@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Bloging
Bloging लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Bloging लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

हिन्दी ब्लागीरी बिना पढ़े और पढ़े हुए पर प्रतिक्रिया किए बिना कुछ नहीं


निवार को अविनाश वाचस्पति कह रहे थे कि रविवार को अवकाश मनाया जाए। कंप्यूटर व्रत रखें, उसे न छुएँ। मोबाइल भी बंद रखें। लेकिन रविवार को उन की खुद की पोस्ट पढ़ने को मिल गई। हो सकता है उन्हों ने अवकाश रखा और पोस्ट को शिड्यूल कर दिया हो। लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि अवकाश लेना पड़ता है। कल शाम अदालत से घर लौटा तो ब्रॉड बैंड चालू था। कुछ ब्लाग पढ़े भी। लेकिन फिर गायब हो गया और वह भी ऐसा कि रात डेढ़ बजे तक नदारद रहा। मुझे कुछ अत्यावश्यक जानकारियाँ नेट से लेनी थीं। काम छोड़ना पड़ा। सुबह उठ कर देखा तब भी नदारद थ, लेकिन कुछ देर बाद अचानक चालू हो गया। मैं ने पहले जरूरी काम निपटाया तब तक अदालत जाने का समय हो गया। हो गया न एक दिन का अवकाश। यही कारण था कि कल ब्लागजगत से मैं भी  नदारद रहा। आज शाम ब्रॉडबैंड चालू मिला। अपने पास एकत्र कानूनी सलाह के सवालों में से एक का उत्तर दिया। फिर कुछ काम आ गया तो वहाँ जाना पड़ा। लौट कर पहले अपने काम को संभाला। अब कुछ फुरसत हुई तो ब्लाग मोर्चा संभाला है।
ह तो थी जबरिया छुट्टी। लेकिन 'दुनिया में और भी मर्ज हैं इश्क के सिवा'। हो सकता है आज की यह पोस्ट अनवरत पर इस माह की आखिरी पोस्ट हो। कल शाम जोधपुर के लिए निकलना है। वहाँ बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति की बैठक है जिस में किसी वकील की शिकायत पर सुनवाई करनी होगी। मुझे इस समिति का सदस्य चुना गया है। समिति में चेयरमेन सहित तीन सदस्य हैं। तीनों को सुनवाई के उपरांत निर्णय करना होगा। यदि वकील साहब दोषी पाए गए तो उन्हें दंड भी सुनाना होगा। यह सब एक ही सुनवाई में नहीं होगा। कुछ बैठकें हो सकती हैं। अब हर माह कम से कम एक दिन यह काम भी करना होगा। तो माह में कम से कम दो दिन का अवकाश तो इस काम के लिए स्थाई रूप से हो गया। यह हो सकता है कि उस दिन के लिए पोस्ट पहले से शिड्यूल कर दी जाएँ।  
मैं लौटूंगा 31 जनवरी को। लेकिन उसी दिन दिल्ली जाना होगा। वहाँ जर्मनी से आ रहे ब्लागर राज भाटिया जी से मुलाकात होगी। मैं तीन फरवरी को लौटूँगा। लेकिन आते ही एक पारिवारिक विवाह में व्यस्त होना पड़ेगा। जिस से पाँच फरवरी की देर रात को ही मुक्ति मिलेगी। इतनी व्यस्तता के बाद इतने दिनों के वकालत के काम को संभालना भी होगा। अब आप समझ गए होंगे कि अपनी तो ब्लागीरी से लगभग सप्ताह भर की वाट लगने जा रही है।  इस बीच यदि समय और साधन मिले तो ब्लागीरी के मंच पर किसी पोस्ट के माध्यम से मुलाकात हो जाएगी। लेकिन इस बीच ब्लाग पढ़ना और अपने स्वभाव के अनुसार टिप्पणियाँ करने का शायद ही वक्त मिले। इस का मुझे अफसोस रहेगा। हिन्दी ब्लागीरी बिना पढ़े और पढ़े हुए पर प्रतिक्रिया किए बिना कुछ नहीं है। यही शायद उस के प्राण भी हैं। यही बिंदु हिन्दी ब्लागीरी को अन्य किसी भी भाषा की ब्लागीरी से अलग भी करता है। 

