रविवार, 12 अप्रैल 2009
नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)
आज कथा यहीं तक, लेकिन आगे जारी रहेगी।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (7) : चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हो गई
लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे, उन की तासीर भी वही रही। सब से बुजुर्ग और अनुभवी गुजराती भाई को नेता चुना गया और सरकार चल निकली। इस सरकार ने बड़े बड़े काम किए। उत्तर के पड़ौसी से रिश्ते और पच्छिम के पड़ौसी से आपसी संबंध बनाए, तो आफत के वक्त हुए अत्याचारों की जाँच और गुनहगारों को सजा के लिए अधिकरण भी बनाए। इस बीच बूढ़ा अगिया बैताल बीमार हो चला। लोगों ने उस की शरम करना बंद कर दिया। लोग कपड़े उतार-उतार अपने रंगबिरंगे अन्तर्वस्त्र दिखाने लगे। चौधरी चाचा और राम बाबू, गुजराती भाई के काम काज पर गुर्राने लगे। सबूतों के अभाव में चाचा की बेटी के खिलाफ मुकदमा चलाने के मंसूबे ख्वाब होने लगे। कानूनदाओं के मुकाबले एक असहाय महिला के रूप में चाचा की बेटी के लिए जनता की सहानुभूति अँकुराने लगी। गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक तंगी के खिलाफ गुजराती भाई मजबूती से कुछ नहीं कर पाए। जनता में असंतोष उमड़ने लगा।
हे, पाठक!
इन सब से अलग लाल स्कर्ट वाली दो बहनें अलग ही खेल रही थीं। बड़ी बहन आफत काल में चाचा की बेटी के साथ थी। तो छोटी वाली बूढ़े अगिया बैताल के अगल-बगल चल रही थी, आखिर उस ने भी चाचा की बेटी के कोड़े खाए थे। चुनाव में चार परसेंट की हकदार वह भी हो गई थी। पर वह किसी तरफ न थी। उस ने पूरब और दक्खिन में तीन बड़े खंड हथिया लिए। एक तो ऐसा हथियाया कि सब ने बहुत हाथ पैर मारे पर आज तक छोड्या ही नहीं।
हे, पाठक!
ऐसे मौसम में चौधरी चाचा के हनुमान और मधु बाबू को रोज सुबह मुहँ अँधेरे वायरस पार्टी के नेताओं की निक्कर दिख जाती और वे बैचेन हो भड़क उठते। रोज दिन में झगड़ा करते कि धोती और निक्कर साथ नहीं चलेगी। आखिर ढाई साल गुजरते-गुजरते दोनों वायरस अपने जत्थे समेत अलग हो लिए। उधर चौधरी चाचा ने भी अलग ढपली बजाने का ऐलान कर दिया। गुजराती भाई ने स्तीफा दे चलते बने। बेचारी लट्ठा सरकार असमय ही चल बसी।
हे, पाठक !
एक उल्लेख पहले छोड़ आए थे, अब उस का समय आ गया है। हुआ यूँ कि चाचा की बेटी पर जो संकट आया था उस में अदालत का फैसला भी तात्कालिक कारण था, जिस ने चाचा की बेटी को चुनाव में सरकारी अमले के इस्तेमाल का दोषी करार दिया था। मुकदमा करने वाले थे, चौधरी चाचा के हनुमान। उन्हों ने ही चाचा की बेटी की लंका में आग लगाई थी। पर चाचा की बेटी रावण से भी बड़ी कूटनीतिक निकली। उस ने इस हनुमान के राम को ही कंधा दे कर कुर्सी पर जा बिठाया। चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हुई, जाट खुश हुए। आखिर जाट परधानमन्तरी हुआ। पर चाचा की बेटी ने कुर्सी पर बिठा कर कुर्सी खेंच ली। हाय! नौ माह भी पूरे न हुए, एक बार भी पंचायत न बैठी कि सरकार गिरने की नौबत आ गई। लो फिर चुनाव आ गए।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 30 मार्च 2009
चुनाव युद्ध के नियम और उन्हें तोड़ने की तैयारी : जनतन्तर-कथा (4)
जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष भी बहुत ही विवधताओं का देश बना। अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, जीवन पद्यतियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ। सब को संतुष्ट रखते हुए इसे विकास पथ पर ले चलना मेंढकों को तराजू में तौलने से भी सहस्तर गुना भीषण काम था। सब से पहली चुनौती तो थी पूरे भारतवर्ष के बड़े खंडों को एक रख पाना, एक विधान के साथ राज चलाना। पर उसे कर लिया गया। बस एक रियासत को विशेष दर्जा देना पड़ा। यह विशेष दर्जा देना ही भारतवर्ष के लिए माइग्रेन बन गया। जैसे माइग्रेन का कोई स्थाई इलाज नहीं, इस समस्या का भी कोई इलाज नहीं। बस यह करते रहो कि जब दर्द हो तब गोली खा लो, पानी पी लो और सो जाओ। दर्द सहन नही हो तो किसी ओझा-मोझा, बाबा-शाबा की शरण ले लो। अब मैं जनतंतर और चुनाव की बात पर आता हूँ। विधान के अनुसार बहुत सारे बड़े खंड बनाए थे। कुछ बाद में बन गए। इन खंडों पर खंड सरकारें राज करती हैं। भारत वर्ष इन खंडो का संघ हुआ। संघ की एक सरकार हुई। संघ को चलाने के लिए एक महापंचायत बनाई गई। इस महापंचायत के दो हिस्से हुए। ऊपर का हिस्सा खंड सभा हुआ हर खंड की आबादी के अनुपात में इस में पंच चुन कर भेजे जाते हैं। एक महासभा हुआ जिस में भारतवर्ष में आबादी के अनुपात में अनेक खेतों में बांट दिया गया है। हर खेत से एक सदस्य निचले सदन में जाता है। यह महासभा कैसे सरकार बनाती है यह मैं कल बता ही चुका हूँ।
हे, पाठक!
