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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

शिवराम ..... दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की मशाल


प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी शिवराम का अचानक चले जाना
नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की वह मशाल 
        
                                                                          -महेन्द्र नेह 
 सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी विचारक शिवराम इसी एक अक्टूबर को हृदयगति रूक जाने से अचानक ही हमारे बीच से चले गये।  जीवन के अंतिम क्षण तक वे जितनी अधिक सक्रियता से काम कर रहे थे, उसे देख कर किसी तौर पर भी यह कल्पना नहीं की जा सकती थी, कि वे इस तरह चुपचाप हमारे बीच से चले जायेंगे। देश भर में फैले उनके मित्र, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों में जुटे उनके सहकर्मी, उनके साहित्य के पाठकों के लिए शिवराम के निधन की सूचना अकल्पनीय और अविश्वसनीय थी।  जिसने भी सुना स्तब्ध रह गया।  उनके निधन के बाद समूचे देश में, विशेष तौर पर जन प्रतिबद्ध और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के उद्देश्यों में शामिल संस्थाओं द्वारा शोक-सभाओं एवं श्रद्धांजलि सभाओं का सिलसिला जारी है।
३ दिसम्बर, १९४९ को राजस्थान के करौली नगर के निकट गढ़ी बांदुवा गॉंव में जन्मे शिवराम ने अपने इकसठ वर्षीय जीवन में साहित्य, संस्कृति, वामपंथी राजनीति, सर्वहारा-वर्ग एवं बौद्धिक समुदाय के बीच जिस सक्रियता, विवेकशीलता और तर्क-संगत आवेग के साथ काम किया है, उसका मूल्यांकन आने वाले समय में हो सकेगा। लेकिन जिन्होनें उनके साथ किसी भी क्षेत्र में कुछ समय तक काम किया है, या उनके लेखन और सामाजिक सक्रियता के साक्षी रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि शिवराम बेहद सहज और सामान्य दिखते हुए भी एक असाधारण इन्सान और युग-प्रवर्तक सृजनधर्मी थे।  शिवराम का हमारे बीच से अकस्मात चला जाना मात्र एक प्राकृतिक दुर्घटना नहीं है।  यह उस आवेगमयी उर्जा-केन्द्र का यकायक थम जाना है जो दिन- रात अविराम इस समाज की जड़ता को तोड़ने, नव-जागरण के स्वप्न बॉंटने और एक प्रगतिशील-जनपक्षधर व्यवस्था निर्मित करने के अथक प्रयासों में लगा रहता था ।  
९६९ -७० में अजमेर से यांत्रिक इंजीनियरिंग से प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा करते समय वे विवेकानन्द के विचारों से प्रभावित हुए और अपना पहला नाटक विवेकानन्द के जीवन पर लिखा। उसके बाद दूर-संचार विभाग ने उन्हॉंने छ: माह की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेजा। वहॉं उन्हें हिंदी के सुप्रसिद्ध  कथाकार स्वयंप्रकाश मिले, जिनके साथ न केवल उनकी व्यक्तिगत मित्रता, अपितु गहरी वैचारिक दोस्ती भी पल्लवित हुई।  स्वयंप्रकाश से उन्हें मार्क्सवाद के वैज्ञानिक-समाजवादी सिद्धान्त की प्रारम्भिक जानकारी मिली जो उत्तरोत्तर उनके जीवन, चिंतन और कर्म की धुरी बनती चली गई ।
शिवराम की दूर संचार विभाग में पहली नियुक्ति कोटा के उप-नगर रामगंजमंडी में हुई जो कोटा स्टोन की खानों के कारण श्रमिक-बहुल इलाका है । श्रमिकों के क्रूर शोषण और दुर्दशा देख कर उनके मन में गहरा संताप हुआ।  तभी उन्होंने अपना पहला नाटक  "आगे बढ़ो" लिखॉ।  इस नाटक में एक-दो मध्यवर्गीय मित्रों के अलावा अधिकांश पात्र ही नहीं अभिनेता भी श्रमिक समुदाय के थे।  नाटक के रिहर्सल के दौरान् ही अभिनेता साथियों के साथ उनके गहरे सरोकार जुड़ गये।  नाटक का मंचन भी सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रमिकों के बीच हुआ।  सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि नाट्य-प्रदर्शन के साथ ही कथाकार स्वयंप्रकाश एवं रमेश उपाध्याय ने उस आयोजन में कहानी पाठ किया, जिन्हें पूरे मनोयोग से सुना तथा सराहा गया ।
नाटकों का यह सिलसिला चलता गया और आगे बढ़ता गया।  शहीद भगतसिंह  के जीवन पर नाटक खेला गया और शनै: शनै: इस अभियान ने एक नाट्य- आंदोलन ही नहीं जन-आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली।  नाटक के पात्रों की असल जिन्दगी की कशमकश ने इस बात की मांग की कि विचार और संवेदनाओं को यथार्थ की जमीन पर लाया जाए।  परिणामत: एक केन्द्रीय संस्थान के इंजीनियर होते हुए भी श्रमिकों के संगठन-निर्माण का दायित्व अपने कंधों पर लिया और पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ उसे निभाया।  उन्होनें कोटा में तत्कालीन श्रमिक-संगठन ’सीटू’ के अग्रणी व जुझारू नेता परमेन्द्र नाथ ढन्ड़ा से सम्पर्क किया और श्रमिकों की यूनियन को रजिस्टर्ड कराया।  एक छोटे से लोहे के यंत्रों के उत्पादक कारखाने से प्रारंभ हुए संगठन की लहर पूरे पत्थर खान श्रमिकों के बीच फैल गई। संघर्ष छिड़ गये और पत्थर खान मालिकों के सरगना आंदोलनों के केन्द्र-बिन्दु बने शिवराम को हर-सूरत में नष्ट करने तथा रामगंजमंडी से उनकी नौकरी के स्थानांतरण कराने की मुहिम में जुट गये ।
अंतत: शिवराम का स्थानांतरण कोटा के ही दूसरे उप-नगर बाराँ में कर दिया गया। यहॉं उन्हें बड़ा क्षितिज मिला। वे प्राण-प्रण से श्रमिकों, किसानों-छात्रों-युवकों-साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों को एकजुट करने की व्यापक मुहिम में जुट गये। हिन्दू कट्टरपंथियों के सबसे मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित बाराँ सम्भाग की फिजाँ देखते-देखते ही बदलने लगी। केसरिया की जगह लाल-परचम फहराने लगे।  गॉंवों में कट्टरपंथियों के साथ हथियारबंद टकराहटें हुईं और आन्दोलनकारी युवकों ने बारॉं के रेल्वे स्टेशन को जला कर खाक कर दिया।  लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले नगर के अनेकों बुद्धिजीवी इन आन्दोलनों के साथ जुड़ गये। शिवराम के बारॉं प्रवास के दौरान जो उपलब्धियॉं हुईं वे मामूली नहीं हैं।  बल्कि वे ऐसी बुनियाद हैं, जहॉं से शिवराम के भावी जीवन की उस भूमिका  का ताना-बाना बुना गया, जिसने उन्हें आम बुद्धिजीवी-साहित्यकारों एवं साम्यवादी नेताओं से भिन्न एक प्रखर वक्ता, विचारक एवं सक्रिय राजनैतिक-संस्कृति कर्मी के रूप में स्थापित किया।
 बाराँ में रहकर शिवराम ने साहित्यिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो आज अपनी समझौताहीन सामाजिक-सांस्कृतिक छवि के कारण केवल वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच ही नहीं हिंदी के आम पाठकों और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले ईमानदार समुदाय के बीच भी अपनी प्रखर लोक-सम्बद्धता के कारण विशिष्ट पहचान बनाये हुए है ।  उस दौरान ही उनका प्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" लिखा गया , जो हिंदी के सर्व-प्रथम नुक्कड़ नाटक के रूप में जाना जाता है।  शिवराम न केवल उसके लेखक बल्कि कुशल निर्देशक व अभिनेता के रूप में भी जाने गये।  लखनउ में "जनता पागल हो गई है" पर पुलिस द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने पर, देश की लगभग सभी भाषाओं में रंगकर्मियों द्वारा यह नाटक खेला गया।  यह नाटक न केवल हिंदी के प्रथम नुक्कड नाटक के रूप में बल्कि सर्वाधिक खेले जाने वाले नुक्कड़ नाटकों में से भी है। बाराँ प्रवास के दौरान् ही शिवराम ने "आपात्काल" के विरूद्ध सांस्कृतिक मुहिम चलाई, जिसमें हिंदी क्षेत्र के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार एकत्रित हुए और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के लिए व्यापक अभियान चलाया गया।  इसी दौरान ’जनवादी लेखक संघ’ के गठन की पूर्व पीठिका बनी तथा इलाहाबाद में जलेस के संविधान निर्माण में उन्होनें उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया । 