सोमवार, 18 जनवरी 2010

भविष्य के लिए मार्ग तलाशें

नवरत पर कल की पोस्ट जब इतिहास जीवित हो उठा का उद्देश्य अपने एक संस्मरण के माध्यम से आदरणीय डॉ. रांगेव राघव जैसे मसिजीवी  को उन के जन्मदिवस पर स्मरण करना और उन के साहित्यिक योगदान के महत्व को प्रदर्शित करना था। एक प्रभावी लेखक का लेखन पाठक को गहरे बहुत गहरे जा कर प्रभावित करता है। डॉ. राघव का साहित्य तो न जाने कितने दशकों या सदियों तक लोगों को प्रभावित करता रहेगा। आज उस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत मुझे मुरैना के युवा ब्लागर और वकील साथी भुवनेश शर्मा से  फोन पर चर्चा हुई। वे बता रहे थे कि वे वरिष्ठ वकील श्री विद्याराम जी गुप्ता  के साथ काम करते हैं जिन की आयु वर्तमान में 86 वर्ष है, उन्हें वे ही नहीं, सारा मुरैना बाबूजी के नाम से संबोधित करता है। वे इस उम्र में भी वकालत के व्यवसाय में सक्रिय हैं।  आगरा में अपने अध्ययन के दौरान डॉ. रांगेय राघव के साथी रहे हैं। बाबूजी विद्याराम जी गुप्ता ने कुछ पुस्तकें लिखी हैं और प्रकाशित भी हुई हैं। लेकिन उन की स्वयं उन के पास भी एक एक प्रतियाँ ही रह गई हैं। उन्हों ने यह भी बताया कि वे उन पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन का मानस भी रखते हैं। मैं ने उन से आग्रह किया कि किसी भी साहित्य को लंबी आयु प्रदान करने का अब हमारे पास एक साधन यह अंतर्जाल है। पुनर्प्रकाशन के लिए उन की पुस्तकों की एक बार सोफ्ट कॉपी बनानी पड़ेगी। वह किसी भी फोंट में बने लेकिन अब हमारे पास वे साधन हैं कि उन्हें यूनिकोड फोंट में परिवर्तित किया जा सके। यदि ऐसा हो सके तो हम उस साहित्य को अंतर्जाल पर उपलब्ध करा सकें तो वह एक लंबी आयु प्राप्त कर सकेगा। मुझे आशा है कि भुवनेश शर्मा मेरे इस आग्रह पर शीघ्र ही अमल करेंगे।


ल की पोस्ट पर एक टिप्पणी भाई अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की भी थी। मेरे यह कहने पर कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई थे और इंद्र इतने बदनाम हो गए थे कि उन के स्थान पर विष्णु को स्थापित करना पड़ा, उन्हें इतना तीव्र क्रोध उपजा कि वे अनायास ही बीच में कम्युनिस्टों और मार्क्स को ले आए। मेरा उन से निवेदन है कि किसी के भी तर्क का जवाब यह नहीं हो सकता कि 'तुम कम्युनिस्ट हो इस लिए ऐसा कहते हो'। उस का उत्तर तो तथ्य या तर्क ही हो सकते हैं। अपितु इस तरह हम एक सही व्यक्ति यदि कम्युनिस्ट न भी हो तो उसे कम्युनिज्म की ओर ढकेलते हैं। इस बात पर अपना अनुभव मैं पूर्व में कहीं लिख चुका हूँ। लेकिन वह मुझे अपनी पुरानी पोस्टों में नहीं मिल रहा है। कभी अपने अनुभव को अलग से पोस्ट में लिखूंगा। 

