@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: व्यंग्य
व्यंग्य लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
व्यंग्य लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

वे सवारियाँ !


सवारी के बिना आज के जमाने में गुजारा नहीं है। जीवन के पहले पच्चीस बरस मैंने अपने गृह नगर बाराँ में बिताए। वहाँ सारा नगर  हर कोई पैदल ही घूमा करता था। चाहे स्टेशन जाना हो, अस्पताल जाना हो या स्कूल-कॉलेज, बस यह प्रकृति प्रदत्त ग्यारह नंबर की बस ही सब जगह काम आती थी। पैदल चलने का लाभ यह था कि जितना भी खाओ पच जाता था। बीमारियाँ दूर भागती थीं। पहली साइकिल घर में आई तब, जब हम नवीं क्लास में पढ़ते थे।  वह भी इस लिए कि पिताजी स्कूल इंस्पेक्टर हो गए थे और उन्हें गावों में स्कूलों का निरीक्षण करने जाना होता था। वे कभी पैडल से साइकिल पर चढ़ना नहीं सीख पाए। हमेशा किसी ऊंची जगह से साइकिल पर चढ़ते थे।  जब तक ऐसी जगह न मिलती थी ,साइकिल को पैदल ही लुढ़काते रहते थे। मैं यह काम दो दिनों में सीख गया था।


घर बाजार में दुमंजिले पर था। सायकिल सुबह घऱ से उतारी जाती और देर रात को वापस चढ़ाई जाती। बीच में जब भी उसे फुरसत होती, वह बाजार में मांगीलाल नाई की दुकान से टिक कर खड़ी रहती थी। एक बार रात को साइकिल को वहाँ से उठा कर घर पर चढ़ाना भूल गए। सुबह साइकिल की जरूरत पड़ी तो तलाश आरंभ हुई। कहीं नहीं मिली। किसी ने सुझाव दिया कि थाने में जा कर देखो। हम गए तो वह वहाँ आराम फरमा रही थी। पता लगा रात को गश्त करने गए सिपाही उठा लाए थे।  इस के बाद उसे थाने जाने की आदत पड़ गई। जब भी हम भूल जाते वह वहाँ चली जाती। हम भी सुबह याद आते ही उसे थाने से बड़े प्यार से उठा लाते। वह जब तक रही अक्सर थाने की सैर करती रही। किसी की बुरी नजर तक उस पर नहीं पड़ी थी।


साइकिलें उन्हीं लोगों के  पास थीं, जिन का नगर से बाहर जाने-आने का काम पड़ता था। उन के अलावा कोई और साइकिल खरीदता तो उसे लक्जरी समझा जाता। नगर में मोटर साइकिलें गिनती की थीं। कहीं जीप नजर आती तो वह जरूर सरकारी होती। नगर का सर्वप्रिय यातायात साधन हाथ ठेला हुआ करता। ट्रेन आने के समय उन की आधी से अधिक आबादी स्टेशन के बाहर खड़ी होती। लोग उन में अपना सामान लदवाते और साथ पैदल चलते। फिर पहले पहल साइकिल रिक्शे चले। तो वे बीमारों को अस्पताल पहुँचाने या वृद्धों को ढोने के काम आने लगे। जवान आदमी उन में बैठ जाता तो लोग दिन भर उस से पूछते रहते -तबीयत तो ठीक है न? कोई अधिक संवेदनशील होता तो बेचारा शाम तक जरूर बीमार पड़ जाता। मेरे मन में भी बहुत हुमक उठती कि कभी मैं भी रिक्शे में बैठूँ। पर लोगों की पूछताछ और उस से बीमार होने के डर से नहीं बैठता। एक बार पत्नी को ले कर स्टेशन पर उतरा और उस के आग्रह पर रिक्शे में बैठ गया। रिक्शा बाजार में हो कर निकला तो सारे नगर को पता लग गया कि हम स्टेशन से घर तक रिक्शे से गए थे। मुझे खुद को ऐसा लग रहा था जैसे मेरी झाँकी निकल रही हो। उस के बाद अब तक अपने शहर में रिक्शे में बैठने की हिम्मत नहीं हुई।  पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों के न होने का असर था कि सुबह नदी गए। एक डुबकी लगाई, किनारे आ कर पूरे बदन को हाथों से रगड़ा और दूसरी डुबकी में बदन साफ। साबुन का उपयोग तो हफ्ते में एक दिन होता था। अंदर के वस्त्रों को छोड़ दें तो कपड़े भी दो-तीन दिन आसानी से चल जाते थे।  दादा जी के मुताबिक तो साबुन और नील के उपयोग से वस्त्र अपवित्र हो जाते थे। इन दोनों का उपयोग किया हुआ वस्त्र पहन कर वे कभी मंदिर के गर्भ-गृह नहीं गए।


जिस साल नगर के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई और जिला मुख्यालय के पीजी कॉलेज में वकालत की पढ़ाई पढ़ने गए उसी साल दोनों शहरों के बीच एक शटल ट्रेन चलने लगी। बड़ी आसानी हो गई। शाम को कॉलेज लगता। मैं सुबह दस बजे ट्रेन में चढ़ता और बारह पर उतरता। दिन भर इधर-उधर मटरगश्ती करता और शाम को कॉलेज कर के रात को शटल से वापस। दिन भर की मटरगश्ती के लिए वाहन जरूरी था। जिला मुख्यालय का नगर बड़ा था और लंबाई में फैला था। स्टेशन भी नगर से दूर था। साइकिल वहीं स्टेशन के साइकिल स्टेंड पर डाल दी गई जिस से मटरगश्ती में आसानी हो गई।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

बुरे फँसे, वकील साहब!

