटों में आराम आ जाता है। हम दवा कर चुके थे। बड़ा अफसोस हुआ कि नहीं करते तो दिनों के बजाए घंटों में ठीक हो जाते। फिर कुछ गणित लगाई तो पता लगा। बात एकै ही है।
रात को वही बारह बजे बाद जैसे तैसे नींद आई। सुबह उठे तो सवा छह बजे थे। यानी बहत्तर में छह और कम हुए। नाक दोनों सूखी थी। लेकिन लग रहा था कि सांस के साथ अंदर तक कुछ असर हुआ है। सफाई वफाई करने पर पता लगा कि बहना बंद है। हम खुश हो गए। पर कुछ देर बाद ही दूसरी वाली साइड चालू हो गई। यानी नाक की साइडें शिफ्टों में काम कर रही थी।
आज भी काम कम नहीं है। एक मुकदमे में बाहर भी जाना था। मुवक्किल को कल ही बता दिया था कि नाक ने साथ दिया तो जा पाऊँगा वरना नहीं। अब लगता है कि नहीं जा सकता। उस का फोन आया तो ठीक, वरना मुवक्किल इतना होशियार है कि अपना इंतजाम खुद कर लेगा। हाँ कोटा की अदालत तो जाना ही पड़ेगा। तैयारी सब कर ली है। बहत्तर घंटे शाम को छह-सात बजे पूरे हो रहे हैं। उस के बाद भी बरसात जारी रही तो फिर अपनी नाक को नुक्कड़ वाले डाक्टर धनराज आहूजा हवाले ही करना पड़ेगा।
अब अदालत के लिए तैयार होते हैं। शाम को फिर मिलेंगे।
पुनश्च- डाक्टर प्रभात टंडन ने फरमाया है...ख़ुश रहिए और सर्दी से बचिए।
कहा है जुकाम का कारण तनाव है। अब तलाशता हूँ कि कोई तनाव था क्या? और था तो क्यों, किस कारण से?
मंगलवार, 16 दिसंबर 2008
कहाँ है अब्दुल करीम तेलगी? उसे बुलाओ !
आज अब्दुल करीम तेलगी याद आ रहा है। काश वह पकड़ा न गया होता, उस का कारोबार बदस्तूर जारी होता और मुझे मिल जाता। मैं उस से छोटा सा सौदा करता कि वह मुझे जरूरत के स्टाम्प सप्लाई करता रहे।
कुछ दिन पहले एक दावा पेश किया था। मात्र ढाई लाख रुपए की वसूली का था। कोर्ट फीस अर्थात न्याय शुल्क के लिए स्टाम्प चाहिए थे, कुल रुपए 12, 115 रुपयों के। पाँच-पाँच हजार के दो स्टाम्प मिले और शेष 2515 के लिए 75 रुपए के 33 स्टाम्प और चालीस रुपए के चिपकाने वाले टिकट लगाकर 12, 115 रुपयों का सेट बनाया गया। कुल 35 स्टाम्प पेपर हुए। इन में से दावा टाइप हुआ केवल चार पेज पर शेष 31 पेपर पर लिखना पड़ा कि यह कोर्टफीस स्टाम्प फलाँ दावे के साथ संलग्न है।
एक स्टाम्प पेपर का कागज कम से कम एक रुपए का जरूर होगा। इस से अधिक का भी हो सकता है। उस पर उस की तकनीकी छपाई। वह भी कम से कम एक-दो रुपए की और होगी। इस तरह एक पेपर पर तीन रुपए का खर्च। 31 स्टाम्प बेकार हुए यानी 100 रुपए पानी में गए। 31 स्टाम्पों पर इबारत लिखने में श्रम हुआ वह अलग। इस से फाइल मोटी हो गई। उस के रख रखाव के लिए अदालत को अधिक जगह चाहिए। उठाने रखने में अधिक श्रम होगा वह अलग। फाइल की मोटाई देख कर जज डरेगा कि न जाने क्या होगा इस फाइल में ? तो अदालत में मुकदमों की इफरात के इस युग में फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा। मुकदमे के निपटारे में देरी लगेगी सो अलग। अगर हजार रुपए वाले और पाँच सौ रुपए के तो स्टाम्प होते केवल पाँच। 29 बेशकीमती कागज बचते। उन्हें बनाने के लिए काटे जाने वाला एक आध पेड़ बचता।
राजस्थान सरकार ने कोर्टफीस बढ़ा दी। पता लगा 4640 रुपए के कोर्टफीस स्टाम्प और लगाने होंगे। खरीदने गए तो पता लगा पाँच हजार से नीचे केवल पचास रूपए का स्टाम्प उपब्ध है। 4640 रुपयों के लिए गिनती में आएंगे कम से कम 93 स्टाम्प। इन सब पर लिखना पड़ेगा कि ये किस दावे के साथ संलग्न है। वरना दावा आगे नहीं बढ़ेगा। अब 93 बेशकीमती कागज और नत्थी होंगे। फाइल चार गुना मोटी हो जाएगी। क्या हाल होगा मुकदमे का? कितने पेड़ काटे जाएँगे?
