मंगलवार, 2 दिसंबर 2008
साथ, सहारा : तीन दृश्य
दोपहर दो बजे, हम चाय पीकर पान की दुकान पर पहुँचे थे। मैं पान वाले को पान बनाते हुए देख रहा था। पान देतो हुए उस ने हमारे एक साथी को छेड़ा। उधर क्या आँख सेक रहे हैं? पान लो। मैं ने मुड़ कर देखा तो सभी सड़क पर जा रहे एक नौजवान जोड़े की ओर देख रहे थे। नौजवान ने अपनी साथी का हाथ पकड़ा था और दोनों तेजी से चौराहा पार कर उस तरफ जा रहे थे जहाँ उन्हें ऑटो रिक्षा मिल सकता था। उन्हें देखते हुए मेरी नजर एक दूसरे ही दृश्य पर पड़ गई और मैं उसी और निहारता रह गया।
एक पचपन की उम्र की महिला एक पाँच वर्ष के बच्चे का हाथ पकड़े होटल के गेट के बाहर खड़ी थी। शायद बच्चा उसे अंदर ले जाना चाहता था और वह उसे रोक रही थी। बच्चा जाना चाहता था। फिर वे दोनों होटल की सीमा में प्रवेश कर ओझल हो गए। मैं ,सोचता हुआ उसी ओर शून्य में देखता रहा। तभी एक साथी ने मुझे टोका, -अब वहाँ हवा में क्या देखने लगे?
मैं ने जो देखा था वह उन्हें बताया, और कहा -मैं सोच रहा हूँ कि, सब के सामने होते हुए भी वह दृश्य केवल मैं ही क्यों देख पाया? और क्यों नहीं देख पाए?
तभी वह महिला और बच्चा होटल के बाहर वापस आ गया। शायद बच्चे ने किसी वस्तु को, शायद फूलों को देखा था और उन्हें लेने की जिद कर रहा था। शायद होटल का चौकीदार यह सब समझा और उस ने बच्चे को वह लेने दिया।
मेरे एक साथी ने कहा -जवान स्त्री-पुरुष का सार्वजनिक साथ सब की निगाहों में आता है।
हम ने पान लिए और वापस चल दिए। पीछे देखा तो दो बुजुर्ग वकील होटल से बाहर आ रहे थे, उन में से एक को फालिज़ का शिकार हो जाने से चलने में परेशानी थी, दूसरे उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा दे रहे थे।
मैं ने अपने साथियों को एक यह दृश्य भी दिखाया।
मैं ने उन्हें कहा -इन तीनों दृश्यों में कुछ बातें समान थीं। एक दूसरे के हाथों का पकड़े होना और सहारा या संरक्षण।
आप ऐसे अनेक दृश्य मानव जीवन में ही नहीं जन्तु और पादप, समस्त जीव जगत में, और निर्जीव जगत में भी देख सकते हैं। उन दृश्यों में अनेक समानताएँ भी खोजी जा सकती हैं। पर लोगों की निगाहें केवल कुछ ही चीजों को अधिक क्यों देखती हैं?
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सोमवार, 1 दिसंबर 2008
चलो कुछ काम किया जाए
वक्त जैसा है, सब को पता है
उस के लिए क्या कहा जाए।
न होगा कुछ सिर्फ सोचने से
चलो कुछ काम किया जाए।।
इस वक्त में पढ़िए पुरुषोत्तम 'यकीन' की एक ग़ज़ल ...
'ग़ज़ल'
क्या हुए आज वो अहसासात यारो
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
क्या कहें आप से दिल की बात यारो
अपने ही करते हैं अक्सर घात यारो
पस्तहिम्मत न हो कर बैठो अभी से
और भी सख़्त है आगे रात यारो
साथ बरसातियाँ भी ले लो, ख़बर है
हो रही है वहाँ तो बरसात यारो
चोट मुझ को लगे, होता था तुम्हें दुख
क्या हुए आज वो अहसासात यारो
चाल है हर ‘यक़ीन’ उन की शातिराना
फिर हमीं पर न हो जाये मात यारो
*****************
रविवार, 30 नवंबर 2008
कहाँ तक गिरेगी राजनीति?
