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शनिवार, 19 दिसंबर 2009

अंधों का गीत ..... शिवराम


पिछली पोस्ट चार कदम सूरज की ओर
पर शिवराम जी की इसी शीर्षक की कविता पर विष्णु बैरागी जी ने टिप्पणी की थी कि इस कविता का नुक्कड़ नाटकों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। शिवराम हिन्दी के शीर्षस्थ नुक्कड़ नाटककार हैं। 'जनता पागल हो गई है' तो उन का सार्वकालिक बहुचर्चित नाटक है। जिसे नाटक की किसी भी फॉर्म में खेला जा सकता है और खेला गया है। मुझे गर्व है कि इस नाटक की अनेक प्रस्तुतियाँ मैं ने देखी हैं और कुछ प्रस्तुतियों में मुझे अभिनय का अवसर भी प्राप्त हुआ। उन के नाटकों में लोक भाषा और मुहावरों का प्रयोग तो आम बात है, लोकरंजन के तत्व भी बहुत हैं। लेकिन वे उन में गीतों का समावेश भी खूब करते हैं और इस तरह कि वे मर्म पर जा कर चोट करते हैं। 
ऐसा ही एक गीत है "अंधों का गीत" जो सीधे जनता पर चोट करता है। आज प्रस्तुत है यही गीत आप के लिए। तो पढ़िए .......

अंधों का गीत
  • शिवराम
अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत भाई!

दिन में भी रात यहाँ पर
बात-बात में घात यहाँ पर
लूटो-मारो, छीनो-झपटो
राह न कोई राही
अंधा राजा, अंधी पिरजा
अंधी नौकरशाही।।


एक के दो कर, दो के सौ कर
या कोई भी घोटाला कर
तिकड़म, धोखा, हेराफेरी 
खुली छूट है भाई
अंध बाजार, अंध भोक्ता
अंधी पूँजीशाही।।


अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत है भाई।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चार कदम सूरज की ओर

आज कल व्यस्तता के कारण स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ रहा हूँ। लेकिन इस असमर्थता का लाभ यह हुआ है कि  मैं शिवराम जी की कविताएँ आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। उन के सद्य प्रकाशित तीन काव्य संग्रहों में से एक कुछ तो हाथ गहों से एक गीत आप के पठन के लिए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत है .....

चार कदम सूरज की ओर
  • शिवराम
चोरी लूट ठगी अपराध
आपाधापी भीतरघात
भ्रष्टाचार और बेकारी
चारों ओर है मारामारी

महंगाई का ओर न छोर
चार कदम सूरज की ओर

ऐसे उदार रघुराई
कुतिया चौके में घुस आई
इतने खोले चौपट द्वार
हुए पराए निज घर-बार

बर्बादी में उन्नति शोर 
चार कदम सूरज की ओर

कर्ज के पैसे जेब में चार 
कैसे इतराते सरकार
उछले जाति धर्म के नारे
नेता बन गए गुण्डे सारे

धुआँ धुआँ सांझ और भोर
चार कदम सूरज की ओर

भावी पीढ़ी को उपहार
सेक्स, नशा और व्यभिचार
आजादी को रख कर गिरवी
भाषण देते तन कर प्रभुजी

जैसे चोर मचाए शोर
चार कदम सूरज की ओर।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

रेत के धोरों के गान ! अलविदा .....! अलविदा ...! अलविदा ...!

मैं ने रेत की खूबसूरती देखी थी, आप ने भी जरूर देखी होगी। अगर आप ने सुनीलदत्त और अमिताभ की 'रेशमा और शेरा' या शाहरुख की 'पहेली' देखी हो। चित्रों और फिल्मों में रेत बहुत खूबसूरत लगती है।  मैं ने भी उसे चित्रों और परदे पर ही देखा था। लेकिन फिर मैं ने रेत का गान सुना। हाँ,  रेत  के धोरों को गाते सुना। हरीश 'भादानी' जी के मुहँ से मैं ने रेत का गान सुना। वह प्यास के गीत गाती थी, अदम्य प्यास के गीत, वह रोटी के गीत गाती थी। वह अकुलाते हुए गाती थी। वह मशाल जलाते हुए गाती थी। वह काली अंधियारी रात में सुबह के गीत गाती थी। वह रेत थी निहायत रेत, जो पानी के लिए तरसती, तड़पती थी। पानी का एक अणु भी उस के पास न ठहरता था। वह गान गाने वाला नहीं रहा। अब कौन गाएगा रेत के उन गीतों को? कौन प्यास के गीत गाएगा?