ल की पोस्ट पर ही आई टिप्पणियों में फिर से एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि आर्य आक्रमण कर्ता थे या नहीं। वे बाहर से आए थे या भारत के ही मूल निवासी थे। इस विवाद पर अभी बरसों खिचड़ी पकाई जा सकती है। लेकिन क्या यह हमारे आगे बढ़ने के लिए आवश्यक शर्त है कि हम इस प्रश्न का हल होने तक जहाँ के तहाँ खड़े रहें। मेरे विचार में यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि हम आर्यों की उत्पत्ति का स्थान खोज निकालें और वह हमारे आगे बढने की अनिवार्य शर्त भी नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ, और शायद आप में से अनेक लोग अपने अपने जीवन अनुभवों को टटोलें तो इस का समर्थन भी करेंगे कि वर्तमान भारतीय जीवन पर मूलतः सिंधु सभ्यता का अधिक प्रभाव है। बल्कि यूँ कहें तो अधिक सच होगा कि सिंधु सभ्यता के मूल जीवन तत्वों को हमने आज तक सुरक्षित रखा है। जब कि आर्य जीवन के तत्व हम से अलग होते चले गए। मेरी यह धारणा जो मुझे बचपन से समझाई गई थी कि हम मूलतः आर्य हैं धीरे-धीरे खंडित होती चली गई। मुझे तो लगता है कि हम मूलत सैंधव या द्राविड़ ही हैं और आज भी उसी जीवन को प्रमुखता से जी रहे हैं। आर्यों का असर अवश्य हम पर है। लेकिन वह ऊपर से ओढ़ा हुआ लगता है। यह बात हो सकता है लोगों को समझ नहीं आए या उन्हें लगे कि मैं यह किसी खास विचारधारा के अधीन हो कर यह बात कह रहा हूँ। लेकिन यह मेरी अपनी मौलिक समझ है। इस बात पर जब भी समय होगा मैं विस्तार से लिखना चाहूँगा। अभी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं कि उस में समय दे सकूँ। अभी तो न्याय व्यवस्था की अपर्याप्तता से अधिकांश वकीलों के व्यवसाय पर जो विपरीत प्रभाव हुआ है। उस से उत्पन्न संकट से मुझे भी जूझना पड़ रहा है। पिछले चार माह से कोटा में वकीलों के हड़ताल पर रहने ने इसे और गहराया है।
कोई भी मुद्दे की गंभीर बहस होती है तो उसे अधिक तथ्य परक बनाएँ और समझने-समझाने का दृष्टिकोण अपनाएँ। यह कहने से क्या होगा कि आप कम्युनिस्ट, दक्षिणपंथी, वामपंथी, राष्ट्रवादी , पोंगापंथी, नारीवादी, पुरुषवादी या और कोई वादी हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं, इस से सही दिशा में जा रही बहस बंद हो सकती है और लोग अपने अपने रास्ते चल पड़ सकते हैं या फिर वह गलत दिशा की ओर जा सकती है। जरूरत तो इस बात की है कि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशें। यदि भविष्य के रास्ते के परंपरागत नाम से एतराज हो तो उस का कोई नया नाम रख लें। यदि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशने के स्थान पर अपने अपने पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आपत्ति है कि यह पूर्वग्रह होना चाहिए, हालांकि मुझे पूर्वाग्रह ठीक जँचता है") डटे रहे और फिजूल की बहसों में समय जाया करते रहे तो भावी पीढ़ियाँ हमारा कोई अच्छा मूल्यांकन नहीं करेंगी। 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

क्या ब्लागवाणी पर ट्रॉजन वायरस का हमला हुआ है और वह इसकी वाहक बन रही है?


कोटा से यात्रा पर रवाना होने के पहले ब्लागवाणी देखी तो एंटीवायरस ने चेतावनी दी कि वायरस आ रहे हैं। देखा तो स्रोत ब्लागवाणी है। तो क्या ब्लागवाणी पर ट्रॉजन वायरस का हमला हुआ है। यदि ऐसा है तो यह हिन्दी ब्लागरों के लिए चिंता की बात है। कृपया ब्लागवाणी के प्रबंधक इस को जाँचें और इसे वायरस हीन करने का प्रयत्न करें। वरना बहुत लोगों के कंप्यूटर वायरस ग्रस्त हो सकते हैं।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