वकीलों की हड़ताल की खबर से पब्लिक को पता लगा कि वकील साहब फुरसत में हैं, तो हर कोई उस पर डकैती डालने को तैयार था। जिन मुवक्किलों को अब तक वकील साहब से टाइम नहीं मिल रहा था। उन में से कुछ के फोन आ रहे थे, तो कुछ बिना बताए ही आ धमक रहे थे। पत्नी सफाई अभियान में हाथ बंटवा चुकी थीं। उधर शिवराम जी की नाटक की किताबों के लोकार्पण समारोह में वकील साहब को देख महेन्द्र 'नेह' की बांछें खिल गईँ। कहने लगे आप को पत्रकारिता का पुराना अनुभव है, अखबारों के लिए समारोह की रिपोर्टिंग की प्रेस विज्ञप्ति आप ही बना दें।  वकील साहब पढ़ने को गए थे नमाज़, रोजे गले पड़ गए। एक बार टल्ली मारने की कोशिश की।  लेकिन महेन्द्र भाई कब मानने वाले थे। कहने लगे -हमारी कविताएँ ब्लाग पर हमसे पूछे बिना दे मारते हो और हमारा इतना काम भी नहीं कर सकते? अब बचने का कोई रास्ता न था। इरादा तो था कि समारोह में पीछे की लाइन में बैठते, बगल में बिठाते यक़ीन साहब को, गप्पें मारते समारोह का मजा लेते।   पर हाय! हमारे मजे को तो नजर लग चुकी थी। तो पहला डाका डाला महेन्द्र भाई ने। सुन रहे हैं ना, फुरसतिया जी ,उर्फ अनूप शुक्ला जी! अपने थाने में पहली रपट महेन्द्र भाई के खिलाफ दर्ज कीजिएगा।

 बुरे फँसे, वकील साहब!

दूसरे दिन अखबार में समारोह की खबर देखी।  फोटो तो था, लेकिन खबर में विज्ञप्ति का एक भी शब्द न था। खबर एक दम बकवास। वकील साहब खुश, कि अच्छा हुआ भेजी विज्ञप्ति नहीं छपी, वर्ना महेन्द्र भाई तारीफ के इतने पुल बांधते कि अगले डाके का स्कोप बन जाता और बेचारा वकील फोकट में फँस जाता। लेकिन महेन्द्र भाई कम उस्ताद थोड़े ही हैं। अगले ही दिन आ टपके।  वही तारीफों के पुल! हम इतनी मेहनत करते हैं, मजा ही नहीं आता, खबर में। अब देखो आपने बनाई और कमाल हो गया। वकील साहब अवाक! कहने लगे -विज्ञप्ति तो छपी नहीं, जो खबर अखबार में छपी है वह बहुत रद्दी है। अरे आप ने दूसरा अखबार देख लिया। इन को देखो। बगल में से तीन-चार अखबार निकाले और पटक दिए मेज पर। वकील साहब क्या देखते? सब अखबारों में विज्ञप्ति छपी थी, फिर फँस गए। महेन्द्र भाई ने देखा मछली चारा देख ऊपर आगई है, तो झटपट कांटा फेंक दिया। यार! कई पत्रिकाओं को रिपोर्ट भेजनी है, वह भी बना दो।

वकील साहब ने देखा कि महेन्द्र भाई ने काँटा मौके पर डाला है और कोट का कॉलर उलझ चुका है। छुड़ाने की कोशिश की -मैं ने समारोह के नोट्स लिए थे, वह कागज वहीं रह गया है, अब कैसे बनाउंगा? मुझे वैसे भी कुछ याद रहता नहीं है। महेन्द्र भाई पूरी तैयारी के साथ आए थे। अपने फोल्डर से कागज निकाला और थमा दिया। तीन दिन बाद भी वकील साहब के नोट्स का कागज संभाल कर रखा हुआ था। वकील साहब ने फिर बहाना बनाया -आप लोगों के पास बढ़िया-बढ़िया कैमरे हैं और फोटो तक ले नहीं सकते। अभी समारोह के फोटो होते तो ब्लाग पर रिपोर्ट चली गई होती।

वो भी लाया हूँ, इस बार महेन्द्र भाई ने फोल्डर से समारोह के फोटो निकाले और कहा इन्हें स्केन कर लो और मुझे वापस दो।  अब बचने की सारी गुंजाइश खत्म हो चुकी थी। वकील साहब की फुरसत पर डाका पड़ चुका था। फोटो स्केन कर के वापस लौटाए गए। शाम तक रिपोर्ट ब्लाग पर छापने का वायदा किया, तब जान छूटी। जान तो छूटी पर लाखों नहीं पाए।  ताजीराते हिंद का खयाल आया कि यह डाका नहीं है, बल्कि चीटिंग है।  दफा 415 से 420 तक  के घेरे में जुर्म बनता है।  नोट करना फुरसतिया जी। चीटिंग की एफआईआर दर्ज करना महेन्द्र भाई के खिलाफ। यह भी दर्ज करना कि उन्हों ने इतना हो जाने पर भी कोई नई कविता अनवरत के लिए नहीं दी है। हाँ, वकील साहब राजीनामा करने को तैयार हैं बशर्ते कि महेन्द्र भाई कम से कम पाँच कविताएँ अनवरत को दे दें जिस से पाठकों को भी पढ़ने को मिल सकें।

अब फुरसत तो महेन्द्र भाई छीन ले गए।  समारोह की  रिपोर्ट बनाने का काम छोड़ गए।  वकील साहब उस में लगते कि फोन की घंटी बजी, ट्रिन...ट्रिन...! उठाया तो बड़े भाई महेश गुप्ता जी थे।  बार कौंसिल के मेंबर और पूर्व चेयरमेन, बोले क्या कर रहे हो पंडत! कुछ नहीं नहा धो कर अदालत जाने की सोच रहा हूँ। चलो बाराँ हो आएँ। वकील साहब समझ गए, एक से पीछा न छूटा पहले ही दूसरे डकैत हाजिर ..... अब चुनाव प्रचार भी करना पड़ेगा।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अश्यी काँई ख्हे दी ब्हापड़ा नें

