@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अनमाप, अनियंत्रित भ्रष्टाचार के सागर में आशा की किरणें भी हैं

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

अनमाप, अनियंत्रित भ्रष्टाचार के सागर में आशा की किरणें भी हैं

ज सुबह अपने तीसरा खंबा ब्लाग की पोस्ट भ्रष्टाचार अनमाप अनियंत्रित पर आई दो टिप्पणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन में पहली टिप्पणी हमारे अजीज ब्लागर Blogger अजय कुमार झा की है। वे लिखते हैं ....

हां सर सच कहा आपने न्यायालय की ये टिप्पणी आज देश के हालत का आईना है । सबसे अहम बात ये है कि खुद न्यायपालिका मान रही है कि इस देश में आज सरकारें तक इस भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी हैं ..अब इसका निदान कभी हो पाएगा ..कहना असंभव सा लगता है । मगर यदि धीरे धीरे और कठोरता से ...प्रयास वो शीर्ष से ही शुरू किए जाएं तो जरूर स्थिति बदले न सही और बदतर तो नहीं ही होगी । आज भी कार्यालय में अपनी तेरह वर्षों के नौकरी में देखता हूं तो यही पाता हूं कि मेरी ईमानदारी का मोल सिर्फ़ मुझ तक ही है .....अन्य के लिए उसका कोई महत्व या मतलब नहीं है । मगर मैं अडिग हूं .....सोचता हूं कि कल को किसी आधिकारिक मुकाम पर होऊंगा तो फ़िर मातहातों को खासी दिक्कत आएगी मुझ से ...और फ़िर शायद किसी डडवाल के लिए मुझे भी ....किरन बेदी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए ..

मैं जानता हूँ कि आज भी न केवल न्यायालयों में अपितु सभी सरकारी कार्यालयों में बहुत लोग ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं। वे अपने कर्तव्य को ईमानदारी के साथ अंजाम देते हैं। 1978 की बात है जब मैं ने वकालत के लिए बार कौंसिल में आवेदन कर दिया था लेकिन मेरा पंजीकरण नहीं हुआ था। मैं ने अदालत में काम सीखना आरंभ कर दिया था। हमारे सीनियर के मुंशी जी को कहीं जाना था। वे मुझे दो रुपए और कुछ नकल के टिकट दे कर कह गए कि एक नकल लेनी है, दो बजे तक तैयार हो जाएगी। उस के बाद जा कर बाबू को दो रुपए दे कर नकल ले लेना। मैं दो बजे के बाद बाबू के पास पहुँचा और उसे नकल देने को कहा। उस ने नकल तैयार कर दी थी। मैं ने दो रुपए बाबू को दिए। उस ने बहुत तेज तर्रार आवाज में मुझे कहा ये दो रुपए उठा लो और मुझे कभी पैसा देने की कोशिश मत करना। शायद मुंशी मुझे सिखाना चाहता था कि यदि बाबू को दो रुपए दोगे तो आगे से उसे इस राशि का लालच रहेगा और वह औरों से पहले आप का काम करेगा। लेकिन मेरे तो सर मुंड़ाते ही ओले पड़ गए थे। मुझे भी लगा कि मैं दो रुपए दे कर एक मनुष्य को मनुष्य होने से नीचे गिरा रहा हूँ। उस दिन का दिन है कि मैं ने कभी भी किसी को इस तरह का धन देने की कोशिश नहीं की। कोटा में मुझे इस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। क्यों कि अक्सर सारा स्टाफ जानने लगा कि यह वकील पैसे नहीं देता। लेकिन जब जरूरत पड़ती है तो जान लगा देता है। वह बाबू आज परिवार न्यायालय में मुंसरिम के पद पर कार्यरत है जो कि गैर न्यायाधीश वर्ग में सब से बड़ा पद है। उस ने पूरे जीवन किसी से कोई उपहार नहीं लिया। रिश्वत तो बहुत दूर की बात है। वह इसी के लिए ख्यात है। जिस अदालत में वह नियुक्त होता है वहाँ आने वाला अफसर भी जब तक वहाँ रहता है दुरुस्त रहता है। 
मैं ने अपनी वकालत के जीवन में सब से अधिक काम कोटा के श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में किया। वहाँ कार्यरत स्टाफ में पिछले तीस वर्ष में कोई भी ऐसा नहीं रहा जिस ने किसी भी काम के लिए, किसी से पैसा लिया हो। हम लोग कहते हैं कि ऐसी अदालत बिरले ही मिलेगी। इस का एक लाभ यह भी है कि अदालत के हर कर्मचारी को सभी का सम्मान मिलता है। निश्चय ही जब व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा के साथ काम करता है तो वह मनुष्य बना रहता है और उसे वैसा ही सम्मान मिलता है।
दूसरी टिप्पणी एक पाठक श्री राजेन्द्र जी की है, वे कहते हैं .....
सर क्षमा करें आप भी इसी तालाब में जीविका यापन कर रहे हैं जहाँ अगली तारिख लेने तक के पैसे तय होते हैं -में कभी स्वयम संलग्न होने पर अच्छी तरह देख चुका हूँ जज साहब को भले ही कुछ पता न हो पर जज साहब की श्रीमती जी सीधे पेशकार से हिसाब मांग लेती हैं नहीं तो लिस्ट तो पकड़ा ही देती हैं जो जो सामान आना होता है यह चलन पूरे भारत में निर्बाध चल रहा है कुछ प्रदेश अपवाद हो सकते हैं।
राजेन्द्र जी सही कह रहे हैं। यह चलन वास्तव में पूरे भारत में चल रहा है और मेरे विचार में शायद ही कोई प्रदेश इस का अपवाद हो। लेकिन हर प्रदेश में ऐसे कर्मचारी आप को हर स्थान पर मिल जाएंगे जो भ्रष्ट नहीं हैं। और गंदे तालाब में रहते हुए भी कमल के पत्तों की तरह तालाब का पानी उन पर चिपकता तक नहीं। यही लोग भविष्य के लिए आशा की किरण हैं। यदि ये लोग एकता बनाएँ और उन्हें जन समर्थन हासिल हो तो भ्रष्टाचार दूर भागता नजर आए।Delete

