@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

कहाँ हैं दादा जी जैसे कथावाचक

शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की लाइव कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।

मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।

मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।

उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।

प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।

कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।

मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?

मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट वाणी का पर्स से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

‘हम सब नीग्रो हैं’

सुप्रसिद्ध कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' का गीत

अष्टछाप के सुप्रसिद्ध कवि ‘छीत स्वामी’ के वंश में जन्मे महेन्द्र ‘नेह’ स्वयं सुप्रसिद्ध जनकवि गीतकार हैं। उन से मेरा परिचय १९७५ की उस रात के दो दिन पहले से है, जब भारत में आपातकाल घोषित किया गया था। वह परिचय एक दोस्ती, एक लम्बा साथ बनेगा यह उस समय पता न था। दिसम्बर १९७८ के जिस माह मैं वकील बना तब उन्हें कोटा के श्रीराम रेयंस उद्योग से इलेक्ट्रिकल सुपरवाइजर के पद से केवल इसलिए सेवा से हटा दिया गया था कि उन्होंने उद्योग के मजदूरों पर जबरन थोपी गई हड़ताल-तालाबंदी में और उस के बाद मजदूरों का साथ दिया। लेकिन कारण ये बताया गया कि वे मजदूर नहीं सुपरवाईजर हैं। उन के इस सेवा समाप्ति के मुकदमें को मैं अब तक कोटा के श्रम न्यायालय में लड़ रहा हूँ। वे अब बारह बरसों से मेरे पड़ौसी भी हैं। उन के मुकदमे की कथा कभी ‘तीसरा खंबा’ में लिखूंगा। अभी उन की कविता की बात।

जब से भारतीय स्पिनर ‘हरभजन सिंह’ पर रंगभेदी अपशब्द कहने का आरोप लगा है महेन्द्र ‘नेह’ का प्रसिद्ध गीत ‘हम सब नीग्रो हैं’ बहुत याद आ रहा था। कल उन से मांगा और आज आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस गीत को किसी समीक्षा की आवश्यकता नहीं। यह अपने आप में सम्पूर्ण है। 


हम सब नीग्रो हैं

महेन्द्र नेह


हम सब जो तूफानों ने पाले हैं

हम सब जिन के हाथों में छाले हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।