चक्कर यह है कि स्टाम्प कहीं छपते हैं। फिर राज्य सरकार उन्हें खरीदती है। फिर जिला कोषागारों को भेजती है। जहाँ से स्टाम्प वेण्डर इन्हें खरीदते हैं। स्टाम्प वेंडर क्या करें जिला कोषागार में ही स्टाम्प उपलब्ध नहीं है। तेलगी पता नहीं किस जेल में सश्रम कारावास काट रहा है? उस से स्टाम्प के छापाखाने और देश भर में वितरण का काम इस जेल श्रम के बदले करवाया लिया जाए तो सरकार और देश को घाटा नहीं होगा। कम से कम नौकरशाहों से तो अच्छा ही प्रबंधन वह कर सकता है। इन से घटिया तो वह शर्तिया ही नहीं होगा। जनता को भी राहत मिलेगी और जजों को भी। फाइलें भारी नहीं होंगी और पेड़ भी कम काटे जाएंगे।
कुछ दिन पहले एक दावा पेश किया था। मात्र ढाई लाख रुपए की वसूली का था। कोर्ट फीस अर्थात न्याय शुल्क के लिए स्टाम्प चाहिए थे, कुल रुपए 12, 115 रुपयों के। पाँच-पाँच हजार के दो स्टाम्प मिले और शेष 2515 के लिए 75 रुपए के 33 स्टाम्प और चालीस रुपए के चिपकाने वाले टिकट लगाकर 12, 115 रुपयों का सेट बनाया गया। कुल 35 स्टाम्प पेपर हुए। इन में से दावा टाइप हुआ केवल चार पेज पर शेष 31 पेपर पर लिखना पड़ा कि यह कोर्टफीस स्टाम्प फलाँ दावे के साथ संलग्न है।
एक स्टाम्प पेपर का कागज कम से कम एक रुपए का जरूर होगा। इस से अधिक का भी हो सकता है। उस पर उस की तकनीकी छपाई। वह भी कम से कम एक-दो रुपए की और होगी। इस तरह एक पेपर पर तीन रुपए का खर्च। 31 स्टाम्प बेकार हुए यानी 100 रुपए पानी में गए। 31 स्टाम्पों पर इबारत लिखने में श्रम हुआ वह अलग। इस से फाइल मोटी हो गई। उस के रख रखाव के लिए अदालत को अधिक जगह चाहिए। उठाने रखने में अधिक श्रम होगा वह अलग। फाइल की मोटाई देख कर जज डरेगा कि न जाने क्या होगा इस फाइल में ? तो अदालत में मुकदमों की इफरात के इस युग में फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा। मुकदमे के निपटारे में देरी लगेगी सो अलग। अगर हजार रुपए वाले और पाँच सौ रुपए के तो स्टाम्प होते केवल पाँच। 29 बेशकीमती कागज बचते। उन्हें बनाने के लिए काटे जाने वाला एक आध पेड़ बचता।
राजस्थान सरकार ने कोर्टफीस बढ़ा दी। पता लगा 4640 रुपए के कोर्टफीस स्टाम्प और लगाने होंगे। खरीदने गए तो पता लगा पाँच हजार से नीचे केवल पचास रूपए का स्टाम्प उपब्ध है। 4640 रुपयों के लिए गिनती में आएंगे कम से कम 93 स्टाम्प। इन सब पर लिखना पड़ेगा कि ये किस दावे के साथ संलग्न है। वरना दावा आगे नहीं बढ़ेगा। अब 93 बेशकीमती कागज और नत्थी होंगे। फाइल चार गुना मोटी हो जाएगी। क्या हाल होगा मुकदमे का? कितने पेड़ काटे जाएँगे?