रात की बारिश और फरीदाबाद से दिल्ली का सफर


रात सोने के पहले तारीख बदल चुकी थी। सर्दी के लिहाज से हलका कंबल  लिया था, एक चादर भी साथ रख लिया। केवल कंबल में भी गर्मी लगी तो उसे हटा कर चादर से काम चलाना पड़ा। सुबह पाँच के आसपास एक बार नींद खुली, यह लघुशंका के लिए थी।  बाथरूम गया तो  रास्ते में बालकनी गीली दिखाई दी। गौर किया तो पता लगा रात बारिश हुई है। सर्दी कम होने का कारण यही था। अभी रात शेष थी। दुबारा बिस्तर पर लेटा तो नींद फिर लग गई।  इस बार उठा तो आठ बज चुके थे। निपटते-निपटाते साढ़े नौ बज गए। झटपट नाश्ता किया और चल दिया। मैं सोचता था कि डेढ़ नहीं तो दो घंटे में तो निश्चित स्थान पर पहुँच ही लूंगा। गंतव्य के लिए मुझे बदरपुर बॉर्डर से जिस बस को पकड़ना था उस का रूट नंबर मुझे अजय झा बता चुके थे। बॉर्डर तक कैसे पहुँचना है इतना जानना था। इस के लिए मकान मालिक ने मदद की और मैं पहुँचा सेक्टर तीन की पुलिया पर।  दो-तीन मरियल से ठुकपिट कर शक्ल बिगाड़े रिक्शा आए लेकिन बॉर्डर के नाम से ही बिदक गए। फिर एक हरे रंग का नया सा मिला, उसने बिठा लिया और बदरपुर बॉर्डर उतारा। मोबाइल ग्यारह में आठ मिनट कम बता रहा था।
विचित्र नजारा था। मेट्रो के लिए चल रहे काम और शायद निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के कारण  बेहद अफरातफरी थी। यहाँ भी स्थाई-अस्थाई बाजार उगे थे। पता ही नहीं लग रहा था कि कहाँ से बस मिलेगी? मुझे कुछ पान की दुकानें दिखीं। पूरा एक दिन हो गया था, पान खाए। पास गया तो उन में गुटखे लटक रहे थे और भी बहुत कुछ था पर पान नहीं था। तलाश करने पर एक जगह पान भी दिखे दुकानदार उस की दीवार घड़ी दुरुस्त करने में जुटा था। मैं ने उसे पान बनाने को कहा तो उस ने बस एक नजर मेरी और देख वापस अपने काम में जुट गया। मैं ने एक मिनट उस का इंतजार किया और खुद को उपेक्षित पा कर वहाँ से चल दिया। रास्ते में कुछ लोग मोजे, रुमाल, बटुए आदि बेच रहे थे। मुझे याद आया मैं रुमाल लेना भूल गया हूँ। मैंने दस रुपए में एक रुमाल खरीदा और उसी से पूछा कि बस कहाँ मिलेगी? उस ने दूर खड़ी बसों की ओर इशारा किया। मैं तकरीबन पौन किलोमीटर चल कर बसों तक पहुँचा तो मेरे रूट की बस बिलकुल खाली थी, ड्राइवर-कंडक्टर  अंदर बैठ कर अपना सुबह का टिफिन निपटा रहे थे। मैंने पूछा तो उन्हों ने आगे जाने का इशारा किया। आधा किलोमीटर और आगे चल कर मैं बस तक पहुँचा। सवारियाँ बैठ रही थीं। मैं चढ़ा और खुद को खुशकिस्मत पाया कि वहाँ एक सीट बैठने के लिए खाली मौजूद थी। कुछ देर बैठे रहने के बाद कंडक्टर को पूछा तो उस ने बताया कि बस 11: 38 पर चलेगी। मैं लेट हो चुका था।
चे समय के इस्तेमाल का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, लेकिन लोगों के पास था। एक बच्ची हाथ में कमंडल और उस में बिठाई तस्वीर ले कर मांगने के लिए बस में चढ़ गई। वह कुछ नहीं बोल रही थी। हर सवारी के आगे कुछ देर खड़ी होती, कुछ मिलता तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ जाती। ऐसे ही बच्चे, महिलाएँ कोटा अदालत में खूब आते हैं, सब के सब पक्के प्रोफेशनल। मेरे एक साथी उन्हें कई बार नसीहतें दे चुके हैं। उन से काम कराने के बदले मजदूरी देने का प्रस्ताव भी करते हैं। पर कौन स्थाय़ी रोजगार छोड़ अस्थाई की और झाँकता है। बच्ची बस से उतरी तो एक युवक नारियल की फांके लिए बेचने चढ़ा, कुछ लोगों ने उस का स्वागत किया। उस के बाद एक पैंसिल बेचने वाला चढ़ा। मेरे पास की सीट पर बेटी के साथ बैठे सज्जन ने पैंसिलें खरीदीं। तभी बस ने हॉर्न दिया। पैंसिल बेचने वाला उतर गया, बस चल दी।