जब इस धरती पर प्यार उमड़ता है

हम चट्टानों का चुम्बन लेते हैं

सागर-मैदानों ज्वालामुखियों को

हम बाहों में भर लेते हैं।


हम अपने ताजे टटके लहू से

इस दुनियां की तस्वीर बनाते हैं

शीशे-पत्थर-गारे-अंगारों से

मानव सपने साकार बनाते हैं।


हम जो धरती पर अमन बनाते हैं

हम जो धरती को चमन बनाते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।



फिर भी दुनियाँ के मुट्ठी भर जालिम

मालिक हम पर कोड़े बरसाते हैं

हथकड़ी-बेड़ियों-जंजीरों-जेलों

काले कानूनों से बंधवाते हैं।



तोड़ कर हमारी झुग्गी झोंपड़ियां

वे महलों में बिस्तर गरमाते हैं।

लूट कर हमारी हरी भरी फसलें

रोटी के टुकड़ों को तरसाते हैं।


हम पशुओं से जोते जाते हैं

हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।


लेकिन जुल्मी हत्यारों के आगे

ऊंचा सिर आपना कभी नहीं झुकता

अन्यायों-अत्याचारों से डर कर

कारवाँ कभी नहीं रुकता।



लूट की सभ्यता लंगड़ी संस्कृति को

क्षय कर हम आगे बढ़ते जाते हैं

जिस टुकड़े पर गिरता है खूँ अपना

लाखों नीग्रो पैदा हो जाते हैं।


हम जो जुल्मों के शिखर ढहाते हैं

जो खूँ में रंग परचम लहराते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

सोमवार, 14 जनवरी 2008

हाड़ौती का दिनेसराई दुबेदी की आड़ी सूँ सँकरात को राम राम बँचणा जी।

जोग लिखी हाड़ौती का हिरदा, कोटा राजसथान सूँ, सारा जम्बूदीप अर भरतखण्ड का रह्बा हाळाँन् क ताईं दिनेसराई दुबेदी की आड़ी सूँ सँकरात को राम राम बँचणा जी। राम जी की किरपा सूँ य्हां सब मजामं छे। राम जी व्हाँ भी थानँ मजामँ रखाणे।
आज तड़-तड़के ही नारायण परसाद जी को मेल मल्यो, कै हिन्दी कि बोल्याँन् का कतनाँ चिट्ठा परकासित हो रिया छे ? मेल मँ म्हाँकी हाड़ौती क ताईं हारोटी मांड मेल्यो छो। म्हारे तो या बात तीर सी लागी। नाँव बगड़बो खुणनँ छोखो लागे छे। ज्ये मनं तो सोच ली के आज तो अनवरत पे हाड़ौती की पोस्ट जावे ही जावे।
हाड़ौती ख्हाँ छे ?
राजस्थान का नक्सा मं दक्खन-पूरब मं एक गोळ-गोळ उभार दीखे छे। बस या ही हाड़ौती की धरती छे। कोटो, बून्दी, झालावाड़ अर बाराँ याँ चार जिलाँन को जो खेतर छे ऊँ स ई हाड़ौती खे छे।
।। बड़ी सँकरात।।
आज बड़ी सँकरात छे। बड़ी अश्यां के यो म्हाँके राजस्थान मँ संसकर्ति को सबसूँ बड़ो थ्वार छे। खास कर र ब्याऊ स्वाणी छोरियाँ के कारणे। व्हाँ ने सासरा मँ ज्यार कश्यां रह् णी छाइजे या सिखाबा के कारणे घणा सारा नेग (बरत) कराया जावे छे। ज्यां मँ सूँ दो चार अश्याँ छे।
तारा दातुन
छोरियाँ क ताँईं तड़-तड़के ई उठणी पड़े, अर तारा स्वाणी ई दातुन करणी पड़े। बरस मँ एक भी दन चूक नं होणी छावे, नँ तो फेर एक बरस ताँईं बरत करणी पड़े।
मून
छोर् यां ब्याऊ स्वाणी होतां ईं सँकरात सूँ एक बरस ताईं मून रखणी पड़े। मूनी रहबा को अभ्यास कराबा के कारणे। संझ्या की टेम दन आँथतांईं छोर् यां राम राम ख्हेर मूनी हो जावे। जद संझ्या फूले अर तारा हो जावे तो ऊंको मून कोई दूसरो मंतर बोल र छुड़ावे, जदी छोरी बोले, व्हाँ ताईं मूनी ई रेवे। मून छुड़ाबा को मंतर अश्यां छे। .....