आज कल भारतवर्ष में इन खेतों से पंचों का चुनाव किए जाने का समय चल रहा है। बहुत ही पवित्र वेला है। वैसी ही जैसी महाभारत के पहले थी। जैसे दुर्योधन और युधिष्ठिर ने अपनी अपनी पार्टी की ओर से लड़ने को संपूर्ण भरत खंड के राजाओं और योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाया था। वैसा ही कुछ अब हो रहा है। लेकिन बहुत सारा अंतर भी है। वहाँ युद्ध दो पार्टियों में था और सारे योद्धा दो भागों में स्पष्ट रूप से बंट गए थे। यहाँ दो से अधिक पार्टियाँ हैं। योद्धा भी अनेक हैं। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि कितनी पार्टियाँ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि कौन किस ओर है? युद्ध के प्रारंभ तक कौन किस ओर रहेगा? यह भी स्पष्ट नहीं है कि युद्ध की समाप्ति पर कौन किस ओर रहेगा? सब से अनोखी बात तो यह है कि कोई भी पार्टी ऐसी दिखाई नहीं पड़ रही है कि वह युद्ध जीत ले और राज संभाले।
हे, पाठक!
यह युद्ध एक बात में महाभारत से अलग है। वहाँ युद्ध की तारीख तय नहीं थी। यहाँ युद्ध की तारीखें तय हैं कि किस-किस खेत में युद्ध कब-कब होगा? युद्ध सुबह से शाम तक कितने घंटे का होगा? सब कुछ तय है। खेतों में युद्ध समाप्त होने पर उस का नतीजा सारे युद्धों की समाप्ति तक गोपनीय रहेगा। फिर एक साथ नतीजे बताए जाएंगे। युद्ध के नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि किस किस पार्टी ने कितने कितने खेत जीते। जिस के पास सब से ज्यादा खेत होंगे वही राज संभालेगा? युद्ध के नियम तय कर दिए गए हैं। युद्ध की आचार संहिता बना दी गई है। जो भी आचार संहिता को तोड़ेगा उसे सजा दी जाएगी। लेकिन वाह रे जनतंतर तेरी महिमा! आचार संहिता तोड़ने वाले को युद्ध से वंचित नहीं किया जाएगा। वह जेल जा सकता है, पर वहाँ से भी युद्ध में शामिल रह सकता है। कई योद्धा तो ऐसे हैं कि बाहर रह कर जितना घमासान युद्ध कर सकते हैं उस से कहीं अधिक घमासान जेल में जा कर कर सकते हैं।
हे, पाठक!
जनता को भी पता है कि किसी एक पार्टी के योद्धा आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। पार्टियों के गुटों के योद्धा भी आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। फिर भी राज चलाने का निर्णय तो होगा ही। फिर जिन पार्टियों के योद्धा अधिक खेत जीतेंगे वे छोटी पार्टियों के योद्धाओं को अपने साथ लाने के लिए जुगाड़ करेंगी। तब कहीं जा कर तय होगा कि राज कौन संभालेगा? पर वह सब बाद की बातें हैं। तुम बोर हो रहे होंगे कि क्या गणित की कक्षा जैसी बोर कथा सुना डाली। पर यह जरूरी था। गणित में जो चतुर होगा वही इस चुनाव युद्ध में पार पा सकेगा।
अब समय हो चला है, इस लिए व्यथा-कथा को आज यहीं विराम ।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रविवार, 29 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे। लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली। जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा। अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं। हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है। दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची। इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....