शिवराम उन लेखकों में से नहीं थे जो मानते हैं कि साहित्यकारों को राजनीति से दूर रहना चाहिए और केवल कविता लिख देने या नाटक खेलने से ही उनके कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है । "कविता बच जायेगी तो धरती बच जायेगी, मनुष्यता बची रहेगी" जैसे जुमलों से उनका स्पष्ट और गहरा मतभेद था।  उनका मानना था कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, वह एक वर्गीय समाज है, जिसमें प्रभु-वर्ग न केवल पूंजी की ताकत पर बल्कि सभी तरह के पिछड़े और प्रतिक्रियावादी विचारों और अप-संस्कृति के जरिये मेहनतकश जनता का निरंतर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक शोषण-दमन कर रहा है । व्यापक जन समुदाय की वास्तविक आजादी और खुशहाली के लिए वर्तमान पूंजीवादी-सामन्ती-सम्प्रदायवादी शासक गठजोड़ की प्रभुता को नष्ट करके, देश में जनता की जनवादी क्रान्ति संपूरित करना व "जनता की लोकशाही" स्थापित करना अनिवार्य है।  वे शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के शोषणविहीन समाज की स्थापना के प्रबल समर्थक थे ।
पने इन्हीं क्रान्तिकारी विचारों को अमल में लाने के लिए उन्होनें कोटा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के जुझारू आन्दोलन में शामिल होकर पार्टी व जन-मोर्चों पर काम किया। लेकिन दुर्भाग्यवश आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् सी.पी.आई.(एम.) के नेतृत्व पर संशोधनवादी गुट हावी हो गया तथा "जनता की जनवादी लोकशाही" स्थापित करने के मुख्य लक्ष्य को ठंडे बस्ते में डाल कर पार्टी में संसदवादी रूझान इतना बढ़ा कि जन आंदोलनों और संघर्ष के स्थान पर पार्टी पूंजीवादी संसदीय दलों की बगलगीर हो कर, खुले आम वर्ग-सहयोग के रास्ते पर बढ़ गई।  सी.पी.आई.(एम.) से पूरे देश में या तो वर्ग-संघर्ष और जनवादी क्रान्ति में विश्वास करने वाले साथियों को बाहर कर दिया गया, या फिर वे इन नीतियों का विरोध करते हुए पार्टी से बाहर आ गये।  इन सभी साथियों ने अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग ढंग व नामों से कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया तथा अपने विकास क्रम में एक देशव्यापी पार्टी एम.सी.पी.आई. (यूनाइटेड़) का गठन किया।  शिवराम की राजस्थान के अग्रणी साथियों के साथ पार्टी के गठन व निर्माण में केन्द्रीय भूमिका थी तथा इस दिशा में वे प्राण-प्रण से जुटे हुए थे ।    
शिवराम का यह भी पक्का विश्वास था कि यद्यपि देश में जनता की लोकशाही स्थापित करने के लिए राजनीतिक क्रान्ति अनिवार्य है, लेकिन न तो अकेले राजनीतिक उपकरणों से सत्ता-परिवर्तन आसान है और न ही उसे टिकाउ रखा जा सकता है।  अत: वे जितना जोर क्रान्ति के लिए जनता की जत्थेबंदी और वर्ग-संघर्ष को तेज करने पर देते थे, उतना ही सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई को भी व्यापक और घनीभूत करना आवश्यक मानते थे।  उनका मानना था कि जनता के बीच अपनी प्रत्यक्ष प्रभान्विति के कारण इस दिशा में नाटक सबसे प्रभावशाली विधा हॉ।  कालांतर में उन्हें लगा कि चूंकि प्रभु-वर्ग अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सिनेमा, टी.वी.,मल्टी-मीड़िया, मोबाइल, धार्मिक सभाओँ, अवतारवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भाग्यवाद, फूहड़तावाद, सेक्स-व्यभिचारवाद, विचारहीनता, कुलीनवाद, पद-पुरस्कार सम्मोहन आदि सभी संभव रीतियों और विधाओं को काम में ले रहा है, उनका यह विश्वास दृढ़ हुआ कि प्रगतिशील-जनवादी रचनाकर्मियों को भी हर संभव मीडिया और विधाओं के जरिये स्तरीय व लोकप्रिय साहित्य-कला सृजन के द्वारा देश भर में एक व्यापक सांस्कृतिक -सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ।
सी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होनें बिहार व अन्य प्रदेशों के साथियों के साथ मिल कर "विकल्प" अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा" का गठन किया। वे मोर्चा के गठन से ही अ.भा. महामंत्री थे और अपनी अंतिम सांस तक अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए काम कर रहे थे।  "विकल्प’ - अन्य लेखक संगठनों से इस मायने में एक भिन्न संरचना है, क्योंकि अन्य संगठन लेखकों की साहित्यिक भूमिका को ही प्राथमिक मानते हैं, जब कि "विकल्प" रचनाकारों की सामाजिक भूमिका को भी अनिवार्य मानता है ।  यह रेखांकित किये जाने योग्य बात है कि "विकल्प" की बिहार इकाई में मध्य-वर्गीय लेखकों के मुकाबले खेत मजदूरों, किसानों, शिक्षकों आदि की संख्या अधिक है। जो गॉंवों व कस्बों में गीतों, नाटकों, कविताओं , पोस्टरों आदि के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जागरण की मुहिम चला रहे हैं।  उनका मानना था कि न तो कोई अकेला साहित्यकार और न ही कोई अकेला संगठन देश की सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ सकता है।  अत: वे लेखन व संस्कृति के क्षेत्र में सामूहिक प्रयत्नों के लिए दिन रात प्रयासरत् थे। उन्होनें न केवल राजस्थान में अपितु जहॉं-जहां संभव हुआ, संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक अभियान के प्रयास किये और उसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिली ।
पने विचारों और व्यवहार में शिवराम कहीं भी व्यक्तिवादी या अराजकतावादी नहीं थे।  उनका मानना था कि मुक्ति के रास्ते न तो अकेले में मिलते हैं और न ही परम्परा के तिरस्कार द्वारा। वे कहते थे कि हमें इतिहास और परम्परा का गहरा अध्ययन करना चाहिए तथा अपने नायकों को खोजना चाहिए।  परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों का जन आंदोलनों और जनहित में भरपूर उपयोग करना चाहिए।  लोक संस्कृति औेर लोक ज्ञान का उन्होंने अपनी रचनाओं मे सर्वाधिक कुशलता के साथ उपयोग किया है । 
"विकल्प" द्वारा राहुल, भारतेन्दु, फैज़, प्रेमचंद, सफदर हाशमी, आदि की जयन्तियों की एक गतिशील परम्परा और नव-जगरण की मुहिम के रूप में चलाना, शिवराम का परम्परा को भविष्य के द्वार खोलने के आवश्यक अवयव के रूप में उल्लेख किया जाना चाहिए। नि:संदेह वे अपनी कलम, उर्जा और अपनी संपूर्ण चेतना का उपयोग ठीक उसी तरह कर रहे थे, जिस तरह समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए प्रतिबद्ध उनके पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों व क्रान्ति-दृष्टाओं ने किया ।
शिवराम  आज भले ही भौतिक रूप में हमसे बिछुड़ गये हों, लेकिन उनके द्वारा साहित्य, समाज व संस्कृति के क्षेत्र में किये गये काम हमारी स्मृतियों में एक भौतिक शक्ति के रूप में रहेंगे और हमारा व आने वाली पीढ़ियों का मार्ग दर्शन करेंगे।  वे हमारे सपनों, संकल्पों और संघर्षों में एक जलती  हुई तेजोदीप्त मशाल की तरह जीवित रहेंगे, हमेशा-हमेशा। हरिहर ओझा की काव्य-पंक्तियों के द्वारा मैं अपने संघर्षशील व क्रान्तिकारी विचारक साथी को सलाम करना चाहता हूँ :
" महाक्रांति की ताल/ समय की सरगम/ नूपुर परिवर्तन के /
और प्रगति की संगत पर /  जो जीवन / नृत्य करेगा / 
वह /नहीं मरेगा / नहीं मरेगा / नहीं मरेगा !"
                                            
