धरती के अंतर में
धधक रही ज्वाला के
धकियाने से निकले
गूमड़ हैं, पहाड़
मदहोश इंसानो!
जरा हौले से
चढ़ा करो इन पर
धरती पिराती है,
जब भी पक जाते हैं, गूमड़
तो फूट पड़ते हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी
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8 टिप्पणियां:
प्रकृति पर विजय की मदांधता है बस
बहुत सटीक कविता.
रामराम.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04/07/2013 के चर्चा मंच पर है
कृपया पधारें
धन्यवाद
लगता भूलों में ही यह, उम्र गुज़र जायेगी !
हिमालय को समझते, उम्र गुज़र जायेगी !
आज सब दब गए , इस दर्द के, पहाड़ तले
अब तो लगता है,रोते, उम्र गुज़र जायेगी !
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
व्यक्त क्षोभ किसका है समझो...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्रांतिकारी विचारक और संगठनकर्ता थे भगवती भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/ चर्चा मंच <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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