माध्यमिक हिन्दी की किताब में उन का गीत पढ़ा था। उसे गाया भी था। उसे सुबह होने के पहले जब घूमने निकलता तो अक्सर ऊंचे स्वर में गाता था .......


भोर का तारा उगा है
नींद की साँकळ उतारो 
किरन देहरी पर खड़ी है
जाग जाने की घड़ी है

हरीश जी ही गा सकते थे -

फिर हवा में घुल गई है रेत
किरकिरी की हर रड़क पर आप

दो अक्टूबर की सुबह महेन्द्र 'नेह' से खबर मिली कि हरीश जी नहीं रहे। मैं कुछ नहीं कहूँगा उन पर। पर वे उन कवियों में एक थे जो मेरे सब से अधिक पसंदीदा हैं। उन्हों ने जन के गीत गाए। अधिक नहीं लिखूंगा।  उन पर अनेक पोस्टें आ चुकी हैं। खबर मिली तब तक बिजली जा चुकी थी,  किसानों को बिजली देने के लिए शहरियों की चार घंटे की कटौती। पर शायद किसानों ने उस का उपयोग  नहीं किया। कहाँ करते। फसलें तो पहले ही बिन पानी के सूरज के ताप में जल चुकी हैं। बिजली एक घंटे में ही लौट आई।

बापू और शास्त्री जी का जन्मदिन था। मैं इसे स्वच्छता दिवस के रूप में मनाता रहा हूँ। कभी घर में, कभी मुहल्ले भर के साथ अपना ऑफिस या मुहल्ले की नालियाँ साफ करते हुए। आज अपना ऑफिस साफ किया/करवाया। कंप्यूटर और ब्रॉड बैंड ने महिनों बाद चैन की साँस ली। सुबह के अलग हुए उन के तार  आधी रात के कुछ ही पहले जुड़े हैं। बहुत धूल गई है फेफड़ों में उस का नशा है और थकान का भी।

दिन भर हरीश जी के गीत याद आते रहे। सफाई के दौरान उन का गीत संग्रह रोटी नाम सत है भी हाथ लग
 गया। एक गीत उसी से आप के लिए .......

राजा दरजी

मेरी खातिर 
अब त सियो कमीज राजा दरजी !


तीसों बरस बनाते गुजरे 
बीस गजी अचकन
खादी टाट समेट ले गए
खूब करी कतरन,
मुझे मिली केवल लंगोटी 
राजा दरजी !


बाहर बटन भीतरी अस्तर
चेपा मुझे गया,
जहाँ जहाँ भी दिखे कोचरे 
तीबा मुझे गया,
चुकने को है अब तेरा धागा
राजा दरजी!

नापी नहीं कभी भी तुमने 
कितनी आँत बड़ी,
जितनी दी पोशाकें तुमने 
तन पर नहीं अड़ीं
बहुत चलाई अब न चलेगी 
राजा दरजी !

  • हरीश भादानी

रविवार, 13 सितंबर 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ


नवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........





(1) 

पापा
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर जाते पापा
देर रात घर आते पापा

फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
*******





(2) 
भोर का तारा

  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

उठो सवेरे ने ललकारा
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...


डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...



*******

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मुन्नी पोस्ट, मुन्नी कविता, 'मम्मी इतना तो बतला दो' पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

 पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की इस मुन्नी कविता और आप के बीच से अब मैं हटता हूँ। 
आप पढ़िए.....
मम्मी इतना तो बतला दो
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

बिस्कुट तो ले आते पापा
गोदी नहीं बिठाते पापा

मम्मी इतना तो बतला दो
कब आते, कब जाते पापा
********************

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

'गीत' बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...

अनवरत पर अब तक आप ने पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की ग़ज़लें पढ़ी हैं।  ‘यक़ीन’ साहब ने सैंकड़ों ग़ज़लों के साथ गीत और नज्में भी कम नहीं लिखी हैं। यहाँ प्रस्तुत है उन का एक मासूम गीत ..............