         80- प्रतापनगर, दादाबाडी, कोटा    

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

गंडक

यूँ तो गंडक कुत्ते को कहते हैं।
लेकिन शिवराम इस खबरी कविता में क्या बता रहे हैं?
जानिए ....


गंडक
  • शिवराम

करौली जिले के 
करणपुर गाँव में
लोग शेर को
गंडक कहते हैं

घने जंगल में बसे 
इस गाँव में 
शेर आ जाते हैं
लोग लाठी तान कर 
फटकारते हैं
और गंडक भाग जाता है

वैसे ही जैसे आम गाँवों में 
कुत्ते भाग जाते हैं।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

शेर और भैंस

शिवराम की एक कविता .................


शेर और भैंस

  • शिवराम

जिस जंगल में शेर होता है
वहाँ भैंसे झुण्ड में रहती हैं
जब विश्राम करती हैं तो 
गोल घेरा बना कर बैठती हैं
चौकस और चौकन्नी रहती हैं
मुहँ बाहर की ओर

भैंसे शेर से नहीं डरतीं
शेर भैंसों को सुरक्षा व्यूह से 
डरता है
दुस्साहस करता है
तो अक्सर मारा जाता है

हम भैंस का दूध पीते हैं
और गली के कुत्तों से डरते हैं।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

शिवराम जी के बाद, उन के घर .....

जीवनसाथी शोभा परसों से मायके गई हुई है। आज लौटना था, लेकिन सुबह फोन आ गया, अब वह कल सुबह आएगी। कल-आज और कल अवकाश के दिन हैं। मैं घर पर अकेला हूँ। चाहता तो था कि इन दिनों में मैं मकान बदलने से बिखरी अपने पुस्तकालय और कार्यालय को ठीक करवा लेता। पर अकेले यह भी संभव नहीं था। जिन्हें इस काम में साथ देना था वे भी अवकाश मना रहे हैं। शिवराम जी के बाद ब्लागीरी पर जो विराम लगा था, कल उसे तोड़ने का प्रयास किया। आज पूरे पाँच दिन के अन्तराल के बाद आज शिवराम जी के घर जाना हुआ। भाभी पहले तीन दिनों तक खुद को संभाल नहीं पा रही थीं। आज कुछ सामान्य दिखाई पड़ीं। मुझ से बात कर के  फिर से उन का अवसाद गहरा न जाए इस कारण उन से बात नहीं की। वे अपनी तीनों बहुओं और ननद के साथ बैठी बातें कर रही थीं और साथ दे रही थीं।
न के ज्येष्ठ पुत्र ब्लागर रवि कुमार और कनिष्ट पुत्र पवन से मुलाकात हुई। रवि बहुत सयाना है, उस में एक बड़ा कलाकार जीता है। सभी कोण से वह शिवराम जी से कम प्रतिभाशाली नहीं है। उसी से कुछ देर बात करता रहा। उसी ने बताया कि माँ अब अवसाद से धीरे-धीरे बाहर आ रही हैं। मैं ने पत्रिका अभिव्यक्ति की बात छेड़ दी। आपातकाल के ठीक पहले शिवराम जी से मेरी मुलाकात हुई थी। हम बाराँ में दिनकर साहित्य समिति चलाते थे और एक पत्रिका प्रकाशन की योजना बना रहे थे। शिवराम जी ने उसे आसान कर दिया। पत्रिका आरंभ हुई तो अनियमित रूप से प्रकाशित होती रही। लेकिन वह चल रही है और लघुपत्रिकाओं में अपना विशिष्ठ स्थान रखती है। शिवराम जी ही इस का संपादन करते रहे, सहयोग कई लोगों का रहा। लेकिन मूल काम और जिम्मेदारियाँ वही देखते थे। मैं ने रवि से अभिव्यक्ति में अपना योगदान बढ़ाने को कहा। उस ने बताया कि वह भी इस बारे में सोच रहा है। अभी तो वह शिवराम जी के कागजों को संभाल रहा है जिस से पता लगे कि वे कितने कामों को अधूरा छोड़ गए हैं, और उन्हें कैसे संभाला जा सकता है।
मैं ने रवि से उल्लेख किया कि घर आर्थिक रूप से तो संभला हुआ है। इस लिए पटरी पर जल्दी आ जाएगा, लेकिन जो सामाजिक जिम्मेदारियाँ शिवराम जी देखते थे, सब से बड़ा संकट वहाँ उत्पन्न हुआ है। उसे पटरी पर लाने में समय लगेगा। रवि ने प्रतिक्रिया दी कि यह तो मैं भी कह रहा हूँ कि अपने परिवार और घर के लिए तो वे सूचना मात्र रह गए थे, उन का सारा समय और जीवन तो समाज को ही समर्पित था। रवि ने ही बताया कि कुछ सांस्कृतिक संगठन कल शोक-सभा रख रहे हैं, जिस में कोटा के बाहर के कुछ महत्वपूर्ण लोग भी होंगे। यह मेरे लिए सूचना थी। मेरा मन तो कर रहा है कि इस सभा में रहूँ,  शिवराम जी के बाद उन से साक्षात्कार का यह अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मुझे पहले से तय जरूरी काम से जयपुर जाना होगा। रवि ने कल की सभा की छपी हुई सूचना मुझे दी। हरिहर ओझा की एक कविता इस पर छपी है, जो महत्वपूर्ण है।  मैं उस सूचना का चित्र यहाँ लगा रहा हूँ।  आर्य परिवार संस्था कोटा ने शिवराम को एक आँसू भरी श्रद्धांजलि पर्चे के रूप में छाप कर वितरित की है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शिवराम ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले कम्युनिस्ट थे, लेकिन धर्मावलंबी जो उन के संपर्क में थे किस तरह सोचते थे, यह श्रद्धांजलि पर्चा उस की एक मिसाल है। दोनों को ही आप चित्र पर चटका लगा कर बड़ा कर के पढ़ सकते हैं।
 

 


शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम न रुके थे।

मैं जानता हूँ कि जो मंजिल मेरा लक्ष्य है वह बहुत दूर है, मैं इस जीवन में वहाँ नहीं पहुँच सकूंगा। लेकिन वह मंजिल मेरी अकेले की तो नहीं। वह तो पूरी मानव जाति की मंजिल है। मनुष्य के पास दो ही मार्ग हैं, या तो वह निजी स्वार्थों और लालच के वशीभूत हो कर जीवन जिए और लड़-झगड़ कर इस धरती को बरबाद करे और स्वयं इस मानव जाति को नष्ट कर डाले, या फिर वह एक ऐसे मानव समाज की रचना करे जो संपूर्ण मानव-समाज के सामुहिक हित की सोचे। सामाजिक हित सर्वोपरि हों। धरती को हम खूबसूरत बनाएँ। जिएँ और जीने दें, लगातार उन्नति करते जाएँ। इस दूसरे रास्ते पर  चलने वाले दुनिया में लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। उन में बहुत लोग हैं जो मंजिल की ओर जा रहे काफिले की अगुवाई करते हैं। निश्चय ही वे मानवजाति के श्रेष्ठतम  लोग हैं। उन का पूरा जीवन काफिले की इस यात्रा को समर्पित है। वे जानते हैं कि वे मंजिल तक नहीं पहुँच पाएंगे, लेकिन फिर भी उन का सब कुछ इस मानव-समाज के लिए है। वे सोचते हैं कि वे नहीं उन की कोई आगामी पीढ़ी अवश्य ही मंजिल पा लेगी। यदि उन्हों ने कोताही की तो निश्चित ही मंजिल तक पहुँचने के पहले मानव जाति नष्ट हो जाएगी और हमारी यह खूबसूरत धरती भी जिस का कोई जोड़ अभी तक मनुष्य इस ब्रह्मांड में तलाश नहीं कर सका है।
शिवराम ऐसे ही व्यक्तित्व थे। सोचा न था कि वे चलते-चलते यूँ काफिला छोड़ जाएंगे। जब उन के जाने की खबर मिली तो हर कोई हतप्रभ रह गया। मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं अदालत में था। जल्दी से अदालत से अपना काम समेट, घर पहुँचा। नेट पर सूचना चस्पा की और उन के घर पहुँच गया। वे घर के नीचे के कमरे में दरी पर विश्राम कर रहे थे, चादर ओढ़े। वह विश्राम जो उन्हों ने जीवन भर नहीं किया। चेहरा भी चादर से ढका था। इच्छा हुई कि चादर हटा कर देखूँ इस चिरविश्रांति में वे कैसे लग रहे हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। चेहरे से चादर हटी तो शायद मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सकूंगा, कहूँगा- कामरेड! तुम अभी से सो गए। उठो अभी तो बहुत काम बाकी है। वे उठेंगे नहीं। मैं निराश सा, क्या कर लूंगा? सिवा रोने और विलाप करने के, जो मैं नहीं करना चाहता था। मैं कमरे के बाहर चला आया। 
शिवराम ने जीवन के इकसठ वर्ष पूरे नहीं किए। लेकिन इस जीवन में उन्हों ने सैंकड़ों जीवन जिए। विद्यार्थी जीवन के बाद नौकरी की तलाश के दिनों में ही उन्हों ने पहचान लिया था कि दुनिया और समाज जिस अवस्था में है, वह  निराश करता है ,जीने लायक नहीं है। उसे बदलना होगा, जीने लायक बनाना होगा। न जीने लायक उस दुनिया के बारे में वे लिखते हैं-
"मैं खुद बेरोजगारी के दौर में किसी तरह भटकता फिरता था. असहायता के अहसास से मैं भी गुजरा था। लेकिन रोटी के लिए वेश्यावृत्ति। आठ-दस साल  का बेटा अपनी माँ के लिए ग्राहक ढूंढेगा। यह स्साली कोई जिन्दगी है। लानत है। 
शायद इन्हीं दिनों हम पांडिचेरी गए। वहाँ भी हम ने यह सब देखा। आप को एक तौलिया खरीदना हो और दूकानदार आप के सामने दस तरह के तौलिए पटक दे। जो पसन्द हो छांट लो, वैसे ही साधारण से होटलों में लड़कियों की लाइन लगा दी जाती थी। सब की दरें बता दी जाती थीं। जो पसन्द हो ले कर अपने कमरे में चले जाओ। हमारा समूह भी एक होटल में पहुँच गया और यह सब दृष्य अपनी आँखों से देखा। औरों का मुझे पता नहीं, मेरे लिए यह भयानक अनुभव था। यह सब विद्यमान व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था क्यों है? गरीबी-अमीरी का मामला क्या है? भगवान इस सब को ठीक क्यों नहीं करता? पांडिचेरी में एक ओर इतना बड़ा आध्यात्मिक केन्द्र और दूसरी ओर यह गंदगी। आध्यात्मिकता और इस गंदगी का चोली दामन का साथ तो नहीं? इस आध्यात्मिक केंद्र की वजह से और इस शहर की खूबसूरती की वजह से यहाँ पर्यटक आने लगे होंगे तो यह धंधा फला-फूला होगा। पर्यटन और वेश्यावृत्ति क्या एक ही हिस्से के दो पहलू हैं?"
रोजगार की तलाश खत्म हुई, नौकरी लगी। प्रशिक्षण में स्वयं प्रकाश से भेंट हुई। वे भी ऐसे ही मोड़ पर थे। छह महिने की ट्रेनिंग पूरी होने पर जोधपुर में दो माह का प्रायोगिक प्रशिक्षण आरंभ हुआ। स्वयंप्रकाश के साहित्यिक लोगों से संबंध थे। वहीं मिले पारस अरोड़ा जिन के घर ज्ञानोदय के अंकों का ढेर और बहुत सी किताबें थीं। शिवराम इतनी किताबें देख चकित थे। इतना पढ़ते हैं ये लोग! हम चार स्कूली किताबें पढ़ कर, वो भी पास होने के लिए, खुद को पढ़ा लिखा समझते हैं। हम काहे के पढ़े लिखे हैं? जिन्दगी और दुनिया को समझना है तो किताबें पढ़नी होंगी। एक पुस्तकालय में विवेकानंद का साहित्य पढ़ने को मिला। उसे पढ़ा तो लगा विवेकानंद का बताया रास्ता सही है। सब बुराइयों की जड़ अज्ञान है, अशिक्षा है। बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों के संस्कार देने वाला साहित्य प्रचारित प्रसारित करो। दो माह यूँ ही गुजर गए। रामगंज मंडी  (जिला कोटा राजस्थान) में पोस्टिंग हुई। शिवराम नौकरी के अलावा वहाँ बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल भी चलाने लगे कमरा निशुल्क मिल गया। वहाँ आर.एस.एस भी था और सोशलिस्ट पार्टी भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तकें और लोहिया की जीवनी पढ़ी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने पर काम करने लगे। कुछ न कुछ लिखने भी लगे। स्वयं प्रकाश का पत्र मिला - क्या पढ़ रहे हो कार्ल मार्क्स की पूँजी पढ़ो। शिवराम का जवाब था -कम्युनिस्टों के चक्कर में पड़ गए लगते हो। मैं लोहिया पढ़ रहा हूँ पर संतुष्ट हूँ। स्वयं प्रकाश का उत्तर था -तुम्हें हक है कि जो तुम्हें ठीक  न लगे उसे खारिज कर दो, पर पहले उसे जानो, समझो तो सही। तुमने मार्क्स की पूंजी को चलताऊ तरीके से खारिज कर दिया। पत्र की भाषा बहुत सख्त थी। प्रतिक्रिया हुई -ठीक है मार्क्स को पढूंगा और फिर इसे बताउंगा मैं ने मार्क्स को क्यों खारिज किया। करौली बस स्टैंड पर प्रगतिशील साहित्य भंडार से मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबें और भगतसिंह की जीवनी खरीदी।  पैसे कम पड़ गए, दुकानदार से कहा कुछ किताबें निकाल दो, तो दुकानदार शर्मा जी ने एक किताब और मिलाई और बोले -फिर दे देना।  शिवराम कुछ महीने बाद पैसे लौटाने पहुँचे तो दुकान बंद थी। पता चला शर्मा जी नहीं रहे। उन का कर्ज रह गया। शिवराम ने मार्क्सवाद पढ़ा, समझा और वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े। चलते-चलते सैंकड़ों-हजारों लोग साथ होते गए। काफिला बनता चला गया। आज वही शिवराम काफिले में नहीं हैं, चुपचाप सड़क के किनारे बैठ गए हों और कह रहे हों। जीवन ने यहीं तक साथ दिया, मैं आगे नहीं जा सकता। लेकिन ध्यान रहे! काफिला कम न हो और रुके नहीं।

