@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: लड़कियां
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गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

रविवार, 7 सितंबर 2008

गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना

"गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं।
गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है। 

रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ-2 ... ... ...ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, पहला भाग आप कल पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए दूसरा और समापन भाग....
-दिनेशराय द्विवेदी

आजाद भारत की बेटियाँ-2

ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"
  • पूर्वाराय द्विवेदी

यह आम कहावत है कि बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में अधिक प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएँ नवजात बालकोंसे अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है। लेकिन उस के बावजूद (एस.आर.एस. सेम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। जब कि जन्म लेने वाले 1000 नर-शिशुओं में मरने वालों की संख्या 56 है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के यौन अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियाँ थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहाँ स्त्रियों की संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य होती दिखाई दे रही है। लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गया।
भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में बताया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएँ जन्म लेती हैं जिन में से 30 लाख उन का 15वाँ जन्मदिन नहीं देख पातीं, और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इन में से एक तिहाई जन्म से प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं, और यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु कारण लिंग-भेद है।
वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त तथ्य कुछ और भी घोषणाएँ करते हैं। 26 राज्यों और संघीय क्षेत्रों के 640 नगरों और कस्बों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि नगरीय क्षेत्रों के पोश इलाकों में 6 वर्ष से कम के बालकों में प्रति हजार बालकों पर केवल 904 बालिकाएँ हैं। जब कि भीड़ भरी तंगहाल झुग्गी-झोंपड़ियों के इलाकों में प्रति हजार बालकों पर 919 बालिकाएँ हैं। राजधानी दिल्ली के पोश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमशः 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहाँ हो रहा है, जहाँ लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है, और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा, दुनियाँ को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उस के स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी।
1952 में भारत भी उन देशों में से एक था जिन्हों ने सर्वप्रथम परिवार नियोजन। हमारी त्रासदी है यह रही कि हम इस भ्रान्त धारणा को लेकर चले कि एक पुरूष उत्तराधिकारी पर्याप्त है। लेकिन कितने लोगों ने इस वास्तविकता को समझा कि एक पुरूष उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए एक स्त्री भी जरूरी है। जैविक रूप में वह संतान की संवाहक है। पूरे देश में बालिकाओं के साथ असमानता का व्यवहार जारी है। पुत्रियाँ एक दायित्व समझी जाती हैं। हरियाणा में एक लिंग निर्धारण क्लिनिक के बाहर लिखा है..... बाद में 50,000/- रुपए (दहेज) के स्थान पर अभी 50/-रुपए खर्च करें स्त्रियाँ कानून का रास्ता चुनने के लिए भी स्वयं सक्षम नहीं हैं। उन्हें किसी दहेज, क्रूरता और यौन शोषण की शिकार होने पर अपने पति, ससुराल वालों और माता-पिता के विरुद्ध खड़े होने के लिए अतिसाहसी होना पड़ेगा। बाल-विवाह बालिकाओं के विकास और उन के अधिकारों को बाधित कर देता है।
एक गर्भवती को आवश्यक चिकित्सा के लिए अपनी सास या पति पर निर्भर रहना पड़ता है। स्त्री के विरुद्ध अत्याचार बढ़ रहे हैं। प्रत्येक 26 मिनटों में एक स्त्री उत्पीड़ित होती है, प्रत्येक 34 मिनटों में एक बलात्कार की शिकार, प्रत्येक 42 मिनटों में एक के साथ यौन उत्पीड़न होता है, प्रत्येक 43 मिनट में एक का अपहरण और प्रत्येक 93 मिनट में एक दहेज की आग में भस्म हो जाती है। 16 से कम उम्र की बालिकाओं के साथ बलात्कार के कुल मामलों में से एक चौथाई की कभी रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती।
अब भारत सरकार त्यक्त बालिकाओं के लिए एक क्रेडल स्कीम की योजना बना रही है। इस योजना में प्रत्येक जिले में एक ऐसा केन्द्र बनाने की योजना है जिस में माता-पिता ऐसी बालिकाओं को छोड़ सकते हैं जिन की वे स्वयं परवरिश नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते। लेकिन शिशु हत्या को रोकने के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएँ महसूस करती हैं कि लोग संतान पैदा करेंगे और फिर सरकार की सुरक्षा में छोड़ देंगे, जिस से समाज में एक गलत संदेश छूटेगा। तमिलनाडु में जहाँ यह योजना लागू कर दी गई है सफल नहीं हो सकी है।
इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना कि आप की होने वाली संतान लड़का है या लड़की, माँ बनना ईश्वर का सब से महान उपहार है। अब वह समय आ चुका है जब बालिकाओं के प्रति अवांछित भेदभाव की समाप्ति के लिए पहल की जाए। बालिकाओं को आजादी के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और जन्म लेने के अधिकार प्राप्त होने ही चाहिए। वे जैविक रूप से बालकों से अधिक मजबूत होती हैं, उन्हें पर्याप्त पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्राप्त होनी ही चाहिए। उन्हें अपनी क्षमताओं का विकास करने और उन्हें सिद्ध करने का अवसर मिलना ही चाहिए। माँ के रूप में स्त्रियों पर अपनी संतानों को बेहतर जीवन मूल्यों, सांस्कृतिक विश्वासों और सदाचरण की शिक्षा का दायित्व है। उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत तथा बौद्धिक रूप से शिक्षित होना ही होगा। स्त्रियाँ सबसे बेहतर साधिकाएँ हैं, वे समाज में कर्मठता, समानता, सहयोग और मानवता लाती हैं और जो अंततोगत्वा समाज को जीने लायक संवेदनशील और शांतिपूर्ण समूह में बदलती हैं।
प्रत्येक बालक को अपने जीवन के प्रारंभ के वर्षों में पोषण और बुद्धिमान निर्देशन की आवश्यकता है। इस काल में एक स्त्री ही अपनी संतानों को जीवन की अच्छाइयाँ सीखने में मदद करती है। उन्हीं स्त्रियों में शिक्षा का अभाव होना व्यक्तिगत ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र की क्षति है।
एक बालिका प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य है और भारत इस का अपवाद नहीं हो सकता। एक बालिका के जीवन में थोडा सा संरक्षण, एक संवेदनासम्पन्न हाथ और एक प्यार भरा दिल बहुत बड़ा परिवरतन ला देता है। अपनी आँखें बंद कीजिए, अपने सोच को स्वतंत्र कर दीजिए, और ईश्वर की पुकार सुनिए ¡ वह हम सब से कुछ कह रहा है ..... मेरी रक्षा कीजिए
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सूचना ...

आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में........... 

 

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, दूसरा और अंतिम भाग कल 15अगस्त की सुबह आप यहाँ पढ़ सकते हैं.....

 

आजाद भारत की बेटियाँ

  • पूर्वाराय द्विवेदी
61 वर्ष पूर्व आजादी हासिल होने पर ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर लाल किले पर पहला तिरंगा फहराने वाले भारतीय प्रधानमंत्री और विचारक जवाहर लाल नेहरू ने सच कहा था कि आप किसी भी देश की स्थितियों का पता उस की महिलाओं की हालत को देख कर लगा सकते हैं।
हम भारतवासी पृथ्वी को ‘धरती-माता’ और अपने राष्ट्र को ‘भारत-माता’ कहते नहीं अघाते, और खुद को देवियों के परम भक्त प्रदर्शित करते हैं। लेकिन, क्या यह सही नहीं कि हमारी भक्ति केवल कुछ मौखिक शब्दों तक ही सीमित है? एक और हम माँ-दुर्गा, माँ-सरस्वती और माँ लक्ष्मी को देवी कह कर पूजा करते हैं और दूसरी ओर हम अपनी ही बेटियों को शिक्षा, वस्त्र, पोषण, और स्वास्थ्य से वंचित रखते हैं। यहाँ तक हम उन्हें जन्म लेने की इजाजत तक नहीं देते। हम ईश्वर के मूल्यवान उपहार, एक बालिका को जन्म से पहले ही मार देते हैं।

शताब्दियों से लड़कियाँ उपेक्षित हैं, और सदैव माता-पिता पर आर्थिक और नैतिक दायित्व मानी जाती हैं। भारत के गांवों में लड़कियों से चार और पांच वर्ष की नाजुक/कमसिन उमर में घरों पर काम लेना शुरू हो जाता है, वे विकसित होने की सुविधा से वंचित कर दी जाती हैं। घरों पर किए गए उन के श्रम को किसी भी तरह नहीं नवाजा जाता। जब कि बेटों द्वारा वैसे ही काम यदा-कदा कर लिए जाने पर उन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ना प्रारंभ हो जाता है। लड़कियों पर घरेलू कामों का भार लड़कों की अपेक्षा लड़कियोँ पर बहुत अधिक रहता है। वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल, बरतनों की सफाई, पानी भरने, ईंधन एकत्र करने और पालतू पशुओं की देखभाल करने जैसे काम करते हुए परिवार की आय में अप्रत्यक्ष रुप से अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। उन से खेती के कुछ काम जैसे फसलों की निन्दाई-गुड़ाई और कटाई आदि भी कराए जाते हैं। अक्सर वे उन के माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों को खेतों पर भोजन देने जाने का काम भी करती हैं। जिस उम्र में उन्हें दुनियां भर की विभिन्न चीजों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उसी उम्र में उन्हें घरों के कामों में जोत दिया जाता है।

भारत और कुछ पड़ौसी देशों में लड़कियों के प्रति यह पूर्वाग्रह इस विश्वास पर आधारित है कि “पुत्र परिवार के लिए कमाई करेंगे और वंश को चलाएंगे”। इस तरह पुत्रों को भविष्य की बीमा पॉलिसी समझा जाता है, जब कि पुत्रियों को नहीं। पुत्रियों को परिवार का अस्थाई और बाहर जाने वाला सदस्य समझा जाता है। वे हमेशा ही दूसरे की अमानत होती हैं। अत्यन्त कमसिन बचपन में ही सेवा, अधीनता, त्याग, विनम्रता और आज्ञाकारिता के मूल्यों को वहन करने के लिए उन का प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। बच्चे पैदा करना, उन की देखभाल करना और घरों की जिम्मेदारियाँ उठाना ही नारियों की भूमिका समझी जाती है। वे परिवार के लिए मात्र एक बोझा समझी जाती हैं।