आम्बो मोरियो, नीम्बो मोरियो, मोरियो डाढ़्यूँ डार।
सरी किसन जी सेव बैठ्या, राजा राणी कांसे बैठ्या।
झालर बाज घड़ावळ बाजी, संझ्या फूली, तारा होया।
मूनी जी की मून छूटी, मूनी बाबा राम राम।।
ईं का तोड़ मं मून लेबा हाळी छोरी राम राम खेवे, जद मून छूटे। बापड़ी नरी छोरियाँ मून छुड़ाबा के कारणे मून को मंतर जाणबा हाळा नं ढूँढती ही रेवे। ज्याँ ताईं न मले मूँडा प ताळो पटक्याँ रैणी पड़े। म्हारी बा (दादी) के गोडे नरी छोरियाँ मून छुड़ाबा आती। बा न्हं होती तो ऊँ की बाट न्हाळती। छोरियाँ की परेसानी देख र बा नै यो मंतर म्हारे ताँईं सिखायो छो, ज्ये आज थाँ ईँ बता दियो।
चड़ी चुग्गो
मून की ई नाईं बरस भर ताईं रोजीनां एक मुट्ठी चावळ, चावळ न होवे तो ज्यार का दाणा, चड़्यां के ताईं पटकणी पड़े। ईं मं चूक हो जावे तो दूसरे दन दो मुट्ठी देणी पड़े। अश्यां भी कर सके क, म्हींना भर ताईं एक मुट्ठी दाणा रोज का भेळा करे, अर म्हीनो होताँ ईं पूरी तीस मुट्ठी दाणा चड्याँ नें पटके।
ये तीन बरत मनं यां मांड्या। अश्या तीन सौ आठ नेग होवे छे।
सँकरात कश्याँ मनावै?
सँकरात पे ब्हेण-बेट्याँ ने फीर मं बुलावै। फेर जीं के खेत होवे, सारी लुगायां छोखा-छोखा कपड़ा फेर र खेत मं जावे। व्हाँ चावळ-दाळ को, नँ तो बाजरा-दाळ को खीचड़ो गाड़ र आवे। खेताँ में खूब घूमे-फरे के घाघरा की लावणाँ सारा खेत में फर जावे। अश्याँ खी जावे के अश्याँ करबा सूँ लावणी पे खूब फसल होवे अर समर्धी घरणँ आवे छे। सँकरात के बाद सब ब्हेण-बेट्याँ अर भाणजा-भाणज्याँ ने नया कपड़ा-लत्ता दे र बिदा करे छे। संकरात के दन चावळ-दाळ को खीचड़ो बणावै, तिल्ली का लड्डू, पापड़ी, चक्की बणावे। यां नै दान करे, अर या नं ई खावै। घर मं कत्त-बाटी-दाळ को भोजन बणावे। जतनो हो सके गरीबाँ के ताईं ख्वावे, अर दान करे।
सुहागण्याँ
सुहागण्याँ ईं दन चूड़ो, बिन्दी, सिन्दूर, कपड़ा अर सुहाग का सन्दा सामान सासू नँ या सासरा की कोई भी बड़ी सुहागण नै देवे अर आसीस लेवे।
आदमी अर छोरा
आदमी अर छोरा ईं दन गुल्ली-डंडा खेले। पण आज खाल तो देख्याँ-देखी पतंगां उडाबा को चलण हो ग्यो। म्हाँ कै कोटा मँ शायर शकूर अनवर साब क य्हाँ दस-बारा बरस सूँ सँकरात प सिरजन सद्भावना समारोह मनायो जावे छे। जी मेँ सहर का सारा साहित्यकार भेळा होर कविता पढे छे, पतंगाँ उड़ाव छे, तिल्ली की गजक, रेवड़ी, लड्डू, दाळ-चावल की खीचड़ी खावे छे।
उश्याँ हाड़ौती मं ईं जनम्यो अर बावन बरस खडग्या। पण अतनी सी हाड़ौती मांडबा में पसीनो आग्यो, ईं श्याळा मँ भी।
कोसिस रह्गी क अनवरत पै म्हीनाँ मँ क सात दनाँ मँ एक पोस्ट हाड़ौती मँ जावै। पण ईं सूँ हाड़ौती का लोग ज्यादा सूँ ज्यादा जुड़गा जदी या चाल पावगी।
या पोस्ट तो खालिस नाराइण जी को परसाद छे।
नाराइण। नाराइण।

रविवार, 13 जनवरी 2008

खतरा ! किस किस को ? किस किस से?

जी हाँ। यह खतरा है। सावधान हो जाइये। जब भी कोई प्रस्ताव करे कि आप को सम्मानित किया जाए, तो तुरन्त सावधान हो जाइए। सम्मान की मांग करने वाला समझता है कि आप उस के लिए खतरा हैं। आप ने संन्यास ले लिया, फिर भी आप खतरा हैं। कब माया आप को खींच ले और आप संन्यास से वापस लौट आएं? संन्यास को पक्का करने के लिए, ज़रूरी है, आप का सम्मान होना। इस से संन्यास पक्का होता है। उसी तरह जैसे रंगे हुए कपड़े को नमक के घोल में खौला कर सुखा लेने के बाद उस का रंग पक्का हो जाता है।

आडवाणी ने कहा मैं नहीं मानता, वाजपेयी (अन्न से बना पेय पदार्थ सेवन करने का आदी) तब पुनः प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार नहीं हो जाएगा, जब लोग कहेंगे कि हम वाजपेयी के प्रधानामंत्रित्व को ही समर्थन दे सकते हैं। इसे नमक के घोल में
खौला कर सुखाओ।

नमक का घोल कहाँ है? भारत सरकार के गृह मंत्रालय के पास? वह कान में रुई दिए बैठा है।

इधर काँग्रेस में हल्ला हो गया। काँग्रेसी सोचने लगे सोनिया जी से किसे खतरा है? किसी को लगा, अभी सीपीएम से। वहाँ कौन? बुद्धदेव? वह पिट गया नन्दीग्राम में, उस ने अभी सन्यास भी नहीं लिया। उस का क्या खौलाएं नमक घोल में। तो फिर कौन? ज्योति बाबू? यह सही है। वे संन्यास के बाद भी खूब बोलते हैं। पुरानी गलती कभी भी सुधार सकते हैं। इन के संन्यास को डुबोना आवश्यक। मीडिया में स्टेटमेण्ट आ गया- ज्योति बाबू हमारी तरफ से लाइन में। लालू ने हाथ खड़ा कर समर्थन कर दिया। खौला ही दो। हम तो पहिले ही
खौला देना चाहते थे। अब कंधा लगाने वालों में नम्बर वन हो लूँ, बाकी देखा जाएगा।

