@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 14 सितंबर 2008

अगले बरस तू जल्दी आ ...


आज गणपति को विदा किया जा रहा है। अगले बरस जल्दी आने की प्रार्थना के साथ। वे हमारी समृद्धि की कामना के संपूर्ण प्रतीक हैं, दुनियाँ के पहले कार्टून नहीं। न ही उन की किसी ने कल्पना की है। वे हमारे इतिहास की धरोहर हैं, इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज भी।

मैं ने पिछले आलेख में संक्षेप में बताने की कोशिश की थी कि शिकार के आयुध धारण कर वे मानव की शिकारी अवस्था को प्रदर्शित करते हैं। उन के आयुध भी एक हाथी पर नियंत्रण के आयुध हैं। जंगल के विशालतम और बलशाली जन्तु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना, एक तरह से जंगल के समस्त जन्तु जगत पर विजय प्राप्त कर लेने के समान था। यह मानव विकास के एक महत्वपूर्ण चरण पशुपालन की चरमावस्था को भी प्रदर्शित करता है। इन दोनों अवस्थाओं में सामाजिक संगठन में पुरुष की प्रधानता रही। क्यों कि समूह के पालन के लिए पुरुष की भूमिका प्रधान थी। लेकिन इन अवस्थाओं में स्त्रियाँ फलों, वनोपज और ईंधन के संग्रह का काम करती रहीं। यहीं निरीक्षण और पर्यवेक्षण से उन की मेधा को विकसित होने का अवसर मिला। उन्होंने आवश्यक वन-उत्पादों के लिए जंगल में दूर तक की संकटपूर्ण यात्राओं के विकल्प के रूप में अपने आवास के निकट की भूमि में वनस्पति उत्पादन करने की युक्ति खोज निकाली। यही कृषि का आविर्भाव था।

इस ने  संकट के समय संग्रहीत भोजन के संकट को हल कर दिया। धीरे-धीरे कृषि की विधियों के विकास ने संग्रह किए जाने वाले भोजन के संग्रह में वृद्धि की। शिकार पर निर्भरता न्यूनतम रह गई। इस नयी खोज ने एकाएक स्त्रियों की महत्ता को बढ़ा दिया। वे सामाजिक गतिविधि के केन्द्र में आ गयीं। यह उसी तरह है जैसे आज आई टी सेक्टर और औद्योगिक उत्पादों से संबद्ध लोग केन्द्र में है। कृषि उस समय की आधुनिकतम उत्पादन तकनीक थी जिस ने मनुष्य की शिकार जैसे खतरनाक उद्योग पर निर्भरता को समाप्त कर दिया। बाद में वह केवल शौक मात्र रह गया। आज तो उस पर प्रतिबंध लगा देने की नौबत ही आ चुकी है।

अपनी प्रजनन क्षमता के कारण समूह की संख्या में वृद्धि के लिए उन्हें महत्व हासिल था ही। उस के साथ कृषि की उत्पादकता और जुड़ गई। कुल मिला कर महिलाएँ समृद्धि का संपूर्ण प्रतीक हो गईं। स्त्रियों के मासिक धर्म के रक्त जैसा लाल रंग इस समृद्धि का प्रतीक हो गया। गणपति का सिंदूर अभिषेक इसी से संबद्ध है। गणपति का दूर्वा प्रिय होना, कृषि उत्पादों का उस के हाथों में आयुधों का स्थान लेना, खेती से लायी गई समृद्धि को ही प्रकट करता है। खेती के सब से बड़े शत्रु चूहे की सवारी भी खेती के लिए चूहों पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता को प्रतिपादित करती है।