तमिलनाडु की एक महिला ने जिस के पहले से ही एक बेटी थी, जब दूसरी बेटी को जन्म दिया तो उसे तीसरे दिन ही मार डाला। उस ने अपनी दूसरी बेटी को मात्र तीन दिनों के जीवन में भी अपना दूध पिलाने से इन्कार कर दिया। जब शिशु बेटी भूख से चिल्लाने लगी तो उस ने उसे ऑलिएन्डर की झाड़ी के पत्तों से निचोड़े हुए दूध और अरंडी के तेल को साथ मिला कर बनाया गया जहरीला पेय जबरन शिशु के गले से नीचे उतार दिया। शिशु की नाक से रक्त निकला और वह जल्दी ही मर गई। दूसरी औरतों ने उस महिला के साथ सहानुभूति प्रदर्शित की, क्यों कि उस परिस्थिति में होने पर वे खुद भी शायद यही करती, जो उस महिला ने किया। किसी के पूछने पर कि उसने कैसे अपनी ही बेटी को मार दिया? उसने दृढ़ता से जवाब दिया - एक बेटी हमेशा एक बोझा होती है, फिर कैसे मैं दूसरी बेटी को अपने जीवन में स्थान देती? वह जीवन भर नर्क भोगती, इस से पहले ही मैं ने उसे इस (नर्क) से मुक्ति दे दी। (यह घटना विवरण मादा शिशुओं की मृत्यु पर भारत-और चीन में किए गए एक अध्ययन से लिया गया है)

यह मात्र एक मामला नहीं, इसी तरह की बहुत सी बेटियाँ उन की माताओं या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा इस दुनियाँ में आने से पहले ही, अथवा तुरंत बाद मार दी जाती हैं। अक्सर कहा जाता है कि भगवान ने ‘माँ’ को इस लिए बनाया कि वह खुद हर स्थान पर उपस्थित नहीं रह सकता। ऐसी हालत में यह अविश्वसनीय ही होगा कि भगवान की यह प्रतिनिधि (‘माँ’) भगवान की इन सुन्दरतम कृतियों का जीवन इस दुनियाँ में आने और प्रकृति की सुन्दरता को देखने के पहले ही छीन लेती है। यही स्थितियाँ आज भी देश के विभिन्न भागों में मौजूद हैं। मादा भ्रूण और शिशु हत्याओं के लिए महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों का बड़ा नाम है।
गरीबी, लिंग-भेद तथा पुत्र प्रधानता के मूल्य एक बालिका के पोषण की स्थिति को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। देश में साढ़े सात करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें भी तीन चौथाई अर्थात पाँच करोड़ से अधिक केवल बालिकाएँ हैं, जो गंभीर रुप से कुपोषण की शिकार हैं। जो लड़कियाँ कुपोषण की इस कठोर अवधि को झेल कर जीवित रह जाती हैं, उन में से अधिकांश किशोरावस्था में ही असामाजिक तत्वों के जाल में फंस जाती हैं। जब कि उन की यह उम्र में उन की सामान्य वृद्धि और शारीरिक विकास के लिए भरपूर पोषण प्राप्त करने की होती है। दुर्भाग्यवश बेटियों की पोषण की आवश्यकताओं की घोर उपेक्षा की जाती है और उन्हें अक्सर घरों की चारदिवारियों में बंद कर दिया जाता है। किशोरावस्था में कुपोषण से लड़कियों के प्रजनन स्वास्थ्य में अनेक गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये प्रजनन स्वास्थ्य समस्याएँ कम उम्र में विवाह, बिना उचित अंतराल के गर्भधारण, पारंपरिक प्रथाओं और परिवार नियोजन सम्बन्धी सूचनाओं तथा ज्ञान के अभाव आदि के कारणों से अधिक उग्र रूप धारण कर लेती हैं।(जारी)

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

एक रविवार वन आश्रम में (4) .... बाबा से मुलाकात... और.............. दो दिन में तीसमार खाँ

