- शिवराम
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
अंधों का गीत ..... शिवराम
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
चार कदम सूरज की ओर
- शिवराम
शनिवार, 3 अक्तूबर 2009
रेत के धोरों के गान ! अलविदा .....! अलविदा ...! अलविदा ...!
- हरीश भादानी
रविवार, 13 सितंबर 2009
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ
अनवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........
(1)
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
देर रात घर आते पापा
फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...
डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...
श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...
कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...
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गुरुवार, 27 अगस्त 2009
मुन्नी पोस्ट, मुन्नी कविता, 'मम्मी इतना तो बतला दो' पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
बिस्कुट तो ले आते पापा
गोदी नहीं बिठाते पापा
मम्मी इतना तो बतला दो
कब आते, कब जाते पापा
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मंगलवार, 18 अगस्त 2009
'गीत' बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ....
बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....
दिन वो गुड़ियों के, वो बेतकल्लुफ़ जहाँ
मिलना खुल के वो और हँसना-गाना कहाँ
हाय बेफ़िक्र भोले ज़माने गए
इक झिझक बेक़दम, बेज़ुबाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....
बस ज़रा बात पर कट्टी कर लेना फिर
चट्टी उँगली भिड़ा बाथ भर लेना फिर
रूठने के मनाने के दिन खो गए
सामने उम्र की हद अयाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....
रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई .....
बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....
पढें और प्रतिक्रिया जरूर दें।
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
वर्जनाएँ अब नहीं -गीत * महेन्द्र 'नेह'
- महेन्द्र 'नेह'
लकीरें हाथ की तय हो गईँ
बुधवार, 1 जुलाई 2009
एक गीत संग्रह और दो पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण अंकों का लोकार्पण
'नवगीत'
- गजानन माधव मुक्तिबोध
मंगलवार, 23 जून 2009
संक्रमण, लालगढ़ और.... चलिए छोड़िए, आप तो गाना सुनिए....
बरसों पहले बिछाई गई पाइप लाइनें समय के साथ गलने लगीं, उन में लीकेज होने लगे। समय समय पर उन्हें बदला गया। नगर का विस्तार हुआ और आवश्यकता के अनुसार जल वितरण व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। अब पूरे नगर में उच्च जलाशय बनाए गए हैं। जिस से 24 घंटे जल वितरण को समयबद्ध जल वितरण में बदला जा सके। उन का प्रयोग भी आरंभ हो चुका है। लेकिन इस सब के बीच लाइनें लीकेज होती रहती हैं। भूमि की ऊपरी सतह में मौजूद जीवाणु युक्त जल का उस में प्रवेश भी होता ही है। हर साल प्रदूषित पानी से संबंधित बीमारियाँ भी इसी कारण से आम हैं।
मैं ठहरा अदालत का प्राणी। वहाँ पानी की उपलब्धता के अनेक रूप हैं। चाय की दुकानों पर, प्याउओं पर पानी उपलब्ध है। जहाँ जब जरूरत हो वहीं पी लो। यह कुछ मात्रा में तो प्रदूषित रहता ही है। इस से बचाव का एक ही साधन है कि आप अपने शरीर की इम्युनिटी बनाए रक्खें। वह बनी रहती है। पर कभी तो ऐसा अवसर आ ही जाता है जब इस इम्युनिटी को संक्रमण भेद ही लेता है। रविवार को एक पुस्तक के विमोचन समारोह में थे वहाँ जल पिया गया या उस से पहले ही कहीं इम्युनिटी में सेंध लग गई।
सोमवार उस की भेंट चढ़ा और मंगल भी उसी की भेंट चढ़ रहा है। लोग समझते हैं कि वकील ऐसी चीज है कि जब चाहे अदालत से गोल हो ले। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है। एक मुकदमे में नगर के दो नामी चिकित्सकों को गवाही के लिए आना था। जिन्हें लाने के लिए मैं ने और मुवक्किल ने न जाने क्या क्या पापड़ बेले थे। स्थिति न होते हुए भी अदालत गया। दोनों चिकित्सक अदालत आए भी लेकिन जज अवकाश पर थे। बयान नहीं हो सके। अब अदालत गया ही था तो बाकी मामलों में भी काम तो करना पड़ा ही।
अदालतों की हालत बहुत बुरी है। सब जानते हैं कि अदालतों की संख्या बहुत कम है। लेकिन उस के लिए आवाज उठाने की पहल कोई नहीं करता। वकीलों को यह पहल करनी चाहिए। इस से उन्हें कोई हानि नहीं अपितु लाभ हैं। पर एक व्यक्ति के बतौर वे असमंजस में रहते हैं कि इस से उन के व्यवसाय के स्वरूप पर जो प्रभाव होगा उस में वे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में टिक पाएँगे या नहीं।
भारतीय समाज वैसे भी इस सिद्धांत पर अधिक अमल करता है कि जब घड़ा भर लेगा तो अपने आप फूट लेगा। उसे लात मार कर अश्रेय क्यों भुगता जाए। लालगढ. की खबरों की बहुत चर्चा है। कोई कुछ तो कोई कुछ कहता है। सब के अपने अपने कयास हैं। लेकिन मैं जो न्याय की स्थिति को रोज गिरते देख रहा हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि जो व्यवस्था अपने पास आने वाले व्यक्ति को पच्चीस बरस चक्कर लगवा कर भी न्याय नहीं दे सकती। उस में न जाने कितने लालगढ़ उत्पन्न होते रहेंगे ?