घणो बवाल मचायो! अश्यी काँईं ख्ह दी।  य्हा ई तो बोल्यो थरूर के कैटल क्लास म्हँ जातरा कर ल्यूंगो।  अब थें ई सोचो;  ब्हापड़ा नें घणी घणी म्हेनत करी। पैदा होबा के फ्हेली ई हिन्दुस्तान आज़ाद होग्यो जी सूँ बिदेस म्हँ पैदा होणी पड्यो। फेर बम्बई कलकत्ता म्हँ पढणी पड़्यो। इत्य्हास मँ डिगरी पास करी व्हा बी अंग्रेजी म्हँ प्हडर। फेर अमरीका ज्यार एम्में अर पीएचडयाँ करणी पड़ी। नरी सारी कित्याबाँ मांडी। जद ज्यार ज्यूएन म्हँ सर्णार्थ्याँ का हाई कमीस्नर बण्यो। फेर परमोसन लेताँ लेताँ कणा काँई सूँ कणा काँईं बण बैठ्यो।  फेर बडी मुसकिल सूँ जुगाड़ भड़ायो अर ज्यू एन का सेकरेटरी जर्नल को चुणाव ज्या लड्यो। ऊँम्हँ भी हारबा को अंदसो होयो तो नाम ई पाछो जा ल्यो।
अब यो अतनो ऊँचो कश्याँ बण्यो? थाँ ईँ याद होव तो बताओ! न्हँ तो म्हूँ बताऊँ छूँ। अतनो बडो आदमी अश्याँ  ई थोड़ी बण ज्याव छे। घणा पापड़ बेलणी पड़ छे, ज्यूएन म्हँ घुसबा कारणे। जमारा भर का मोटा मोटा सेठ पटाणी पड़े छे।  कान काईँ बण ज्याबा प व्हाँ की सेवा करणी पड़े छे। जद परमोसन मले छे। अब अश्याँ परमोसन लेताँ लेताँ दोन्यूँ को गठजोड़ो अतनो गाढ़ो हो ज्यावे छे जश्याँ फेवीकोल को जोड़। दोन्यूँ आडी हाथी अड़ा र खींचे  जद  भी न छूटे। 
अब थाँ ई बोलो! जमारा भर का सेठाँ सूं गठजोड़ो बांधे अर फेर भी व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास म्हाइनें जातरा करे। य्हा कोई जमबा हाळी बात छे कईँ। अब य्हा ई तो गलती होगी, के उँठी ज्यूएन छोडर अठी आ मर् यो। पण काँई करतो ब्हापड़ो, उँठी मंदी की मार पड़ री छी। गठजोड़ा हाळा सन्दा सेठा के ही व्हा गळा में आ री छी तो यो व्हाँ काई करतो। अठी इटली हाळी माता जी नें देखी के यो ज्यूएन को बंदो फोकट म्हँ पल्ले पड़ रियो छे तो ईं ने छोडो मती, पकड़ ल्यो।  व्हाँ ने पकड़्यो अर किसमत नें जोर मारि्यो, अर चुणाव में जीतग्यो। अठी जीत्यो अर उठीं उँ की पौ बारा।  झट्ट सूं सेकिण्ड बिदेस मंतरी जा बणायो। आखर कार ऊँ ने गठजोड़ा को धरम भी तो निभाणो छो। 
अब थें ई बताओ! अतनो बडो आदमी ज्ये जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ो बणावे अर व्हाँ के कारणे सैकिंड बिदेस मंतरी बण के दिखावे। ऊँ से था खेवो के भाया खरचा माथे व्हाई ज्हाज का थर्ड किलास में बैठणी पड़सी। अब माता जी को खेबो भलाईँ न्ह माने पण गठजोड़ा को धरम तो निभाणी पडे। अर माताजी न्हें भी थोड़ी आँख्याँ दखाणी पड़े; के थें यूँ मती सोच जो के म्हूँ थाँ के न्हाईं छूँ। थानें हिन्दूस्तानी व्हाई ज्हाज का डिरेवर सूँ गठजोड़ो बणायो, पण म्हंने तो जमारा भर का सेठाँ सू बणायो छे, आज ताईँ निभायो छे। अर आगे भी निभाबा को पक्को इरादो कर मेल्यो छे। 
थें ई बताओ, के ससी थरूर न्हें काँई झूट बोल्यो? हिन्दुस्तान का व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास गायाँ भैस्याँ के बरोबर छे क कोई न्हँ? थाईं तो याद छे के व्ह परदेसी गायाँ जे पच्चीस-पच्चीस सेर दूध देव व्हाँ के ताँई कूलर एसी म्हँ रखाणणी पड़े छे। अब ससी थरूर साइब के ताईं जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ा को सरूर न्हँ होवेगो तो काँईँ थारे ताँई होवेगो के ?

बुधवार, 16 सितंबर 2009

भूख लगे तो गाना गाsssss..आ.sssss.......

मानसून रूठ गया। बरसात नहीं हुई है। सूखा मुहँ बाए खड़ा है। महंगाई रोंद रही है। बहुत लोग हैं जो इस में कमाई का सतूना देख रहे हैं और कर रहे हैं। सरकार स्तब्ध है। कुछ कर नहीं पा रही है। कहती है .... हम इंतजाम कर रहे हैं पर कुछ तो बढ़ेगी। भुगतना होगा। सरकार को भी लगता है भुगतना होगा। सरकार परेशान है। सरकार में बैठी पार्टी परेशान है।

वह रास्ता निकालती है, कम खर्च करो बिजनेस की बजाय इकॉनॉमी में सफर करो। हवाई जहाज को छोड़ो ट्रेन में सफर करो। जनता के लिए यह संदेश है, तुम सफर करना बंद करो, पैसा बचाओ और उस से खाना खरीदो। सरकार मुश्किल में है। और बातें तो ठीक थीं पर मानसून यह न जाने क्यों गले पर आ कर बैठ गया। अब संकट है। वह संकट के उपाय तलाश रही है। 
मीडिया संकट का बड़ा साथी है। वह संकट पैदा करता है, वह संकट नष्ट करता है। उसे दुकान चलानी है। गड्ढा खोदो और फिर उसे भरो। तमाशा देखें उन को विज्ञापन दिखा कर पैसा वसूल करो। कुछ न हो तो पुराने पेड़ की खोह में आग लगा दो। जब तक पेड़ जल न जाए। ढोल पीट पीट कर लाइव दिखाते रहो। लोगों को बिजी कर दो और बिजनेस करो। रोटी कमाओ। 
पाकिस्तान परमानेंट इलाज है। जब कुछ काम न आए तो उधर से गोली चलने और गोला फेंकने की खबर दो। जब लोग पत्थर ले कर उधर फैंकने लगें तो कह दो ये तो उग्रवादियों की गतिविधि है। वह बेचारा खुदे ई उन से परेसान है। फिर औसामा को गाली दो। काम न चले तो डॉलर से उस की रिश्तेदारी का बखान करो। दो दिन निकल जाएंगे।
फिर चीन की तरफ झाँको। वह घुसा और लाल स्याही से पत्थरों पर चीन लिख गया। फिर चीन से तस्करी से आने वाले माल का उल्लेख करो, तस्करी को लाइव दिखाओ। कब से हो रही है? मीडिया जी अब तक कहाँ थे? यहीं थे। बस रिजर्व में रखा था इस माल को। अब जरूरत पड़ी तो दिखा रहे हैं। जब लोग बोर होने लगें तो दिखा दो कोई नहीं घुसा। वह तो अपने ही लोग पत्थरों पर चीन-चीन लिखना सीख रहे थे। 
लोग तमाशा देखेंगे, और रोटी को भूल जाएँगे, महंगाई को भूल जाएंगे, बेरोजगारी को भूल जाएंगे।  सीधे सतर खड़े हो कर जन, गण, मन गाएंगे। सीधे सतर न रहें तो भी तमाशा है उसे दिखाओ। हर ओर से चांदी है।  जब लोगों को भूख लगे, वे चिल्लाने लगें तो किसी अच्छे कंडक्टर को बुलाओ जो मंच पर खड़ा हो कर डंडी हिलाए और गाना गवाए - भूख लगे तो गाना गा, भूख लगे तो गाना गा...ssss...sssss....