करीब तीन बजे नन्द जी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। वे कह रहे थे -बाबा से मिल आएँ।
बाबा? आजकल इस आश्रम के महन्त, नाम सत्यप्रकाश, आश्रम के आदि संस्थापक बंशीधर जी के पाँच पुत्रों में से एक। शेष पुत्र सरकारी नौकरियों में थे। इन्हों ने पिता की गद्दी को संभाला था।
नन्द जी यहाँ पहुँचते ही मुझे उन से मिलाना चाहते थे, लेकिन तब बाबा भोजन कर रहे थे और उस के बाद शायद आराम का समय था।  उन में मेरी रुचि उन्हें जानने भर को थी। लेकिन इस यात्रा में अनेक थे जो उन से इसलिए मिलना चाहते थे कि उन से कुछ अपने बारे में अच्छा या बुरा भविष्य जान सकें। नन्द जी को दो वर्ष पहले उन के गाँव का एक सीधा-सादा व्यक्ति जो उन के भाई साहब का मित्र था तब वहाँ ले कर आया था, जब उन के भाईसाहब जेल में बंद थे और मुकदमा चल रहा था। तब बाबा ने उन्हें कहा था कि भाईसाहब बरी हो जाएँगे। यह बात मैं ने भी नन्द जी को कही थी। उन्हें मेरे कौशल पर पूरा विश्वास भी था। इसीलिए उन्हों ने कोटा के नामी-गिरामी फौजदारी वकीलों का पल्ला नहीं पकड़ा, जब कि मेरे कारण उन्हें वे बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध थे। पर किसी के कौशल पर विश्वास की तुलना पराशक्ति के बल पर भविष्य बताने का दावा करने वाले लोगों के विश्वास से कैसे की जा सकती है। हाँ, यह विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों में आत्मविश्वास जाग्रत रखता है और संघर्ष के लिए मनोबल प्रदान करता है। लेकिन? यह विश्वास प्रदान करने वाले "पहुँचे हुए लोग" उस की जो कीमत वसूलते हैं, वह समाज को गर्त की ओर भी धकेलती है।
नन्द जी के बाबा के बारे में बताए विवरणों से शोभा बहुत प्रभावित थी, और उन्हें बड़ा ज्योतिषी समझती थी। यही कारण था कि उस ने मेरी और बेटे-बेटी की जन्मपत्रियाँ बनखंडी रवाना होने के पहले अपने झोले में डाल ली थीं। लेकिन बाद में नन्द जी ने मना कर दिया कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। वैसे ही सब कुछ बता देते हैं। तो जन्मपत्रियाँ झोले में ही बन्द रह गईं।
मैं ने तंद्रा और गर्मी से बेहाल अपने हुलिए को नल पर जा कर चेहरे पर पानी डाल तनिक सुधारा, और नन्द जी के पीछे हो लिया।  पीछे बनी सीढ़ियों से होते हुए बाबा के मकान के प्रथम तल पर पहुँचे। आधी छत पर निर्माण था, आधी खुली थी। जीना जहाँ समाप्त हो रहा था, वहीं एक दरवाजा था जो बाबा की बैठक में खुलता था।
कोई दस गुणा पन्द्रह फुट का कमरा था। एक और दीवान पर बाबा बनियान-धोती में अधलेटे थे, तीन-चार कुर्सियाँ थीं। जिन पर पुरुष बैठे थे, बाकी जगह में फर्श बिछा था और महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों ने कब्जा रखा था। दीवान के बगल की खुली अलमारी में कोई बीसेक पुस्तकें थीं, कुछेक को छोड़ सब की सब गीता प्रेस प्रकाशन। दीवारों पर कैलेंडर लटके थे। एक तस्वीर उन के महन्त पिता की लगी थी।
हमारे वहाँ पहुँचते ही बाबा ने 'आइये वकील साहब!' कह कर स्वागत किया। हमारा उन से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ। हमारे बैठने के लिए कुर्सियाँ तुरंत खाली कर दीं। उन पर बैठे लोग बाबा को प्रणाम कर बाहर आ गए। हम बैठे तो नन्द जी ने मेरा परिचय उन्हें दिया। बाबा की पहले से चल रही वार्ता फिर चल पड़ी।
कोई पेंतीस वर्ष की महिला बहुत ही कातर स्वरों में बाबा से कह रही थी। बाबा इन का कुछ तो करो, इन का धंधा नहीं चल रहा है, कुछ काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे कैसे चलेगा? सारा घऱ ही बिक जाएगा हम सड़क पर आ जाएंगे।
बाबा बोल पड़े। ये व्यवसाय में सफल नहीं हो सकते। इन्हें काम तो कोई टेक्नीकल या खेती से सम्बन्धित ही करना पड़ेगा। मैं ने तो इन्हें प्रस्ताव दिया था कि ये आश्रम आ जाएँ। मैं एक ट्रेक्टर खरीद कर इन्हें दे देता हूँ, उसे चलाएँ आस पास के किसानों के खेत जोतें। आश्रम की जमीन की खेती संभालें। जो भी मुनाफा होगा आधा इन का आधा आश्रम का। पर ये इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले ही नहीं रहे। आज तो ये यात्री बन कर आए हैं। मेरा प्रस्ताव मानें तो फिर इसी काम से आएँ मुझ से बात करें। मैं सारी योजना इन के सामने रखूंगा। इतना कह कर बाबा ने करवट सुधारी तो धोती में से उन का एक पैर उघड़ गया। महिलाओं के सामने वह अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन बाबा का शायद उधर ध्यान नहीं था। कोई उन को कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। शायद कोई भी उन्हें लज्जा के भाव में देखना नहीं चाहता था। मैं लगातार उन की टांग को देखता रहा। शायद मैं ही वहाँ नया व्यक्ति था, इसलिए बाबा बीच बीच में मेरी और दृष्टि डाल ले रहे थे। दो-एक नजर के बाद उन्हों ने मुझे एकटक अपनी टांग की ओर देखता देख भाँप लिया कि टांग में कुछ गड़बड़ है। वाकई वहाँ गड़बड़ पा कर उसे ठीक भी कर लिया।
बाबा की सारी बातें किसी जमींदार द्वारा किसी कामगार को साझेदारी का प्रस्ताव रख, उस की आड़ में कम मजदूरी पर कामवाला रख लेने की तरकीब जैसी लग रही थीं। महिला होशियार थी। उसे यह तो पसंद था कि उसके पति के रोजगार का कुछ हल निकल आए, लेकिन यह मंजूर नहीं कि उस का पति नगर में बसे घर-बार को छोड़ यहाँ जंगल में काम करने आए और आश्रमवासी हो कर रह जाए। वह बोली -अब मैं क्या कर सकती हूँ? आप इन्हीं को समझाएँ। ये यहाँ आना ही नहीं चाहते। शहर में कोई व्यवस्था नहीं बैठ सकती इन के रोजगार की?
-शहर में भी बैठ सकती है, मगर समय लगेगा। किसी की मदद के बिना संभव नहीं हो सकेगा। यहाँ तो मैं मदद कर सकता हूँ। वहाँ तो मददगार इन को तलाशना पड़ेगा।
बाबा के उत्तर से कुछ देर शांति हुई थी कि नन्द जी की पत्नी बोल पड़ी -बाबा वे बून्दी वाले, उन के लड़के की शादी हमारी बेटी से करने को कह रहे हैं। यह होगा कि नहीं? मैं जानता था कि नन्द जी के पास एक बड़े व्यवसाय़ी परिवार से शादी का प्रस्ताव है। उस से नन्द जी का परिवार प्रसन्न भी है। उन की पत्नी बस भविष्य में बेटी-जमाँई के बीच के रिश्तों की सघनता का अनुमान बाबा से पूछना चाहती हैं।
बाबा कहने लगे -आप का परिवार और बच्ची सीधी है और वे तेज तर्रार। शादी तो हो जाएगी, निभ भी जाएगी। पर उस परिवार के व्यवसाय और सामाजिक व्यस्तता के बीच बच्ची बंधन बहुत महसूस करेगी और घुटन भी। यह रिश्ता सुखद तो रहेगा, लेकिन बहुत अधिक नहीं।
इस बीच शोभा भी आ कर महिलाओं के बीच बैठी मुझे इशारा कर रही थी कि मैं भी कुछ पूछूँ अपने व्यवसाय, आमदनी, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और विवाह के बारे में। नन्द जी ने भी कहा आप भी बात कर लो, भाई साहब। इतने में बाबा भी बोले पूछ ही लो वकील साहब, मैं भी आज भोजन करते ही यहाँ बैठ गया हूँ। फिर थोड़ा विश्राम करूँगा। मुझे समझ गया था कि कुछ पूछे बिना गुजर नहीं होगा। बाबा भी अधलेटी अवस्था को त्याग सतर्क हो कर बेठ गए थे। मैं भी इस अध्याय को शीघ्र समाप्त करना चाहता था। (जारी)