स्वयंकथ्य 
शिवराम के जाने ने अंदर तक आहत किया है। एक सप्ताह से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल ही नहीं पा रही थीं। आज हिम्मत कर के वापस बैठा हूँ। यह हिम्मत भी शिवराम की दी हुई है। कह रहे हों कि मैं छूट गया तो क्या सफर छोड़ दोगे? ऐसा ही था तो क्यों चले थे मेरे साथ? सफर छूटे ना, मंजिल अभी दूर है, बहुत चलना है, रुको मत! चलते रहो! मुड़ कर मत देखो!
ह सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम  न रुके  थे। 
शिवराम के जाने ने जो रिक्तता पैदा की है, उसे एक या कुछ लोग नहीं भर सकते।  उस के लिए बहुत लोगों को सामने आना होगा। साहित्य, संस्कृति, रंगमंच, ट्रेड यूनियनें, मोहल्ला संगठन, किसान सभाएँ और पार्टी, सब जगह अनेक लोगों को वे मोर्चे संभालने होंगे, जिन्हें अकेले शिवराम संभाले थे। शिवराम का न होना, लगातार पीछा कर रहा है। 'अनवरत' भी अभी कुछ दिन शिवराम-मय ही रहेगा। 

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

अलविदा !!!!...................... नहीं! ................. शिवराम हमारे बीच मौजूद हैं............................. यह आंधी नहीं थमेगी.............



शिवराम ने कल हम से अचानक विदा ले गए.......
भास्कर कोटा संस्करण ने आज समाचार प्रकाशित किया...........


अंतिम यात्रा के कुछ चित्र...............

ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी कोटा पर अंतिम दर्शन

लाल झंडे से लिपटे हुए




































































 उदयपुर से आए पार्टी साथी


पार्टी साथी पुष्पांजली अर्पित करते

अभिन्न ट्रेड यूनियन साथी महेन्द्र पाण्डे और विजय शंकर झा

छोटे पुत्र पवन के कंधों पर

चिता पर

पुत्र रविकुमार

चिता को अग्नि देते पुत्र रविकुमार पौत्र और पौत्री चीया

इंकलाब जिन्दाबाद का उद्घोष करता पुत्र रविकुमार अपनी पुत्री और पुत्र के साथ

शरीर अग्नि को समर्पित

पुत्र रविकुमार और पौत्री चीया चिता के निकट

चिता के चारों और सम्मान में झुके लाल झंडे

शिवराम नहीं हैं,  लेकिन आग शेष है

श्मशान पहुँचा एक अपंग मजदूर साथी

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

सर्वहारा वर्ग ने अपना एक योद्धा और सेनापति खो दिया

भी शिवराम जी के घर से लौटे हैं। हम शाम को जब उन के घर पहुँचा तो घर के बाहर भीड़ लगी थी, जिन में नगर के नामी साहित्यकार, नाट्यकर्मी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, दूरसंचार कर्मचारी और बहुत से नागरिक थे। शिवराम के बडे पुत्र रवि कुमार (जिन्हें आप सृजन और सरोकार ब्लाग के ब्लागर के रूप में जानते हैं) आ चुके थे, सब से छोटे पुत्र पवन दो माह पूर्व ही कोटा में नया नियोजन प्राप्त कर लेने के कारण कोटा में ही थे। मंझले पुत्र शशि का समाचार था कि वह परिवार सहित ट्रेन में चढ़ चुका है और सुबह चार-पाँच बजे तक कोटा पहुँच जाएंगे। बेटी के भी दिल्ली से रवाना हो चुकने का समाचार मिल चुका था। सभी शोकाकुल थे। छोटे भाई और शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' शोकाकुल हो कर पूरी तरह पस्त थे और कह रहे थे आज मैं यतीम हो गया हूँ। हम करीब दो घंटे वहाँ रहे। शिवराम अब चुपचाप लेटे थे। मैं जानता था, वह आवाज जिसे मैं पिछले 35 वर्षों से सुनने का अभ्यस्त हूँ अब कभी सुनाई नहीं देगी। उन की आवाज हमेशा ऊर्जा का संचार करती थी। वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों से परे हट कर मनुष्य समाज के लिए काम करने को सदैव प्रेरणा देता यह व्यक्तित्व सहज ही हमें छोड़ कर चला गया। डाक्टर झा से वहीं मुलाकात हुई। बता रहे थे कि जैसा उन का शरीर था और जिस तरह वे अनवरत काम में जुटे रहते थे हम सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें इस तरह हृदयाघात हो सकता है कि वह अस्पताल तक पहुँचने के पहले ही प्राण हर ले।
शिवराम दोपहर तक स्वस्थ थे। सुबह उन्हों ने अपने मित्रों को टेलीफोन किए थे। कल शाम कंसुआँ की मजदूर बस्ती में एक मीटिंग को संबोधित किया था। दोपहर भोजन के उपरांत उन्हों ने असहज महसूस किया और सामान्य उपचार को नाकाफी महसूस कर स्वयं ही पत्नी और मकान में रहने वाले एक विद्यार्थी को साथ ले कर अस्पताल पहुँचे थे। अस्पताल में जा कर मूर्छित हुए तो फिर चिकित्सकों का कोई बस नहीं चला। उन की हृदयगति सदैव के लिए थम गई थी। मात्र 61 वर्ष की उम्र में इस तरह गए कि अनेक लोग स्वयं को अनाथ समझने लगे।
शिवराम का जन्म 23 दिसंबर 1949 को राजस्थान के करौली नगर में हुआ था। पिता के गांव गढ़ी बांदुवा, करौली और अजमेर में शिक्षा प्राप्त की। फिर वे दूर संचार विभाग में तकनीशियन के पद पर नियुक्त हुए। दो वर्ष पूर्व ही वे सेवा निवृत्त हुए थे। वे जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय रहे। अपने विभाग में वे कर्मचारियों के निर्विवाद नेता रहे। वे एक अच्छे संगठनकर्ता थे। प्रारंभ में वे स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उस मार्ग पर उन्हें समाज में परिवर्तन की गुंजाइश दिखाई नहीं दी। बाद में वे मार्क्सवाद के संपर्क में आए, जिसे उन्हों ने एक ऐसे दर्शन के रूप में पाया जो कि दुनिया और प्रत्येक परिघटना की सही और सच्ची व्याख्या ही नहीं करता था। यह भी बताता था कि समाज कैसे बदलता है। वे समाज में परिवर्तन के काम में जुट गए। उन्हों ने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए नाटक और विशेष रूप से नुक्कड़ नाटक को सब से उत्तम साधन माना। वे नुक्कड़ नाटक लिखने और आसपास के लोगों को जुटा कर उन का मंचन करने लगे। उन का नाटक 'जनता पागल हो गई है' हिन्दी के प्रारंभिक नुक्कड़ नाटकों में एक है। यह हिन्दी का सर्वाधिक मंचित नाटक है। इस नाटक और शिवराम के अन्य कुछ नाटक अन्य भाषाओं में अनुदित किए जा कर भी खेले गए। वे नाट्य लेखक ही नहीं थे, अपितु लगातार उन के मंचन करते हुए एक कुशल निर्देशक और अभिनेता भी हो चुके थे। वे पिछले 33 वर्षों से हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का संपादन कर रहे थे। 
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सांगठनिक काम के महत्व को वे अच्छी तरह जानते थे। आरंभ में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से वे एक थे। लेकिन जल्दी ही सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वे अलग हुए और अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा 'विकल्प' के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वर्तमान में वे 'विकल्प' के महासचिव थे। मूलतः सृजनधर्मी होते हुए भी संघर्षशील जन संगठनों के निर्माण को वे समाज परिवर्तन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे और संगठनों के निर्माण का कोई अवसर हाथ से न जाने देते थे। वे सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ प्रभावशाली वक्ता थे। लोग किसी भी सभा में उन्हें सुनने के लिए रुके रहते थे। एक अध्येता और चिंतक थे। श्रमिक-कर्मचारी आंदोलनों में स्थानीय स्तर से ले कर राष्ट्रीय स्तर तक विभिन्न नेतृत्वकारी दायित्वों का उन्हों ने निर्वहन किया। अनेक महत्वपूर्ण आंदोलनों का उन्हों ने नेतृत्व किया। 
दूर संचार विभाग से सेवानिवृत्त होने के उपरांत उन्हों ने भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) {एमसीपीआई (यू)}की सदस्यता ग्रहण की और शीघ्र ही वे पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य हो गए। 

