दिसम्बर 13 को ही मेरे सहायक वकील नन्दलाल जी ने मुझे ताजा वाकया सुनाया। एक गरीब को पकड़ कर लाया गया था। उस पर आरोप था कि उस के पास से प्रतिबंधित लंबाई का धारदार चाकू बरामद हुआ है जो कि शस्त्र अधिनियम का उल्लंघन है। जैसे ही पुलिस ने मजिस्ट्रेट के पास उस की गिरफ्तारी के कागजात पेश किये गए जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया गया। जब वे अपने मुवक्किल की ओर से बोलने लगे तो मजिस्ट्रेट ने कहा कि वकील साहब जमानत ले तो ली है अब क्या कहना है। तब उन्हों ने कहा, वह तो ठीक है, पर मुलजिम कुछ कहना चाहता है उस की बात तो सुनिए। तब मजिस्ट्रेट से अभियुक्त अपनी व्यथा कहने लगा....
'साSब! मजदूरी करता हूँ, कल बहुत थक गया था, थकान से रात को नींद भी नहीं आती। पगार मिली तो एक थैली दारू पी गया। घर लौट रहा था कि दरोगा जी मिले। मुझ से रुपये मांगने लगे। रुपये उन को दे देता तो घर पर क्या देता? मैं ने मना कर दिया। दरोगा जी ने थाने में बिठा लिया। घर खबर पहुँची तो बीबी थाने पहुँची मैं ने दरोगा जी के बजाये रुपये उसे दे दिए। दरोगा जी ने चाकू का झूठा मुकदमा बना दिया।'
मजिस्ट्रेट ने वकील से कहा, आप जानते हैं मैं अभी कुछ नहीं कर सकता। मुकदमे की सुनवाई के समय इस बात को ध्यान में रखेंगे।
उधर उत्तर प्रदेश में बसपा विधायक पर बलात्कार करने का आरोप लगाने वाली दलित लड़की शीलू को विधायक द्वारा की गई चोरी की रिपोर्ट पर तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। वह महीने भर जेल में रही और विधायक मजे में खुला घूमता रहा। मामला मुख्यमंत्री की निगाह में आने और क्राइमब्रांच के अन्वेषण से बलात्कार का आरोप सही और लड़की पर चोरी का आरोप बचाव में की गई कार्यवाही पाए जाने पर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिवस पर विधायक व उस के साथियों को गिरफ्तार करने और लड़की को रिहा करने का आदेश दिया। अब विधायक तथा उस के तीन साथी जेल में हैं और लड़की को रिहा कर दिया गया है।
पीड़ित लड़की दलित थी, यदि वह दलित न हो कर सवर्ण होती तो भी क्या मायावती का निर्णय ऐसा ही होता? राज्य में कानून और व्यवस्था के लिए पुलिस, मजिस्ट्रेट और अदालतें हैं। लेकिन गलती से या जानबूझ कर गिरफ्तार निरपराध व्यक्ति को रिहा करने का आदेश सरकार तो दे सकती है लेकिन अदालत नहीं। क्या हमारी अदालतें इतनी ही मजबूर हैं कि वे प्रारंभिक स्तर पर कोई निर्णय नहीं ले सकतीं? जब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो सचमुच हमारी न्यायपालिका लाचार दिखाई पड़ने लगती है, और व्यवस्थापिका इतनी शक्तिशाली कि लोग उस की हाँ में हाँ मिलाते रहें। एक बात और कि इस मामले में शीलू भाग्यशाली निकली जो उसे महीने भर में ही राहत मिल गई लेकिन उन हजारों लोगों का क्या जो अपनी गरीबी और बेजुबानियत के कारण जेलों में यातनाएँ सह रहे हैं।
12 टिप्पणियां:
इसीलिए तो है मेरा भारत महान । न जाने कब सुध लेगा ये दुनियाँ बनाने वाला , लेगा भी या नहीं ???
ऎसी खबरे सुन पढ कर खुन खोलता हे, इअतना पढ लिख कर एक जज फ़िर से इन कमॊने नेताओ को ताकता हे, ओर सचाई जान कर भी कुछ नही कर सकता , ओर यह नेता एक फ़ोन कर के सब कुछ कर सकते हे, सच मे इसे कहते हे अंधा राज जहां जनता सिर्फ़ भाग्य के भरोसे ही हे, हम तो अरब देशो से भी गये गुजरे हे जी, जिन्हे वोट दे कर चुनते हे वो ही हमारे मालिक बन बेठते हे
हजारों लोगों का क्या जो अपनी गरीबी और बेजुबानियत के कारण जेलों में यातनाएँ सह रहे हैं।
वाकई इनके बारे में कोई नहीं सोचता..
एक ऐसी ही कम चर्चित घटना के बारे में पढ़ा था, http://yagnyawalky.blogspot.com/2010/07/blog-post.html पर, लोमहर्षक.
चेहरा देख नियम लगाने वालों की क्या कहना।
पोलिस सुधर नही सकती। असल अपराधी तो यही लोग हैं। कसूर करने वाले को शह और बेकसूर को सजा यही लोग दिलवाते हैं।
आपकी बात पढ कर लगता है हमारे न्यायालय और न्यायाधीश, कानूनों के मन्तव्य के स्थान पर उनके शब्दों के प्रति अधिक चिन्तित और सतर्क रहते हैं। ऐसा न होता तो आपको यह सब लिखने की आवश्यकता नहीं पडती।
न्यायपालिका के पास एक सबसे शक्तिशाली हथियार है issuing commission. लेकिन अफ़सोस है कि इसका इस्तेमाल न के ही बराबर किया जाता है जिसके चलते न्चायपालक बस अपने सामने प्रस्तुत तथ्यों-कथ्यों के आधार पर ही निर्णय करते रहते हैं और अपनी सीमाओं की दुहाई देते रहते हैं.
क्यों इस केस में यह नहीं होना चाहिये था कि पुलिस का केस dismiss कर दिया जाता और पुलिस को अपील फ़ाइल करनी होती व केस प्रूव करना होता, जबकि यहां ये लग रहा है कि बेचारा पकड़ा गया आदमी अपने आपको बेगुनाह साबित करने की लड़ाई लड़ रहा है. पुलिस के इस तरह के पकाए केस के पांव नहीं होते, ये केस कुछ साल चलने के बाद वैसे भी बंद ही कर दिये जाते हैं या accused का कोई वाली-वारिस न हुआ तो सज़ा सुना दी जाती है... इसीलिए शायद हम आंखों पर पट्टी बंधी न्यायमूर्ती का चित्र देखते चले आ रहे हैं
लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!
सही कह रहे हैं..
बडा आदमी फंसेगा नहीं छोटों को ऐसे बिना लिये दिये छोडने लगे तो दारोगा ने नौकरी पाने के लिये जो इनवेस्टमेंट किया है उससे केवल वेतन से रिटर्न तो होने से रहा।
प्रणाम
आलेख पढ़ा, मेरे ख्याल से न्याय और न्यापालिका 'न्यायाधीशों' के हवाले है तो फिर सवाल यह है कि न्यायाधीशों को किस खाने में डालते हैं आप ?
वे न्यायपालिका बनाम व्यवस्थापिका में से किस श्रेणी के वास्तविक अभिकर्ता माने जायें ?
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