शनिवार, 4 जुलाई 2009

आखिर मौसम बदल गया, चातुर्मास आरंभ हुआ

मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है।  पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं।  उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है।  कुछ देर में उस में से भाप निकलती है।  सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है।  पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।

पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा।  पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे।  दिन में तेज धूप निकलती रही।  हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे।  फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए?  साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए।  हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया।  नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा।  यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता ।  कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं।   वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।

तभी  खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम!  हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी।  पर फिर पुलिसिये बादल ही  आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए।  जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं।  पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी।  आसोज की धूप को भी लजा रही थी।  लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे।  आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती।  फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे।  हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?

कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई।  कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात  कुछ कम हुई तो  लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा।  लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया।  फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी।  अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे।  चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था।  उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए।  यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।

धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे।  अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई।  एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं।  मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ।  (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों।  वे  बरसात करने वाले नहीं हैं।  चांद रोशनी बिखेर रहा है।  पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है।  लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा।  साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है।  मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।



मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था।  देव आज से सोने जो चले गए हैं।  बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है।  चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे।  पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं।  उन में तो जाना ही पड़ेगा।  लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा।  मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ।  सोचा है पूरे  चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा।  देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

हो जाती जय सिया राम

  आप सभी ने महेन्द्र 'नेह' की कवितओं और गीतों का रसास्वादन किया है। आज पढ़िए उन का एक सुरीला व्यंग्य लेख ......
'व्यंग्य - लेख' 
हो जाती जय सिया राम                * महेद्र नेह


कहते हैं जिसका सारथी यानी ड्राइवर अच्छा हो, आधा युद्ध तो वह पहले ही जीत जाता है। लेकिन अपने भाई साब जी की राय इस मामले में बिलकुल भिन्न है। ये डिराइवर नाम का जीव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। चूँकि इस मृत्युलोक में डिराइवर के बिना काम चल ही नहीं सकता, अत: यह उनकी मजबूरी है। दरअसल वे छाछ के जले हुए हैं, अत: दूध को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।


अपनी आधी सदी की जिंदगी में भाई साब जी को डिराइवरों को लेकर कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। डिराइवरों के बारे में अपने अनुभव सुनाते हुए वे कहते हैं- भर्ती होकर आयेंगे तो मानों साक्षात राम भक्त हनुमान धरती पर उतर आये हों। सारी जिम्मेदारियाँ और मुसीबतें अपने सर ले लेंगे। अरे भाई, तुम्हारा काम है- कार चलाना। स्टीरिंग को ढंग से सम्भालो और कार को झमाझम रखो। बाकी चीजों से तुम्हें क्या लेना देना। मगर नहीं। भाई साब जी जूता पहनने बढ़े तो जूते, मफलर पहनना हो तो मफलर, टोपी तो टोपी। गले से मालाएँ उतारनी हों तो उसमें भी सबसे आगे। कोई जरा जोर से बोले तो बाँहें चढ़ाने लग जायेंगे।

आप अपने भाई-बन्दों से, बाल-बच्चों से, धर्म पत्नी से, यहाँ तक कि पी.ए. से भी बहुत सी चीजें छुपा सकते हैं, मगर डिराइवर से तो कुछ भी छुपाना मुश्किल है। अपनी सीट पर बैठा-बैठा सब कुछ गुटकता रहेगा। अन्दर की, बाहर की, उपर की, नीचे की सारी बातें हजम कर जायेगा। कान और आंखें एकदम ऑडियो-वीडियो की तरह काम करती है। ढोल में कुछ पोल बचती ही नहीं है।


और ढोल की ये पोल, अगर पब्लिक को मालूम पड़ जाये तो समझ लो हो गया बेड़ा गरक। भाई साब जी ने कितने जतन से ये कार-बँगले-खेत-प्लाट-पेट्रोल पम्प-होटल और कारखाने खड़े किये हैं। साथ ही कितनी होशियारी से अपनी जन सेवक की इमेज भी कायम रखी है। यदि इसकी कलई खुल जाय, तो बंटाढार ही समझो। सारा शहर जानता है, भाई साब जी के घर की स्थिति शरणार्थियों से भी गई बीती थी। मगर चौदह साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। उनके दिन फिर गये तो न जाने क्यों लोग-बाग अन्दर ही अन्दर जलते-सुलगते रहते हैं?

अरे भाई, यदि धन-दौलत आयेगी तो उसका उपभोग भी होगा। जब आज के जमाने के सन्त-महात्मा ही पुराने जमाने के साधु-सन्तों जैसे नहीं रहे तो आखिर वे तो गृहस्थ ठहरे। इस आधुनिक युग में सब कुछ होते हुए भी, कोई माई का लाल चौबीसों घन्टे खद्दर के कपड़े पहन के तो दिखा दे। अरे, उस दिन साध्वी जी के अनुरोध पर उन्होंने स्वीमिंग सूट पहन लिया और उनके साथ स्वीमिंग-पूल के निर्मल जल में दो चार गोते लगा भी लिये तो कौन सा बड़ा भारी अनर्थ हो गया? बड़े मंत्री जी तो नित्य ही बिना नागा बोतल पर बोतल साफ कर देते हैं। उन्होंने उस दिन दो-चार पैग चढ़ा लिये तो कौन सी किसी की भैंस मार दी?