सिंदूर की स्त्रियों से संबद्धता जग जाहिर है। सिंदूर जिन देवताओं से संबद्ध है वे सभी किसी न किसी प्रकार से स्त्रियों से संबद्ध हैं। स्वयं गणेश की उत्पत्ति गौरी से है, यहाँ तक कि गौरी-पति शिव भी उन से उलझ पड़ते हैं। गौरी को आकर बताना पड़ता है कि शिव उन के पति हैं इसलिए गणपति के पिता भी। भैरव भी माता दुर्गा से जुड़े़ हैं। एक और लोक देवता क्षेत्रपाल सिंदूर के अधिकारी हैं, वे खेती की रक्षा से जुड़े हैं। बचे हनुमान जी, वे भी माता सीता से सिंदूर की दीक्षा लेकर ही उस के अधिकारी हुए हैं। इस तरह लाल रंग स्त्री शक्ति का प्रतीक है। हम आज भी प्रत्येक अवसर पर चाहे वह स्वागत का हो या विदाई का, लाल रंग के सिंदूर या रोली का टीका करते हैं, ऊपर से उस पर श्वेत अक्षत चिपकाते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार का शुभकामना संदेश है। जो हम टीका लगवाने वाले व्यक्ति को देते हैं कि उसे संपूर्ण समृद्धि प्राप्त हो। वैसे ही, जैसे कहा जाता है 'दूधों नहाओ पूतों फलो'। सिंदूर जहाँ मातृ-शक्ति का प्रतीक है, वहीं अक्षत पुरुष वीर्य का। दोनों के योग के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं। यही दोनों समृद्धि के प्रतीक हो गए और आज तक प्रचलित हैं। माथे पर सिंदूर धारण करना स्त्रियों की प्रजनन क्षमता का प्रतीक है। कालांतर में स्त्रियों के विधवा हो जाने पर उन्हें सिंदूर धारण करने से प्रतिबंधित होना पड़ा, क्यों कि पति के जीवित न रहने पर उन की यह क्षमता अधूरी रह जाती है।

यह भाद्रपद का उत्तरार्ध और सितंबर माह कृषि के लिए आशंकाओं का समय भी है। फसलें खेत में खड़ी हैं और घर तक आकर समृद्धि लाना पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर करता है। समय पर न कम, न अधिक, केवल उपयु्क्त वर्षा का होना, फसलों के पकने के समय पूरी धूप मिलना, कीटों और चूहे जैसे जंतुओं से उन की रक्षा। यही कारण है कि प्रकृति को इस के लिए मनाना आवश्यक है। उसे मनाने में कोई कमी रह गई तो? उत्पादन प्रभावित होगा।

समृद्धि प्रदाता गणपति प्रकृति के देवता हैं। वे प्रति वर्ष ऋद्धि-सिद्धि के साथ आते हैं, और अकेले वापसी करते हैं। मनुष्यों को दोनों चाहिए। इस लिए वे आज गणपति को विदा कर रहे हैं, इस प्रार्थना के साथ कि गणपति बप्पा! अगले बरस जल्दी आना।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ?

बात गणपति से आरंभ हुई थी। फिर बीच मैं गौरी आ गईं, और कुछ लोकोत्सव। अब फिर गणपति के पास चलते हैं। आज पांडालों में गणपति प्रतिमाएँ सजी हैं, उन्हें चतुर्दशी तक विदा कर दिया जाएगा। लेकिन गणपति की प्राचीन प्रतिमाएँ मौजूद हैं। उन से पूछें वे क्या कहती हैं? वे अनेक रूप की है और प्रत्येक 2 का अपना अलग नाम है। इन में उन्मत्त उच्चिष्ठ गणपति और नृत्य गणपति, बल गणपति, भक्ति विघ्नेश्वर गणपति, तरुण गणपति, वीर विघ्नेश्वर गणपति, लक्ष्मी गणपति, प्रसन्न गणपति, विघ्नराज गणपति, भुवनेश गणपति, हरिद्र गणपति आदि हैं। इन सब के हाथों में पाश और अंकुश दो आयुध हैं। ये दोनों आयुध हाथी के शिकार और नियंत्रण  के लिए उपयोगी हैं और शिकार युग की स्मृति दिलाते है। दूसरी और उन के हाथों में आम, केला, बेल, जंबू फल, नारियल, गुड़ की भेली, अनार, कमल, कल्प लता और धान की बाली आदि देखते हैं।