राजस्थान में 4 दिसम्बर को विधानसभा के लिए मतदान होगा। मेरे शहर कोटा में दो पूरे तथा एक आधा विधानसभा क्षेत्र है जो कुछ ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ कर पूरा होता है। वैसे तो इस इलाके को बीजेपी का गढ. कहा जाता है। लेकिन इस बार कुछ अलग ही नजारा है।
मेरे स्वयं के विधानसभा क्षेत्र से और एक अन्य विधानसभा क्षेत्र से राजस्थान के दो वर्तमान संसदीय सचिव बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों को संघर्ष करना पड़ रहा है। संघर्ष का मूल कारण उन दोनों का जनता और कार्यकर्ताओँ के साथ अलगाव और एक अहंकारी छवि का निर्माण कर लेना है।
कुछ दिन पहले मुझे दो अलग अलग लोगों के टेलीफोन मिले। दोनों ही बीजेपी के सुदृढ़ समर्थक हैं। दोनों ने ही बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की अपील मुझे की। कारण पूछने पर उन्हों ने बताया कि भाई साहब इन दोनों ने राजनीति को अपनी घरेलू दुकानें बना लिया है, ये दुकानें बन्द होनी ही चाहिए। इस का अर्थ यह है कि बीजेपी की घरेलू लडाई को जनता तक पहुँचा दिया गया है।
चुनाव ने नैतिकता को इतना गिरा दिया है कि एक घोषित संत मेरे विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ब्राह्मणों से उन्हें वोट देने की अपील की जा रही है। कल तो हद हो गई कि बीजेपी के अनेक पदाधिकारी पार्टी से त्यागपत्र दे कर संत जी के पक्ष में खड़े हो गए। अपनी लुटिया को डूबते देख कल ही एक तथाकथिक संत ने बीजेपी उम्मीदवार का अपने ठिकाने पर स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि संसदीय सचिव भले ही बनिए हैं लेकिन इन की पत्नी तो ब्राह्मण है इस लिए सभी ब्राह्मणों को इन्हें ही वोट देना चाहिए। मैं ने चुनावी राजनीति के इतना गिर जाने की उम्मीद तक नहीं की थी।
मेरे स्वयं के विधानसभा क्षेत्र से और एक अन्य विधानसभा क्षेत्र से राजस्थान के दो वर्तमान संसदीय सचिव बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों को संघर्ष करना पड़ रहा है। संघर्ष का मूल कारण उन दोनों का जनता और कार्यकर्ताओँ के साथ अलगाव और एक अहंकारी छवि का निर्माण कर लेना है।
कुछ दिन पहले मुझे दो अलग अलग लोगों के टेलीफोन मिले। दोनों ही बीजेपी के सुदृढ़ समर्थक हैं। दोनों ने ही बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की अपील मुझे की। कारण पूछने पर उन्हों ने बताया कि भाई साहब इन दोनों ने राजनीति को अपनी घरेलू दुकानें बना लिया है, ये दुकानें बन्द होनी ही चाहिए। इस का अर्थ यह है कि बीजेपी की घरेलू लडाई को जनता तक पहुँचा दिया गया है।
चुनाव ने नैतिकता को इतना गिरा दिया है कि एक घोषित संत मेरे विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ब्राह्मणों से उन्हें वोट देने की अपील की जा रही है। कल तो हद हो गई कि बीजेपी के अनेक पदाधिकारी पार्टी से त्यागपत्र दे कर संत जी के पक्ष में खड़े हो गए। अपनी लुटिया को डूबते देख कल ही एक तथाकथिक संत ने बीजेपी उम्मीदवार का अपने ठिकाने पर स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि संसदीय सचिव भले ही बनिए हैं लेकिन इन की पत्नी तो ब्राह्मण है इस लिए सभी ब्राह्मणों को इन्हें ही वोट देना चाहिए। मैं ने चुनावी राजनीति के इतना गिर जाने की उम्मीद तक नहीं की थी।
शनिवार, 29 नवंबर 2008
आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार
कल 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' पर मैं ने अपनी एक अपील 'यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं' प्रस्तुत की थी। अनेक साथियों ने उस अपील को उचित पाते हुए अपने ब्लाग पर और अन्यत्र जहाँ भी आवश्यक समझा उसे चस्पा किया। उन सभी का आभार कि देश-जागरण के इस काम में उन्हों ने सचेत हो कर योगदान किया।
कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार
अब तो शर्म करो
अपनों के कातिलों को
कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला
फिर मारा गया वह
अपना कर्तव्य करते हुए,
अब तो शर्म करो!
दरारें और पैबंद
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है
जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख
यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।
आँख न तरेरे
किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे।
कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।
अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय
न हिन्दू, न मुसलमां
न ईसाई
मजबूत बनें
सतर्क रहें
कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।
बदलना शुरू करें
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!