उस सुसरे छदम्मी लाल डिराइवर की हिम्मत तो देखो। पहले तो बिना पूछे स्वीमिंग-पूल के अन्दर घुसा क्यों? और फिर अगर घुस भी गया तो उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह अपने दीदों को चौड़ाने की क्या जरूरत थी? पत्रकार जी आये थे हमारा इंटरव्यू लेने के लिए, महाराजाधिराज जी खुद ही उसे इंटरव्यू देने लग गये- ""भाई साब जी ये कर रहे थे, भाई साब जी वो कर रहे थे...'' बच्चू को यह नहीं मालूम कि पत्रकार जी तो रहे हमारे पुराने लंगोटिया और हमारी संस्कारवान पार्टी के खास कार्यकर्ता। हाँ, उनकी जगह उस दिन कोई और होता तो समझ लो उसी दिन हो जाती अपनी जय सिया राम...।

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं ...... पुरुषोत्तम 'यकीन की ग़ज़ल

पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......


लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं

 पुरुषोत्तम 'यकीन'


न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
****************************
muslim.outrage.over.pope.benedict.2

रविवार, 13 जुलाई 2008

तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है।

ये बरसात का सुहाना मौसम, सब ओर हरियाली छाई है। इधर बरसात भी मेहरबान है। घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में रौनक है। लोग नगर छोड़ कर बाहर भाग रहे हैं। नदी-नालों-तालाबो-झरनों के किनारे रौनक है, और इतनी है कि जगह की कमी पड़ गई है। नए-नए गड्ढे तलाशे जा रहें हैं, जिन के किनारे पड़ाव डाले जा सकें। गोबर के उपलों का जगरा लगा कर दाल-बाफले-कत्त बनाए जा सकें। पकौड़ियाँ तली जा सकें, विजया की घोटम-घोंट के लिए बढिया सी चट्टान नजदीक हो। बस मौज ही मौज है।

पर 50 से ऊपर वालों पर चेतावनियाँ लटकी हैं। उधर चार दिन पहले प्रयाग में गंगा किनारे ज्ञानदत्त जी को गर्दन खिंचवा कर सही करानी पड़ी, तो इधर हम अलग ही चक्कर में पड़ गए। इस मौज-मस्ती में कुछ खाने का हिसाब गड़बड़ा गया। खाए हुए का अपशिष्ट बाहर निकलने के बजाय शरीर में ही कब्जा जमाए बैठ गया। वेसै ही जैसे चुनाव के दिनों में बहुत से लोग खाली जमीनों पर कब्जा कर बैठते हैं और फिर जिन्दगी भर हटते नहीं। हट भी जाते हैं तो कब्जा किसी दूसरे को संभला जाते हैं।

कब्ज के इसी दौर में शादियाँ आ धमकीं। शुक्रवार रात शादी में गए और वहाँ पकवान्न देख रहा नहीं गया। नहीं-नहीं कर के भी इतना खा गए कि दो-तीन दिन की कब्ज का इंतजाम हो गया। वहाँ से लौट कर पंचसकार की खुराक भी ले ली। पर कब्जाए लोग कहाँ नगरपालिका और नगर न्यास की परवाह करते हैं जो हमारी आहार नाल पंचसकार की परवाह करती। शनिवार सुबह दो तीन बार कोशिश की, लेकिन कब्जा न हटना था तो नहीं हटा। दिन में हलका खाया। तीन घंटे नीन्द निकाली। रात को फिर मामूली ही खाया। काम भी मामूली किया।

रात को तारीख बदलने के बाद सोने गए तो निद्रा रानी रूठ गई। कब्जाए लोग हल्ला कर रहे थे। कभी पेट के इस कोने में, तो कभी उस कोने में। कभी ऊपर सरक कर दिल के नीचे से धक्का मारते, तो दिल और जिगर दोनों हिल जाते। पीठ की एक पुरानी पेशी कभी टूट कर जुड़ी थी, बस वहीं निगाह बनी रहती। लगता जोड़ अब खुला, तब खुला।

पिछले साल एक दिन अदालत में चक्कर खा गए थे। शाम को डाक्टर को दिखाया तो पता लगा। रक्त का दबाव कुछ बढा हुआ है। हम ने उछल-कूद कर, वजन घटा कर, (राउल्फिया सर्पैन्टाईना)  का होमेयोपैथी मातृद्रव ले कर यह दबाव तो सामान्य कर लिया। लेकिन उछल-कूद में कहीं साएटिका नामक तंत्रिका को परेशानी होने लगी तो उछलकूद बंद। वजन फिर बढ़ने लगा। हम ने घी दिया जलाने, और शक्कर वार-त्योहार को समर्पित कर, इसे कुछ नियंत्रित किया। लेकिन शक का कोई इलाज नहीं।

रात एक बजे तक नीन्द नहीं आई। दर्द शरीर में इधर-उधर भटक रहे थे। नीन्द नहीं आती, तब खयालात बहुत आते हैं और सब बुरे-बुरे। लोगों के किस्से याद आते रहे। जिन्हों ने दिल के दर्द को पेट की वात का दर्द समझा, ज्यादातर हकीम साहब तक पहुँचने के पहले ही अल्लाह को प्यारे हो गए, जो पहुँचे थे उनमें से कुछ ईसीजी मशीन पर शहीद हुए और कुछ आईसीयू में। इक्का-दुक्का जो बचे वे डाक्टर साहब की डाक्टरी चलाने के लिए जरूरी शोहरत के लिए नाकाफी नहीं थे।

हमने सोई हुई संगिनी को जगाया। पेट की वात बहुत तंग कर रही है। उस ने तुरंत ऐसाफिडिटा का तनुकरण आधा पानी प्याले में घोल कर पिलाया, ऊपर से बोली नाभि में हींग लगाई जाए। पर नौबत न आई। हमारी हालत देख कब्जा जमाए लोगों में से कुछ को ब्रह्महत्या के भय ने सताया होगा, तो भागने को दरवाजा भड़भड़ाने लगे। हमने भी शौचालय जाकर उन्हें अलविदा कहा। थोड़े बहुत जो जमे बैठे रह गए उन्हें सुबह के लिए छोड़ दिया। रात को ही संगिनी ने कसम दिलायी कि सुबह डाक्टर के यहाँ जरूर चलना है।

सुबह नहा-धोकर, चंदन-टीका किया ही था कि डाक्टर के यहाँ ठेल दिए गए। पचास रुपए में प्रवेश पत्र बना। चिकित्सक को दिखाया। उस ने विद्युतहृदमापक बोले तो ईसीजी और शुगर जाँच कराने को लिखा। तीन-सौ-सत्तर और जमा कराए। कुल हुए चार-सौ-बीस। ईसीजी हो गया। शुगर के लिए तो सुबह खाली पेट और खाने के दो घंटे बाद बुलाया गया, जो आज संभव ही नहीं था। उस के लिए कल की पेशी पड़ गई। फिर दिल का नक्शा जो कागज पर छाप कर दिया गया था, ले कर चिकित्सक के पास पहुँचे तो उस ने सब देख कर पूछा-धुम्रपान करते हो?