दो दिनों से "प्यासा" फिल्म का यह गीत गुनगुना रहा हूँ। चलिए आप भी सुन लीजिए .......
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शनिवार, 20 जून 2009
हम धरती के जाए "गीत" * महेन्द्र नेह
- महेन्द्र नेह
आज तुम्हारी बारी है
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रविवार, 8 मार्च 2009
तुम्हारी जय !
अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्राकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
... महेन्द्र नेह
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
तुम्हारी जय !
तुम्हारी जय!
- महेन्द्र 'नेह'
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्रकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
- महेन्द्र नेह
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
सच कहा........
सच कहा
सच कहा
सच कहा
सच कहा
बस्तियाँ बस्तियाँ सच कहा
कारवाँ कारवाँ सच कहा
सच कहा जिंदगी के लिए
सच कहा आदमी के लिए
सच कहा आशिकी के लिए
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा और जहर पिया
सच कहा और सूली चढ़ा
सच कहा और मरना पड़ा
पीढ़ियाँ पीढ़ियाँ सच कहा
सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा फूल खिलने लगे
सच कहा यार मिलने लगे
सच कहा होठ हिलने लगे
बारिशें बारिशें सच कहा
आँधियाँ आधियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
-महेन्द्र नेह
बुधवार, 29 अक्तूबर 2008
जय जय गोरधन! गीत-हरीश भादानी
आज गोवर्धन पूजा है। इस मौके पर स्मरण हो आता है हरीश भादानी जी का गीत "जय जय गोरधन !"
हरीश भादानी राजस्थान के मरुस्थल की रेत के कवि हैं।राजस्थानी और हिन्दी में उन का समान दखल है। 11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में जन्मे । 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन किया। कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। अनौपचारिक शिक्षा, पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित। राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल" और के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है।
"जय जय गोरधन" सत्ता के अहंकार के विरुद्ध जनता का गीत है..
आँख तरेरे,
तब बाँसुरी बजे
काल का हुआ इशारा!
एक देवता
सड़कों पर रख दे
काल का हुआ इशारा!
भाव ताव कर
उठ थरपे गणपत
काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन !
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बुधवार, 6 अगस्त 2008
महेन्द्र 'नेह' का गीत .... मारे गए बबुआ
मित्र महेन्द्र 'नेह' श्रेष्ठ कवि-गीतकार तो हैं ही, पेशे से क्षति-निर्धारक, बोले तो 'सर्वेयर'। बीमा कंपनियों के लिए क्षतियों का निर्धारण करते हैं। बरसों तक मोटर दुर्घटनाओँ की क्षतियाँ आँकीं हैं। जब सड़क पर यातायात अधिक हो जाता है, तो सड़क को चौड़ा किया जाता है। यकायक सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ जाती है। इस घटना को उन्हों ने देश में आयातित वाहनों की बाढ़ के साथ गीत में बांधा। गीत प्रस्तुत है.......
- महेन्द्र 'नेह'
सड़क हुई चौड़ी
मारे गए बबुआ।
मारे गए बबुआ हो
मारे गए रमुआ......