युद्धरत
वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर
ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का
आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें
कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।
ईश्वर का कत्ल
- दिनेशराय द्विवेदी
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार
अब तो शर्म करो
- दिनेशराय द्विवेदी
अपनों के कातिलों को
कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला
फिर मारा गया वह
अपना कर्तव्य करते हुए,
अब तो शर्म करो!
दरारें और पैबंद
- दिनेशराय द्विवेदी
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है
जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख
यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।
आँख न तरेरे
- दिनेशराय द्विवेदी
किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे।
कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।
अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय
न हिन्दू, न मुसलमां
न ईसाई
मजबूत बनें
सतर्क रहें
कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।
बदलना शुरू करें
- दिनेशराय द्विवेदी
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!
युद्धरत
- दिनेशराय द्विवेदी
वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर
ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का
आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें
गुरुवार, 27 नवंबर 2008
यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं
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यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं
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यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।
जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।
यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।
युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।
हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।
एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।
याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।
इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।
चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।
++++++++++++++++++++++++++++++
बुधवार, 26 नवंबर 2008
सब से छोटी बहर की ग़ज़ल
कुछ दिन पहले मैं ने अपने दोस्त पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की छोटी बहर की दो ग़ज़लें पेश की थीं। तब मुझे कतई ये गुमान न था कि उन में से एक दुनिया भर में इकलौती सबसे छोटी बहर की ग़ज़ल भी है। पिछले दिनों जब वे अपने भतीजे की शादी में मिले तो उन से अनवरत पर प्रकाशित इस ग़ज़ल का जिक्र किया तो उन्हों ने बताया कि किसी शायर की एक सात मात्राओं की ग़ज़ल दुनिया की सब से छोटी ग़ज़ल के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस् में दर्ज है। उन की यह ग़ज़ल सिर्फ पाँच मात्राओं की है।
आइए उन की इस ग़ज़ल को उन्हीं की एक और छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ फिर से पढ़ने का आनंद प्राप्त करें .....
और ...
आइए उन की इस ग़ज़ल को उन्हीं की एक और छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ फिर से पढ़ने का आनंद प्राप्त करें .....
आ गए किस मुक़ाम पर
........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर
शाम जाम पर
इश्क़ में जला
हुस्न बाम पर
दिल फिसल गया
‘मीम’ ‘लाम’ पर
रिन्द पिल पड़े
एक जाम पर
ग़ारतें मचीं
राम-नाम पर
आ गए ‘यक़ीन’
किस मुक़ाम पर
शाम जाम पर
इश्क़ में जला
हुस्न बाम पर
दिल फिसल गया
‘मीम’ ‘लाम’ पर
रिन्द पिल पड़े
एक जाम पर
ग़ारतें मचीं
राम-नाम पर
आ गए ‘यक़ीन’
किस मुक़ाम पर
और ...
दुनिया की सब से छोटी बहर की ग़ज़ल
हम चले
..........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
हम चले
कम चले
आए तुम
ग़म चले
तुम रहो
दम चले
तुम में हम
रम चले
हर तरफ़
बम चले
अब हवा
नम चले
लो ‘यक़ीन’
हम चले
हम चले
कम चले
आए तुम
ग़म चले
तुम रहो
दम चले
तुम में हम
रम चले
हर तरफ़
बम चले
अब हवा
नम चले
लो ‘यक़ीन’
हम चले
*******************************
मंगलवार, 25 नवंबर 2008
सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।
अनवरत के आलेख पर एक टिप्पणी आई .....
आज तक जैसे लोग चुनकर आए और जिस तरह आए, उससे तो यही मानना पड़ता है कि जनता पागल नहीं तो कम से कम बेवकूफ ज़रूर है। वरना क्यों कोई सडांध और बीमारी के बीच रहना चाहेगा? वह भी तब जब सारे काम ईमानदारी से करवाने का ब्रह्मास्त्र जनता के ही हाथ में हो?
