@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: culture
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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली के पहले की एक रंगभरी शाम

ज मिलादुन्नबी का त्यौहार था। बहुतों के साथ ही मेरे लिए भी होली के पहले एक दिन और अवकाश का। इस्लाम के अनुयायियों के लिए उतना ही बड़ा दिन जितना शायद कृष्ण जन्माष्टमी या क्रिसमस है। बिटिया दीपावली के बाद अब घर आई है तो घर ही रहा। कुछ साल पहले तक मुहल्ले में होली मुहल्ले की सोसायटी मनाती थी। तो हफ्ते भर पहले से मेरा दफ्तर सोसायटी का दफ्तर हो जाता था। पहले होली मनाने के तरीके पर मीटिंग होती। फिर चंदा इकट्ठा किया जाता। फिर होली की तैयारी शुरू हो जाती। कुछ सालों से सोसायटी ने यह काम बंद कर दिया। यह जिम्मा नौजवानों ने संभाल लिया। मैं ने कल ही विकास को पूछा था -भाई होली की तैयारी नहीं है क्या। वह अपने कामों में उलझा था। वह बोला था -अंकल कल का दिन बहुत है, सब कर लेंगे। मैं ने उसे बताया था कि मेरे पास विजया का अच्छा स्टॉक पड़ा है उसे टेस्ट कर लो। होली के दिन काम में लेने लायक है या नहीं। उस ने शाम को आने को बोला। लेकिन शाम को गच्चा मार गया। मैं भी पूर्वा को स्टेशन से लाने में व्यस्त हो गया।
ज सुबह से ही जी-मेल के बज़ पर दिल्ली से अजय झा विज्ञापन लगाए बैठे थे....
  • होलिका दहन के लिए लकडी के दरवाजे खिडकियां खटिया के दाता लोग नाम लिखाएं ..जल्दी ...पावती रसीद के साथ भांग का पाऊच फ़्री मिलेगा :) :) :) :) :) :)
जोधपुर से हरि शर्मा बोले-
  • इस तरह मांगने से काम न चलेगा, चोरी करनी पड़ेगी।
हम ने विज्ञापन देखा तो बोल दिया.....
  • कुछ टूटे स्टूल टेबल का कबाड़ छत पर पड़ा है। आप खुशी से मंगा सकते हैं। मेरे ऑफिस (जो घर पर ही है) की टेबुल की दराज में दो सौ चालीस ग्राम भांग रखी है (दस ग्राम प्रयोग में ली जा चुकी है) कबाड़ उठाने आप खुद आ जाएँ तो छत पर ही सिल-बट्टा बजा लिया जाएगा। आप का इंतजार है।
म शाम तक इंतजार में रहे झा जी आएँगे! पर उन्हें न आना था, न आए! शाम को विकास अपनी टीम ले कर पहुँचा। एक छोटे से कागज के पुर्जे में लिस्ट बनाई हुई थी। मैं ने पुर्जा देखा तो वे लोग 2250 रुपए एकत्र कर चुके थे, मेरे सौ मिला कर 2350 पचास हो गए। होली का अच्छा खासा इंतजाम हो चुका था। वे भी ये काम कर के थक चुके थे। तुरंत सिल-बट्टा ले आए। विजया पहले घुटी, फिर छन गई। भोले का प्रसाद सबने लिया। अंत में महेन्द्र 'नेह' आए, वे भी चख गए। हमने आधे घंटे बाद काव्य-मधुबन के सालाना कार्यक्रम फुहार में जाना तय किया जहाँ इस बार सूर्यकुमार पाण्डेय का सम्मान होना था। यह संस्था प्रतिवर्ष होली की पूर्व संध्या पर एक व्यंगकार को सम्मानित करती है।