'गीत'

बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...
  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ....


बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

दिन वो गुड़ियों के, वो बेतकल्लुफ़ जहाँ
मिलना खुल के वो और हँसना-गाना कहाँ

हाय बेफ़िक्र भोले ज़माने गए
इक झिझक बेक़दम, बेज़ुबाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

बस ज़रा बात पर कट्टी कर लेना फिर
चट्टी उँगली भिड़ा बाथ भर लेना फिर

रूठने के मनाने के दिन खो गए
सामने उम्र की हद अयाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई .....

बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....


पढें और प्रतिक्रिया जरूर दें।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

वर्जनाएँ अब नहीं -गीत * महेन्द्र 'नेह'

तनाव तो था काम का,  पर जुकाम होने की गाज गिरी आइस्क्रीम पर जो रविवार एक मित्र के सम्मान समारोह में खाई गई थी।  उसी जुकाम में कल काम करना पड़ा और आज भी अदालत जाना ही पड़ेगा, और कोई चारा नहीं है। रात को पंखे की हवा में सर्दी सी महसूस हो रही है। पंखा बंद करूंगा तो पत्नी जाग लेगी। मैं अपने ऑफिस में आ बैठा हूँ।  कुछ करने की स्थिति में नहीं। चलिए आप को महेन्द्र 'नेह' का का एक गीत पढ़ाते हैं........

वर्जनाएँ अब नहीं
  • महेन्द्र 'नेह'


आसमानों
अर्चनाएँ, वंदनाएँ अब नहीं

जिन्दगी अपनी
किसी की मेहरबानी भर नहीं
मौत से बढ़ कर 
कोई आतंक कोई डर नहीं

मेहरबानों याचनाएँ, दासताएँ अब नहीं

ये हवा पानी 
जमीने ये हमारे ख़्वाब हैं
ये गणित कैसी 
ये सब के सब तुम्हारे पास हैं

देवताओं 
ताड़नाएँ, वर्जनाएँ अब नहीं

जन्म से पहले
लकीरें हाथ की तय हो गईँ
इक सिरे से 
न्याय की संभावना गुम हो गई

पीठिकाओं 
न्यायिकाएँ, संहिताएँ अब नहीं।

************************                        
इस वृक्ष का नाम 'अब नहीं' (not now) है।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

एक गीत संग्रह और दो पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण अंकों का लोकार्पण

गीत हो या ग़ज़ल, कविता हो या नवगीत, नाटक लेखन हो या मंचन; हिन्दी, हाड़ौती, उर्दू और ब्रज भाषा का साहित्य कोटा की चंबल के पानी और उर्वर भूमि में बहुत फलता फूलता है।  यहाँ साहित्य पर बहस-मुबाहिसे बहुत होते हैं।  किताबें और पत्रिकाएँ छपती भी हैं और उन के विमोचन समारोह भी होते हैं।  पिछले सप्ताह में दो बड़े आयोजन हुए जिन में दो पत्रिकाएँ और एक पुस्तक का विमोचन हुआ। 
21 जून को साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक संस्थान के 45 वें स्थापना समारोह पर प्रेस क्लब में हुए एक समारोह में वरिष्ठ कवि ब्रजेन्द्र कौशिक के गीत संग्रह 'साक्षी है सदी' का लोकार्पण हुआ।  इस संग्रह में 54 गीत संग्रहीत हैं। 
इस संग्रह को मैं अभी नहीं पढ़ सका पर एक गीत की बानगी देखिए ....



हम ने जिस को पंच चुना 
उस ने अब तक नहीं सुना 
हम ने हा-हाकार किया
उस ने चाँटा मार दिया
हम-तुम से 
ऐसा क्यों सलूक किया
सोच 
और उत्तर दे दो टूक भैया