उन की प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं ---
  • जनता पागल हो गई है (नाटक संग्रह)
  • घुसपैठिए (नाटक संग्रह)
  • दुलारी की माँ (नाटक)
  • एक गाँव की कहानी (नाटक)
  • राधेया की कहानी (नाटक)
  • सूली ऊपर सेज (सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक)
  • पुनर्नव (नाट्य रूपांतर संग्रह)
  • गटक चूरमा (नाटक संग्रह)
  • माटी मुळकेगी एक दिन (कविता संग्रह)
  • कुछ तो हाथ गहो (कविता संग्रह)
  • खुद साधो पतवार (कविता संग्रह)
शिवराम जी का अंतिम संस्कार 2 अक्टूबर सुबह कोटा में किशोरपुरा मुक्ति धाम में संपन्न होगा। प्रातःकाल आठ बजे अंतिम यात्रा उन के निवास से आरंभ होगी और ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी जाएगी। जहाँ उन के पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शनों के लिए कुछ देर रखा जाएगा। उस के उपरांत सर्वहारा वर्ग के एक यौद्धा और सेनापति के सम्मान के साथ अंतिम यात्रा किशोरपुरा मुक्तिधाम पहुँचेगी जहाँ उन का अंतिम संस्कार संपन्न होगा।   

नाटककार और मार्क्सवादी चिंतक शिवराम नही रहे!!!

ख्यात जनवादी नाटक 'जनता पागल हो गई है' के नाटककार, कवि और मार्क्सवादी चिंतक 'शिवराम' का आज तीसरे पहर पौने तीन बजे कोटा में हृदयाघात से देहान्त हो गया। वे भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलिट ब्यूरो के वर्तमान सदस्य, दूरसंचार कर्मचारियों के नेता थे। साहित्य में उन का अपना विशिष्ठ स्थान था। मेरा 1975 से आज तक साथ बना रहा। अचानक इस समाचार से व्यथित हूँ। इस लिए अधिक कुछ बता पाने में असमर्थ भी। उन के निवास के लिए निकल रहा हूँ। उन की अंत्येष्टी दिनांक 2 अक्टूबर 2010 को सुबह नौ बजे के बाद कोटा में संपन्न होगी। जिस के संबंध में अद्यतन सूचना अनवरत पर कुछ घंटों के बाद प्रस्तुत कर दी जाएगी।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

अनुभवी सीख : शिवराम की एक अनोखी कविता

ल के आलेख में मैं ने शिवराम की व्यंग्य कविता का उल्लेख किया था। जो उन्हों ने सूर्य कुमार पांडेय के सानिध्य में होली के दिन हुई काव्य गोष्ठी में सुनाई थी। आज उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.... 
 
अनुभवी सीख
  • शिवराम

एक चुप्पी हजार बलाओं को टालती है
चुप रहना भी सीख
सच बोलने का ठेका 
तूने ही नहीं ले रखा


दुनिया के फटे में टांग अड़ाने की 
क्या पड़ी है तुझे
मीन-मेख मत निकाल
जैसे सब निकाल रहे हैं
तू भी अपना काम निकाल
अब जैसा भी है, यहाँ का तो यही दस्तूर है
जो हुजूर को पसंद आए वही हूर है


नैतिकता-फैतिकता का चक्कर छोड़
सब चरित्रवान भूखों मरते हैं
कविता-कहानी सब व्यर्थ है

कोई धंधा पकड़
एक के दो, दो के चार बनाना सीख
सिद्धांत और आदर्श नहीं चलते यहाँ
यह व्यवहार की दुनिया है
व्यावहारिकता सीख
अपनी जेब में चार पैसे कैसे आएँ 
इस पर नजर रख


किसी बड़े आदमी की दुम पकड़
तू भी किसी तरह बड़ा आदमी बन
फिर तेरे भी दुम होगी
दुमदार होगा तो दमदार भी होगा
दुम होगी तो दुम उठाने वाले भी होंगे
रुतबा होगा
धन-धरती, कार-कोठी सब होगा


ऐरों-गैरों को मुहँ मत लगा
जैसों में  उठेगा बैठेगा
वैसा ही तो बनेगा
जाजम पर नहीं तो भले ही जूतियों में ही बैठ
पर बड़े लोगों में उठ-बैठ


ये मूँछों पर ताव देना 
चेहरे पर ठसक और चाल में अकड़
अच्छी बात नहीं है
रीढ़ की हड्डी और गरदन की पेशियों को
ढीला रखने का अभ्यास कर


मतलब पड़ने पर गधे को भी
बाप बनाना पड़ता है
गधों को बाप बनाना सीख


यहाँ खड़ा-खड़ा 
मेरा मुहँ क्या देख रहा है
समय खराब मत कर
शेयर मार्केट को समझ
घोटालों की टेकनीक पकड़
चंदे और कमीशन का गणित सीख
कुछ भी कर 
कैसे भी कर
सौ बातों की बात यही है कि
अपना घर भर
हिम्मत और सूझ-बूझ से काम ले
और, भगवान पर भरोसा रख।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