माया ने अपना अवसर देखा। लोगों का ध्यान उन की ओर जा ही नहीं रहा है, आडवाणी,लालू नम्बर लगा चुके, मैं पीछे कैसे? रात को शमशान जगाया, गुरू का भूत हाजिर। जय गुरवैः नमः।

उत्तर। उत्तर। उत्तर। ये उत्तर वाले बड़े बदमाश हैं। दक्षिण की ओर झांकते ही नहीं,पक्का रंग तो दक्षिण में है। नमक घोल की कोई जरूरत ही नहीं। करुणानिधि को भूल गए। हल्ला शुरू। किसी और का नम्बर आया तो पाँच-दस अग्निदाह करवा देंगे।

अभी लिस्ट अधूरी है, और नाम आने बाकी हैं, नमक घोल में
खौलाने के लिए।
इस बीच सीपीएम ने लेनिन का पाठ पढ़ा ' एक कदम पीछे, दो कदम आगे' और पीछे हट गयी।
औरों के पास कोई लेनिन नहीं। पीछे कैसे हटें?

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

किताबों में बन्द। कानून का राज?

और क्या हाल हैं? कोई भी मिलते ही पूछता है।

इस सवाल के अनेक जवाब हो सकते हैं। मगर सब के सब पिटे हुए, घिसे हुए। इन जवाबों में ही एक घिसा-पिटा जवाब यह भी है कि '' बस आप के राज में जी रहे हैं।

यह आप का, उन का, मेरा, काँग्रेस, बीजेपी, वाम-मोर्चा, माया, मुलायम, ममता, जया, लालू या और किसी का राज ही खतरे की घंटी है। हमारे देश में सामान्यतया इन में से ही किसी का राज चलता रहता है। संविधान इसे जनता के लिए, जनता के द्वारा जनता पर राज कहता है। मगर इस बात को कोई मानता नहीं। मानता इसलिए नहीं कि ऐसा कोई राज इस देश में कभी आया ही नहीं। तो फिर राज किसका है? जनता जानती है, और कहती भी है। पर बात ये नहीं है। बात यह है कि राज किस का? और कैसा होना चाहिए?

-वास्तव में होना चाहिए, कानून का राज।

-यह कैसा होता है? कैसे होगा?

-कानून का राज, मतलब उन कानूनों का राज, जो किताबों में दर्ज हैं। जिन्हें हमारी संसद और विधानसभाओं ने बनाया है और जिन्हें वह वक्त-जरुरत बनाती रहती है, और बनाती रहेगी। यानी देश के राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, दूसरे मंत्री, सारे नौकरशाह, सारे सरकारी - गैर सरकारी कर्मचारी, सारे पूंजीपती, जमींदार, दुकानदार, व्यापारी, सारी सेना, पुलिस, सारे साहित्यकार, कलाकार, सारे किसान मजदूर जिस कानून को मानते हों और उसी के अनुसार चलते हों।

अब आप सोच रहे होंगे कि 'ऐसा भी कोई होता है क्या? कानून को न मानने वाले भी तो होते हैं। अगर सभी कानून को मानने वाले हों तो फिर राज की जरूरत ही क्या रह जाएगी। पुलिस, वकील और कचहरी की जरूरत भी नहीं होगी। सब लोग अपने आप चलते रहेंगे, समाज भी चलता रहेगा। नहीं, नहीं ऐसा तो हो ही नहीं सकता। और हो जाए तो ये पुलिस वाले, वकील, जज, ये अदालतों के बाबू-मुंशी टाइपिस्ट, ये सब कहाँ जाऐंगे? क्या करेंगे?