इस से ऐसा प्रतीत होता है कि एक शिकार और पशुपालन से संबद्ध देवता अब कृषि से संबंध स्थापित कर रहा है। इस में भी अनार एक ऐसा फल है जिस का संबंध रक्त के रंग से है और जो स्त्रियों से भी संबद्ध है। ऐसा लगता है कि एक पुरुष देवता गणपति स्त्रियों के मामले में उलझ रहा है। "शंकर विजय" ग्रंथ का लेखक स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि गणपति के  अनुयायियों के धार्मिक अनुष्ठानों में मासिक धर्म के रक्त की भूमिका निर्णायक थी। गणपति के साथ विभिन्न रूप से संबंध रखने वाला लाल रंग इसी का प्रतीक था। यदि इस रंग का 503035784_62f9d94b03 असली महत्व यही था, तो एक पुरुष देवता का लाल रंग से अभिषेक करना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। लेकिन इस का एक अर्थ यह हो सकता है कि वह स्त्रियों का आश्रय ले रहा था।  यहाँ तक कि गणेश की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ भी बनाई गई। यहाँ उड़ीसा की एक प्रतिमा का चित्र प्रदर्शित है। मैं ने भोपाल में बिरला मंदिर के पास के संग्रहालय में भी ऐसी ही एक प्रतिमा देखी है। गणेश की उत्पत्ति की कथा भी रोचक है, जिस में पुरुष का कोई योगदान नहीं है। गणपति को विभिन्न तरीकों से रक्त के रंग से सम्बद्ध किया गया है। मंत्र महार्णव ग्रंथ कहता है गणपति की प्रतिमा का रंग रक्त के रंग जैसा होना चाहिए। तंत्रसार में हमें सिंदूर जैसे रंग के कपड़े पहने हुए जैसे वाक्य मिलते हैं। सिंदूर गणपति का प्रसाधन है, और गुडहल का फूल उन्हें प्रिय। पूजा में प्रयोग लाए जाने वाले पाँच तरह के पत्थरों में लाल रंग का पत्थर गणपति का है। नर्मदा किनारे गणेश कुंड पर लाल रंग के पत्थर को गणेश प्रस्तर कहा जाता है। इस तरह यह लाल रंग के साथ गणपति का गहरा संबंध स्थापित  है। स्त्री देवताओँ के साथ तो सिंदूर और लाल रंग का संबंध है लेकिन गणपति के साथ लाल रंग का क्या महत्व है?

imagesहमने देखा कि चतुर्थी को गणपति की पूजा के दूसरे दिन ही गौरी ने प्रमुखता हासिल कर ली थी। जिस का  एक अर्थ यह हो सकता है कि गणपति ने गौरी का आश्रय लिया। ऐलोरा की गुफा में गणेश सात माताओं के अधीनस्थ प्रदर्शित हैं। अनेक स्थानों पर शक्ति उन की गोद में बैठी हैं, ये प्रतिमाएँ शक्ति गणेश के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि खाद्य सामग्री एकत्र करने का काम स्त्रियों का था। इसलिए कृषि की खोज उन्हीं ने की थी। और वे यह काम तब तक करती रहीं जब तक बैल द्वारा हल चलाने या जुताई की विधि का आविष्कार नहीं हो गया। इस संबंध में जे डी बरनाल, गिलिस, ब्रिफो आदि के संदर्भ देखे जा सकते हैं। इस तरह कृषि की खोज ने स्त्री के महत्व को पुरुष नेतृत्व वाले समाज में स्थापित किया था और शिकार और पशुपालन के युग के पुरुष देवता को इस युग में भी मह्त्वपूर्ण बने रहने के लिए स्त्री प्रतीकों के माध्यम की आवश्यकता थी। कृषि उत्पादन पर आधारित सिंधु सभ्यता के धर्म में देवियों की प्रमुख भूमिका थी। सिन्धु सभ्यता में ही नहीं प्राचीन सभ्यताओं के सभी केन्द्रों में मातृ देवियों की मूर्तियाँ दबी पड़ी हैं। सभी स्थानों पर यह देखने को मिलता है कि सभी सभ्यताओं की संपदा धरती से उपजती थी। इस का संबंध स्त्रियों द्वार कृषि की खोज से ही हो सकता है।

Ganesh Tantraभारत में सिन्धु सभ्यता के अंत के साथ इन ग्राम देवियों का अंत नहीं हुआ।  वे उत्पादकता की जन्मदात्री हैं। आज के सभी ग्राम देवता उन्हीं का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारी जनजातियों में देवी उपासना प्रमुख है। भारतीय किसानों का बहुत बड़ा अंश आज जनजातियों में नहीं रहता लेकिन उन के समाजों में पुरुष  देवताओँ का स्थान गौण है वास्तविक प्रभाव देवियों का ही है। आज भी सवर्ण कही जाने वाली जातियों में आश्विन और चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को परिवार के सभी सदस्य एक स्थान पर एकत्र हो कर देवी पूजा, जिसे कुल देवी या दियाड़ी भी कहते हैं, की पूजा अवश्य ही की जाती है।