लो, मेरा रूमाल ले लो

शिवरात्रि के अवकाश का दिन बिना कोई उल्लेखनीय काम और उपलब्धि के रीत गया। कुछ ऐसे ही एक मौका देखने जाना पड़ा। वापसी में जोधपुर जाने-आने की यात्रा के टिकट ले कर आया बस में लोअर स्लीपर मिल गया इतना पर्याप्त था इस जाती हुई और जाते जाते अपने तमाम रूप और नखरे दिखाती सर्दी में। बस अब चंबल पुल पार होने के पहले स्लीपर के बॉक्स में घुस कर कंबल डाल लेना और लेटे हुए जब तक नींद न आ जाए तब तक बाहर के अंधेरे के दृश्य देखते रहना। अंधेरी रात में अंधियार के रंग में रंगे पेड़ों और गांवों में जलती बत्तियों की रोशनी के केवल आसमान में टंगे सितारों के सिवा और क्या देखा जा सकता है। पर वहाँ जहाँ बिजली की रोशनी न हो दूर दूर तक वहाँ सितारों की चमक अद्भुत लगती है। उन में से बहुतों को मैं पहचानता हूँ। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी और सब से अधिक चमकदार मृगशिर नक्षत्र। शुक्र, बृहस्पति और मंगल आसानी से पहचाने जाते हैं। बस की यात्रा में शनि को पहचानने में बहुत दिक्कत होती है। राशि मंडल के तारे हमेशा पहचानने में आ जाते हैं। खास तौर पर सिंह और वृच्छिक तो देखते ही पहचाने जाते हैं, मिथुन भी। 
खैर, यह सब तो कल रात को देखा जाना है। आज राज भाटिया जी की पोस्ट बहुत भावुक कर गई। सोने के पहले अनपैक्ड दिनेशराय द्विवेदी  को जो आधा रजाई में घुसा हुआ मोबाइल में डूबा था, शूट कर डाला। पास की टेबुल पर पैक्ड हुक्का उन से अधिक खूबसूरत लग रहा था। लगे भी क्यों न उस के पैदा होने के पहले ही जर्मनी जाने की टिकट जो बन गई थी। बिना कोई पासपोर्ट और वीजा के वह जर्मनी जाने वाला था हमेशा-हमेशा के लिए।  बाजार से गुजरते हुए एक दुकान पर हुक्के दिखे। बस हुक्के ही हुक्के। भाटिया जी का मन ललचा गया। बोले-एक ले लेता हूँ। वहाँ जर्मनी में लोग सिगरेट ऑफर करते हैं तो मैं बोलता हूँ हम ये नहीं पीते। पूछते हैं क्या पीते हैं? तो उन्हें कहता हूँ हुक्का। फिर सवाल होते हैं कि ये हुक्का क्या है? मैं  उन्हें बताता हूँ। इस बार असल ही ले जाकर बताता हूँ।
न्हें पसंद तो बहुत बड़ा वाला आ रहा था। पर छोटा तैयार करवाया गया। जिस से ले जाने में परेशानी न हो। अब जर्मन जा रहे हुक्के का दिनेशराय द्विवेदी से क्या मुकाबला। पर फँस गया। जर्मनी जाने के पहले दिनेशराय द्विवेदी के पास होने की सजा भुगती और शूट हो गया। अब तक तो हुक्का अनपैक्ड हो कर फूँकने की शक्ल में आ गया होगा और भाटिया जी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा होगा। 
जबूरी थी, कि बहिन के ससुराल में विवाह था और आना बेहद जरूरी था। भाटिया जी को छोड़ कर आना पड़ा। भाटिया जी में एक बेहतरीन साथी मिला। एक स्नेहिल भाई जैसा। शाम को शिवराम जी का कविता संग्रह माटी मुळकेगी एक दिन देख रहा था। साथी क्या होता है वहाँ जाना। आप भी देखिए .....


लो, मेरा रूमाल ले लो
 -- शिवराम



किसे ढूंढ रहे हो? क्या मुझे।

नहीं भाई नहीं
साथी जेबों में नहीं मिलते
दाएँ-बाएँ भी नहीं मिलते
नहीं, ब्रीफकेस में तो हर्गिज नहीं
वे होते हैं तो हाथों में हाथ डाले होते हैं
और नहीं होते तो नहीं होते

वे आसानी से खोते भी नहीं
वे आसानी से पीछा भी नहीं छोड़ते 

अपनी उंगलियों में ढूंढो
मैं अभी भी वहीं हूँ

अच्छा!
कोई और चीज ढूंढ रहे हो
कोई बात नहीं
मुझे गलतफहमी हो गई थी 
मैं समझा था कि तुम 
शायद मुझे ढूंढ रहे हो
तुम तो शायद रूमाल ढूंढ रहे हो
हथेलियों का मैल पोंछने के लिए
या माथे का पसीना
या शायद नाक सिनकना चाहते हो
और, रूमाल नहीं मिल रहा है

लो, मेरा रूमाल ले लो
जो चाहो साफ करो इस से
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी 
साफ किया जा सकता है।



शनिवार, 23 जनवरी 2010

झाड़ू ऊँचा रहे हमारा

नाटक शिवराम की प्रमुख विधा है। नाटकों की आवश्यकता पर उन्हों ने अनेक गीत रचे हैं। ऐसा ही उन का एक गीत ...... आनंद लीजिए, गुनिए और समझिए....


झाड़ू ऊँचा रहे हमारा
  • शिवराम
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा
सब से प्यारा सब से न्यारा

इस झाड़ू को लेकर कर में
हो स्वतंत्र विचरें घर घर में
आजादी का ये रखवाला ।।1।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...



गड़बड़ करे पति परमेश्वर

पूजा करे तुरत ये निःस्वर
नारी मान बढ़ाने वाला ।।2।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...

 

झाड़ेगा ये मन का कचरा
फिर झाड़ेगा जग का कचरा
कचरा सभी हटाने वाला ।।3।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...


राज जमेगा जिस दिन अपना
झंडा होगा झाड़ू अपना
अपना राज जमाने वाला ।।4।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...


**************************


शनिवार, 16 जनवरी 2010

जेब से पैसे निकालो

शिवराम की यह कविता सारी बात खुद ही कहती है- 
पढ़िए और गुनिए ......


जेब से पैसे निकालो
  • शिवराम
इस कटोरे में हुजूर 
कुछ न कुछ डालो
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !


काम का उपदेश 
यहाँ खूब मिलता है
मगर जनाब कहाँ 
कोई काम मिलता है
यह मेरी मेहरबानी है
कि चोरी नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
नजरें न चुराओ
जल्दी करो, पीछा छुड़ालो ।।1।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !

नजरें फेर लेने से
कुछ नहीं होगा
जब तक नहीं दोगे
जाएगा नहीं गोगा
यह मेरी करुणा है 
कि हिंसा नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
ऐंठ न दिखाओ
जल्दी करो, मुक्ति पा लो।।2।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
लाल-पीले न होइए
गुस्सा न कीजिए
बहुत क्षुब्ध हैं हम भी
आपा न खोइए
यह मेरी शालीनता है
कि मैं आपा नहीं खोता
जीना हक है, मेरा

सो, मर नहीं सकता
क्रोध मत दिखाओ
जल्दी करो, और न सालो ।।3।।


देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो!

सोमवार, 11 जनवरी 2010

कौन बनाए खाना ?

शिवराम की यह कविता आज की समाज व्यवस्था से पैदा हुई एक अनिवार्य स्थिति को प्रदर्शित करती है, पढ़िए और राय दीजिए ......

कौन बनाए खाना ?

  • शिवराम
कौन बनाए खाना भइया

कौन बनाए खाना


जो समधी ने भेजे लड्डू 
उन से काम चलाओ
चाय की पत्ती चीनी खोजो 
चूल्हे चाय चढ़ाओ
ले डकार इतराओ गाओ कोई मीठा गाना
कौन बनाए खाना भइया.....


बेटे गए परदेस 
बहुएँ साथ गईं उन के
हाथ झटक कर के
अपने ही हिस्से में आया घऱ का ताना-बाना
कौन बनाए खाना भइया .....

बेटी गई ससुराल
हमारी आँखें नित फड़कें
पोते-पोती सब बाहर हैं
ऐसे में बतलाओ कैसे होवे रोज नहाना
कौन बनाए खाना भइया
कौन बनाए खाना।
***************



कैसी लगी...?