चक्कर यह है कि स्टाम्प कहीं छपते हैं। फिर राज्य सरकार उन्हें खरीदती है। फिर जिला कोषागारों को भेजती है। जहाँ से स्टाम्प वेण्डर इन्हें खरीदते हैं। स्टाम्प वेंडर क्या करें जिला कोषागार में ही स्टाम्प उपलब्ध नहीं है। तेलगी पता नहीं किस जेल में सश्रम कारावास काट रहा है? उस से स्टाम्प के छापाखाने और देश भर में वितरण का काम इस जेल श्रम के बदले करवाया लिया जाए तो सरकार और देश को घाटा नहीं होगा। कम से कम नौकरशाहों से तो अच्छा ही प्रबंधन वह कर सकता है। इन से घटिया तो वह शर्तिया ही नहीं होगा। जनता को भी राहत मिलेगी और जजों को भी। फाइलें भारी नहीं होंगी और पेड़ भी कम काटे जाएंगे।
रविवार, 14 दिसंबर 2008
कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन
शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ? और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।
हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।
उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।
वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।
माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।
शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।
हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।
उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।
वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।
माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।
शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।
शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008
हो जाती जय सिया राम
आप सभी ने महेन्द्र 'नेह' की कवितओं और गीतों का रसास्वादन किया है। आज पढ़िए उन का एक सुरीला व्यंग्य लेख ......
'व्यंग्य - लेख'
हो जाती जय सिया राम * महेद्र नेह
कहते हैं जिसका सारथी यानी ड्राइवर अच्छा हो, आधा युद्ध तो वह पहले ही जीत जाता है। लेकिन अपने भाई साब जी की राय इस मामले में बिलकुल भिन्न है। ये डिराइवर नाम का जीव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। चूँकि इस मृत्युलोक में डिराइवर के बिना काम चल ही नहीं सकता, अत: यह उनकी मजबूरी है। दरअसल वे छाछ के जले हुए हैं, अत: दूध को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।
अपनी आधी सदी की जिंदगी में भाई साब जी को डिराइवरों को लेकर कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। डिराइवरों के बारे में अपने अनुभव सुनाते हुए वे कहते हैं- भर्ती होकर आयेंगे तो मानों साक्षात राम भक्त हनुमान धरती पर उतर आये हों। सारी जिम्मेदारियाँ और मुसीबतें अपने सर ले लेंगे। अरे भाई, तुम्हारा काम है- कार चलाना। स्टीरिंग को ढंग से सम्भालो और कार को झमाझम रखो। बाकी चीजों से तुम्हें क्या लेना देना। मगर नहीं। भाई साब जी जूता पहनने बढ़े तो जूते, मफलर पहनना हो तो मफलर, टोपी तो टोपी। गले से मालाएँ उतारनी हों तो उसमें भी सबसे आगे। कोई जरा जोर से बोले तो बाँहें चढ़ाने लग जायेंगे।
आप अपने भाई-बन्दों से, बाल-बच्चों से, धर्म पत्नी से, यहाँ तक कि पी.ए. से भी बहुत सी चीजें छुपा सकते हैं, मगर डिराइवर से तो कुछ भी छुपाना मुश्किल है। अपनी सीट पर बैठा-बैठा सब कुछ गुटकता रहेगा। अन्दर की, बाहर की, उपर की, नीचे की सारी बातें हजम कर जायेगा। कान और आंखें एकदम ऑडियो-वीडियो की तरह काम करती है। ढोल में कुछ पोल बचती ही नहीं है।
और ढोल की ये पोल, अगर पब्लिक को मालूम पड़ जाये तो समझ लो हो गया बेड़ा गरक। भाई साब जी ने कितने जतन से ये कार-बँगले-खेत-प्लाट-पेट्रोल पम्प-होटल और कारखाने खड़े किये हैं। साथ ही कितनी होशियारी से अपनी जन सेवक की इमेज भी कायम रखी है। यदि इसकी कलई खुल जाय, तो बंटाढार ही समझो। सारा शहर जानता है, भाई साब जी के घर की स्थिति शरणार्थियों से भी गई बीती थी। मगर चौदह साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। उनके दिन फिर गये तो न जाने क्यों लोग-बाग अन्दर ही अन्दर जलते-सुलगते रहते हैं?