इस टिप्पणी से सहमति की बात तो कोसों दूर है, इस ने मेरा दिल गहरे तक दुखाया। ऐसा नहीं है कि यह वाक्य पहली बार जेहन में पड़ा हो। रोज, हाँ लगभग रोज ही कोई न कोई यह बात मेरे कान में डाल देता है। लेकिन या तो उसे लोगों की नासमझी समझ कर छोड़ देता हूँ। ऐसी ही बात कोई सुधी कहता है तो पता लगता है, हम ने ही उसे गलत समझा था। उसे अभी सुध आने में वक्त लगेगा।
उन मित्र का नाम मुझे पता नहीं, वे बनावटी नाम से ही ब्लॉग जगत में उपस्थित हैं। पहचान छुपाने के पीछे उन की जरूर कोई न कोई विवशता रही होगी। मुझे उन का नाम जान ने में भी कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मुझे जीवन में जब जब भी लगा कि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाना चाहता है तो मैं ने उसे जान ने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जान भी लूँ तो उस से हासिल क्या? जब कभी मुझे लगा कि मैं कहीं अवाँछित हूँ, तो मैं वहाँ से हट गया। बहुत ब्लॉग हैं जहाँ लगा कि मैं टिप्पणीकार के रूप में अवांछित हूँ तो मैं ने वहाँ जाना बन्द कर दिया। आखिर हर किसी को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार है। मैं हर किसी कि निजता की रक्षा का हामी हूँ, सिर्फ अपनी खुद की निजता के सिवा।
मुझे संदर्भित टिप्पणीकार की समझ से भी कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जनता एक समष्टि है, उस के प्रति तनिक भी असम्मान मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाया। मुझे लगता है जैसे मेरे ईश्वर का अपमान कर दिया गया है। लगता है जैसे मेरी अपनी भावनाएँ किसी ने चीर दी हैं।
आखिर यह जनता क्या है?
जी, जनता में मैं हूँ, आप हैं, सारे ब्लागर हैं, सारे टिप्पणीकार हैं, सारे पाठक हैं।
जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।
जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं।
कुदरत ने इन्सान को दिमाग दिया, कि वह कुछ सोचे, कुछ समझे और फिर फैसले करे। मैं भी ऐसा ही करता हूँ। लेकिन कभी मेरा इन्सान फंस जाता है। दिमाग काम करने से इन्कार कर देता है। तब मेरे पास एक ही रास्ता बचता है, जनता के पास जाऊँ। मैं जाता हूँ। वह मुझे बहुत प्रेम करती है। मुझे समझती है। वह प्यार से मुझे बिठाती है, थपथपाती है, मुझे आराम मिलता है, वह फिर से सोचना सिखाती है। जब फूल मुऱझा कर गिरने को होता है तो वह उसे फिर से जीवन देती है। जब अंधेरा छा जाता है, तो वही मार्ग दिखाती है। वह मुझे प्राण देती है, मैं जी उठता हूँ।
पश्चिम से ले कर पूरब तक सब परेशान हैं, मंदी का जलजला है, बड़े बड़े किले गिर रहे हैं, प्राचीरें ढह रही हैं, लोग उन के मलबे के नीचे दबे कराह रहे हैं, कुछ उन के नीचे दफ्न हो गए हैं कभी वापस न लौटने के लिए। हर कोई कांप रहा है। फिर भी विश्वास व्यक्त किया जाता है -यह तूफान निकल जाएगा, जितना नुकसान करना है कर लेगा। लेकिन दुनिया फिर से चमन होगी, बहारें लौटेंगी। फिर से खिलखिलाहटें और ठहाके गूंजेंगे। लेकिन इस आस-विश्वास का आधार क्या है?
वही जनता न? वह फिर से कुछ करेगी, और खरीददारी के लिए बाजार आएगी।
1975 से 1977 तक देश एक जेलखाना था। नेता बंद थे और जनता भी। जेलखाने से पिट कर निकले तो उत्तर-दक्षिण, पूरब-पच्छिम एक साथ हो लिए। उन्हें कतई विश्वास नहीं था कि कुछ कर पाएँगे। वह जनता ही थी जिसने एक तानाशाह के सारे कस-बल निकाल दिए और उन्हें सब-कुछ बना दिया। लेकिन जब पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण जनता को मूर्ख मान फिर से अपनी ढपली अपना राग गाने लगे, तो उसी ने उन्हें ठिकाने लगा दिया। बताया कि तुम से तो कस-बल निकला तानाशाह अच्छा।
वह चाहती तो न थी, कि तानाशाह वापस आए, चाहे उस के कस-बल निकल ही क्यों न गए हों। पर विकल्प कहाँ था? विकल्प आज भी कहाँ है? इधर कुआँ है उधर खाई है। दोनों में से एक को चुनना है। क्या करे? वह स्तंभित खड़ी है, एक ही स्थान पर। जिधर से झोंका आता है, बैलेंस बनाने को उसी ओर हो जाती है। यही एक मार्ग है उस के पास, जब तक कि खाई न पटे, या कुंएँ के पार जाने की कोई जुगत न लग जाए। जिस दिन जुगत लग जाएगी, उस दिन दिखा देगी कि वह क्या है?
सच कहूँ, मेरे लिए, जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
कैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
तो मूरख कौन?
सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।
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