हेन्द्र नेह के साथ कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ गायन चल रहा था। भावना काले और भूपेन्द्र शर्मा होरियाँ गा रहे थे। हम भी सुनने बैठ गए। होरी गायन विशुद्ध रूप से प्रेम में पगा होता है। चाहे वह प्रेम भौतिक हो या आध्यात्मिक। प्रेम का गायन बहुत ऊर्जा चाहता है। वह गायन बिलकुल मन से हो तो उस के आनंद का जवाब नहीं। भावना काले बहुत अच्छा गाती हैं। लेकिन आज ऐसा लगा जैसे उन का मन कहीं और भटका हुआ है, व्यथित है, उन के गायन में मन का रंग नहीं था। गायन में कहीं कोई कमी नजर आ रही थी। मैं उन से पूछना भी चाहता था कि ऐसा क्यों है? लेकिन  कार्यक्रम के बाद उन से भेंट ही नहीं हो सके। लेकिन जब भूपेन्द्र शर्मा गाने लगे तो मन का वह रंग खिलने लगा। वह गायन कला के नियमों से ऊपर था। जैसे प्रेम अठखेलियाँ कर रहा हो।
गायन समाप्त हुआ तो सूर्यकुमार जी पांडेय जी का सम्मान हुआ। कोटा की साहित्यिक बिरादरी के सभी मंजे हुए हस्ताक्षर वहाँ उपस्थित थे। उन में व्यंगकार औंकारनाथ चतुर्वेदी, नाटक कार शिवराम, ब्लागरों में नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी और शरद तैलंग वहाँ थे। समारोह के अंत में पाण्डेय जी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया और बहुत सी व्यंग्य रचनाएं सुनाई। आलोचक उषा झा ने उन का परिचय दिया तो पता लगा उन्हें 1970 से सम्मान मिलने आरंभ हो गए थे। हर साल दो-चार सम्मान उन्हों ने प्राप्त किए और अब तक प्राप्त किए जा रहे हैं। मैं उन का सम्मान प्राप्त करने का माद्दा देख कर दंग रह गया। वह उन की काबिलियत को प्रदर्शित कर रहा था। वैसे भी पाण्डेय जी ने 1970 से आज तक सब तरह का साहित्य लिखा है। जब जब जिस की मांग रही वही उन्हों ने लिखा और मांग को पूरा किया और पूरी शुचिता के साथ। वे वास्तविक मसिजीवी रहे हैं। अंत में उन्हों ने अपना एक गद्य व्यंग्य सुनाया। उन के व्यंगकार का महत्व यह रहा कि उन्हों ने आम मध्यवर्ग के मन को ठीक से अपने साहित्य में उड़ेला। उन्हों ने व्यवस्था की कुरूपता को उजागर किया और उस के छद्म को जग जाहिर कर लोगों को हंसाया भी।  
विगत आठ सालों से कोटा की संस्था काव्य-मधुबन होली के अवसर पर निरंतर इस सम्मान समारोह को आयोजित करती रही है, यह बड़ी बात है। इस निरंतर आयोजन के पीछे संस्था के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी का श्रम और लगन रही है। आज के आयोजन का सफल संचालन भी उन्हों ने ही किया। वे स्वयं एक समर्थ कवि और व्यंगकार हैं। उन का अपना हिन्दी ब्लाग भी है। बस उसे वे अपना अधिक समय नहीं दे पाते। लेकिन उन से हिन्दी ब्लाग जगत में सक्रिय होने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है जिस से उन के रचना कौशल का जलवा वे यहाँ भी बिखेर सकें।
चित्र
1. कैप्शन की जरूरत नहीं, 2. गायक भूपेन्द्र शर्मा, 3.सम्मान के बाद अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते सूर्यकुमार पाण्डेय, 4. समारोह के बाद पांडेय जी और व्यंगकार शरद तैलंग।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज किसी ने बताया नहीं, कि बसंत पंचमी है

मुझे पता था आज बसंत-पंचमी है। पर न जाने क्यों लग रहा था कि आज बसंत पंचमी नहीं है। शायद मैं सोच रहा था कि कोई आए और मुझ से कहे कि आज बसंत पंचमी है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अक्सर इन त्योहारों का महिलाओं को खूब ध्यान रहता है। पत्नी शोभा मेरे बिस्तर से उठने के पहले ही स्नान कर चुकी थी, बाल भी धोए थे और सूखने के लिए खुले छोड़े हुए थे। मैं ने सोचा वह जरूर कह देगी कि आज बसंत पंचमी है। पर उस ने भी कुछ नहीं कहा।  सुबह नेट पर ब्लाग पढ़ता हूँ। वहाँ इस विषय पर कुछ नजर नहीं आया। मेरे यहाँ दो अखबार नियमित रूप से आते हैं। उन में बसंत-पंचमी तलाशता रहा। लेकिन दोनों अखबारों में बसंत पंचमी का उल्लेख नहीं था। मैं ने ऊब कर अखबार छोड़ दिए।  मैं दस बजे तक स्नानघर में नहीं घुसा। सोचा अब तो पत्नी जरूर कह ही देगी कि त्योहार कर के स्नान में देरी कर रहे हो। लेकिन फिर भी उस ने नहीं कहा और चुपचाप अपने भगवान जी की पूजा में लग गई। मैं नहा कर निकला तो वह मेरे लिए भोजन तैयार कर रही थी। मैं तैयार होता उस के पहले उस ने भोजन परोस दिया। मैं अदालत के लिए निकल लिया।  

ज शहर में चेंपा की भरमार थी। शायद सरसों की फसल कटने लगी थी और वे करोड़ों-अरबों की संख्या में बेघर हो शहरों की तरफ उड़ आए थे। यह उन की यह अंतिम यात्रा थी और शायद वे जीवनलीला समाप्त होने के पहले जी भर कर स्वतंत्रता से उड़ लेना चाहते थे। मैं शहर में पैदा हुआ और तब से अधिकतर शहरों में ही रहा हूँ। लेकिन मैं ने कभी शहर की तरफ आते सियार को नहीं देखा। हाँ कभी यात्रा में रात के समय वाहन की रोशनी में जंगल के बीच से निकल रही सड़क पर अवश्य दिखे। शायद इंसानों की मुहावरेबाजी से वे बहुत पहले ही यह सीख चुके हैं कि शहर की और जाना मौत बुलाना है और उन्हों ने शहर की ओर भागना बंद कर दिया है। मुझे लगता है मुहावरा बदल डालना चाहिए और कहना चाहिए "जब मौत आती है तो चेंपा शहर की और उड़ता है।" अदालत में आज कुछ काम नही हुआ। अधिकतर अदालतों में जज नहीं थे। शायद वसंतपंचमी का ऐच्छिक अवकाश था जिसे उन्होने काम में लिया था। दोपहर तक सब काम निपट गया। दो बार मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी भी पी ली। लेकिन किसी ने उल्लेख नहीं किया कि आज बसंत पंचमी है।