हमने कहा- तीस-पेंतीस साल पहले ट्राई किया था, पर स्वाद जमा नहीं।

तम्बाकू खाते हैं?

हम बोले- हाँ।

तो फिर पूछा- कितना खाते हो?

हमने कहा- कोई नाप थोड़े ही है।

चिकित्सक बोला- जाओ तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है। कुछ नहीं हुआ।

मैं मन ही मन भुन कर रह गया। वे चार-सौ-बीस जो मेरे टूटे, उन का क्या? डाक्टर को थोड़ा बहुत मनोविज्ञान भी आता था। एमबीबीएस या एमडी करते वक्त जरूर पढ़ाया गया होगा। हमारी मुखाकृति पढ़ कर भांप गया। उसने पर्ची वापस ली एक गोली सुबह-शाम भोजन के पहले, पाँच दिन तक। दवा वाले ने पूरे पैंतालीस रूपए झाड़े और बताया कि अम्लता की दवा है।

आज की सुबह पड़ी चार-सौ-पैंसठ की।

शुक्रवार, 20 जून 2008

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

वाह क्या? सीन है! 

महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।

सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....

फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!

स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी,  महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ,  कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।

सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

क्यो न कमाएँ? चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से

मैं जब हिन्दी चिट्ठे पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि कुछ लोग इस बात से परेशान हैं, कि कुछ हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए रुपया या डॉलर जो भी हो, धन कमा रहे हैं। भाई आप नहीं चाहते कि लक्ष्मी आप के घर या बैंक खाते में आए, तो आप मत आने दीजिए उसे। मगर जहाँ आ रही है, उन्हें तो भला-बुरा मत कहिए। आप कह भी देंगे तो जिस के घर आ रही है वहाँ आना बन्द न कर देगी और आप के बैंक खाते का रुख भी नहीं करने वाली। आप फिजूल में ही पड़ौस के केमिस्ट की दुकान पर बरनॉल की बिक्री बढ़ा रहे हैं।

ठहरिए! जरा सोचिए! कितना कमा रहा है, एक हिन्दी चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से? सोचने में परेशानी हो रही है तो आप किसी तरह पता लगा लीजिए एडसेंस से।

अब मैं तो देख रहा हूँ नियमित रूप से लिखने वाले और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पाँच हिन्दी चिट्ठौं में से एक पाण्डे ज्ञानदत्त जी को। उन को इस का भारी शोक है कि लोग विज्ञापनों को क्लिक ही नहीं करते। दूसरे हम हैं जो रोज अपना एडसेंस खाता क्लिक कर-कर परेशान हैं, उस में जमा डॉलर उतना का उतना ही पड़ा रहता है। जैसे हमारे चिट्ठे किसी गली के ट्रेफिक-जाम में फँस गए हों। अब आज का हमारा एडसेंस का ऑल टाइम खाता देखिए और खुद ही बताइए कि हमने पिछले पाँच माह में क्या कमाया अपने दो हिन्दी चिट्ठों से?

देख लिया?

कुल 3.13 डॉलर!

आह! कितनी बड़ी रकम है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मैं यह सोच कर प्रसन्न होऊँ या माथे पर हाथ धर कर बैठूँ कि इस से कहीं अधिक धन तो वह बरनॉल बेचने वाला केमिस्ट कमा चुका होगा।

खैर हमें नहीं सोचना यह सब, और भी ग़म हैं सोचने को दुनियाँ में।

मगर मैं सोच तो सकता ही हूँ, और क्यों न सोचूँ कि दुनियाँ गोल है। कोई सोच पर पहरा कैसे लगा सकता है।

मार पीट कर गैलीलियो से चर्च हिमायतियों ने कहलवाया कि उसने गलत कहा कि धरती गोल है, वह तो वाकई चपटी है। जेल से छूटने पर उस से पूछा। मैं ने सोचा धरती गोल है, उन्होंने कहलवा लिया चपटी। पर मेरे सोच पर कोई पहरा नहीँ। कहूँगा नहीं तो क्या? सोच तो सकता ही हूँ कि धरती गोल ही है। पर हुआ क्या? गैलिलियो ने सोचा, कुछ और ने सोचा, और धरती चपटी से गोल हो गई। अब तो चर्च भी कह रहा है कि धरती गोल ही है। मुझे पुरानी धरती का कोई चित्र नहीं मिल रहा जब धरती गोल थी। सब जगह तलाश किया तो पता लगा तब कैमरा नहीं बना था।

तो मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न कमाएं हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए?

क्या कहा? आप भी सोचना चाहते हैं, ऐसा ही कुछ। तो चलिए हमारे साथ।

आखिर कबीरदास जी कह गए हैं-जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।

आप साथ चले तो रहेगी चर्चा जारी, वरना हम अकेले ही सोचेंगे। अपने चिट्ठे पर लिखेंगे भी। आप आज ही थोक में बरनॉल खरीद लाइए होलसेल केमिस्ट से जल्दी ही मांग और दाम बढ़ने वाले हैं।

क्या पता सोचते-सोचते चपटी धरती गोल हो ही जाए।

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

जब्भी चाहो मनाऔ नयो साल, मना मती करो ....(2)

पिछले साल से आगे ........................

आप ने अब तक अपने लिए नया साल नहीं चुना हो तो आगे बढ़ा जाए। पंजाब के लोग १३ अप्रेल को बैसाखी के दिन से अपना नया साल शुरू करते हैं और जितनी धूमधाम से इसे मनाते हैं, दुनियाँ भर में शायद ही कोई अन्य नववर्ष मनाया जाता हो। मुझे यह नववर्ष सब से अधिक वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इस दिन मेष की संक्रांति होती है, और सूरज मीन राशि से निकल कर मेष राषि में प्रवेश करता है। यानी सूरज एक राशिचक्र को पूरा कर नए राशि चक्र में प्रवेश करता है। इन दिनों फसलें खेतों से घरों पर आ चुकी होती हैं, अधिकांश बिक भी चुकी होती हैं, तो रोकड़ा किसान के पास होता है। पूरे भारत में अर्थचक्र तेजी से घूमने लगता है। लोगों के चेहरों पर चमक होती है। मैं इस दिन चाह कर भी नववर्ष नहीं मना पाता। मेरे यहां कोई भी परिवार-सदस्य, दोस्त या रिश्तेदार इसे नहीं मनाता और उन के बिना काहे का नववर्ष इसलिए मैं भी नहीं मना पाता।