आप ने सही सोचा। वैसे कुछ लोग कहते हैं - राज नाम की चीज पहले नहीं हुआ करती थी। यह बाद में पैदा हुई। अब आचार्य बृहस्पति कह गए हैं कि जो पैदा होता है वह मरेगा। इसॉलिए मान लेते हैं कि राज भी कभी पैदा हुआ था तो मरेगा भी। यानी ऐसा भी वक्त आएगा जब राज नहीं रहेगा। इसलिए भी माने लेते हैं कि ये बात है मजेदार। वाकई, मजेदार। क्या बात है? सचमुच ऐसा भी वक्त आएगा जब राज ही नहीं रहेगा। वाकई मजेदार है।

लो आप मजा लेने में लग गए। मैं बात कर रहा था कानून के राज की और आप बे-राज का मजा लेने लगे। भाई मैं एक सीरियस बात करना चाहता हूँ। इसे मजाक में मत उड़ाओ।

-मजाक में न लें, तो करें क्या? संसद, विधानसभाएं कानून बनाती हैं, इसलिए कि देश मे, समाज में सब कुछ ठीक चले। पर लोग हैं कि कहाँ मानते हैं। कानून रख देते हैं ताक पर, अपने हिसाब से चलते रहते हैं।

-कानून को मनवाने का कानून भी तो साथ में बनाते हैं।

-बनाते हैं तो क्या? सिर्फ दिखाने के लिए। सजा तो तब हो जब पुलिस चालान करे। पुलिस चालान करती कहाँ है?

-करती क्यों नहीं? करती तो है?

-सिर्फ दिखाने के लिए। पब्लिक को बताने के लिए। पुलिस को चालान करने के लिए हेड कांस्टेबल या उस से ऊँचे अफसर चाहिए। वो हैं नहीं।

-कहाँ गए?

-थोड़े से हैं। उन्हें मंत्री जी की सुरक्षा, अफसरों की सुरक्षा में लगा दिया। बचे जो चुनाव कराने में लगे हैं। बाकी दंगे कराने, दंगे मिटाने और घर से भाग कर शादी करने वाली लड़कियों को ढूंढ़ने में लगे है।

-फिर कोई रपट दर्ज कराए तो उस पर तो कार्रवाई करते होंगे, .... मेरा मतलब करनी पड़ती होगी।

-करते हैं। समझाते हैं, रपट दर्ज करने वालों को। दुनियांदारी समझाते हैं। बताते हैं, क्या क्या करना होगा? फिर अदालत जाना होगा। वकील, मुन्शी, बाबू, रीड़र, जज सब से निपटना पड़ेगा। समझा कर समझौता कराते हैं।

-ऐसा? पर क्यों कराते हैं जी समझौता।

-बस अदालतें कम हैं जी, बहुत कम। पुलिस भी कम है।

-ऐसा? तो फिर क्या होगा जी?

-बस। ऐसे ही चलता रहेगा। काँग्रेस, बीजेपी, वाम-मोर्चा, माया, मुलायम, ममता, जया, लालू या और किसी का राज। संसद, विधानसभाऐं कानून बनाती रहेंगी। कानून रहेगा किताबों में कैद और राज चलता रहेगा।

और वो कानून का राज?

किताबों में बन्द।

ऐं............, किताबों में बन्द।

बुधवार, 2 जनवरी 2008

ईसा का 2008वाँ साल १८ घंटे देरी से

नया साल अभी १ जनवरी को शाम 6 बजे सांझ ढलने के बाद शुरु हुआ। आप आने वाली सुबह, यानी जनवरी की सुबह को ही नए साल के सूरज की पहली किरन देख पाएंगे या देख पाए होंगे। 2008 की पहली जनवरी की सुबह जो सूरज की पहली किरन आप ने देखी, न देखी हो तो भी वह ईसा के 2007वें साल के आखिरी दिन की पहली किरन थी।

आप आश्चर्य में न पड़ें। यह बिलकुल सही है। एक साल 365 दिन और 6 घंटों का होता है। अब आप मेरे साथ गणित करते चलें। ईसा का पहला साल आधी रात को शुरु हुआ, और खत्म हुआ 365 दिन और 6 घंटों के बाद। दूसरा साल शुरू हुआ १ जनवरी २ को सुबह ६ बजे। इस के ठीक ३६५ दिन और ६ घंटों के बाद तीसरा साल शुरू हुआ 1 जनवरी 3 को दोपहर 12 बजे। चौथा साल शुरू हुआ 1 जनवरी 4 को शाम 6 बजे। और पांचवाँ साल? क्या 1 जनवरी 5 को रात 12 बजने के समय?