और अंत में ..... दो दिन में तीसमारखाँ!
अंतरजाल पथ पर फुरसतिया से हुई संक्षिप्त बातचीत का संक्षिप्त अंश.....

अनूप: नमस्ते
मैं: नमस्ते जी। कैसे हैं?
अनूप: आप देखिये आज ज्ञानजी ने अपने काम का खुलासा कर ही दिया
http://chitthacharcha.blogspot.com/
मैं: देखते हैं। वैसे वे मक्खियाँ मारने में सिद्धहस्त हैं।
अनूप: हां वही।
मैं: मैं वहीं कहना चाहता था। फिर सोचा, फिर आप क्या कहेंगे।
अनूप:उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी, और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये।
मैं:  दो दिन में तीसमार खाँ?
अनूप: हां, यह सही है, उनकी प्रगति बड़ी धीमी है। ऐसे कैसे चलेगा?
मैं:  कम से कम एक दिन के स्तर पर लानी पड़ेगी, प्रोडक्टिविटी का प्रश्न है।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -3.......... मन्दिर में

पदपथ समाप्त होने पर कोई दस फुट की दूरी पर दीवार में साधारण सा द्वार था, बिना किवाड़ों के। उस में घुसते ही दीवार नजर आई जिस के दोनों सिरों पर रास्ता निकल रहा था। जीवन के बीस वर्ष मंदिर में गुजारने के अनुभव ने बता दिया कि तुम मंदिर की परिक्रमा में हो और परिक्रमा के पिछले द्वार से प्रवेश कर गए हो। दादा जी जिस मंदिर के पुजारी थे वहाँ भी हमारे प्रवेश का द्वार यही था। पीछे एक बाड़ा था और उस के पीछे घर। हम घर से निकलते और परिक्रमा वाले द्वार पर जूते चप्पल उतारते और मंदिर में प्रवेश करते थे। बिलकुल वही नजारा था मैं बायीँ ओर चला। तो सीधे मंदिर के गर्भगृह के सामने वाले हॉल में पहुँच गया। फर्श पर संगमरमर जड़ा था।