27 और 28 जून को 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच ने 'समय की लय' नाम से एक नवगीत-जनगीत पर सृजन चिंतन समारोह आयोजित किया।  27 जून की शाम को एक काव्य-गीत संध्या का आयोजन किया गया जिस में नवगीत केन्द्र में रहे। इस में बड़ी संख्या में कवियों, गीतकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। दूसरे दिन कला दीर्घा कोटा में आयोजित समारोह में हिन्दी पत्रिका 'सम्यक' के 28वें अंक का जो कि नवगीत-जनगीत विशेषांक था तथा 'अभिव्यक्ति' के ताजा अंक का लोकार्पण किया गया।  इस अवसर पर डॉ. विष्णु विराट और अतुल कनक ने पत्रवाचन किया और उस पर बहस हुई।  लोकार्पण के बाद के दूसरे सत्र में जनगीत सामर्थ्य और संभावनाएं विषय पर एक संगोष्ठी संपन्न हुई जिसमें बशीर अहमद 'मयूख, बृजेन्द्र कौशिक, दुर्गादान सिंह गौड़, रामकुमार कृषक, शैलेन्द्र चौहान, मुनीश मदिर, डॉ. देवीचरण वर्मा, महेन्द्र 'नेह' किशनलाल वर्मा, मुकुट मणिराज, जितेन्द्र निर्मोही, अम्बिका दत्त व अन्य साहित्यकारों ने भाग लिया। 


सम्यक के इस नवगीत-जनगीत विशेषांक का  संपादन महेन्द्र 'नेह' ने किया है। इस में दो संपादकीय, छह आलेख, तीन साक्षात्कार और 71 कवि-गीतकारों के नवगीत प्रकाशित हुए हैं जिन में  निराला, नागर्जुन, शील से ले कर नए से नए  सशक्त हस्ताक्षर सम्मिलित हैं। इस से इस अंक ने नवगीत के इतिहास को अनायास ही सुरक्षित कर दिया है।  इस अंक की एक-एक रचना महत्वपूर्ण है। इस अंक में सजाए गए नवगीतों में से कुछ का रसास्वादन तो आप अनवरत पर यदा कदा करते रह सकते हैं। अभी तो आप इस विशेषांक की अन्तिम आवरण पृष्ठ पर छपा गजानन माधव मुक्तिबोध  के नवगीत का रसास्वादन कीजिए।  पढ़ने के बाद यह दर्ज कराना न भूलिए कि यह रस कौन सा था?  और कैसा लगा?


'नवगीत'
  • गजानन माधव मुक्तिबोध

भूखों ओ
प्यासों ओ
इन्द्रिय-जित सन्त बनो!

बिरला को टाटा को 
अस्थि-मांस दान दो

केवल स्वतंत्र बनो!

धूल फाँक श्रम करो
साम्य-स्वप्न भ्रम हरो

परम पूर्ण अन्त बनो!

अमरीकी सेठवाद
भारतीय मान लो
हमारे मत प्राण लो

मानवीय जन्तु बनो!
*********
अभिव्यक्ति के ताजा अंक के बारे में फिर कभी..........



मंगलवार, 23 जून 2009

संक्रमण, लालगढ़ और.... चलिए छोड़िए, आप तो गाना सुनिए....

प्रदूषित जल कोटा जैसे नगर में भी अब भी एक समस्या बना हुआ है। आजादी के पहले भी कोटा में पूरे नगर को नलों के माध्यम  से चौबीसों घंटे जल का वितरण होता था।  सड़कों के किनारे सुंदर सार्वजनिक नल लगे हुए थे।  पानी ऐसा कि पीते ही प्यास को तृप्ति मिले। ऐसा क्यों न  होता?  आखिर कोटा रियासत की राजधानी थी। जितना सुंदर हो सकती थी बनाई गई थी और जो सुविधाएँ दी जा सकती थीं उपलब्ध कराई गई थीं।

बरसों पहले बिछाई गई पाइप लाइनें समय के साथ गलने लगीं, उन में लीकेज होने लगे। समय समय पर उन्हें बदला गया।  नगर का विस्तार हुआ और आवश्यकता के अनुसार जल वितरण  व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। अब पूरे नगर में उच्च जलाशय बनाए गए हैं। जिस से 24 घंटे जल वितरण को समयबद्ध जल वितरण  में बदला जा सके।  उन का प्रयोग भी आरंभ हो चुका है। लेकिन इस सब के बीच लाइनें लीकेज होती रहती हैं।  भूमि की ऊपरी सतह में मौजूद जीवाणु युक्त जल का उस में प्रवेश भी होता ही है। हर साल प्रदूषित पानी से संबंधित बीमारियाँ भी इसी कारण से आम हैं।