दालत से आते समय एक दफ्तर भी गया, जहाँ एक कवि-मित्र नौकरी में हैं। उन्हों ने भी कुछ नहीं कहा। मैं घर पहुँचा तो वहाँ ताला पड़ा था। शोभा कहीं निकल गई थी। मैं अपनी चाबी से ताला खोल अंदर आया। नैट खोला तो वहाँ कुछ पोस्टें बसंत पर दिखाई पड़ी। मन को कुछ संतोष हुआ, चलो कुछ लोगों को तो पता है कि आज बसंत पंचमी है। वर्ना मुझे तो लगने लगा था कि इस बार  बसंत पंचमी जल्दी पड़ रही है इस कारण सभी उसे भूल गए हैं। इस बीच दफ्तर में कोई आ गया। उस का काम निपटा कर बाहर निकला तो देखता हूँ। बाहर कचनार पर आठ-दस सफेद फूल खिले हैं और वह कह रहा है, बसंत आ चुका है। कुछ देर बाद शोभा लौट आई। हमने साथ कॉफी पी। मैं फिर अपने काम में लग गया। निपटा तो रात हो चुकी थी। अंदर गया तो शोभा भगवान जी की आरती उतार रही थी। उस ने भगवान जी का घर फूलों से सजा रखा था। मैं मन ही मन मुसकाया, चलो मुझे नहीं कहा कि आज बसंत पंचमी है लेकिन उसे पता तो है। कुछ देर बाद भोजन के लिए तैयार हो मेज पर पहुँचा तो शोभा भोजन लगा चुकी थी। वह भगवान जी के यहां से एक पात्र उठा कर लाई। उस में पीले रंग के चीनी की चाशनी में पके बासमती चावल थे, जिन से महक उठ रही थी। मैं ने उसे कहा -तो तुम्हें पता था, आज बसंत पंचमी है? मुझे क्यों नहीं बताया? कहने लगी -आप को खुद पता होना चाहिए, यह बात भी मुझे बतानी होगी क्या?

सोमवार, 18 जनवरी 2010

भविष्य के लिए मार्ग तलाशें

नवरत पर कल की पोस्ट जब इतिहास जीवित हो उठा का उद्देश्य अपने एक संस्मरण के माध्यम से आदरणीय डॉ. रांगेव राघव जैसे मसिजीवी  को उन के जन्मदिवस पर स्मरण करना और उन के साहित्यिक योगदान के महत्व को प्रदर्शित करना था। एक प्रभावी लेखक का लेखन पाठक को गहरे बहुत गहरे जा कर प्रभावित करता है। डॉ. राघव का साहित्य तो न जाने कितने दशकों या सदियों तक लोगों को प्रभावित करता रहेगा। आज उस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत मुझे मुरैना के युवा ब्लागर और वकील साथी भुवनेश शर्मा से  फोन पर चर्चा हुई। वे बता रहे थे कि वे वरिष्ठ वकील श्री विद्याराम जी गुप्ता  के साथ काम करते हैं जिन की आयु वर्तमान में 86 वर्ष है, उन्हें वे ही नहीं, सारा मुरैना बाबूजी के नाम से संबोधित करता है। वे इस उम्र में भी वकालत के व्यवसाय में सक्रिय हैं।  आगरा में अपने अध्ययन के दौरान डॉ. रांगेय राघव के साथी रहे हैं। बाबूजी विद्याराम जी गुप्ता ने कुछ पुस्तकें लिखी हैं और प्रकाशित भी हुई हैं। लेकिन उन की स्वयं उन के पास भी एक एक प्रतियाँ ही रह गई हैं। उन्हों ने यह भी बताया कि वे उन पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन का मानस भी रखते हैं। मैं ने उन से आग्रह किया कि किसी भी साहित्य को लंबी आयु प्रदान करने का अब हमारे पास एक साधन यह अंतर्जाल है। पुनर्प्रकाशन के लिए उन की पुस्तकों की एक बार सोफ्ट कॉपी बनानी पड़ेगी। वह किसी भी फोंट में बने लेकिन अब हमारे पास वे साधन हैं कि उन्हें यूनिकोड फोंट में परिवर्तित किया जा सके। यदि ऐसा हो सके तो हम उस साहित्य को अंतर्जाल पर उपलब्ध करा सकें तो वह एक लंबी आयु प्राप्त कर सकेगा। मुझे आशा है कि भुवनेश शर्मा मेरे इस आग्रह पर शीघ्र ही अमल करेंगे।