जिस तरह बस चल रही थी लग रहा था कि कम से कम एक डेढ़ घंटा जरूर लेगी। मैंने कंडक्टर को अपना गंतव्य बताया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि वह मुझे सही स्थान पर उतार देगा। एक स्टॉप पहले ही उस ने मुझे आगे के दरवाजे पर बुलाया और मेरे स्टॉप पर उतार दिया। बाद में पता लगा कि उस ने मुझे एक स्टॉप पहले ही उतार दिया था। अपने राम पैदल चल पड़े। मेट्रो स्टेशन के पास पहुँच कर मैं ने मोबाइल से अजय से संपर्क करना चाहा पर वहाँ सिग्नल गायब थे। मैं एक और चल दिया और सिग्नल मिलने तक चलता रहा। अजय से बात हुई तो वे मुझे लेने आ गए। हम मिलन स्थल पहुँच गए। पाबला जी तो वहाँ पहले से ही थे श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, और खुशदीप सहगल भी पहुँचे हुए थे। बातों के साथ नाश्ता चल रहा था। सभी बहुत आत्मीयता के साथ मिले। मैं बैठा ही था कि अचानक पीछे रोशनी चमकी। मुड़ कर देखा तो टेबल पर रखा पाबला जी का कैमरा हमें कैद कर रहा था।



गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भेंट अरुण जी अरोरा से, और चूहे के बिल