गर्भगृह के सामने की छह फुट चौड़ी मध्य पट्टिका के उस पार एक रेलिंग लगी थी जहाँ एक छोटे मंदिर में एक वृद्ध संत की साधारण वेशभूषा वाली मूर्ति थी। यही इस आश्रम के जन्मदाता की मूर्ति थी। यह रेलिंग हॉल को दो बागों में बांट रही थी। मूर्ति वाले हिस्से में उन से सट कर ही एक मंच पर अखंड रामायण पाठ चल रहा था। मैले कपड़े पहने नौजवान विलम्बित लय में रामचरितमानस का पाठ कर रहा था। सामने एक माइक था जिस से जुड़े लाउडस्पीकर के जरिए पाठ के स्वर आश्रम की सीमा के बाहर जंगल में भी गूँज रहे थे। मूर्ति वाले हिस्से के बाकी स्थान को रामायण पाठ करने वालों और मंदिर को सम्भालने वाले पुजारी के उठने बैठने, विश्राम करने के स्थान में परिवर्तित कर दिया गया था और अन्दर वाली परिक्रमा को बंद कर दिया गया था। जिस की पूर्ति बाहर वाला पदपथ कर रहा था।

मैं गर्भगृह की ओर झाँका, तो वहाँ लाल रंग का पर्दा लटका था, इस तरह की बीच से मूर्ति के दर्शन न हो सकें लेकिन पर्दे के दोनों ओर से झाँका जाए तो हनुमान जी की मूर्ति के दर्शन हो जाएं। साधारण सी मूर्ति और उस पर सिंदूर से चढ़ा चोला। सफेद चमकीली रंगीन पन्नियों से हनुमान जी के आकार को स्पष्ट कर दिया गया था। कोई विशेष सज्जा नहीं। गर्भगृह के बाहर एक जगह बिना आग का धूप दान जिस में सेरों भभूत (राख)। वही एक चौकी जिस पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित माला, अगरबत्ती, प्रसाद और पूजा के सामानों की थैलियाँ रखी थीं। यह हनुमान जी के सोने का समय था। और यह सब उन्हें जागने पर अर्पित किया जा कर प्रसाद वापस लौटाना था। मेरा प्रसाद शोभा के पास बैग में था। मेरी घंटा बजाने की इच्छा हुई थी, लेकिन हनुमान जी को सोया देख उन्हें होने वाली परेशानी को देख पीछे हट गया। अपने आप को वहाँ अवांछित पा कर सामने के द्वार से बाहर आ गया।

मंदिर के सामने चौक था फर्श पर कच्ची मिट्टी पर उगी दूब भली लग रही थी। बाहर एक और लम्बे काष्ठ स्थम्भ पर हनुमान जी का लाल झंडा फहरा रहा था। चौक की दूसरी ओर भी एक मंदिर जैसा निर्माण था। जिस का द्वार भी साधारण बना था। पूछने पर जानकारी मिली कि वहाँ शिव मंदिर है। वहाँ से हमारी अस्थाई भोजनशाला दिखाई दे रही थी। पकौड़े तले जा चुके थे। उन्हें कागज की प्लेटों में रख कर वितरण की तैयारी थी। दूसरी मंदिर में स्थापित देवों के विश्राम में खलल उत्पन्न करने के स्थान पर जाग्रत अन्न देवता को तरजीह देना उचित समझ, उधर चल पड़ा। राह में ही हमारे कनिष्ट उपाध्याय जी और लिपिक दुर्गेश मिल गए। दुर्गेश ने सूचना दी, भाई साहब¡ यहाँ तो विजय भास्कर (95 प्रतिशत भंग मिश्रित स्वादिष्ट चूर्ण) भी उपलब्ध है, लाऊँ? मैं उसे कुछ कहता उस से पहले ही हमारे कनिष्ठ ने आदेश दिया- ले आ, पाँच-दस पुड़िया। पर यहाँ जंगल में, विजय भास्कर? दुर्गेश ने बताया कि बाहर दुकानदार रखता है छुपा कर मांगने पर दे देता है। राजस्थान में इस पर पाबंदी है पर पुलिसवालों ने ऐसे धार्मिक स्थानों पर अपने स्तर पर छूट दे रखी है, छिपा कर बेचने की। दुर्गेश गायब हो गया था। मैं भोजनशाला के नजदीक पहुँचा तो एक ने मुझे पकौड़े ला कर दिए, प्लेट में सॉस भी था। मैं वहीं पदपथ पर पैर लटका कर बैठ खाने लगा। समय देखा तो एक बज रहा था। मैं स्नान के बाद पाँच मिनट भूख बर्दाश्त न करने वाला करीब पाँच घंटों के संयम के उपरांत उन पर टूट पड़ रहा था। इस बीच दुर्गेश विजय-भास्कर के पाउच ले कर लौटा। कहने लगा। आधे पकौड़े निकल चुके हैं बाकी के घोल में डाल दूँ? उस की आँखों में शरारत थी। मैं ने उसे आँखें दिखाईं और सारे पाउच ले कर अपनी जेब के हवाले किए। उसे कहा कि किसी को जरूरत होगी तो मुझ से ले लेगा। पकौड़े खत्म होते तब तक और आ गए। सब ने जम कर छके। पेट पूजा होते ही सब को सफर की थकान सताने लगी। मैं भी स्थान देख रहा था जहाँ झपकी ली जा सके। उधर बाबा के मकान के पास एक पेड़ के नीचे सारी महिलाएँ बतिया रहीं थीं। इधर नन्द जी के गाँव से आया एक नौजवान लड़का छैला बना था, सभी उस की मजाक बना रहे थे। ट्रेन भर में उस के जोड़ की लड़की तलाश करते रहे। कभी इसे पसंद कराते, कभी उसे। इस काम में कुछ महिलाएँ भी पीछे नहीं थीं। मजे का विनोद चल रहा था। जीप में उसे किसी दूसरे यात्री दल की लड़कियों के बीच बिठा दिया गया था। जैसे तैसे अपने छैलेपन की सजा भुगतते उस ने आश्रम तक का सफर किया था। अब दूसरे दल की दूर खाना बनाने में व्यस्त उन्हीं दो लड़कियों को इंगित कर उसे कहा जा रहा था कि वह जा कर उन की मदद करे, तो उन में से एक जरूर उसे पसंद कर लेगी।