ल की पोस्ट पर एक टिप्पणी भाई अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की भी थी। मेरे यह कहने पर कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई थे और इंद्र इतने बदनाम हो गए थे कि उन के स्थान पर विष्णु को स्थापित करना पड़ा, उन्हें इतना तीव्र क्रोध उपजा कि वे अनायास ही बीच में कम्युनिस्टों और मार्क्स को ले आए। मेरा उन से निवेदन है कि किसी के भी तर्क का जवाब यह नहीं हो सकता कि 'तुम कम्युनिस्ट हो इस लिए ऐसा कहते हो'। उस का उत्तर तो तथ्य या तर्क ही हो सकते हैं। अपितु इस तरह हम एक सही व्यक्ति यदि कम्युनिस्ट न भी हो तो उसे कम्युनिज्म की ओर ढकेलते हैं। इस बात पर अपना अनुभव मैं पूर्व में कहीं लिख चुका हूँ। लेकिन वह मुझे अपनी पुरानी पोस्टों में नहीं मिल रहा है। कभी अपने अनुभव को अलग से पोस्ट में लिखूंगा। 

ल की पोस्ट पर ही आई टिप्पणियों में फिर से एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि आर्य आक्रमण कर्ता थे या नहीं। वे बाहर से आए थे या भारत के ही मूल निवासी थे। इस विवाद पर अभी बरसों खिचड़ी पकाई जा सकती है। लेकिन क्या यह हमारे आगे बढ़ने के लिए आवश्यक शर्त है कि हम इस प्रश्न का हल होने तक जहाँ के तहाँ खड़े रहें। मेरे विचार में यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि हम आर्यों की उत्पत्ति का स्थान खोज निकालें और वह हमारे आगे बढने की अनिवार्य शर्त भी नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ, और शायद आप में से अनेक लोग अपने अपने जीवन अनुभवों को टटोलें तो इस का समर्थन भी करेंगे कि वर्तमान भारतीय जीवन पर मूलतः सिंधु सभ्यता का अधिक प्रभाव है। बल्कि यूँ कहें तो अधिक सच होगा कि सिंधु सभ्यता के मूल जीवन तत्वों को हमने आज तक सुरक्षित रखा है। जब कि आर्य जीवन के तत्व हम से अलग होते चले गए। मेरी यह धारणा जो मुझे बचपन से समझाई गई थी कि हम मूलतः आर्य हैं धीरे-धीरे खंडित होती चली गई। मुझे तो लगता है कि हम मूलत सैंधव या द्राविड़ ही हैं और आज भी उसी जीवन को प्रमुखता से जी रहे हैं। आर्यों का असर अवश्य हम पर है। लेकिन वह ऊपर से ओढ़ा हुआ लगता है। यह बात हो सकता है लोगों को समझ नहीं आए या उन्हें लगे कि मैं यह किसी खास विचारधारा के अधीन हो कर यह बात कह रहा हूँ। लेकिन यह मेरी अपनी मौलिक समझ है। इस बात पर जब भी समय होगा मैं विस्तार से लिखना चाहूँगा। अभी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं कि उस में समय दे सकूँ। अभी तो न्याय व्यवस्था की अपर्याप्तता से अधिकांश वकीलों के व्यवसाय पर जो विपरीत प्रभाव हुआ है। उस से उत्पन्न संकट से मुझे भी जूझना पड़ रहा है। पिछले चार माह से कोटा में वकीलों के हड़ताल पर रहने ने इसे और गहराया है।
कोई भी मुद्दे की गंभीर बहस होती है तो उसे अधिक तथ्य परक बनाएँ और समझने-समझाने का दृष्टिकोण अपनाएँ। यह कहने से क्या होगा कि आप कम्युनिस्ट, दक्षिणपंथी, वामपंथी, राष्ट्रवादी , पोंगापंथी, नारीवादी, पुरुषवादी या और कोई वादी हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं, इस से सही दिशा में जा रही बहस बंद हो सकती है और लोग अपने अपने रास्ते चल पड़ सकते हैं या फिर वह गलत दिशा की ओर जा सकती है। जरूरत तो इस बात की है कि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशें। यदि भविष्य के रास्ते के परंपरागत नाम से एतराज हो तो उस का कोई नया नाम रख लें। यदि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशने के स्थान पर अपने अपने पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आपत्ति है कि यह पूर्वग्रह होना चाहिए, हालांकि मुझे पूर्वाग्रह ठीक जँचता है") डटे रहे और फिजूल की बहसों में समय जाया करते रहे तो भावी पीढ़ियाँ हमारा कोई अच्छा मूल्यांकन नहीं करेंगी। 