म पूर्वा के आवास पर पहुँचे। पूर्वा डेयरी से दूध ले कर कुछ देर बाद आई। तीसरा पहर अंतिम सांसे गिन रहा था, ढाई बज चुके थे। सफर ने थका दिया था और दोनों सुबह से निराहार थे। मैं तुरंत दीवान पर लेट लिया। पूर्वा ने घऱ से लड़्डू-मठरी संभाले और शोभा ने रसोई। कुछ ही देर में कॉफी-चाय तैयार थी। उस ने बहुत राहत प्रदान की। सुबह जल्दी सोकर उठे थे इस लिए चाय-कॉफी पीने के बावजूद नींद लग गई। शाम को उठते ही दुबारा कॉफी तैयार थी और शाम के भोजन की तैयारी। मैं ने पूर्वा का लेपटॉप संभाला और मेल देख डाली।
शाम के भोजन के बाद मैं और शोभा अरुण अरोरा जी के घर पहुँचे। अरुण जी तब तक अपने काम से वापस नहीं लौटे थे। हम कुछ देर मंजू भाभी से बातें करते रहे। तभी अरुण जी आ गए। उन से बहुत बातें हुईं। पिछले दिनों उन्हों ने अपने उद्योग का काया पलट कर दिया। एक पूरा नया प्लांट जो अधिक क्षमता से काम कर सकता है स्थापित कर लिया। अब नए प्लांट को अधिक काम चाहिए, उसी में लगे हैं। काम के आदेश मिलने लगे हैं और प्राप्त करने के प्रयास हैं। कई नमूने के काम चल रहे हैं, नमूने पसंद आ जाएँ तो ऑर्डर मिलने लगें। किसी भी उद्यमी के जीवन का यह महत्वपूर्ण समय होता है। इसी समय वह पूरी निगेहबानी और मुस्तैदी से काम कर ले तो बाजार में साख बन जाती है और आगे काम मिलना आसान हो जाता है। उन के लिए यह समय वास्तव में महत्वपूर्ण और चुनौती भरा है। मैं ने उन से ब्लागरी में वापसी के लिए कहा तो बोले। एक बार नमस्कार कर दिया तो कर दिया। उन के स्वर में दृढ़ता तो थी, लेकिन उतनी नहीं कि उन की वापसी संभव ही न हो। मुझे पूरा विश्वास है, एक बार वे अपने उद्यम की इस क्रांतिक अवस्था से आगे बढ़ कर उसे गतिशील अवस्था में पाएँगे तो ब्लागरी में अवश्य वापस लौटेंगे और एक नए रूप और आत्मविश्वास के साथ।
मैं ने अरुण जी को बताया कि पाबला जी भी दिल्ली आए हुए हैं और कल कुछ ब्लागर दिल्ली में मिलेंगे।  पाबला जी आप से मिलना भी चाहते हैं। कल रविवार है, दिल्ली चलिए, शाम तक लौट आएंगे, कल रविवार भी है। उन्हें यह सुन कर अच्छा लगा, लेकिन वे रविवार को भी व्यस्त थे कुछ संभावित ग्राहकों के साथ उन की दिन में बैठक थी। उन्हों ने कहा यदि समय हो तो पाबला जी को इधर फरीदाबाद लेते आइए, मुझे बहुत खुशी होगी।  हमने अरुण जी के उद्यम की सफलता के लिए अपनी शुभेच्छाएँ व्यक्त कीं और वापस लौट पड़े। वापसी पर पाबला जी और अजय कुमार झा से फोन पर बात हुई।  उन्हों ने बताया कि सुबह 11 बजे दिल्ली में यथास्थान पहुँचना है। दिन में सो जाने के कारण  आँखों में नींद नहीं थी। मैं देर तक पूर्वा के लैप पर ब्लाग पढता रहा, कुछ टिप्पणियाँ भी कीं। फिर सोने का प्रयास करने लगा आखिर मुझे अगली सुबह जल्दी  दिल्ली के लिए निकलना था।

आज का दिन
ज मुम्बई और देश आतंकी हमले की बरसी को याद कर रहा है, और याद कर रहा है अचानक हुए उस हमले से निपटने में प्रदर्शित जवानों के शौर्य और बलिदान को। शौर्य और बलिदान जवानों का कर्म और धर्म है। जो जन उन से सुरक्षा पाते हैं उन्हें, उन का आभार व्यक्त करना ही चाहिए। लेकिन वह सूराख जिस के कारण वे चूहे हमारे घर में दाखिल हुए, मरते-मरते भी घर को यहाँ-वहाँ कुतर गए, अपने दाँतों के निशान छोड़ गए। देखने की जरूरत है कि क्या वे सूराख अब भी हैं? क्या अब भी चूहे घऱ में कहीं से सूराख कर घुसने की कारगुजारी कर सकते हैं? और यदि वे अब भी घुसपैठ कर सकते हैं तो सब से पहले घर की सुरक्षा जरूरी है। उस के लिए शौर्य और बलिदान की क्षमता ही पर्याप्त नहीं। घर के लोगों की एकता और सजगता ज्यादा जरूरी है।  मैं दोहराना चाहूँगा। पिछले वर्ष लिखी कुछ पंक्तियों में से इन्हें ....

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

सोमवार, 23 नवंबर 2009

यात्रा में भूली, अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ


पिछला सप्ताह पूरा यात्रा में गुजरा। यूँ तो कोटा में 29 अगस्त से वकीलों ने न्यायिक कार्य का बहिष्कार किया हुआ है। कहा जा सकता है कि मैं भी पूरी तरह फुरसत में हूँ। लेकिन यह केवल कहे जाने वाली बात है। वास्तविकता कुछ और ही है। जब वकील अदालत से बाहर होते हैं तो उन के किसी मुकदमे में उस मुवक्किल को जिस की वे पैरवी कर रहे हैं किसी तरह का स्थाई नुकसान न उठाना पड़े, इस की जिम्मेदारी वकील पर आ पड़ती है।  इस के लिए वकील का रोज अदालत परिसर तक जाना और मुकदमों को अदालत में न जाकर भी नियंत्रित करना जरूरी हो जाता है। सामान्य परिस्थितियों में मुकदमे की पैरवी की वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है लेकिन ऐसे में अपना मुख्यालय छोड़ पाना दुष्कर हो जाता है। इस कारण से मेराअगस्त के अंत से कोटा में ही रहना हुआ। इस बीच मुंबई में अनिता कुमार-विनोद जी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी अवश्य थी लेकिन उसी समय बेटे को बाहर जाना था सो मुम्बई का टिकट रद्द करवाना पड़ा।  