नहीं, पूरे एक दिन की गड़बड़ हो गयी। केलेण्डर बनाने वालों ने गड़बड़ को दूर कर दिया हर चौथे साल में एक दिन बेशी जोड़ कर। तब से हर चौथे साल में एक दिन 29 फरवरी बेशी होने लगा। पर यह गड़बड़ दूर होती है चौथे साल के फरवरी महीने में जा कर। इसलिए हर चौथा साल शुरू होता है १ जनवरी की शाम 6 बजे। 2008वाँ साल वही चौथा साल है।

हो गयी गणित ? अब इसे अगले साल तक याद रखें। पर यह भी याद रखें अगला साल 31 दिसम्बर की रात 12 बजे बाद शुरू हो जाएगा।

31 दिसम्बर 2007 की रात 12 बजने के करीब एक घंटे पहले मुझे सूचना मिली कि मेरे एक प्रिय संबंधी श्री डी.सी.शर्मा जी नहीं रहे। मैं एक जनवरी की सुबह पाँच बजे ही उन की अन्त्येष्टी में सम्मिलित होने के लिए सवाई माधोपुर के लिए रवाना हो गया और शाम छह बजे घर लौटा। तब जाकर मेरा नया साल 2008 शुरू हुआ। यह भी एक वजह है।

डी.सी.शर्मा जी मिलनसार, दूसरों के काम आने वाले दिलदार आदमी थे। जो भी उनसे मदद मांगता अपनी सामर्थ्यानुसार करते थे। वे राजस्थान पी.डब्लू.डी. में सहायक इंजीनियर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। मात्र 66 वर्ष की उन की आयु थी। उन की दूसरी पुत्री का विवाह मेरे छोटे भाई के साथ हुआ था। बाद में वे अपनी तीसरी पुत्री के लिए वर देखने कोटा आए तो संभावित वर के पिता ने उन से पूछा कि द्विवेदी जी तो गौड़ ब्राह्मण नहीं हैं? उन्हों ने कहा-मुझे पता नहीं कौन से हैं? उन्हीं से पूछ लीजिए। उन सज्जन ने फिर पूछा –फिर आप ने बिना जाने यह सम्बन्ध कैसे कर लिया? तो इस पर शर्मा जी बोले –भाई मेरी और वकील साहब (मैं) की जन्मपत्री मिल गयी और हम ने संबंध बना लिया। बाद में उन सज्जन का पुत्र शर्मा जी का दामाद नहीं बन सका।

शर्मा जी को मेरी विनम्र श्रद्घांजली। वे मेरी स्मृतियौं में अमिट रहेंगे।

सभी ब्लागर साथियों को नववर्ष पर बहुत-बहुत बधाइयाँ।

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

जब्भी चाहो मनाऔ नयो साल, मना मती करो ....(2)

पिछले साल से आगे ........................

आप ने अब तक अपने लिए नया साल नहीं चुना हो तो आगे बढ़ा जाए। पंजाब के लोग १३ अप्रेल को बैसाखी के दिन से अपना नया साल शुरू करते हैं और जितनी धूमधाम से इसे मनाते हैं, दुनियाँ भर में शायद ही कोई अन्य नववर्ष मनाया जाता हो। मुझे यह नववर्ष सब से अधिक वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इस दिन मेष की संक्रांति होती है, और सूरज मीन राशि से निकल कर मेष राषि में प्रवेश करता है। यानी सूरज एक राशिचक्र को पूरा कर नए राशि चक्र में प्रवेश करता है। इन दिनों फसलें खेतों से घरों पर आ चुकी होती हैं, अधिकांश बिक भी चुकी होती हैं, तो रोकड़ा किसान के पास होता है। पूरे भारत में अर्थचक्र तेजी से घूमने लगता है। लोगों के चेहरों पर चमक होती है। मैं इस दिन चाह कर भी नववर्ष नहीं मना पाता। मेरे यहां कोई भी परिवार-सदस्य, दोस्त या रिश्तेदार इसे नहीं मनाता और उन के बिना काहे का नववर्ष इसलिए मैं भी नहीं मना पाता।

अपने मनपसंद, पर नहीं मनाए जा सकने वाले इस नववर्ष का बखान बहुत हो लिया। अब आगे बढ़ा जाए। इस से अगले ही दिन बंगाली और आसामी अपना नववर्ष मनाते हैं। कैसे इस की विशेष जानकारी मुझे नहीं. देबू दा’ इस बारे में अधिकारिक रूप से बता सकते हैं। मैं इस विषय पर आलेख लिखने के उन के अधिकार पर डाका क्यों डालूँ।