पकौड़े पेट में जाते ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। दोनों दिमाग में। एक तो सुस्ती छाई, नीन्द सी आने लगी। दूसरे सुबह ठीक से शौच न होने का तनाव कि किसी भी वक्त जाने की जरूरत पड़ सकती थी। मैं पूछताछ करने लगा कि यहाँ जंगल में पानी कहाँ और कितनी दूर होगा? कोई भी ठीक से नहीं बता सका। फिर एक ने बताया कि आप को शौचादि की जरूरत हो तो आश्रम के पश्चिम में नीचे, गौशाला की बगल शौचालय और स्नानघर बने हैं। मैं ने तुरंत उन का निरीक्षण किया। वे अच्छे और साफ थे। एक शौचालय में एंग्लो इंडियन कमोड भी लगा था। दो स्नानघर थे। साफ और पानी की निरंतर व्यवस्था। उन्हें देख कर मुझे बहुत राहत मिली। उस समय उन की जरूरत नहीं थी मैं वापस लौटा तो। पेड़ के नीचे दरी बिछा कर बैठी महिलाएँ मन्दिर जा चुकीं थीं। दरी पर बहुत स्थान रिक्त था। मैं वहीं लमलेट हो गया। हवा नहीं थी। ऊमस बहुत थी। बादल बहुत कम और हलके थे। विपरीत परिस्थितियों में भी दिमाग के भारी पन से मुझे झपकी लग गई। (जारी)

कुछ पाठकों ने तस्वीरें चाहीं हैं। मेरे पास कैमरा नहीं था, मोबाइल में भी नहीं। एक अन्य मोबाइल से तस्वीरें ली गईं थी। पर वह जिन सज्जन का था। उन के साथ चला गया। वह उपलब्ध हो सका तो तस्वीरें भी दिखेंगी। लेकिन मैं ने तस्वीरों की कमी अपने शब्दों से करने की कोशिश की है। आप ही बताएँगे कि कितनी सफलता मुझे मिल सकी है?

मंगलवार, 6 मई 2008

साँड, मई दिवस और स्त्रियाँ

ज्ञान दत्त पाण्डेय के आलेख "मुन्सीपाल्टी का साँड" पर एक टिप्पणी।

बड़े भाई। आप का कोई वाहन नहीं, आप सफर करते हैं गाड़ी में, और आप के सामने आ गया वाहन। भोलेशंकर समझदार थे उन्हों ने उसे वाहन बनाया था, जिस से वह छुट्टा न घूमे। उन्हें क्या पता था दिन में लोग पांच बार उन्हें जल जरुर चढ़ा देंगे, 24 घंटों जलेरी में रखेंगे, जिस से वे गरम नहीं हों, पर वाहन के मामले में उन का अनुसरण नहीं करेंगे।
सीधे बैठने की हिम्मत न हुई तो उसे गाड़ी में जोत दिया। सदियों तक जोतते रहे। लेकिन वह पिछड़ गया गति में। न गाड़ी में जोता जाता है और न ही हल में। अब वह जाए तो कहाँ जाए। अब इन्सान को मादा की तो जरुरत है, लेकिन नर की नहीं, है भी तो केवल वंश वृद्धि के लिए। कितनों की? जितने मुन्सीपैल्टी दाग देती थी। बाकी का क्या। आप ने सारे रास्ते चौबीस देखे। इस से अधिक तो यहाँ कोटा के शास्त्रीनगर दादाबाड़ी में मिल जाएंगे। कभी कभी तो एक साथ 15 से 20 कतार में एक के पीछे एक, जैसे उन की नस्ल बदल गई , साँड नहीं, मैंढे हो गए हों। अब तो जंगल भी नही जहाँ ये रह सकते हों। गौशालाएँ गउओं के लिए भी कम पड़ती हैं।
मई दिवस तो शहादत का दिन है। लेकिन अक्सर शहादतों को पीछे से दलालों ने भुनाया है। वे भुनाएंगे। क्यो कि शोषण का चक्र जारी है। शोषक को दलाल की जरूरत है। शोषितों की मुक्ति के हर प्रतीक को वे बदनाम कर देना चाहते हैं, जिस से कोई इन शहादतों से प्रेरणा नहीं ले सके। लेकिन मुक्ति तो मानव का अन्तिम लक्ष्य है। कितनी ही कोशिशें क्यों न कर ली जाएं, मानव को मुक्त तो होना ही है। एक प्रतीक टूटेगा तो नया बनेगा। मानव को इस जाल से मुक्ति नहीं मिलेगी, तो सम्पूर्ण मानवता ही नष्ट हो लेगी।
घरों में बन्द स्त्रियाँ बाहर आ रही हैं, तेजी से पुरुषों के सभी काम खुद सम्भालने को तत्पर हैं। अभी भी अनेक पुरुष पी-कर, खा-कर सिर्फ जुगाली करते हैं। धीरे धीरे इन की संख्या भी बढ़ रही है। विज्ञान संकेत दे रहा है कि प्रजनन के लिए भी पुरुषों की जरुरत नहीं। कहीं ये छुट्टे घूमते साँड मानव पुरुषों के भविष्य का दर्शन तो नहीं हैं।