Tantraकृषि की खोज मनुष्य के जीवन में एक महान खोज थी। जिस ने मनुष्य को स्थायित्व दिया था, ग्राम सभ्यता और उन की उपज पर आधारित नगर सभ्यता को जन्म दिया था। उसी की स्मृति यह देवी पूजा है, जिस में गणपति देवा ने एक प्रमुख स्थान तो हासिल किया लेकिन देवी प्रतीकों को अपना कर ही। आगे हम कृषि अनुष्ठानों, जादू, टोटकों और तंत्रवाद पर बात करेंगे।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जलझूलनी एकादशी और बाराँ का डोल ग्यारस मेला

मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस shreeji1s(जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से। 
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो dolmela3s गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े dolmela11sवहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने  अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन dolmela14s ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद  सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को dolmela15s पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता  भगवान श्री जी का विमान और उस dolmela13s से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट dolmela9sपड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग  केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में dolmela2sअनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते। 
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

अनवरत के अंश आईबीएन-7 पर


अनवरत पर सात सितंबर की शाम साढ़े छह बजे जब आलेख गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना आलेख प्रकाशित हो रहा था, तो मैं जयपुर में था। सुबह सात बजे कोटा से निकल कर जयपुर में अपना काम कर रात दस बजे वापस कोटा पहुँचा। लगातार यात्रा की थकान और आते ही अदालत का काम। व्यस्तता के कारण आठ सितंबर को कोई आलेख न ‘अनवरत’ पर और न ही ‘तीसरा खंबा’ पर आ सका। आज रात साढ़े आठ बजे भोजन करते समय टीवी पर समाचार सुनने का यत्न किया तो आईबीएन-7 चैनल पर समाचारों में मुम्बई में गौरी विसर्जन का समाचार पढ़ते हुए सुखद आश्चर्य हुआ।

आईबीएन-7 चैनल ने अपने समाचार में इस परंपरा के इतिहास का उल्लेख करते हुए जिन बातों का उल्लेख किया उन में अनवरत के पिछले आलेख का पूर्वार्ध अपने शब्दों सहित किसी महिला के स्वरों में पढ़ा जा रहा था। कुछ वाक्यों को हटा कर वही शब्द पढ़े गए जो इस आलेख में थे।

मेरे लिए आश्चर्य यह था कि मुझे यह पता न था कि यह परंपरा आज भी उसी मूल रूप में या कुछ परिवर्तित रूप में महाराष्ट्र के गांवों में ही नहीं अपितु मुम्बई जैसे नगर में भी जीवित होगी। इस तरह हमारा इतिहास इन लोक परंपराओं में जीवित है। हम चाहें तो इन परंपराओं को जान कर उन का विवरण प्रकाश में ला कर इतिहास और दर्शन के शोधार्थियों की मदद कर सकते हैं। साथ के साथ पूरे देश में प्रचलित इन परंपराओं में एक जैसे तत्वों को तलाश कर देश की लोक-संस्कृति की एकता को समृद्ध और मजबूत बना सकते हैं।  

रविवार, 7 सितंबर 2008

गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना

"गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं।
गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है। 

शनिवार, 6 सितंबर 2008

समृद्धि घर ले आई गई।

रोट अनुष्ठान, जिस का विवरण मैं ने पिछले दो आलेखों में किया,  उस में अनेक बातें हो सकती हैं, जो आज के समय के अनुकूल नहीं हों। लेकिन यह अनुष्ठान  मानव इतिहास की, पूर्वजों की एक स्मृति है और मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवनकाल तक तो वह अवश्य ही सुरक्षित रहे। कल पूजा के उपरांत यह प्रार्थना की गई थी कि हमें और हमारे परिवार को समृद्धि प्राप्त हो और जैसा भोजन हमने आज अपने कुल देवता को समर्पित किया वैसा ही हमेशा हमें उपलब्ध होता रहे। भौतिक समृ्द्धि की कामना सदैव से ही मनु्ष्य किसी न किसी रूप में करता रहा है।