हे कथावाचक,
जनतंतर-मनतंतर की जन्म-जन्मान्तर, युग-युगांतर कथा हमें बहुत सोहायी। सो, हे कथावाचक श्रेष्ठ, हम आगे की कथा की प्रतीक्षा में बैठे हैं.। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है जनतंतर अनंत जनतंतर कथा अनंता। अतः हे वाचकश्रेष्ठ, आप पुनः आईये और आगे की कथा सुनाईये....:-)
हम यह जानने के लिए व्याकुल हैं कि वैक्टीरिया ने ज्यादा काट-काट मचाई या वायरस ने?हे! पाठक,
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा। पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय। हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी, इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया। लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं। जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं। ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं। वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है। असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं। उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।
हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे। जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे। इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया। राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी। तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे। पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा। नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे। अब की बार इस खेल में कोई शासक नहीं आया। बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए, पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।
हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई। अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे। पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था। पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए। इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे। लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई। लोग सोचने लगे कि इन बनियों को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे। पर राज कौन करेगा? राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है। राज तो हम करते थे हम ही करेंगे। देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम। मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया। उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए। देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है। कहने लगे- हम चले तो जाएंगे, पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो। अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए। सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है। पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी। इस बीच परदेसी बनियों ने मजबूती पकड़ ली। उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा। उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये । बस फिर क्या था। बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये।
हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा। बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा। बड़ा चक्कर पड़ा उस काल। बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर? तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा। एक और बखेडा़ था। जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे। इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया। तब से वोट की प्रथा प्रचलित हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।
हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया। इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है। हर कोई वोट चाहता है। इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है। बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है। जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है। निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है। हम टिपिया रहे हैं। वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है।
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (2) : जनतन्तर-जनतन्तर का खेल देखें
अगले दिन जब अखबार देखा तो पता लगा वाकई प्रान्त के भूतपूर्व और वर्तमान मुख्यमंतरी नगर में पधारे थे, एक वायरस पार्टी का तो दूसरा बैक्टीरिया पार्टी का। बैक्टीरिया पार्टी वाला कह रहा था कि वायरस पार्टी की सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर था। उस को को फिजूलखर्ची बहुत सुहाती थी सरकार के स्तर पर भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी। नतीजा हुआ कि भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया। वायरस पार्टी के लोग ही अपनी सरकार पर पाँच हजार करोड़ का घोटाला करने के आरोप लगाते रहे। वायरस मुख्यमंतरी ने अपने चुनाव क्षेत्र के नगर में कंक्रीट की सड़कें बिछा कर विकास किया, जिस से हर गली में वायरस की कार को जाने में परेशानी न हो। लेकिन सड़कों के किनारे बनी नालियाँ सड़ती रहीं। वायरस मुख्यमंतरी प्रान्त भर में अपने बड़े-बड़े मुस्कुराते चित्रों के बच्चे को रोज एक गिलास दूध पिलाने की हिमायत करता रहा, लेकिन दारू की दुकानें इतनी खोल दीं कि पिताओं का पैसा दारू में चला गया, बच्चे का दूध कहाँ से आता? बैक्टीरिया पार्टी का ताजा मुख्य मंतरी पार्टी के प्रान्तीय अध्यक्ष को भी साथ लाया था जिस के चेहरे पर मात्र एक वोट से हार जाने की मायूसी पसरी थी। दोनों ने पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक की। अभी तक वे क्षेत्र से पार्टी का उम्मीदवार तय नहीं कर पाए थे, इस लिए घोषणा नहीं कर सकते थे। वे कार्यकर्ताओं को परख रहे थे कि किस उम्मीदवार के साथ वे सब खड़े हो सकेंगे?
हे, पाठक!
आज कल इन पार्टी वालों को एक अजीब संकट है। पार्टी जिसे अपना उम्मीदवार बनाती है, वह कुछ को पसंद आता है, ज्यादातर को नहीं। कार्यकर्ता को जिस समय उम्मीदवार का प्रचार करना होता है, उसे उसी वक्त उम्मीदवारी का विरोध करने में श्रम करना होता है। धीरे-धीरे जब गुस्सा शांत होता है, तो वे पार्टी का झंडा तो अपने घर-द्वार पर लटका देते हैं पर मन में निमोलियाँ फूटती रहती हैं। दिखाने को उम्मीदवार के काफिले में भी चलते हैं, लेकिन मन ही मन सोच रहे होते हैं कि यह हार जाए तो संकट टले। अब की बार अपने गुरू का नंबर लगे। इस संकट से बचने को बैक्टीरिया पार्टी ने नई तरकीब अपनाई। उस ने पहले कार्यकर्ताओं को प्रचार में झोंक दिया, अब उम्मीदवार की तलाश जारी है।
हे, पाठक!