अब हम सीधे अगस्त के महीने में आ जाते हैं। इस बीच किसी का नववर्ष छूट गया हो तो माफ करना, और टिप्पणी कर, अपनी नाराजगी दूर कर लेना। मैं उसे सहेज लूंगा, अगले साल का नववर्ष आलेख लिखने के काम आ जाऐँगी या बीच में जब भी भूला हुआ नववर्ष पड़ जाएगा, तभी ठेल दूंगा। इसी महीने भाद्रपद शुक्ल तृतिया को जैन धर्मावलम्बी संवत्सरी मनाते हैं, और जैन नववर्ष इसी दिन से आरम्भ होता है।

अब तक आप ने नववर्ष मनाने के लिए अपना दिन तय कर लिया होगा। अगर नहीं किया हो तो अब यह आखिरी अवसर है। कम से कम तब तक, जब तक कि मैं, आप या और कोई भी अन्य कोई दिन नववर्ष मनाने के लिए ढूंढ नहीं लाता है। अब हाजिर है, आप का मन पसंद दिन, यानी कार्तिक की अमावस्या का दिन। जब अमावस्या की काली रात में पूरा भारत जगमगा उठता है। सोने वालों की नीन्द धमाकों से हराम रहती है। रहे भी क्यों नहीं। यार, कोई ये भी सोने का दिन है, यह तो सोने वाली के आने का दिन है। जागो और घर का दरवाजा खुल्ला रक्खो, जाने कब लक्ष्मी जी आ जाऐं, और आप उन की किरपा से वंचित हो जाऐं। भारत के आज कल के वास्तविक राजपुरुष, यानी व्यापारी, उद्योगपति, पूंजीपति और देसी में ‘बनिए’ इसी दिन से अपना नववर्ष शुरु करते हैं। आप भी कर लीजिए। मुझे तो इसी में सुभीता और लाभ-शुभ नजर आता है। त्यौहार तो मनाना ही है। नववर्ष बोनस में मनाया जा सकता है।

और भी कोई दिन आप को पता हो, या कभी लग जाए तो मुझे जरुर बताऐं। अगले साल गारण्टी के साथ आप के नाम के साथ उस का जिक्र करुंगा। लेकिन.....

इस पोस्ट को समाप्त करने के पहले मुझे मेरे शहर के हास्य कवि दिवंगत श्री गुलकन्द जी का स्मरण हो आया है। उन की अंतिम आकांक्षा यह थी कि उन की अंतिम यात्रा में कोई भी ऐसा न हो जिसने भंग नहीं पी रखी हो। जो लोग गलती से सादा पहुँच गए हों. तो मुक्ति धाम (श्मशान) में ही घोंटें, और पिएं। कोई ऐसा न हो जिस ने शंकर जी के प्रसाद का सेवन नहीं किया हो। वे अपनी ये वसीयत कविता के रूप में मृत्यु के कुछ दिन पहले ही लिख कर अपने पुत्रों के हवाले कर गए।

इन्हीं गुलकन्द जी के एक मित्र दूसरे मित्र से मिले। तो दूसरे ने पूछा कि कल आप कवि गोष्टी में नहीं आए। तो जवाब मिला कि गुलकन्द जी ने जन्मदिन मनाया था, उसी पार्टी में था। पूछने वाले की प्रतिक्रिया थी, कि आप झूठ बोल रहे हैं, गुलकन्द जी का जन्मदिन तो पिछले महीने था, और मैं खुद उस पार्टी में शामिल था। पूछताछ पर पता लगा कि गुलकन्द जी साल में तकरीबन आठ-दस बार जन्मदिन मना लिया करते थे। मेरा कहने का मतलब ये है, कि भैया उल्लास का मौका हो, तो कब्भी मना लो। साल में दस बार क्यों नहीं। और नहीं मनाना हो तो मती मनाओ पर ओरन को तो मना मती करो।

अब आया आज का दिन। यानी कि एक जनवरी का दिन। सारी दुनियाँ में ही नहीं भारतवर्ष यानी हिन्दुस्तान में भी सब से अधिक लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। और जिस दिन को बहुमत जनता नववर्ष मनाए, वही हमारा भी नया साल।

तो नया साल आप के लिए नई खुशियाँ लाए, बधाइयाँ, और बधाइयाँ