आज शोभा ने कहा कि कल भोजन निर्माण से बचा हुआ जल बचा है उसे नदी में डाल कर आना है। हम उन के साथ गए और जल नदी में डाल कर आए। पत्नी ने वहाँ से कुछ मिट्टी उठाई और घर आ कर कुछ पूरे घर में बिखेरी और कुछ तुलसी गमले में डाल दी। जिस का अर्थ है कि अनुष्टान को पूरा कर लिया गया है और मिट्टी के रूप में समृद्धि घर ले आयी गई। पूरे अनुष्ठान का अर्थ था समृद्धि घर लाई गई। इस समृद्धि का आशय मानव समाज के विकास की पशुपालन की विकसित अवस्था में कृषि के आविष्कार से जो अन्न उपजने लगा वह एक संग्रह करने लायक भोजन संपत्ति से था। जो आपदा के समय मनुष्य के काम आती थी। अब खेती ने वर्ष भर संग्रह करने लायक की व्यवस्था कर दी थी और भोजन की रोज-रोज की चिंता से उन्हें मुक्त करना शुरू कर दिया था। जिस गण के पास जितनी मात्रा में संग्रहीत खाद्य पदार्थों की यह संपत्ति होती थी, वही सब से शक्तिशाली गण हो जाता था।

कल के विवरण से आप जान ही गए होंगे कि इस पूरी परंपरा में मेरी और मेरे बेटे की अर्थात् पुरुषों की भूमिका नहीं के बराबर थी। चाहे वह गेहूँ साफ करना हो, उसे पीसना हो, सामान एकत्र करना हो, आटे को तौल कर संकल्प करना हो, रोटों का निर्माण हो, या कोई और अन्य बात सब कुछ स्त्रियों के हाथ था। पूरे अनुष्ठान में हम पुरुषों की आवश्यकता मात्र एक पुरोहित जितनी थी। आटे के तीन हिस्से, जिन में पुरुषों के हिस्से पर किसी का अधिकार नहीं वह भी कुल देवता के नाम पर। हाँ, बेटियों के भाग पर केवल उन का अधिकार कुछ समझ में आता है क्यों कि यदि वे परिवार में होती तो उन का भी इस अनुष्ठान में अन्य स्त्रियों जितना ही योगदान होता। पर परिवार की स्त्रियों/बहुओं का जो हिस्सा है, उस पर उन के साथ पूरा परिवार पलता है, पूरे परिवार का अधिकार है।

इसी तरह के अनुष्ठान देश भर में अलग-अलग रूपों में लगभग सभी परिवारों में प्रचलित हैं, यदि उन्हें तिलांजलि न दे दी गई हो। इसी तरह के एक लोक-अनुष्ठान का और उल्लेख यहाँ करना चाहूँगा। जिस का वर्णन गुप्ते के हवाले से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने किया है।

लेकिन वह अगले आलेख में ... ... ...


ममता जी और अग्रज डॉ. अमर कुमार जी से ...


ममता जी ने रोट की फोटो लगाने के लिए दबे स्वरों में कहा। उन की शिकायत वाजिब है। लेकिन अभी तो वह रोट समाप्त हो चुका। फिर भी यह बात नहीं कि उसे दिखाने की मनाही है। बल्कि इस लिए कि चित्रांकन में मैं ही फिसड्डी हूँ। कैमरा संभालना बस का नहीं। मोबाइल भी साधारण प्रयोग करता हूँ जिस से सिर्फ फोन सुने और किए जा सकेंगे। पर अब लगता है कि ब्लागिंग में बने रहना है तो कैमरा संभालना भी सीखना ही पड़ेगा।