विगत फरवरी में बेटी पूर्वा ने बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) में अपने नए काम पर पद  भार संभाला था। उसे वहाँ छोड़ने गए तो उस के लिए आवास की व्यवस्था की जिस में फरीदाबाद के साथी ब्लागर अरुण जी अरोरा और उन की पत्नी मंजू भाभी ने महति भूमिका अदा की थी। हम चार दिन उन्हीं के मेहमान रहे। अरुण जी के सौजन्य से ही ब्लागवाणी के कार्यालय में मैथिली जी, सिरिल, अविनाश वाचस्पति जी,  आलोक पुराणिक जी और ....... से भेंट हुई थी। पखवाड़े भर बाद जब पूर्वा को एक बार देखने वापस फरीदाबाद जाना हुआ तो अरुण  जी के अतिरिक्त किसी से मिलना नहीं हो सका और किसी भी तरह तीसरी बार उधर का रुख भी नहीं हो सका। पूर्वा अवश्य माह डेढ़ माह में कोटा आती रही। बहुत दिन हो जाने के कारण एक बार पूर्वा के पास जाना ही था। पहले 7 नवम्बर जाना तय हुआ, लेकिन जोधपुर के एक मुवक्किल ने दबाव बनाया उन का काम तुरंत जरूरी है और जोधपुर जाना हो सकता है। यह कार्यक्रम निरस्त हुआ। लेकिन जोधपुर यात्रा भी टल गई। फिर 14-15 नवम्बर को फरीदाबाद जाना तय हुआ। तभी खबर मिली कि पाबला जी भी उन्हीं दिनों दिल्ली आ रहे हैं। सुसंयोग देख कर मैं ने पत्नी शोभा के वहाँ तीन रात्रि रुकने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बहाने दो -दिन एक रात दिल्ली रुकना हुआ और वहीं अनेक ब्लागर साथियों से भेंट हुई जिस का विवरण आप को पाबला जी, अजय कुमार झा और खुशदीप सहगल जी से आप को मिल चुका है और मिलता रहेगा।

दिल्ली में ही मुझे पुनः जोधपुर पहुँचने का संदेश मिला तो मैं 17 की शाम कोटा पहुँच कर 18 की रात ही जोधपुर के लिए लद लिया। दो दिनों में जोधपुर का काम निपटा कर वापस कोटा पहुँचा। दोनों ओर की यात्रा बस से हुई उस ने जो कष्ट और आनंद दिया वह निराला था। 21 नवम्बर की सुबह कोटा पहुँचा तो हालत यह थी कि दिन भर सोता रहूँ। लेकिन सप्ताह भर की अनुपस्थिति ने अदालत जाने को विवश किया। शाम हालत यह थी कि न खुद का पता था, न दुनिया का। पर ब्लागरी ऐसी चीज हो गई कि उस दिन भी अनवरत और तीसरा खंबा पर एक एक आलेख पेल ही दिए। आज शामं अचानक ध्यान आया कि अनवरत की वर्षगांठ इन्हीं दिनों होनी चाहिए। देखा तो पता लगा कि अनवरत का जन्मदिन 20 नवम्बर को ही निकल चुका है।
ब देर से ही सही हम अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ को स्मरण किए लेते हैं। 20 नवम्बर 2007 को आरंभ हुआ अनवरत दो वर्ष पूरे कर चुका है, .यह आलेख इस का 370वाँ आलेख है और 41000 से अधिक चटके इस पर लोग लगा चुके हैं।

अनवरत का पहला आलेख



आप सब के आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा के साथ ......

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।