मैं ठहरा अदालत का प्राणी। वहाँ पानी की उपलब्धता के अनेक रूप हैं।  चाय की दुकानों पर, प्याउओं पर पानी उपलब्ध है। जहाँ जब जरूरत हो वहीं पी लो। यह कुछ मात्रा में तो प्रदूषित रहता ही है।  इस से बचाव का एक ही साधन है कि आप अपने शरीर की इम्युनिटी बनाए रक्खें।  वह बनी रहती है।  पर कभी तो ऐसा अवसर आ ही जाता है जब इस इम्युनिटी को संक्रमण भेद ही लेता है।  रविवार को एक पुस्तक के विमोचन समारोह में थे वहाँ जल पिया गया या उस से पहले ही कहीं इम्युनिटी में सेंध लग गई।

सोमवार उस की भेंट चढ़ा और मंगल भी उसी की भेंट चढ़  रहा है।  लोग समझते हैं कि वकील ऐसी चीज है कि जब चाहे अदालत से गोल हो ले। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है।  एक मुकदमे में नगर के दो नामी चिकित्सकों को गवाही के लिए आना था।  जिन्हें लाने के लिए मैं ने और मुवक्किल ने न जाने क्या क्या पापड़ बेले थे।  स्थिति न होते हुए भी अदालत गया। दोनों चिकित्सक अदालत आए भी लेकिन जज अवकाश पर थे। बयान नहीं  हो सके।  अब अदालत गया ही था तो बाकी मामलों में भी काम तो करना पड़ा ही।

अदालतों की हालत बहुत बुरी है। सब जानते हैं कि अदालतों की संख्या बहुत कम है। लेकिन उस के लिए आवाज उठाने की पहल कोई नहीं करता।  वकीलों को यह पहल करनी चाहिए।  इस से उन्हें कोई हानि नहीं अपितु लाभ हैं।  पर एक व्यक्ति के बतौर वे असमंजस में रहते हैं कि इस से उन के व्यवसाय के स्वरूप पर जो प्रभाव होगा उस में वे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में टिक पाएँगे या नहीं।

भारतीय समाज वैसे भी इस सिद्धांत पर अधिक अमल करता है कि जब घड़ा भर लेगा तो अपने आप फूट लेगा। उसे लात मार कर अश्रेय क्यों भुगता जाए।  लालगढ. की खबरों की बहुत चर्चा है।  कोई कुछ तो कोई कुछ कहता है। सब के अपने अपने कयास हैं।  लेकिन मैं जो न्याय की स्थिति को रोज गिरते देख रहा हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि जो व्यवस्था अपने पास आने वाले व्यक्ति को पच्चीस बरस चक्कर लगवा कर भी न्याय नहीं दे सकती। उस में न जाने कितने लालगढ़ उत्पन्न होते रहेंगे ?

दो दिनों से "प्यासा" फिल्म का यह गीत गुनगुना रहा हूँ।  चलिए आप भी सुन लीजिए .......

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शनिवार, 20 जून 2009

हम धरती के जाए "गीत" * महेन्द्र नेह


"गीत" 

 हम धरती के जाए

  • महेन्द्र नेह 

आज तुम्हारी बारी है
जो जी आए कर लो 
कलजब वक्त हमारा आए
तो रोना मत भाई!

तुमने हमें निचोड़ा
जीना दूभर कर डाला 
भाग हमारे मढ़ा 
अंधेरा, मकड़ी का जाला 

हम हैं धरती के जाए
हम सब कुछ सह लेंगे 
अंधियारा कल तुम्हें सताए
तो रोना मत भाई!

तुमने जंगल, नदी, खेत
सब हमसे छीन लिए 
संविधान के तंत्र मंत्र से 
बाजू कील दिए 

तंत्र-मंत्र के बल पर 
अब तक टिका नहीं कोई 
कल यह सब वैभव छिन जाए
तो रोना मत भाई! 

तुमने हमें चबाया सदियों,
भूख न मिट पाई 
हविश मनुज के लहू 
पान की तनिक न घट पाई 
.
हम तो हैं मृत्युंजय 
हम को मार न पाओगे 
काल तुम्हारे सिर मंडराए, 
तो रोना मत भाई!