लोहे के हाथी और लोहे के घोड़े
बेलगाम हो कर के सड़कों पे दौड़े
मची है होड़ा होडी़
मारे गए बबुआ।
नई-नई घोड़ी विलायत से आई
नए-नए रंगों की महफिल सजाई
बिदक गई घोड़ी
मारे गए बबुआ।
चंदा औ सूरज सी जोड़ी रुपहली
ज़ालिम जमाने के पहियों ने कुचली
बिगड़ गई जोड़ी
मारे गए बबुआ।
शनिवार, 8 मार्च 2008
महिलाओं पर महेन्द्र “नेह” की कविता और गीत
महेन्द्र “नेह” से आप परिचित हैं। उन के गीत “हम सब नीग्रो हैं” और "धूप की पोथी" के माध्यम से करीब दस दिनों से वे घुटने के जोड़ की टोपी (knee joint cap) के फ्रेक्चर के कारण पूरे पैर पर बंधे प्लास्टर से घर पर कैद की सजा भुगत रहे हैं। आज शाम उन से मिलने गया तो अनायास ही पूछ बैठा महिलाओं पर कविता है कोई? फिर फोल्डरों में कविताऐं तलाशी गईं। सात गीत-कविताऐं उन के यहाँ से बरामद कर लाया। एक उन के पसन्द की कविता और एक मेरी पसंद का गीत आप के लिए प्रस्तुत हैं-
महेन्द्र “नेह” की पसंद की कविता.........
आओ, आओ नदी - महेन्द्र “नेह”
अनवरत चलते चलते
ठहर झाती है जैसे कोई नदी
इस मक़ाम पर आकर ठहर गई है
इस दुनियाँ की सिरजनहार
इसे रचाने-बसाने वाली
यह औरत।
इतिहास के इस नए मोड़ पर
तमन्ना है उसकी कि लग जाऐं
तेज रफ्तार पहिए उस के पाँवों में
ले जाएं उसे धरती के ओर-छोर।
चाहत है उसकी उग आएं उसके हाथों में
पंख, और वह ले सके थाह
आसमान के काले धूसर डरावने छिद्रों की।
इच्छा है उसकी, जन्मे उसकी चेतना में
एक सूरज, पिघला दे जो
उसकी पोर-पोर में जमी बर्फ।
सपना है उसका कि
समन्दर में आत्मसात होने से पहले
वह बादल बन उमड़े-घुमड़े बरसे
और बिजली बन रचाए महा-रास
लिखे उमंगों का एक नया इतिहास
ब्रह्माण्ड के फलक पर।
इधर धरती है, जो सुन कर उस के कदमों की आहट
बिछाए बैठी है, नए ताजे फूलों की महकती चादर
आसमान है जो उस की अगवानी में बैठा है,
पलक पांवड़े बिछाए
और समन्दर है जो
उद्वेलित है, पूरे आवेग में गरजता-तरजता
आओ-आओ नदी
तुम्हीं से बना, तुम्हारा ही विस्तार हूँ मैं
तुम्हारा ही परिवर्तित सौन्दर्य
तुम्हारे ही हृदय का हाहाकार...........
मेरी पसंद का गीत................
नाचना बन्द करो - महेन्द्र “नेह”
तुम ने ही हम को बहलाया
तुम ने ही हम को फुसलाया,
तुम ने ही हम को गली-गली
चकलों-कोठों पर नचवाया।
अब आज अचानक कहते हो
मत थिरको अपने पावों पर,
अपनी किस्मत की पोथी को
अब स्वयं बाँचना बन्द करो।
मत हिलो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को दी हाला
तुम ने ही हमें दिया प्याला,
तुम ने औरत का हक छीना
हम को अप्सरा बना ड़ाला।
अब आज अचानक कहते हो
मत गाओ गीत जिन्दगी के,
मुस्कान अधर पर, हाथों में
अब हिना रचाना बन्द करो।
चुप रहो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को वरण किया
तुम ने ही सीता हरण किया,
तुम ने ही अपमानित कर के
यह भटकन का निष्क्रमण किया।
अब आज अचानक कहते हो
मत निकलो घर से सड़कों पर,
अपनी साँसों की धड़कन को
बेचना-बाँटना बन्द करो।
मत जियो, नाचना बन्द करो।।
*********
अब आप बताएं, किस की पसन्द कैसी है?