रविवार, 17 जनवरी 2010

जब इतिहास जीवित हो उठा

1976 या 77 का साल था। मैं बी. एससी. करने के बाद एलएल.बी कर रहा था। उन्हीं दिनों राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिए पहली और आखिरी बार प्रतियोगी परीक्षा में बैठा। मैं ने अपने विज्ञान के विषयों के स्थान पर बिलकुल नए विषय इस परीक्षा के लिए चुने थे। उन में से एक भारत की प्राचीन संस्कृति और उस का इतिहास भी था। इस विषय का चयन मैं ने इसलिए किया था कि मैं इस विषय पर अपने पुस्तकें पढ़ चुका था जिन में दामोदर धर्मानंद कौसम्बी और के.एम. पणिक्कर की पुस्तकें प्रमुख थीं और जिन्हों ने मुझे प्रभावित किया था। कौसंबी जी की पुस्तक मुझे अधिक तर्कसंगत लगती थी जो साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करती थी।
मैं इस विषय का पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। घंटा बजते ही हमें प्रश्नपत्र बांट दिए गए। मैं उसे पढ़ने लगा। पहला ही प्रश्न था। "वर्तमान हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म और सिंधु सभ्यता के धर्म में से किस का अधिक प्रभाव है? साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए अपना उत्तर दीजिए।" 
मैं उस प्रश्न को पढ़ते ही सोच में पड़ गया। मैं ने इस दृष्टि से पहले कभी नहीं सोचा था। मैं ने अपने अब तक के समूचे अध्ययन पर निगाह दौड़ाई तो उत्तर सूझ गया कि मौजूदा हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म की अपेक्षा सिंधु सभ्यता के धर्म का अधिक प्रभाव है।यहाँ तक कि सिंधु सभ्यता के धर्म के जितने प्रामाणिक लक्षण इतिहासकारों को मिले हैं वे सभी आज भी हिन्दू धार्मिक रीतियों में मौजूद हैं। जब कि हमारे हिन्दू धर्म ने आर्यों के धर्म के केवल कुछ ही लक्षणों को अपनाया है। मैं सभी साक्ष्यों पर विचार करने लगा। मुझे लगा कि मैं उस युग में पहुँच गया जब आर्यों का सिंधु सभ्यता के निवासियों से संघर्ष हुआ होगा। दोनों के धर्म, संस्कृति और क्रियाकलाप एक फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में दिखाई देने लगे। जैसे मैं उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। उक्त वर्णित दो प्रामाणिक पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक मुझे स्मरण आ रही थी जिस ने इस दृष्यीकरण ( visualisation) का काम किया था। वह पुस्तक थी डॉ. रांगेय राघव का ऐतिहासिक उपन्यास "मुर्दों का टीला"

मैं ने आगे के प्रश्नों को पढ़े बिना ही प्रश्न का उत्तर लिखना आरंभ कर दिया। मूल उत्तर पुस्तिका पूरी भर गई, उस के बाद एक पूरक  उत्तर पुस्तिका भर गई और दूसरी पूरक उत्तरपुस्तिका के दो पृष्ठ लिख देने पर उत्तर पूरा हुआ। इस उत्तर में मैं सारे साक्ष्यों की विवेचना के साथ साथ इतिहास के तर्कशास्त्र के सिद्धांतो को भी अच्छी तरह लिख चुका था। मैं आगे के प्रश्नों को पढ़ता उस से पहले ही घंटा बजा। मैं ने घड़ी देखी दो घंटे पूरे हो चुके थे। केवल एक घंटा शेष था, जिस में मुझे चार प्रश्नों के उत्तर लिखने थे। मैं ने शेष प्रश्नों में से चार को छाँटा और उत्तर पुस्तिका में नोट लगाया कि - मैं पहले प्रश्न का उत्तर विस्तार से लिख चुका हूँ और इतिहास व उस के तर्कशास्त्र से संबद्ध जो कुछ भी मैं इस पहले प्रश्न के उत्तर में लिख चुका हूँ उसे अगले प्रश्नों के उत्तर में पुनः नहीं दोहराउंगा। शेष प्रश्नों के उत्तर के लिए केवल पौन घंटा समय शेष है इस लिए मैं उत्तर संक्षेप में ही दूंगा। मैं ने शेष प्रश्न केवल दो-दो पृष्ठों में निपटाए। समय पूरा होने पर उत्तर पुस्तिका दे कर चला आया । मैं सोचता था कि मैं पचास प्रतिशत अंक भी कठिनाई से ला पाउंगा। लेकिन जब अंक तालिका आई तो उस में सौ में से 72 अंक मुझे मिले थे। इन अंको का सारा श्रेय डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक " मुर्दों का टीला" को ही था।
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है। मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही कर्कट रोग के कारण उन्हें काल ने हम से छीन लिया। इस अल्पायु में ही उन्हों ने इतनी संख्या में महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं कि कोई प्रयास कर के ही उन के समूचे साहित्य को एक जीवन में पढ़ सकता है। बहुत लोगों ने उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। उन की पुस्तकें आगे भी पढ़ी जाएंगी और लोग उन से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे।

वे मेरे अनेक गुरुओं में से एक हैं। उन्हें उन के जन्मदिवस पर शत शत प्रणाम !