वायरस पार्टी ने उम्मीदवार की घोषणा में बाजी मार ली। सरकारी दफ्तर से बिलकुल नया उम्मीदवार पकड़ निकाला। देखो! हम कैसा सुंदर उम्मीदवार आप के लिए लाए हैं। अब तक राजनीति से बिलकुल अछूता, भ्रष्ट करने वाला दाग नहीं; जैसे पार्टी उम्मीदवार के प्रचार के स्थान पर सेब बेच रही हो। यह भ्रष्ट हो ही नहीं सकता, राजनीति में था ही नहीं। पर आप सोच सकते हैं कि सरकारी दफ्तर का इंजिनियर अफसर हो, और लोगों को विश्वास हो जाए कि वह भ्रष्ट नहीं रहा होगा, यह संभव ही नहीं है। आप ही बताइए, वेश्याओं के मुहल्ले से आई किसी खूबसूरत औरत पर, जो नाज-नखरे दिखा-दिखा कर आप को रिझा रही हो, क्या कोई यह विश्वास कर सकता है क्या कि वह आप के साथ सातों वचन निभाएगी? वायरस मुख्यमंतरी अपनी पार्टी के बेदाग सेब जैसे उम्मीदवार के भव्य चुनाव कार्यालय का उद्घाटन करने पहुँचा। उद्घाटन के ठीक पहले बिजली चली गई, अंधेरा छा गया। बैक्टीरिया की नई सरकार पर षड़यंत्र कर के बिजली गुल करने के आरोप लगाए जाने लगे। बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया। इंतजार होने लगा कि बिजली आ जाए। कोई-कोई इसे अपशगुन भी कहने लगा। पर पण्डित जी बोले मुहूर्त निकला जा रहा है। वायरस मुख्यमंतरी ने अंधेरे में ही फीता काट दिया।
हे, पाठक!
यह नमूना है, उस तंत्र का जिसे जनतन्तर कहते हैं, लेकिन जो जनतन्तर है नहीं। जनतन्तर होता तो पार्टी में मेंबर बनाने की कुछ तो योग्यता होती, कुछ तो दायित्व होते? पर यहाँ तो कुछ भी नहीं। कोई आया और फारम भर गया, मेंबर हो गया। फारम भी दिखाने को भरने पड़ते हैं जिस से मेंबरशिप दिखा सकें। मेंबर को उस के बाद कोई पूछता तक नहीं, नगर पालिका मेंबर की उम्मीदवारी किसे दें यह तक उस से पूछा नहीं जाता। सब कुछ ऊपर बैठे टॉप वायरस-बैक्टीरिया ही तय कर लिया करते हैं, बरसों के मेंबर झाँकते रह जाते हैं। बिना मेंबर बने ही सेब-नाशपाती को टिकट मिल जाता है। असली जनतन्तर तो अभी सात समुंदर पार दिखता है, जहाँ पार्टी की उम्मीदवारी के लिए पहले पार्टी में काम करना पड़ता है और फिर मेंबरों के वोट तय करते हैं कि कौन उम्मीदवार होगा? जैसे बालक घर में टीचर-स्टूडेंट का खेल खेलते हैं, वैसे ही भारतवर्ष के बालिग लोग जनतंतर-जनतंतर खेल रहे हैं।
हे पाठक!
कुछ दिन यह जनतंतर-जनतंतर का खेल खेला जाएगा। इस में जनता को वोट देने को भी कहा जाएगा। लेकिन जनता किसे वोट दे? एक तरफ बैक्टीरिया तो दूसरी तरफ वायरस। ये दोनों रहेंगे तो हरारत भी होगी और बुखार भी झेलना पड़ेगा।
समय हो चला है, आज की कथा को यहीं विराम।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 20 जून 2008
इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?
वाह क्या? सीन है!
महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।
गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।
विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।
सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....
फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!
स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........
गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी, महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।
विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ, कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।
सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....
इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?
शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
कहाँ हैं दादा जी जैसे कथावाचक
शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की ‘लाइव’ कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।
मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।
मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।
उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।
प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो ‘गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।
कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।
मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?
मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट ‘वाणी का पर्स’ से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।