अपने मनपसंद, पर नहीं मनाए जा सकने वाले इस नववर्ष का बखान बहुत हो लिया। अब आगे बढ़ा जाए। इस से अगले ही दिन बंगाली और आसामी अपना नववर्ष मनाते हैं। कैसे इस की विशेष जानकारी मुझे नहीं. देबू दा’ इस बारे में अधिकारिक रूप से बता सकते हैं। मैं इस विषय पर आलेख लिखने के उन के अधिकार पर डाका क्यों डालूँ।

अब हम सीधे अगस्त के महीने में आ जाते हैं। इस बीच किसी का नववर्ष छूट गया हो तो माफ करना, और टिप्पणी कर, अपनी नाराजगी दूर कर लेना। मैं उसे सहेज लूंगा, अगले साल का नववर्ष आलेख लिखने के काम आ जाऐँगी या बीच में जब भी भूला हुआ नववर्ष पड़ जाएगा, तभी ठेल दूंगा। इसी महीने भाद्रपद शुक्ल तृतिया को जैन धर्मावलम्बी संवत्सरी मनाते हैं, और जैन नववर्ष इसी दिन से आरम्भ होता है।

अब तक आप ने नववर्ष मनाने के लिए अपना दिन तय कर लिया होगा। अगर नहीं किया हो तो अब यह आखिरी अवसर है। कम से कम तब तक, जब तक कि मैं, आप या और कोई भी अन्य कोई दिन नववर्ष मनाने के लिए ढूंढ नहीं लाता है। अब हाजिर है, आप का मन पसंद दिन, यानी कार्तिक की अमावस्या का दिन। जब अमावस्या की काली रात में पूरा भारत जगमगा उठता है। सोने वालों की नीन्द धमाकों से हराम रहती है। रहे भी क्यों नहीं। यार, कोई ये भी सोने का दिन है, यह तो सोने वाली के आने का दिन है। जागो और घर का दरवाजा खुल्ला रक्खो, जाने कब लक्ष्मी जी आ जाऐं, और आप उन की किरपा से वंचित हो जाऐं। भारत के आज कल के वास्तविक राजपुरुष, यानी व्यापारी, उद्योगपति, पूंजीपति और देसी में ‘बनिए’ इसी दिन से अपना नववर्ष शुरु करते हैं। आप भी कर लीजिए। मुझे तो इसी में सुभीता और लाभ-शुभ नजर आता है। त्यौहार तो मनाना ही है। नववर्ष बोनस में मनाया जा सकता है।

और भी कोई दिन आप को पता हो, या कभी लग जाए तो मुझे जरुर बताऐं। अगले साल गारण्टी के साथ आप के नाम के साथ उस का जिक्र करुंगा। लेकिन.....

इस पोस्ट को समाप्त करने के पहले मुझे मेरे शहर के हास्य कवि दिवंगत श्री गुलकन्द जी का स्मरण हो आया है। उन की अंतिम आकांक्षा यह थी कि उन की अंतिम यात्रा में कोई भी ऐसा न हो जिसने भंग नहीं पी रखी हो। जो लोग गलती से सादा पहुँच गए हों. तो मुक्ति धाम (श्मशान) में ही घोंटें, और पिएं। कोई ऐसा न हो जिस ने शंकर जी के प्रसाद का सेवन नहीं किया हो। वे अपनी ये वसीयत कविता के रूप में मृत्यु के कुछ दिन पहले ही लिख कर अपने पुत्रों के हवाले कर गए।

इन्हीं गुलकन्द जी के एक मित्र दूसरे मित्र से मिले। तो दूसरे ने पूछा कि कल आप कवि गोष्टी में नहीं आए। तो जवाब मिला कि गुलकन्द जी ने जन्मदिन मनाया था, उसी पार्टी में था। पूछने वाले की प्रतिक्रिया थी, कि आप झूठ बोल रहे हैं, गुलकन्द जी का जन्मदिन तो पिछले महीने था, और मैं खुद उस पार्टी में शामिल था। पूछताछ पर पता लगा कि गुलकन्द जी साल में तकरीबन आठ-दस बार जन्मदिन मना लिया करते थे। मेरा कहने का मतलब ये है, कि भैया उल्लास का मौका हो, तो कब्भी मना लो। साल में दस बार क्यों नहीं। और नहीं मनाना हो तो मती मनाओ पर ओरन को तो मना मती करो।

अब आया आज का दिन। यानी कि एक जनवरी का दिन। सारी दुनियाँ में ही नहीं भारतवर्ष यानी हिन्दुस्तान में भी सब से अधिक लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। और जिस दिन को बहुमत जनता नववर्ष मनाए, वही हमारा भी नया साल।

तो नया साल आप के लिए नई खुशियाँ लाए, बधाइयाँ, और बधाइयाँ

सोमवार, 26 नवंबर 2007

मुसीबत बुलाने से आती है ... आ बैल मुझे मार ....

कहते हैं, मुसीबत कह कर नहीं आती। वह कर आएगी, तो क्या कोई आने देगा? कभी नहीं। मुसीबत हमारे बुलाने से आती है। अब आप खुद बुलाएंगे तो वह कह कर क्यों आएगी?

मैंने भी अपनी मुसीबत खुद बुलाई। एक तो यह विश्व-जाल अपने आप में मुसीबतों की नानी है। उस पर कानून ढूंढते ढूंढते हिन्दी चिट्ठे पढ़ने लगा। मन में हूक उठी कि खुद का भी चिट्ठा हो, और उस में लिखा जाए। इस बीच हिन्दी आई एम ई पकड़ में आ गई और हमने उस पर हाथ साफ कर लिया। हम समझ बैठे कि हम इस मुई चिट्ठाकारी के काबिल हो गए। एक दिन एक चिट्ठा पढ़ते हमारे बरसों पहले गायब हो चुके गुरू जी का नाम पढ़ने को मिला तो पहली बार एक टिप्पणी चेप दी।

कुछ दिन बाद पता लगा कि फुरसतिया भाई सीरियसली हमारे गुरू जी का पता तलाश कर रहे हैं। भाई ने पता ढूंढने के काम में एक और चिट्ठाकार को मेल किया, हमें उसकी कॉपी भेज दी। हम धन्य हो गए। साथ में अपना चिट्ठा शुरू करने की सलाह का कांटा फेंका और यहीं हम फंस गए। हमने मुसीबत न्योत दी।