अरे भाई, यदि धन-दौलत आयेगी तो उसका उपभोग भी होगा। जब आज के जमाने के सन्त-महात्मा ही पुराने जमाने के साधु-सन्तों जैसे नहीं रहे तो आखिर वे तो गृहस्थ ठहरे। इस आधुनिक युग में सब कुछ होते हुए भी, कोई माई का लाल चौबीसों घन्टे खद्दर के कपड़े पहन के तो दिखा दे। अरे, उस दिन साध्वी जी के अनुरोध पर उन्होंने स्वीमिंग सूट पहन लिया और उनके साथ स्वीमिंग-पूल के निर्मल जल में दो चार गोते लगा भी लिये तो कौन सा बड़ा भारी अनर्थ हो गया? बड़े मंत्री जी तो नित्य ही बिना नागा बोतल पर बोतल साफ कर देते हैं। उन्होंने उस दिन दो-चार पैग चढ़ा लिये तो कौन सी किसी की भैंस मार दी?
उस सुसरे छदम्मी लाल डिराइवर की हिम्मत तो देखो। पहले तो बिना पूछे स्वीमिंग-पूल के अन्दर घुसा क्यों? और फिर अगर घुस भी गया तो उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह अपने दीदों को चौड़ाने की क्या जरूरत थी? पत्रकार जी आये थे हमारा इंटरव्यू लेने के लिए, महाराजाधिराज जी खुद ही उसे इंटरव्यू देने लग गये- ""भाई साब जी ये कर रहे थे, भाई साब जी वो कर रहे थे...'' बच्चू को यह नहीं मालूम कि पत्रकार जी तो रहे हमारे पुराने लंगोटिया और हमारी संस्कारवान पार्टी के खास कार्यकर्ता। हाँ, उनकी जगह उस दिन कोई और होता तो समझ लो उसी दिन हो जाती अपनी जय सिया राम...।
गुरुवार, 11 दिसंबर 2008
नागनाथ, साँपनाथ या अजगरनाथ : 'कोउ नृप होय हमें का हानि'
एक टिप्पणी चर्चा
राजस्थान चुनाव के नतीजे और मेरी संक्षिप्त टिप्पणी पर बहुमूल्य विचार प्रकट हुए। ताऊ रामपुरिया तीसरे विकल्प के बारे में निराश दिखाई दिए उन्हें जनतंत्र के ही किसी कलपुर्जे में खोट दिखाई दिया-
"अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा ( सांपनाथ ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है !"
डा. अमर कुमार ने कहा क्या फर्क पड़ता है?
"दद्दू, औकात बतायी हो या ना बतायी हो..
हम तो उसी विचारधारा के हैं..
'होईहें कोऊ नृप हमें का हानि.. "
सुरेश चिपलूनकर ने जातिवाद को अंतिम सत्य मानते हुए शिक्षा को उस के मुकाबले कमजोर अस्त्र माना-
"ताऊ, प्रजातंत्र में बेसिक कमी नहीं है, बेसिक कमी तो लोगों में ही है, यदि वसुन्धरा गुर्जरों-मीणाओं के दो पाटन के बीच न फ़ँसी होती तो तस्वीर कुछ और भी हो सकती थी, लेकिन भारत में "जातिवाद" हमेशा सभी बातों पर भारी पड़ता रहा है, चाहे हम कितने ही शिक्षित हो जायें…"
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, ने ताऊ की टिप्पणी पर सहमति प्रकट करते हुए अपनी सांख्यिकी से उन के प्रमेय को सिद्ध करने का प्रयत्न किया-
"अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा (सांपनाथ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है ! ताऊजी की उक्त टिप्पणी से सहमत। सौ लोगों में से १२ लोगों का समर्थन (वोट) पाने वाला कुर्सी पा जाता है क्यों कि शेष ८८ में से ५० लोग वोट डालने गये ही नहीं, ५-६ के वोट दूसरों ने डाल दिए, और बाकी ३०-३२ के वोट दूसरे दर्जन भर उम्मीदवारों ने अपनी जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र बताकर या दारू पिलाकर बाँट लिए। यही हमारे देसी प्रजातन्त्र का हाल है।"
विष्णु बैरागी ने पते की बात की कि नागरिक की जिम्मेदारी केवल मतदान तक सीमित नहीं उन्हें चौबीसों घण्टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहने को चेताया-
