आज शर्मा जी नया एलईडी टीवी खरीद कर लाए हैं, मनोज ने नया लैपटॉप खरीदा है या फिर मोहता जी ने नई कार खरीदी है। जब भी इस तरह का कोई समाचार सुनने को मिलता है तो अनायास कोई भी यह प्रश्न कर उठता है। टीवी या लैपटॉप कौन सी कंपनी का लाया गया है, या कार कौन सी कंपनी की है? जैसे कंपनी का नाम पता लगते ही वस्तु की रूप-गुणादि का स्वतः ही पता लग जाएंगे। कंपनी का नाम वस्तुओं के उत्पादन के साथ अनिवार्य रूप से जु़ड़ चुका है। हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ कंपनी हमारा पीछा छोड़ती दिखाई नहीं देती, वह परछाई की तरह मनुष्य का पीछा करती है। कंपनियों का जो स्वरूप आज मनुष्य समाज में सर्व व्यापक दिखाई देता है। लगभग छह सौ बरस पहले तक वह अनजाना था। आखिर पिछले छह सौ बरस पहले ऐसा क्या हुआ कि अचानक कंपनियों का उदय हुआ और थोड़े ही काल में उन्हों ने सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमा लिया?
एक जमाना था जब मनुष्य रोज की आवश्यकताओं को रोज पूरी करता था। भोजन के लिए जंगलों की उपज एकत्र करके लाना या शिकार करना ही इस के साधन थे। लेकिन इस तरह प्राप्त भोजन इतना ही होता था कि मनुष्य की प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा कर दे। न तो शिकार को बचा कर रखा जा सकता था और न ही जंगल से संग्रह की गई वनोपज को। भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के उस जांगल युग में मनुष्य ने अपने शिकार पशुओं का व्यवहार समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उस ने अनुभव से जाना कि कुछ जानवर ऐसे हैं जिन्हें शिकार किए बिना जीवित ही काबू किया जा सकता है। उन्हें घेर कर या बांध कर रखा जा सकता है, और शिकार न मिलने के कठिन दिनों में उन का उपयोग कर क्षुधापूर्ति की जा सकती है। यह मनुष्य समाज के विकासक्रम में आगे आने वाली महत्वपूर्ण अवस्था का पूर्वरूप था। जब पशु घेर कर या बान्ध कर रखे जाने लगे तो उन की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। काबू में किए गए पशु घेरा या बन्धन तोड़ कर स्वयं स्वतंत्र हो सकते थे, अन्य हिंस्र पशु भोजन की तलाश में उन पर हमला कर सकते थे, या कोई दूसरा मानव समूह उन पर कब्जा कर सकता था। मनुष्य को अपने समूह के सदस्यों के एक भाग को भोजन संग्रह और शिकार के काम से अलग कर इन काबू किए गए पशुओं की सुरक्षा में लगाना पड़ा। भोजन संग्रह और शिकार अभी मनुष्य के मुख्य काम थे और पशु संरक्षा के काम में लगाए गए स्त्री-पुरुष समूह के वे सदस्य थे जो इस के लिए कम योग्य या अयोग्य समझे जाते थे। लेकिन पशु संरक्षा का यह काम आरंभ करते समय मनुष्य को यह अनुमान तक नहीं था कि आगे आने वाले युग में भोजन संग्रह और शिकार गौण हो जाने वाला है और उस ने पशुओं को काबू करना सीख कर जीवन यापन के लिए एक नए, उन्नत और अधिक उपयोगी साधन के विकास की नींव रख दी है।
भोजन संग्रह और शिकार युग में कभी कभी काम के दौरान दो मानव समूहों की भेंट भी हो जाती थी। यह भेंट वैसी नहीं होती थी जैसी आज दो देशों के राजनयिक या सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलों की होती है। वह अनिवार्य रूप से हिंस्र होती थी। यह हिंसा होती थी संग्रह किए जाने वाले भोजन या शिकार पर कब्जे के लिए। यह भेंट कुछ कुछ आज कल किसी क्षेत्र में अवैध व्यापार करने वाली गेंगों के बीच होने वाली गैंगवार जैसी होती होगी। जब तक एक समूह को पूरी तरह नष्ट न कर दिया जाए या क्षेत्र से बहुत दूर न खदेड़ दिया जाए, तब तक दूसरे समूह के लोगों को कत्ल कर देने का सिलसिला खत्म न होता था। पशु संरक्षा के नए काम ने इन हिंसक मुलाकातों के अंत का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब पशु संरक्षा के काम को आरंभ कर चुके समूहों को पशुओं की सार संभाल के लिए कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हो रही थी जो बन्धन में रहकर काम कर सकें। उस काल तक एक समूह को पराजित कर देने के उपरान्त पराजित समूह के सभी सदस्यों की हत्या कर देने के और शेष बचे सदस्यों को भाग जाने देने के स्थान पर बन्दी बना कर उन से काम लेना अधिक उपयोगी था। पराजित समूह के शेष बचे सदस्यों के लिए भी लड़ कर जीवन का सदा के लिए अन्त कर देने के स्थान पर बन्दी बन कर जीवन बचाए रखना अधिक उपयोगी था, उस में स्वतंत्र जीवन की आस तो थी। मानव विकास का यह मोड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसे हम मनुष्य समाज के विकासक्रम में दास युग का प्रारंभ कह सकते हैं। (क्रमशः)
11 टिप्पणियां:
हमारी विशेष आवश्यकताओं के लिये बनी विशेष कम्पनियाँ।
सुविधाओं के दास बिचारे...
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आप चलेंगे इस महाकुंभ में...?
...खींच लो जुबान उसकी।
मनुष्य कठिनाई से सुविधा की ओर यात्रा करता है और दूसरों की कीमत पर.
बहुत रुचिकर आलेख.
रोचक आलेख,जारी रखें,आभार.
दास तो हमेशा से रहे है मात्रा का फरक है
@ PRO. PAWAN K MISHRA
मिश्र जी, दास हमेशा से नहीं रहे हैं। इंसान द्वारा पशुओं पर काबू पाने के पहले तक दास अस्तित्व में नहीं थे।
आगे भी इन्तजार रहेगा।
इतिहास..मेरी रूचि का विषय..आभार इस श्रृंखला का .अगली किश्त का इंतज़ार है.
हमारा दास युग तो एक हज़ार साल पहले ही प्रारम्भ हो गया था.... भले ही बेडियों का आकार बदल गया हो :)
शुभारंभ...
इस श्रंखला का तहे दिल से स्वागत है.
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