रविवार, 27 दिसंबर 2009

मैं ने चाहा तो बस इतना

ल बल्लभगढ़ पहुँचा  था। ट्रेन में राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'कटरा बी आर्ज़ू' को दूसरी बार पढ़ता हुआ। किताब  पढ़ना बहुत अच्छा लगा। चौंतीस-पैंतीस वर्षों  पहले की यादें ताजा हो गईं। अभी पूरा नहीं पढ़ पाया  हूँ,  पूरी  होगी तो अपनी प्रतिक्रिया भी लिखूंगा। जैसा  कि मशहूर है रज़ा साहब जहाँ पात्र की  जरूरत  होती थी यौनिक  गालियों का उपयोग करने से नहीं चूकते थे। इस उपन्यास में भी  उनका उपयोग  किया गया है, जो कतई बुरा  नहीं लगता।  कोशिश करूंगा का  एक-आध वाक़या  आप के सामने भी रखूँ। आज  दिन भर पूरी तरह आराम  किया। धूप में नींद  निकाली। शाम बाजार तक घूम कर आया। अभी लोटपोट  पर  ब्लागिंग  की दुनिया पर  नजर डाली है।  एक दो टिप्पणियाँ भी की  हैं। अधिक इसलिए नहीं कर  पाया कि यहां पालथी  पर बैठ  कर टिपियाना पड़ रहा है,जिस की आदत नहीं है। पर ऐसा ही  चलता रहा तो दो -चार दिनों में यह भी आम हो जाएगा। शिवराम जी का कविता संग्रह "माटी मुळकेगी एक  दिन" साथ है, उसी से एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

मैं ने चाहा तो बस इतना
  • शिवराम
मैं  ने  चाहा तो  बस इतना 
कि बिछ सकूँ तो बिछ  जाउँ
सड़क की तरह 
दो बस्तियों के बीच


दुर्गम पर्वतों  के आर-पार
बन जाऊँ  कोई सुरंग


फैल जाऊँ
किसी पुल की तरह
नदियों-समंदरों की छाती  पर


मैं ने  चाहा 
बन जाऊँ पगडंडी
भयानक जंगलों  के  बीच


एक प्याऊ 
उस रास्ते पर
जिस से लौटते हैं
थके हारे कामगार


बहूँ पुरवैया  की तरह
जहाँ सुस्ता रहे हों
पसीने से तर -बतर किसान


सितारा  आसमान का 
चाँद या सूरज
कब बनना  चाहा  मैं ने
 
मैं ने चाहा बस इतना 
कि, एक जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊँ मैं
बेसहारों का सहारा।
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

वैलकम मिलेनियम!

दस वर्ष पहले हमने नई सहस्त्राब्दी का स्वागत किया। कवि-नाटककार शिवराम ने भी हमारे साथ उस का स्वागत किया। पढ़िए मिलेनियम के स्वागत में उन की कविता जो उन के संग्रह "माटी मुळकेगी एक दिन" से ली गई है।


वैलकम मिलेनियम!

  • शिवराम
जिनके बंद हो गए कारखाने 
छिन गया रोजगार
जो फिरते हैं मारे मारे
आओ! उन से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


जिन की उजड़ गई फसलें
नीलाम हो गए कर्ज के ट्रेक्टर
बिक गई जमीन
जो विवश हुए आत्महत्याओं के लिए
उन के वंशजों से कहें-
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


उन बच्चों से जिन के छूट गए स्कूल
उन लड़कियों से 
जो आजन्म कुआँरी रहने को हो गई हैं अभिशप्त
उन लड़कों से 
जिन की एडियाँ घिस गई हैं
काम की तलाश में


उन से कहें 
चीयर्स! वैलकम मिलेनियम! हैप्पी न्यू ईयर!


गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

अकाल ...... शिवराम की कविता

शिवराम जी की कुछ कविताएँ आप ने पढ़ीं। उन के काव्य संग्रह "माटी मुळकेगी एक दिन" से एक और कविता पढ़िए....

अकाल
  • शिवराम
कभी-कभी नहीं
अक्सर  ही होता है यहाँ ऐसा
कि अकाल मंडराने लगता है
बस्ती दर बस्ती
गाँव दर गाँव


रूठ जाते हैं बादल
सूख जाती हैं नदियाँ
सूख जाते हैं पोखर-तालाब
कुएँ-बावड़ी सब
सूख जाती है पृथ्वी
बहुत-बहुत भीतर तक 

सूख जाती है हवा
आँखों की नमी सूख जाती है


हरे भरे वृक्ष
हो जाते हैं ठूँठ
डालियों से
सूखे पत्तों की तरह
झरने लगते हैं परिंदे
कातर दृष्टि से देखती हैं
यहाँ-वहाँ लुढ़की
पशुओं की लाशें


उतर आते हैं गिद्ध
जाने किस-किस आसमान से
होता है महाभोज
होते हैं प्रसन्न चील कौए-श्रगाल आदि


आदमी हो जाता है
अचानक बेहद सस्ता
सस्ते मजदूर, सस्ती स्त्रियाँ
बाजार पट जाते हैं, दूर-दूर तक
मजबूर मजदूरों
और नौसिखिया वेश्याओं से


भिक्षावृत्ति के
नए-नए ढंग होते हैं ईजाद
गाँव के गाँव
हाथ फैलाए खड़े हो जाते हैं 
शहरों के सामने


रहमदिल सरकार
खोलती है राहत कार्य
होशियार और ताकतवर लोग
उठाते हैं अवसर का लाभ
भोले और कमजोर लोग
भरते हैं समय का खामियाजा


होते हैं यज्ञ और हवन
किसान, आदिवासी और गरीब लोग
बनते हैं हवि
ताकते रहते हैं आसमान
फटी फटी आँखों से


कभी-कभी ही नहीं
अक्सर ही होता है यहाँ ऐसा। 

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

अंधों का गीत ..... शिवराम


पिछली पोस्ट चार कदम सूरज की ओर
पर शिवराम जी की इसी शीर्षक की कविता पर विष्णु बैरागी जी ने टिप्पणी की थी कि इस कविता का नुक्कड़ नाटकों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। शिवराम हिन्दी के शीर्षस्थ नुक्कड़ नाटककार हैं। 'जनता पागल हो गई है' तो उन का सार्वकालिक बहुचर्चित नाटक है। जिसे नाटक की किसी भी फॉर्म में खेला जा सकता है और खेला गया है। मुझे गर्व है कि इस नाटक की अनेक प्रस्तुतियाँ मैं ने देखी हैं और कुछ प्रस्तुतियों में मुझे अभिनय का अवसर भी प्राप्त हुआ। उन के नाटकों में लोक भाषा और मुहावरों का प्रयोग तो आम बात है, लोकरंजन के तत्व भी बहुत हैं। लेकिन वे उन में गीतों का समावेश भी खूब करते हैं और इस तरह कि वे मर्म पर जा कर चोट करते हैं। 
ऐसा ही एक गीत है "अंधों का गीत" जो सीधे जनता पर चोट करता है। आज प्रस्तुत है यही गीत आप के लिए। तो पढ़िए .......

अंधों का गीत
  • शिवराम
अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत भाई!

दिन में भी रात यहाँ पर
बात-बात में घात यहाँ पर
लूटो-मारो, छीनो-झपटो
राह न कोई राही
अंधा राजा, अंधी पिरजा
अंधी नौकरशाही।।


एक के दो कर, दो के सौ कर
या कोई भी घोटाला कर
तिकड़म, धोखा, हेराफेरी 
खुली छूट है भाई
अंध बाजार, अंध भोक्ता
अंधी पूँजीशाही।।


अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत है भाई।