यदि कोई अग्रज यह कहे कि मैं मुहँ देखी बात नहीं करता और कुछ कहूँगा तो आप नाराज हो जाएंगे। एक बार पहले भी हो चुके हैं,  तो इस का मतलब है कि अग्रज को भारी नाराजगी है। अब समस्या यह है कि अग्रज हमारी किसी गुस्ताखी से नाराज हो जाएं और हमें बताए ही नहीं कि किस बात से तो हमें पता कैसे लगे। अग्रज से थोड़ी बहुत विनोद का रिश्ता भी हो और कभी विनोद में कोई गुस्ताखी हो जाए तो हमें तो पता भी न लगे कि हुआ क्या है? डाक्टर अमर कुमार जी हमारे अग्रज हैं, वैसे अग्रज जिन की डाँट भी भली लगती है। पर इतना नाराज कि हम से खफा भी हैं और डाँट भी नहीं रहे हैं तो मामला कुछ गड़ बड़  है भाई। हम ने उन से अनुरोध तो कर दिया है। भाई अकेले में नहीं सरे राह डाँट लें। हम डाँट खाने को तैयार खड़े हैं और वे हैं कि डाँट भी नहीं रहे हैं। खैर हैं तो अग्रज ही, जब उन्हें फुरसत हो, तब डाँट लें साथ में हमारी गुस्ताखी भी जरूर बताएँ, हम एडवांस में कान पकड़ कर दस बैठकें लगा चुके हैं अब तक। जब तक न बताएंगे ये सुबह शाम दस-दस चलती रहेंगी। जब भी कोई अग्रज हमें डाँटता है, शुभ शकुन होता है, हमारी उम्र बढ़ जाती है। अब देखिए हमारी उम्र कब  बढ़ती है?