उन की पुस्तकों की एक सूची मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ --

रांगेय राघव की कृतियाँ
उपन्यास    
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह    
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य    
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक    
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क       

रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
आलोचना    
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •


शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

प्रकृति के त्यौहार मकर संक्रांति पर एक स्थाई सद्भावना समारोह

कर संक्रांति का धर्म से क्या रिश्ता है? यह तो आप सब को जानते हुए पूरा सप्ताह हो चुका है। टीवी चैनलों ने इसी बात को बताने में घंटों जाया किया है। ऐसा लगता था जैसे वे इस देश को कोई नई जानकारी दे रहे हों। सब को पता था कि मकर संक्रांति पर उन्हें क्या करना था? घरों पर महिलाओं ने बहुत पहले ही तिल-गुड़ के व्यंजन तैयार कर रखे थे। बाजार के लोगों ने पहले ही दुकानों से चंदा कर दुपहर में भंडारों की व्यवस्था कर ली थी। बच्चे पहले ही पतंगें और माँझे ला कर घर में सुरक्षित रख चुके थे। गाँवों में जहाँ अब भी पतंगों का रिवाज नहीं है, खाती से या खुद ही लकड़ी को बसैलों से छील कर गिल्ली-डंडे तैयार रखे थे। यह सब करने में किसी ने जात और धरम का भेद नहीं किया था। ये सब काम सब घरों में चुपचाप हो रहे थे। पतंग-माँझा बनाने और बेचने के व्यवसाय को करने वालों में अधिकांश मुस्लिम थे। संक्रांति का पर्व उन के घरों की समृद्धि का कारण बन रहा हो कोई कारण नहीं कि उन के यहाँ तिल्ली-गुड़ के व्यंजन न बनते हों।


मकर संक्रांति पर उड़ती पतंगें

लेकिन संक्रांति तो सूर्य की, या यूँ कहें कि समूची पृथ्वी की है।  सूर्य जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है उसे केवल आधुनिक दूरबीनों से सजी वेधशालाओं से ही देखा जा सकता है। लेकिन हमारी धरती सूरज के गिर्द जो परिक्रमा करती है उसे  मापने का तरीका है कि आकाश के विस्तार को हमने 12 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग को राशि की संज्ञा दे दी। अब पृथ्वी की परिक्रमा के कारण सूरज आकाश के विस्तार में हर माह एक राशि का मार्ग तय करता  और दूसरी राशि में प्रवेश करता दिखाई है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के इस आभासी प्रवेश को हम संक्रांति कहते हैं। अब सूरज न तो हिन्दू देखता है और न मुसलमान और न ही ईसाई। वह तो सभी का है। तो संक्रांति भी सभी की हुई, न कि किसी जाति और धर्म विशेष की। हम ही हैं जो इन प्राकृतिक खगोलीय घटनाओं को अपने धर्मों से जोड़ कर देखते हैं। यूँ यह एक ऋतु परिवर्तन का त्योहार है। शीत की समाप्ति की घोषणा। अब दिन-दिन दिनमान बढ़ता जाता है, सूरज की रोशनी पहले से अधिक मिलने लगती है और शीत से कंपकंपाते जीवन को फिर से नया उत्साह प्राप्त होने लगता है। ऐसे में हर कोई जो भी जीवित है उत्साह से क्यों न भर जाए।

शकूर 'अनवर' के मकान की छत पर पतंग उड़ाती लड़कियाँ

मेरे घर तिल्ली-गुड़ के व्यंजन भी बने और अपनी संस्कृति के मुताबिक शोभा (पत्नी) ने परंपराओं को भी निभाया। दुपहर उस ने मंदिर चलने को कहा तो वहाँ भी गया। बहुत भीड़ थी वहाँ। हर कोई पुण्य कमाने में लगा था। मंदिर के पुजारी का पूरा कुनबा लोगों के पुण्य कर्म से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को बटोरने में लगा था। राह में अनेक स्थानों पर भंडारे भी थे। दोनों ही स्थानों पर विपन्न और भिखारी टूटे पड़े थे। सड़कों पर बच्चे बांस लिए पतंगें लूटने के लिए आसमान की ओर आँखें टिकाए थे और किसी पतंग के डोर से कटते ही उस के गिरने की दिशा में दौड़ पड़ते थे।

मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृश्य

मारे नगर के उर्दू शायर शक़ूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर्व पर खास धूमधाम रहती है। वहाँ इस दिन दोपहर बाद एक खास समारोह होता है जिस में नगर के हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के साहित्यकार एकत्र होते हैं। शक़ूर भाई का पूरा परिवार मौजूद होता है। वे इस दिन किसी न किसी साहित्यकार का सम्मान करते हैं। सब से पहले मकान की तीसरी मंजिल की छत पर जा कर शांति के प्रतीक सफेद कबूतर छोड़े जाते हैं। उस के बाद उड़ाई जाती हैं पतंगें जिन पर सद्भाव के संदेश लिखे होते हैं। फिर आरंभ होता है सम्मान समारोह। सम्मान के उपरांत एक काव्यगोष्टी होती है जो शाम ढले तक चलती रहती है जिस में हिन्दी-उर्दू-हाड़ौती के कवि अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। इस मौके पर सब को शक़ूर भाई के घर की खास चाय पीने को तो मिलती ही है। साथ ही मिलती है गुड़-तिल्ली से बनी रेवड़ियाँ और गज़क। शक़ूर भाई के यहाँ संक्रांति पर होने वाले इस सद्भावना समारोह को इस बरस नौ साल पूरे हो गए हैं। शकूर भाई की मेजबानी में इस समारोह का आयोजन  "विकल्प जन सांस्कृतिक मंच" की कोटा नगर इकाई करती है। 