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

लड़कियां क्यों उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं करतीं?

आज हमें एक विवाह संगीत में जाना पड़ा। पहले विवाहों के समय एक एक हफ्ते तक महिलाओं का संगीत चलता रहता था। अब वह सब एक समारोह में सिमट गय़ा है। इस के साथ ही लोकरंजन की यह विधा नगरों से विदाई लेती नजर आती है, कस्बे उन का अनुकरण कर रहे हैं और गाँव भी पीछे नहीं हैं। वहाँ भी टीवी ने सब कुछ पहुँचा दिया है। अब लगता है महिलाओं से वे लोकगीत सुनना दूभर हो जाएगा जो विवाहों में सहज ही सुनाई दे जाते थे। खैर!

संगीत सभा को निमन्त्रण पत्र में महिला संगीत प्रदर्शित किया गया था। मेरे विचार से यह गलत शीर्षक था। इसे सीधे-सीधे विवाह संगीत लिखा जा सकता था।

वहाँ एक हॉल में ढ़ाई फुट ऊंचा डीजे मंच लगाया गया था। कोई पन्द्रह फुट लम्बा और दस फुट चौड़ा रहा होगा। रोशनियाँ नाच रही थीं, तेज गूँजती आवाज और वही कान में रुई का ढ़क्कन लगा कर सुनने योग्य तेज फिल्मी संगीत। बहुत सी लड़कियों ने इन रिकॉर्डेड गीतों पर नृत्य किए। सब लड़कियों ने अच्छे भाव दिखाए जिन में कठोर श्रम झलक रहा था। उन में से शायद ही कोई हो, जिसने किसी गुरु से नृत्य की शिक्षा ली हो। फिर भी उन के नृत्यों में बहुत परिपक्वता थी। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने एकलव्य की कथा से बहुत कुछ सीखा है। यह महसूस किया कि वाकई लड़कियाँ लड़कों के मुकाबले शीघ्र परिपक्व हो जाती हैं, क्यों कि उन भावों को जो वे प्रदर्शित कर रहीं थीं, ठीक से समझे बिना प्रदर्शित करना कठिन था। सचमुच लड़कियाँ अन्दर से बहुत गहरी होती हैं।

मुझे एक बात अखरी, और मैं ने इस का उल्लेख एक-दो लोगों से किया भी। उन्होंने भी इसे नोट किया। मंच पर पाँच-पाँच वर्गफुट के छह वर्ग थे। तीन आगे, तीन पीछे। नृत्य करते समय तकरीबन सभी लड़कियाँ केवल बीच के दो वर्गों का ही उपयोग कर रही थीं। उनमें भी आगे पीछे के दो-दो फुट स्थान का भी वे उपयोग नहीं कर रही थीं। इस तरह उस पन्द्रह गुणा दस वर्गफुट के मंच में से केवल पांच फुट गुणा छह फुट मंच का ही वे उपयोग कर रही थीं। पूरे मंच के केवल मात्र 20 प्रतिशत हिस्से का। जब कि लड़के जब भी उस मंच पर नृत्य के लिए आए उपलब्ध समूची स्पेस का उपयोग कर रहे थे।

क्यों लड़कियां उन के पास उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं कर पा रही थीं? मेरे लिए यह प्रश्न एक पहेली की तरह खड़ा था। मन हुआ कि किसी लड़की से पूछा जाए। पर उस समारोह में ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सका।

मैं इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहता हूँ। कुछ उत्तर मेरे पास हैं भी। क्या इसलिए कि न्यूनतम स्पेस में काम करने की उन की आदत ड़ाल दी गई है? या उन्हें इस बात का भय है कि वे मंच के किनारों से दूर रहें कहीं नृत्य में मग्न उन का कोई पैर मंच के नीचे न चला जाए और उन्हें कुछ समय का या जीवन भर का कष्ट दे जाए?

सही उत्तर क्या है? मैं अभी उस की तलाश में हूँ।

शायद आप में से कोई सही उत्तर सुझा पाए?