*******************







रविवार, 8 मार्च 2009

तुम्हारी जय !

महिला दिवस पर महेन्द्र 'नेह' का गीत  




तुम्हारी जय !


अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !

सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण

विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !

कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्राकाशित तन विवर्तन

क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
                    ... महेन्द्र नेह



  

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

तुम्हारी जय !

'गीत'

तुम्हारी जय!
  • महेन्द्र 'नेह'
अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !

सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण

विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !

कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्रकाशित तन विवर्तन

क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
                   - महेन्द्र नेह

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

सच कहा........

महेन्द्र 'नेह' का एक और गीत

सच कहा 


सच कहा
   सच कहा
     सच कहा

बस्तियाँ बस्तियाँ सच कहा
कारवाँ कारवाँ सच कहा

सच कहा जिंदगी के लिए
सच कहा आदमी के लिए
सच कहा आशिकी के लिए

सच कहा, सच कहा, सच कहा

सच कहा और जहर पिया
सच कहा और सूली चढ़ा
सच कहा और मरना पड़ा

पीढ़ियाँ पीढ़ियाँ सच कहा
सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सच कहा

सच कहा, सच कहा, सच कहा

सच कहा फूल खिलने लगे
सच कहा यार मिलने लगे
सच कहा होठ हिलने लगे

बारिशें बारिशें सच कहा
आँधियाँ आधियाँ सच कहा

सच कहा, सच कहा, सच कहा
                            -महेन्द्र नेह

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

जय जय गोरधन! गीत-हरीश भादानी

आज गोवर्धन पूजा है। इस मौके पर स्मरण हो आता है हरीश भादानी जी का गीत "जय जय गोरधन !"
हरीश भादानी राजस्थान के मरुस्थल की रेत के कवि हैं।राजस्थानी और हिन्दी में उन का समान दखल है।   11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में जन्मे । 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन किया। कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। अनौपचारिक शिक्षा, पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित। राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल"  और  के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है।

"जय जय गोरधन"  सत्ता के अहंकार के विरुद्ध जनता का गीत है..



 
।। जय जय गोरधन ।।
* हरीश भादानी *


काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन !

 
हद कोई जब
माने नहीं अहम,
आँख तरेरे,
बरसे बिना फहम, 
 तब बाँसुरी बजे
बंध जाए हथेली
ले पहाड़ का छाता 
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

हठ का ईशर 
जब चाहे पूजा,
एक देवता
और नहीं दूजा,
तब सौ हाथ उठे
सड़कों पर रख दे
मंदिर का सिंहासन
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

सेवक राजा 
रोग रंगे  चोले,
भाव ताव कर
राज धरम तोले,
तब सौ हाथ उठे,
उठ थरपे गणपत
 गणपत बोले गोरधन
जय जय गोरधन !

काल का हुआ इशारा
 लोग हो गए गोरधन !
  *******
 

बुधवार, 6 अगस्त 2008

महेन्द्र 'नेह' का गीत .... मारे गए बबुआ

 

मित्र  महेन्द्र 'नेह' श्रेष्ठ कवि-गीतकार तो हैं ही, पेशे से क्षति-निर्धारक, बोले तो 'सर्वेयर'। बीमा कंपनियों के लिए क्षतियों का निर्धारण करते हैं। बरसों तक मोटर दुर्घटनाओँ की क्षतियाँ आँकीं हैं। जब सड़क पर यातायात अधिक हो जाता है, तो सड़क को चौड़ा किया जाता है। यकायक सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ जाती है। इस घटना को उन्हों ने देश में आयातित वाहनों की बाढ़ के साथ गीत में बांधा। गीत प्रस्तुत है.......
मारे गए बबुआ
  • महेन्द्र 'नेह'

सड़क हुई चौड़ी
मारे गए बबुआ।
मारे गए बबुआ हो
मारे गए रमुआ......