महेन्द्र 'नेह' और शकूर 'अनवर'

ल मैं जब शक़ूर भाई के घर पहुँचा तो कबूतर छोड़े जा चुके थे और पतंग उड़ाने का काम जारी था। जल्दी ही मेहमान पतंगों को एक-एक दो-दो तुनकियाँ दे कर नीचे उतर आए और पतंगों की डोर संभाली शकूर भाई की बेटियों ने। वे पतंगें उड़ाती रहीं। फिर आरंभ हुआ सम्मान समारोह। जिस में कोटा स्नातकोत्तर महाविद्यालय (जो इसी साल से कोटा विश्वविद्यालय का अभिन्न हिस्सा बनने जा रहा है) के उर्दू विभाग की प्रमुख  डॉ. कमर जहाँ बेगम को उन के उर्दू आलोचना साहित्य में योगदान के लिए सद्भावना सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर खुद शकूर अनवर साहब की रचनाओं की पुस्तिका "आंधियों से रहा मुकाबला" का लोकार्पण किया गया। समारोह की अध्यक्षता प्रोफेसर ऐहतेशाम अख़्तर और हितेश व्यास ने की। मुख्य अतिथि वेद ऋचाओं के हिन्दी प्रस्तोता कवि बशीर अहमद मयूख और कथाकार श्रीमती लता शर्मा थीं। बाद में हुई गोष्ठी में  पहले लता जी ने अपनी कहानी 'विश्वास' का पाठ किया और फिर मेजर डी एन शर्मा, अखिलेश अंजुम, अकील शादाब, पुरुषोत्तम यक़ीन, हलीम आईना, डॉ. जगतार सिंह, डॉ. नलिन वर्मा, चांद शेरी, ओम नागर, गोपाल भट्ट, नरेंद्र चक्रवर्ती, ड़ॉ. कंचन सक्सेना, नारायण शर्मा, नईम दानिश, सईद महवी, मुकेश श्री वास्तव, गोविंद शांडिल्य, यमुना नारायण और महेन्द्र नेह आदि ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी का सफल संचालन आर.सी. शर्मा 'आरसी' ने किया। विकल्प की ओर से सभी अतिथियों को विकल्प प्रकाशन की पुस्तिकाएँ भेंट की गईं।

अतिथि और शकूर भाई के परिवार की महिलाएँ

कूर भाई का घर जहाँ स्थित है वहाँ आसपास घनी मुस्लिम आबादी है। लगभग दूर दूर तक सभी घऱ मुसलमानों के हैं। लेकिन जब मैं ने देखा तो पाया कि आस पास की शायद ही कोई छत हो जहाँ लड़के, लड़कियाँ, महिलाएँ और पुरुष पतंगें उड़ाने में मशगूल न हों। सभी में संक्रान्ति का उत्साह देखते बनता था। मुझे लगा कि शायद सारे शहर की सब से अधिक पतंगें इसी मोहल्ले से उड़ रही थीं। मैं ने पूछा भी तो शकूर भाई के बेटे ने कहा। संक्रांति पर सब से अधिक पतंगें हमारे ही मुहल्ले से उड़ती हैं। दुनिया बेवजह ही प्रकृति के इस त्योहार को एक धरम की अलमारी के एक खाँचे में बंद कर सजा देना चाहती है।
इस अवसर पर मैं ने कुछ चित्र भी लिए, आप की नज्र हैं।



डॉ. जगतार सिंह, पुरुषोत्तम 'यक़ीन', मैं स्वयं और डॉ. कमर जहाँ बेगम



शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर
और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए




श्रीमती लता शर्मा अपनी कहानी का पाठ करते हुए


शकूर 'अनवर' की पुस्तिका का लोकार्पण

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बिलाग जगत कै ताईँ बड़ी सँकराँत को राम राम! आज पढ़ो दाभाई दुर्गादान सींग जी को हाड़ौती को गीत

सब कै ताईँ बड़ी सँकराँत को घणो घणो राम राम !