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई

रोट या रोठ? मेरे विचार में रोट शब्द ही उचित है। क्यों कि यह रोटी का पुर्लिंग है, और हिन्दी में आकार में छोटी और पतली चीजों को जब वे बड़ी या मोटी होती हैं तो उन का पुर्लिंग बना कर प्रयोग कर लिया जाता है। पर मेरे यहाँ हाड़ौती में उस का उच्चारण रोठ हो गया है जैसा कि अन्य अनेक शब्दों में उच्चारण में हो जाता है। पिछले आलेख पर आई प्रतिक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट हुई कि यह परंपरा मालवा में केवल नाम मात्र के परिवारों में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में जीवित है। हमारे परिवारों में यह परंपरा सब से प्राचीन प्रतीत होती है, संभवतः इस का संबंध हमारे पशुपालक जीवन से खेती के जीवन में प्रवेश करने से है, इस का धार्मिक महत्व उतना अधिक नहीं जितना उत्पादन की उस महान नयी प्रणाली खेती के आविष्कार से है, जिस से मनुष्य जीवन अधिक सुरक्षित हुआ। अपने निष्कर्ष अंकित करने के पहले रोट या रोठ की इस कहानी को पूरा कर लिया जाए।
रोट के लिए मोटा आटा दो दिन पहले ही पड़ौसी की घरेलू-चक्की पर शोभा (मेरी पत्नी) पीस कर तैयार कर चुकी थी। एक दिन पहले उस ने सारे घर की सफाई की, विशेष तौर पर रसोईघर की। सारे बरतन धो कर साफ किए। अलमारियों में बिछाने के कागज बदले गए। जब दिन में यह काम पूरा हो गया तो शाम के वक्त बाजार से आवश्यक घी, चीनी और पूजा सामग्री आदि को ले कर आई। केवल दो चीजें लाने को रह गईं। एक दूध जो सुबह ताजा आना था और दूसरे पूजा के लिए कोरे नागरबेल के पान।
कल सुबह ही उस ने फिर पूरे घर को साफ किया। चाय आदि पीने के बाद रसोई की धुलाई की। मुझे ताजा दूध व पान लाने भेजा गया। मैं पान छोड़ आया, उन्हें मैं दोपहर अदालत से वापस आने के वक्त लाने वाला था। इस पूजा में सम्मिलित होने के लिए बेटे को कहा गया था, वह इंदौर से दो दिन पहले ही आ चुका था। बेटी मुम्बई में होने से आ ही नहीं सकती थी।
अब शुरू हुआ शोभा का काम। स्नान और पूजादि से निवृत्त हो कर उस ने रसोई संभाली। दूध-चावलों की केसर युक्त खीर सब से पहले बनी। फिर हुआ रोटों के लिए आटा चुनना। तौल कर आटे की तीन ढेरियाँ बनाईँ। दो सवा-सवा किलो की और एक ढाई किलो की। अब उन का संकल्प शुरु हुआ। एक हाथ में साबुत धनिया, चने की दाल कुछ जल और दक्षिणा का रुपया ले कर पहला सवा किलो आटे का संकल्प कुल देवता अर्थात् नागों के लिए छोड़ा गया। दूसरा सवा किलो परिवार की बेटियों के लिए, और तीसरा अढ़ाई किलो का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए। हमारे एकल परिवार के स्थान पर संयुक्त परिवार होता तो जितने जोड़े होते उतने ही अढ़ाई किलो के भाग और जोड़े जाते। तीनों भागों को अलग अलग बरतनों में रखा गया। तीनों में देसी घी का मौइन मिलाया गया, उन्हें अलग अलग गूंथा गया, वह भी जितना गाढ़ा गूंथा जा सकता था, उतना।
सब से पहले कुल देवता नागों के भाग के सवा किलो आटे का एक ही रोट बेला गया। जिस का व्यास कोई एक फुट रहा और मोटाई करीब एक इंच से कुछ अधिक। इसे सेंकने के लिए रखा गया। सेंकने के लिए मिट्टी का उन्हाळा लाया गया था। यह एक छोटे घड़े के निचले हिस्से जैसा होता है। घड़ा ही समझिए, बस उस के गर्दन नहीं होती। उस पर कोई रंग नहीं होता। उसे उलटा कर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। अब लकड़ी के चूल्हे तो हैं नहीं, इस कारण उसे गैस चूल्हे पर ही चढ़ा दिया जाता है।  गैस के जलने से उन्हाळा गरम होने लगता है और इस उन्हाले की पीठ पर रोट को रख दिया जाता है। उन्हाळे की पीठ गोल होने से उलटे तवे जैसी हो जाती है। उस पर सिकता रोट भी बीच में से गहरा और किनारों पर से उठा हुआ एक तवे जैसी आकृति में ढल जाता है। इसे उन्हाळे पर उलट कर नहीं सेका जा सकता क्यों कि ऐसा करने से रोट टूट सकता है। एक तरफ सिकने के बाद रोट उतार लिया जाता है और उंगलियों से उस में गहरे गड्ढे बना दिए जाते हैं। फिर उसे कंड़ों की आँच में सेका जाना चाहिए, लेकिन अब उन के स्थान पर गैस ओवन आ गया है। रोट को ओवन में सेंका गया। इस सवा किलो आटे के रोट को सिकने में करीब डेढ़ घंटा से कुछ अधिक समय लगा।