11 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चिन्तनीय विषय में सार्थक चिन्तन और प्रयास।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

चिंता ज़रूर होती है पर सत्यनिष्ठा भी व्यस्न है, इसे भी दूर करना संभव नहीं है, इसीलिए स्थिति मुझे भयावह नहीं लगती.

विष्णु बैरागी ने कहा…

इस क्षण तक का मेरा व्‍यक्तिगत अनुभव है कि भले और ईमानदार लोग अधिक हैं किन्‍तु उनकी प्रशंसा तो दूर रही, उनकी चर्चा भी नहीं होती। चर्चा होती है केवल बेईमानों की,दुष्‍टों की। किन्‍तु यह सहज और स्‍वाभाविक भी है। जो 'असामान्‍य' होता है, वही चर्चा का विषय होता है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़कर!

bhuvnesh sharma ने कहा…

मुझे भी ऐसे अच्‍छे लोगों से पाला पड़ता रहता है और जब भी बात चलती है तो अक्‍सर हम लोग उनकी तारीफ करते हैं...और मुझे बेहद गर्व है कि जिस पेशे के बारे में लोग कुछ भी बोलते हैं उसमें भी मैं ऐसे लोगों से जुड़ा हुआ हूं.....
अच्‍छे लोग सब जगह पर्याप्‍त संख्‍या में हैं

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी, ईमान दारी आज भी हे लेकिन उसे द्बाया जाता हे, ओर आज चोर उच्चको, बेईमानो का बोल वाला हे,लेकिन कब तक एक ना एक दिन सच जीतेगा, आप ने बहुत अच्छा लिखा

S.M.Masoom ने कहा…

अच्‍छे लोग सब जगह पर्याप्‍त संख्‍या में हैं तभी तो यह समाज टिका है

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कोटा के श्रम न्यायालय को नमन॥

honesty project democracy ने कहा…

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की चरम पराकाष्ठ के लिए इस देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे सम्माननीय पदों तक अयोग्य लोगो का भ्रष्टाचार की बैसाखी के सहारे पहुंच जाना ही प्रमुख कारण है | आज जरूरत है ऐसे लोगों के खिलाप निडरता से पूरे देश में मुहीम चलाने की ...जिससे अयोग्य लोगों को इन सम्माननीय पदों से उतारने या उनको खुद में सुधरने के लिए बाध्य किया जा सके ...?

उम्मतें ने कहा…

अच्छी पोस्ट !

Sushil Bakliwal ने कहा…

सही है कि बेईमान और रिश्वतखोरों से चारों ओर हमारा वास्ता पड रहा है और शायद यही कारण है कि जब हम किसी ईमानदार कर्मी के संपर्क में आते हैं तो सामान्य चर्चा में अवसर मिले या न मिले किन्तु मन ही मन उस व्यक्ति की प्रशंसा अवश्य ही करते हैं ।