लोहे के हाथी और लोहे के घोड़े
बेलगाम हो कर के सड़कों पे दौड़े
मची है होड़ा होडी़
मारे गए बबुआ।
नई-नई घोड़ी विलायत से आई
नए-नए रंगों की महफिल सजाई
बिदक गई घोड़ी
मारे गए बबुआ।

चंदा औ सूरज सी जोड़ी रुपहली
ज़ालिम जमाने के पहियों ने कुचली
बिगड़ गई जोड़ी
मारे गए बबुआ। 
.....................................................................................................................................

शनिवार, 8 मार्च 2008

महिलाओं पर महेन्द्र “नेह” की कविता और गीत


महेन्द्र नेह से आप परिचित हैं। उन के गीत हम सब नीग्रो हैं और "धूप की पोथी" के माध्यम से करीब दस दिनों से वे घुटने के जोड़ की टोपी (knee joint cap) के फ्रेक्चर के कारण पूरे पैर पर बंधे प्लास्टर से घर पर कैद की सजा भुगत रहे हैं। आज शाम उन से मिलने गया तो अनायास ही पूछ बैठा महिलाओं पर कविता है कोई? फिर फोल्डरों में कविताऐं तलाशी गईं। सात गीत-कविताऐं उन के यहाँ से बरामद कर लाया। एक उन के पसन्द की कविता और एक मेरी पसंद का गीत आप के लिए प्रस्तुत हैं-

महेन्द्र नेह की पसंद की कविता.........

आओ, आओ नदी - महेन्द्र नेह

अनवरत चलते चलते

ठहर झाती है जैसे कोई नदी

इस मक़ाम पर आकर ठहर गई है

इस दुनियाँ की सिरजनहार

इसे रचाने-बसाने वाली

यह औरत।

इतिहास के इस नए मोड़ पर

तमन्ना है उसकी कि लग जाऐं

तेज रफ्तार पहिए उस के पाँवों में

ले जाएं उसे धरती के ओर-छोर।

चाहत है उसकी उग आएं उसके हाथों में

पंख, और वह ले सके थाह

आसमान के काले धूसर डरावने छिद्रों की।

इच्छा है उसकी, जन्मे उसकी चेतना में

एक सूरज, पिघला दे जो

उसकी पोर-पोर में जमी बर्फ।

सपना है उसका कि

समन्दर में आत्मसात होने से पहले

वह बादल बन उमड़े-घुमड़े बरसे

और बिजली बन रचाए महा-रास

लिखे उमंगों का एक नया इतिहास

ब्रह्माण्ड के फलक पर।

इधर धरती है, जो सुन कर उस के कदमों की आहट

बिछाए बैठी है, नए ताजे फूलों की महकती चादर

आसमान है जो उस की अगवानी में बैठा है,

पलक पांवड़े बिछाए

और समन्दर है जो

उद्वेलित है, पूरे आवेग में गरजता-तरजता

आओ-आओ नदी

तुम्हीं से बना, तुम्हारा ही विस्तार हूँ मैं

तुम्हारा ही परिवर्तित सौन्दर्य

तुम्हारे ही हृदय का हाहाकार...........

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मेरी पसंद का गीत................

नाचना बन्द करो - महेन्द्र नेह

तुम ने ही हम को बहलाया

तुम ने ही हम को फुसलाया,

तुम ने ही हम को गली-गली

चकलों-कोठों पर नचवाया।

अब आज अचानक कहते हो

मत थिरको अपने पावों पर,

अपनी किस्मत की पोथी को

अब स्वयं बाँचना बन्द करो।

मत हिलो नाचना बन्द करो।।

तुम ने ही हम को दी हाला

तुम ने ही हमें दिया प्याला,

तुम ने औरत का हक छीना

हम को अप्सरा बना ड़ाला।

अब आज अचानक कहते हो

मत गाओ गीत जिन्दगी के,

मुस्कान अधर पर, हाथों में

अब हिना रचाना बन्द करो।

चुप रहो नाचना बन्द करो।।

तुम ने ही हम को वरण किया

तुम ने ही सीता हरण किया,

तुम ने ही अपमानित कर के

यह भटकन का निष्क्रमण किया।

अब आज अचानक कहते हो

मत निकलो घर से सड़कों पर,

अपनी साँसों की धड़कन को

बेचना-बाँटना बन्द करो।

मत जियो, नाचना बन्द करो।।

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अब आप बताएं, किस की पसन्द कैसी है?