. "वह सत्ता ही क्या जो पदान्ध-मदान्ध न करे ? सो, कुर्सी में धंसते ही सबसे पहले तो कांग्रेसी अपनी पुरानी गलतियां भूलेंगे । वे तो यह मानकर चल रहे होंगे कि नागरिकों ने प्रायश्चित किया है और वे (कांग्रेसी) सरकार में बैठकर नागरिकों पर उपकार कर रहे हैं । वस्तुत: 'लोक' को चौबीसों घण्टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहना होगा, अपने नेताओं को नियन्त्रित किए रखना होगा और नेताओं को याद दिलाते रहना होगा कि वे 'लोक-सेवक' हैं 'शासक' नहीं । वे 'लोक' के लिए हैं, 'लोक' उनके लिए नहीं । लोकतन्त्र की जिम्मेदारी मतदान के तत्काल बाद समाप्त नहीं होती । वह तो 'अनवरत' निभानी पडती है । ऐसा न करने का दुष्परिणाम हम भोग ही रहे हैं - हमारे नेताओं का उच्छृंखल व्यवहार हमारी उदासीनता का ही परिणाम है।"
मेरी बात
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। बकौल बैरागी जी बात आगे चलती है। भले ही मतदान कर कुछ लोगों ने कर्तव्य की इति श्री कर ली हो और परिणामों का विश्लेषण करने में जुट गए हों। बहुत लोग हैं जो बिना किसी राजनीतिबाजी के अभी से कमर कस लिए हैं कि नई सरकारों को उन के कर्तव्य स्मंरण कराते रहना है। ये वे लोग हैं जो शायद इस चुनाव अभियान में कहीं नजर नहीं आए हों। लेकिन वे लगातार जनता के बीच काम भी कर रहे थे, उन में चेतना जगाने के लिए। भले ही ताऊ और त्रिपाठी जनतंत्र के नतीजों के प्रति आश्वस्त हों कि उन से नागनाथ और सांपनाथ के स्थान पर कुछ और निकला तो वह अजगरनाथ ही निकलेगा। सुरेश चिपलूनकर जी ने लाइलाज जातिवाद को उस का प्रमुख कारण बताया। डॉक्टर अमर कुमार कहते हैं 'कोई नृप होय हमें का हानि', हम तो बकरे हैं ईद के पन्द्रह दिन पहले हम मंडी में बिके, खरीददार ने हमें सजाया संवारा और ईद आते ही ज़िबह कर दिया। यहाँ वे हानि के स्थान पर लाभ लिखते तो भी उतना ही सटीक होता जितना मानस में है।
तीसरे विकल्प के प्रति नैराश्य अवश्य ही राजनीतिकअवसाद का प्राकट्य है। यदि इस तंत्र से नागनाथ, सांपनाथ और अजगरनाथ के अलावा कुछ भी नहीं उपजना है तो इस तंत्र को ठीक करने या विस्थापित करने की तरफ आगे बढ़ने का विचार आना चाहिए नैराश्य नहीं। मनुष्य एक जमाने में वनोपज का संग्राहक ही था। वहाँ से वह कुछ वर्षों की आवश्यकता के खाद्य संग्रहण की अवस्था तक पहुँचा है। उस ने धरती के संपूर्ण व्यास को नापा है। और अपने कदम चाँद पर धरे हैं। अपनी निगाहों को लंबा कर मंगल की सतह पर और सौर मंड़ल के आखरी छोर तक पहुँचाया है। मानव में असंख्य संभावनाएँ हैं इस लिए नैराश्य का तो उस के जीवन में कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए।
यह सही है कि तीसरा विकल्प वोट की मशीन से नहीं आएगा। इन वोट लेने और वोटर को भूल जाने वाले दलों की रेसीपियों से भी नहीं निकलेगा। उसे निकालने के लिए तो जनता को कुछ करना होगा। वोटर जब तक अकेला बना रहेगा कुछ न होगा, वह अकेली लकडी़ की तरह तोड़ा जा कर भट्टी में झोंका जाता रहेगा। वोटर को लकड़ियों का गट्ठर बनना होगा। हमें तंत्र के तिलिस्म को तोड़ना होगा। तंत्र ने वोटरों के कोटर बनाए हैं। आप ने वोटर लिस्टें देखी होंगी। वे न भी देखी हों तो किसी उम्मीदवार की पर्चियाँ आप के घर जरूर आयी होंगी। उन्हें एक बार निहार लें। उन पर भाग संख्या लिखा होता है। हर