खैर हम ने अपना चिट्ठा चालू कर लिया। पहली ही पोस्ट ने अपने होUnderwoodKeyboardश उड़ा दिए, सारे संयुक्त शब्दों में पूरे अक्षर और उनके साथ हलन्त नजर आ रहे थे। ब्लॉगर पर जाकर उन्हें दुरूस्त करने की जुगाड़ करने में जुटे तो शब्द के शब्द गायब होने लगे। उन्हें दुबारा टाइप किया। जब हमने पोस्ट को दुरूस्त कर लिया तो पब्लिश भी कर दिया। अब भी बहुत कसर रह गई थी। हम समझ गए थे कि हम दौड कर जलते अंगारों पर चढ़ गए हैं। वापस जाना भी मुश्किल और खड़ा रहना भी मुश्किल। हमने झांसी की रानी का स्मरण करते हुए वहीं रुकना तय कर लिया। बहुत देर से समझ आई कि हिन्दी आ11817379026761ई एम ई का रेमिंग्टन मोड गड़बड़ कर रहा था। जाल पर ढूंढा, रवि रतलामी जी के सारे आलेख पढ़ डाले। तब जाना कि बहुत बड़ी मुसीबत सामने खड़ी है।

मुसीबत कह रही थी- या तो बेटा इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख ले या ब्लॉगर में उठापटक कर वरना इस मुई चिट्ठाकारी सपना देखना छोड़, ये तेरे बस की नहीं। हम अब तक जलते अंगारों पर दूर तक चले आए थे। वापस जाने में भी जलना ही था। हमने फिर तय किया- जलना है तो पीठ दिखा कर नहीं जलेंगे।

ताजा खबर है कि हंम जलते अंगारों पर जल रहे हैं, इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख रहे हैं, रेमिंग्टन का भूत पीछा नहीं छोड़ रहा है। यह पोस्ट इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग पर ही टाइप की है, समय लगा है मात्र डेढ़ घंटा।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

टंगड़ीमार को टंगड़ी मार। नाम बडी चीज है......

नाम बड़ी चीज है, इस नाम के लिए ही तो दुनियां भर में दंगम-दंगा है। हर कोई चाह रहा है, उसका नाम हो जाए। हर कोई इसी में लगा है। इस जमाने में आदमी हर चीज में शॉर्टकट ढूंढ़ता है। यह भी कोई बात हुई, जो चीज सस्तें में काला बाजार में मिल जाए उस के लिए मॉल जा कर मंहगे में खरीदें, जब कहीं जाने के लिए पांच मिनट का रास्ता हो तो पांच घंटे के रास्ते से जाया जाए। सो आदमी नाम के लिए भी शॉर्टकट ही ढूंढता है। भला आदमी नाम कमाने के लिए अच्छे-अच्छे रास्ते चुनता है और भटकता रहता है। दूसरे कई झटपट ग‍लियों में घुस जाते हैं और फटाफट नाम कर जाते हैं। भला आदमी टिपियाता रहता है।

नाम करने के कई आसान तरीके हैं। किसी रास्ते चलते आदमी के टांग अड़ा कर देख लीजिए। चलता आदमी गिर पड़ेगा, जो उसे उठाने आ गए वे उठाने के पहले पूछने लगेंगे, किस ने मारी टंगड़ी? अब हो गया न नाम। लोग फौरन जान जाएंगे कि कौन है टंगड़ीमार। अब लोग भले ही टंगड़ीमार के नाम से ही याद रखें, पर इस से क्या? नाम तो हो ही गया न।

अब इस टंगड़ीमार नाम में भी रेल की तरह अनेक क्लासें हैं। जनरल, सैकण्ड-स्लीपर से ले कर फर्स्ट-एसी तक की। वहां नियम है कि जितनी बड़ी क्लास में जाना चाहो उतने का ही टिकट खरीद लो। यहां भी ठीक ऐसा ही नियम है जितने बड़े टंगड़ीमार बनना चाहो उतने ही बड़े को टंगड़ी मार दो। अब बात अभी तक समझ नहीं आ रही हो तो उदाहरण देता हूं। छोटा नेता बनना हो तो चपरासी को झापड़ मारो और अफसर के कमरे में घुस लो, बड़ा बनना हो तो कलेक्टर का गाल आजमा सकते हो। बस शर्त ये है के उस समय हल्ला करने वाले, देखने वाले होने चाहिए जो इस को खबर बना दें। कही आस पास मीडिया हो तो सोने में सुहागा है। उनने तो फोटो खींच कर अपने अखबार में चिपकाने हैं। हर चैनल को वीडियो फुटेज चाहिए ही चाहिए हर घंटे। इस काम के लिए कोई न मिले तो अपने कैमरा-मोबाइल वाले दोस्त को पटा कर तैयार रखो। वह वीडियो फुटेज को कम्प्यूटर में उतारे और दो-तीन चैनलों को मेल कर दे। सभी चैनल अपने पास उसे एक्सक्लूसिव बताऐंगे और एक डेढ़ मिनट की फुटेज को बार-बार रिपीट कर दिखाएंगे।

अब ममता बेन को ही ले लो, उन्हें लोग पूरे जग में जानते हैं बंगाल के लिए। वे अक्सर बंगाल में अपनी टंगड़ी आजमाती रहती हैं। इन दिनों उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, उन की तरफ किसी की तवज्जो ही नहीं थी, सब के सब कराती टंगड़ी देखने में लगे थे। वाह, कैसी टंगड़ी मारी सरदार जी को, बड़ा बुश से हाथ मिलाने चले थे। वा‍कई क्या टंगड़ी थी? साली सरकार ही गिरने को आ गई थी। मगर गिरी नहीं। अभी तक पीसा की मीनार की तरह झुकी खड़ी है। वे लगे रहे अपनी टंगड़ी की तारीफ अखबारो, चैनलों को देखने में। उन्हें क्या गुमान था कि उधर नन्दीग्राम में नक्सलियों से जो गोली-गोली, गन-गन का घरेलू ड्रामा चल रहा है उस में कोई टंगड़ी मार जाएगा। मगर बैन ने टंगड़ीमार को टंगड़ी जा ही मारी। अब कोई सरदार जी का घुटना नहीं सहला रहा। सब बैन की टंगड़ी देखने में लगे हैं।