ब्लागीरी की सुरूआत सूँ ई, एक नियम आपूँ आप बणग्यो। कै म्हूँ ईं दन अनवरत की पोस्ट म्हारी बोली हाड़ौती मैं ही मांडूँ छूँ। या बड़ी सँकरात अश्याँ छे के ईं दन सूँ सूरजनाराण उत्तरायण प्रवेश मानाँ छाँ अर सर्दी कम होबो सुरू हो जावे छे। हाड़ौती म्हाइने सँकरात कश्याँ मनाई जावे छे या जाणबा कारणे आप सब अनवरत की 14.01.2008 अर 14.01.2009 की पोस्टाँ पढ़ो तो घणी आछी। आप थोड़ी भौत हाड़ौती नै भी समझ ज्यागा। बस य्हाँ तारीखाँ पै चटको लगाबा की देर छै, आप आपूँ आप  पोस्ट पै फूग ज्यागा।

ज म्हूँ य्हाँ आप कै ताईं हाड़ौती का वरिष्ट कवि दुर्गादान सिंह जी सूँ मलाबो छाऊँ छूँ। वै हाड़ौती का ई न्हँ, सारा राजस्थान अर देस भर का लाड़ला कवि छै। व्ह जब मंच सूँ कविता को पाठ करै छे तो अश्याँ लागे छे जश्याँ साक्षता सुरसती जुबान पै आ बैठी। व्हाँ को फोटू तो म्हारै ताँई न्ह मल सक्यो। पण व्हाँका हाड़ौती का गीत म्हारे पास छे। व्हाँ में सूँ ई एक गीत य्हाँ आपका पढ़बा कै कारणे म्हेल रियो छूँ। 

म्हाँ व्हाँसूँ उमर में छोटा व्हाँके ताँईं दाभाई दुर्गादान जी ख्हाँ छाँ। व्हाँ का हाडौती गीताँ म्हँ हाडौती की श्रमजीवी लुगायाँ को रूप, श्रम अर विपदा को बरणन छै, उश्यो औठे ख्हाँ भी देखबा में न मलै।  एक गीत य्हाँ आप के सामने प्रस्तुत छै। उश्याँ तो सब की समझ में आ जावेगो। पण न्हँ आवे तो शिकायत जरूर कर ज्यो। जीसूँ उँ को हिन्दी अनुवाद फेर खदी आप के सामने रखबा की कोसिस करूँगो। तो व्हाँको मंच पै सब सूँ ज्यादा पसंद करबा हाळा गीताँ म्हँ सूँ एक गीत आप कै सामने छे। ईं में एक बाप अपणी बेटी सूँ क्हे रियो छे कै ........

....... आप खुद ही काने बाँच ल्यो .....

 बेटी
(हाड़ौती गीत) 

  • दुर्गादान सिंह गौड़
अरी !
जद मांडी तहरीर ब्याव की
मंडग्या थारा कुळ अर खाँप
भाई मंड्यो दलाल्या ऊपर
अर कूँळे मंडग्या माँ अर बाप

थोड़ा लेख लिख्या बिधना नें
थोड़ा मंडग्या आपूँ आप
थँईं बूँतबा लेखे कोयल !
बणग्या नाळा नाळा नाप

जा ऐ सासरे जा बेटी!
लूँण-तेल नें गा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।


वे क्हवे छे, तू बोले छे,
छानी नँ रह जाणे कै
क्यूँ धधके छे, कझळी कझळी,
बानी न्ह हो जाणे कै



मत उफणे तेजाब सरीखी,
पाणी न्ह हो जाणे कै

क्यूँ बागे मोड़ी-मारकणी,
श्याणी न्हँ हो जाणे कै
उल्टी आज हवा बेटी
छाती बांध तवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

घणी हरख सूँ थारो सगपण
ठाँम ठिकाणे जोड़ दियो,
पण दहेज का लोभ्याँ ने
पल भर में सगपण तोड़ दियो


कुँण सूँ बूझूँ, कोई न्ह बोले 
सब ने कोहरो ओढ़ लियो
ईं दन लेखे म्हँने म्हारो
सरो खून निचोड़ दियो


वे सब सदा सवा बेटी
थारा च्यार कवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

काँच कटोरा अर नैणजल,
मोती छे अर मन बेटी
दोन्यूँ कुलाँ को भार उठायाँ 
शेष नाग को फण बेटी


तुलसी, डाब, दियो अर सात्यो,
पूजा अर, हवन बेटी
कतनों भी खरचूँ तो भी म्हूँ, 
थँ सूँ नँ होऊँ उरण बेटी 


रोज आग में न्हा बेटी
रखजै राम गवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

यूँ मत बैठे, थोड़ी पग ले,
झुकी झुकी गरदन ईं ताण
ज्याँ में मिनखपणों ई कोने
व्हाँ को क्यूँ अर कश्यो सम्मान

आज आदमी छोटो पड़ ग्यो,
पीड़ा हो गी माथे सुआण 
बेट्याँ को कतने भख लेगो,
यो सतियाँ को हिन्दुस्तान

जे दे थँने दुआ बेटी
व्हाँने शीश नवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

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शनिवार, 2 जनवरी 2010

नववर्ष 2010 का प्रथम सूर्योदय


नववर्ष 2010 का प्रथम सूर्योदय 
फऱीदाबाद सैक्टर 7-डी
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नववर्ष मंगलमय हो 
सब के लिए नई खुशियाँ लाए