मतदान केन्द्र में लगभग दो हजार लोगों की लिस्ट होती है वही एक भाग कहलाता है। आप जिस भाग में रहते हैं उस को पहचान लीजिए। कोशिश कीजिए कि इस भाग के मतदाताओं से पहचान कर लें। उन सभी मतदाताओं से स्थानीय समस्याओं के प्रति जागरूक होने बात करिए। यदि हम एक भाग के मतदाताओं की एक जुटता बनाने में सफल हो जाएँ और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ( एमपी, एमएलए, पार्षद, पंच) के सामने उसे दिखा सकें तो आप समझ लें कि आप जनतंत्र को आगे बढ़ाने में सफल हो सकते हैं। आप चाहे कुछ भी कहें। जनप्रतिनिधि एक-एक वोटर की परवाह नहीं करते लेकिन वे वोटरों के गट्ठरों से अवश्य ही भय खाते हैं।
सोमवार, 8 दिसंबर 2008
राजस्थान चुनाव के सभी नतीजे, जनता ने सबको उन की औकात बताई,
आखिर विधानसभा के चुनाव हो लिए। मैं राजस्थान के नतीजों से बहुत खुश हूँ। हमें महारानी के राज से मुक्ति मिली। अहंकार हमेशा डूबता है। यह भी अच्छा हुआ कि कांग्रेस को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। कम से कम पिछली बार जैसी काम करने की अकड़ तो पैदा नहीं होगी।
पिछली बार राजस्थान में काँग्रेस के हारने की सिर्फ एक वजह रही थी कि उस सरकार ने राज्य कर्मचारियों को कुछ ज्यादा ही रगड़ दिया था। जिस का असर उन के परिवारों पर था। उन्हों ने काँग्रेस को रगड़ दिया। इस बार दोनों को ही उन की औकात जनता ने बता दी।
इन चुनाव नतीजों ने बता दिया है कि दोनों ही दल उन्हें कोई खास पंसद नहीं। दोनों में कोई खास अंतर भी नहीं। यदि उन के पास विकल्प होता तो जरूर वे तीसरे को चुनते। जहाँ उन्हें विकल्प मिला उन्हों ने उसे चुना भी। इस चुनाव में पार्टियाँ गौण हो गय़ीं और चुनाव अच्छे और बुरे, या बुरे और कम बुरे उम्मीदवारों के बीच हुआ। जवानों को अधिक तरजीह प्राप्त हुई।
राजस्थान में ये नतीजे दोनों प्रमुख दलों के लिए भविष्य की चेतावनी हैं। ये नतीजे विकल्प बनने वाले दलों के लिए भी चेतावनी हैं। यदि वे जनता के बीच काम करेंगे और उस के साथ चलेंगे तो उन्हें तरजीह मिलेगी अन्यथा उन के लिए कोई स्थान नहीं है।
राजस्थान के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के नतीजे इस प्रकार रहे .....
पिछली बार राजस्थान में काँग्रेस के हारने की सिर्फ एक वजह रही थी कि उस सरकार ने राज्य कर्मचारियों को कुछ ज्यादा ही रगड़ दिया था। जिस का असर उन के परिवारों पर था। उन्हों ने काँग्रेस को रगड़ दिया। इस बार दोनों को ही उन की औकात जनता ने बता दी।
इन चुनाव नतीजों ने बता दिया है कि दोनों ही दल उन्हें कोई खास पंसद नहीं। दोनों में कोई खास अंतर भी नहीं। यदि उन के पास विकल्प होता तो जरूर वे तीसरे को चुनते। जहाँ उन्हें विकल्प मिला उन्हों ने उसे चुना भी। इस चुनाव में पार्टियाँ गौण हो गय़ीं और चुनाव अच्छे और बुरे, या बुरे और कम बुरे उम्मीदवारों के बीच हुआ। जवानों को अधिक तरजीह प्राप्त हुई।
राजस्थान में ये नतीजे दोनों प्रमुख दलों के लिए भविष्य की चेतावनी हैं। ये नतीजे विकल्प बनने वाले दलों के लिए भी चेतावनी हैं। यदि वे जनता के बीच काम करेंगे और उस के साथ चलेंगे तो उन्हें तरजीह मिलेगी अन्यथा उन के लिए कोई स्थान नहीं है।
राजस्थान के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के नतीजे इस प्रकार रहे .....
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