बाकी जो दो हिस्से थे उन में से ढाई किलो आटा जिस का संकल्प हम पति-पत्नी के लिए छोड़ा गया था में से आधा आटा निकाल कर अलग रख दिया गया और करीब आधे का एक रोट बनाया गया। तीसरा हिस्सा बेटियों का था। बेटी उपलब्ध नहीं थी, इस कारण कोई दो सौ ग्राम आटे का एक रोट बनाया गया और शेष आटे को अलग से रख दिया गया। इस तरह कुल तीन रोट बने। इस बीच मैं अदालत चला गया और वहाँ का काम निबटा कर दो बजे वापस लौटा। रास्ते में पान लेने रुका, वहाँ बेटे का फोन आ गया कि जल्दी घर पहुँचूँ।
रसोई घर की पश्चिमी दीवार पर (अन्य कोई दीवार खाली न होने से अन्यथा यह पूरब की होती) खड़िया से लीप कर करीब सवा गुणा सवा फुट का एक आकार बनाया गया था। लकड़ी जला कर कच्चे दूध में बुझा कर बनाए गए कोयले को कच्चे दूध में ही घिस कर बनाई गई स्याही से इस आकार पर एक मंदिर जैसा चित्र बनाया गया और उसमें बीच में पांच नाग आकृतियाँ बनाई गई थीं। मन्दिर के उपर एक गुम्बद और पास में ध्वज फहराता हुआ अंकित किया गया था। ऊपर के दोनों कोनों पर सूरज और चांद बनाए गए थे। सब से नीचे मंदिर का द्वार बनाया गया था। यही हमारे कुल देवता थे। हो सकता है यह कुल देवता हमारे पशुपालन से पहले रहे वनोपज एकत्र कर जीवन यापन करने के दिनों में हमारे कबीले के टोटेम रहे हों और जिन की स्मृति आज तक इस परंपरा के रूप में हमारे साथ है। यहाँ मैं शिकारी-जीवन शब्द का प्रयोग शाकाहारी हो जाने के कारण स्वाभाविक संकोच के कारण नहीं कर रहा हूँ। इस मंदिर के आगे एक उच्चासन पर गणपति विराजमान थे। उन के आगे तीन थालियों में घी से चुपड़े हुए रोट रखे थे। रोट में घी भर दिया गया था, जिस में रुई की बनाई गई एक-एक बत्ती रखी थी। एक बड़ी भगोनी में खीर थी। एक दीपक, एक कलश जिस पर रखा एक नारियल।
दीपक जलाने से पूजा शुरू हुई। इस परंपरा को जीवित रखने का एकमात्र श्रेय जिस महिला अर्थात शोभा को है, वह बिना कहे ही बाहर चली गई। हम पिता-पुत्र ने पूजा आरंभ की। इस पूजा में और कोई नया देवता प्रवेश नहीं कर पाया, लेकिन गणपति यहाँ भी प्रथम पूज्य के रूप में उपस्थित थे। शायद वे भी कृषि जीवन के आरंभ के दिनों के हमारे कुल-गणों के मुखिया या देवता के रूप में मौजूद थे और आज तक हमारे ही साथ नहीं चले आए, अपितु भारत भर तमाम गणों के अलग अलग मुखियाओँ के एक सम्मिलित प्रतीक के रूप में स्थापित हो कर प्रथम पूज्य हो चुके हैं।
गणपति की पूजा के पश्चात पहले रोटों की और फिर नाग देवता की पूजा की गई। पहले नाग देवता के रोट में घी भर कर पूजा की वही सामान्य पद्धति, आव्हान, पद-प्रक्षालन, आचमन, स्नान, पंचामृत-अभिषेक, शुद्धस्नान, वस्त्र, सुगंध, चन्दन, रक्त चंदन या रोली का टीका, भोग, दक्षिणा, आरती और प्रणाम। विशेष कुछ था तो नाग देवता का प्रिय पेय कच्चा दूध। रोट की पूजा करने के पहले बड़े रोट पर रखी बत्ती जला दी गई थी। पूजा संपन्न होते ही हम पिता-पुत्र ने एक दूसरे को रोली-अक्षत का टीका कर समृद्धि की शुभ कामना की और लच्छे से दाहिने हाथ में रक्षा-सूत्र बांधा। नागदेवता वाले रोट पर जलती बत्ती को एक कटोरी से ढक दिया गया, ताकि उस की ज्योति हम दोनों के अलावा कोई और न देख ले। इस के बाद हम रसोई से बाहर निकले, पत्नी का पुनर्प्रवेश हुआ। उसने अपने और बेटियों के रोट की बत्ती जलाई और प्रणाम कर बाहर आई।
इस के बाद हम पिता-पुत्र को शोभा ने खीर-रोट परोसे और हम ने छक कर खाए, स्वाद के लिए साथ में कच्चे आम का अचार ले लिया गया। नाग देवता का जो रोट है वह हम दोनों पिता-पुत्र को ही खाना है, चाहे वह तीन दिनों में बीते। उसे और कोई नहीं खा सकता। यह रोट स्वादिष्ट और इतना करारा था कि हाथ से जोर से दबाने पर बिखरा जा रहा था, जिसे खीर में या अचार के मसाले के साथ मिला कर खाया जा सकता था। जोड़े का जो रोट है उसे परिवार का कोई भी सदस्य खा सकता है। लेकिन बेटियों का रोट केवल परिवार की बेटियाँ ही खा सकती हैं। शाम को जा कर बेटियों का रोट शोभा की बहिन की बेटी को देकर आए खीर के साथ, और बेटियों के रोट के संकल्प का शेष आटा भी उसी के यहाँ रख कर आए ताकि वह उसे काम में ले ले। शेष आटा जो बचा वह अनंत चतुर्दशी के पहले बाटी आदि बना कर काम में ले लिया जाएगा, और उस का समापन न होने पर गाय को दिया जाएगा। क्यों कि फिर आ जाएंगे श्राद्ध, तब बाटी नहीं बनाई जा सकतीं हैं। हम यह परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के अलावा किसी को खिला तो दूर दिखा भी नहीं सकते ऐसी ही परंपरा है।
यह हुई रोट-कथा। इस परंपरा के बारे में मेरी अपनी समझ और इस के महत्व के बारे में आगे .......