@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: "कुण्ठा और क्रोपाटकिन" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचदश सर्ग

रविवार, 29 अगस्त 2010

"कुण्ठा और क्रोपाटकिन" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचदश सर्ग


यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  चौदह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का पंचदश सर्ग "कुंठा और क्रोपाटकिन" प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

पंचदश सर्ग
कुंठा और क्रोपाटकिन

साम्य - शांति औ प्रगति, मनुज
जीवन में खोज रहा है
तुम कहते हो-"साम्य ?  असम्भव
ऐसा हुआ कहाँ है
और साम्य के रहते जग में
शान्ति, प्रगति है सपना
वाहियात का मनका ले कर
भ्रमित बुद्धि का जपना
बाइबिल, वेद, कुरान शांति का
स्रष्टा है, गायक है
जब तक मन की शांति नहीं है
समता मन का भ्रम है

शान्ति और साधना अलौकिक
भावों की संज्ञा है
अरे, परिग्रह--लोभी मन का
कलुष नहीं तो क्या है
साम्य वहाँ है जहाँ न्याय है
औ संन्तोष सदन है
जब होता संतोष पास तो
रंक राव के सम है

भौतिक रूप सदा छलता है
प्रज्ञा को औ मन को
स्थित-प्रज्ञ मान लोष्टवत
चलता भौतिक धन को

समता किस की ?  भौतिक सुख की ?
माया है, छलना है
अपने हाथों आग जला कर
उस में खुद जलना है" 
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सच है, अमर बेलि, परजीवी
मिट्टी को क्या जाने
ठेकेदार  भला मरघट का 
जीवन क्या पहचाने

जीवन नहीं समादृत है
आकाश वृत्ति, जप, तप से
शान्ति, प्रगति है जन्म न लेती
कब्रों से, मरघट से

संघर्षों से जो घबड़ाते
शान्ति मांगते जीवन मन की
एक व्यक्ति की शान्ति सरल है
किन्तु कठिन जन-जन की

जब न सुलझता प्रश्न देखते
दुर्बल जन घबड़ाते
भाग खड़े होते जंगल में
या कंकड़ सुलगाते

ऐसे लोग भला जीवन की
गुत्थी खोल सकेंगे ?
जिनसे जग निर्मित है, उन 
तत्वों को तौल सकेंगे

दे कर परहित स्वर्ग, स्वयं हित
रौरव मोल सकेंगे ?
जिन तन से पैदा हैं, उन के 
हित ये बोल सकेंगे

कि ज्ञान और विज्ञान ढूंढता
कारण हरदम फल का
मेधावी हल सदा ढूंढता
जीवन में पल पल का

ध्यान वस्तु से अलग हटा कर
किस का ध्यान धरोगे ?
भाव तत्व से अलग हटा कर
बोलो, कहाँ धरोगे ?

बात अलौकिकता की करने
वाला भी लौकिक है
हीत न्याय में हम-तुम दोनों
चप्पू औ नाविक है
अपरा--परा ब्रह्म की बातें मूरख-रूढ़-शून्य का रोना
व्यक्ति-शास्त्र के शब्द-शब्द पर अब बेकार समय है खोना

2
देती है आवाज जवानी
वीरो, आँखें खोलो ?
होती है कुर्बान जवानी
क्रान्ति अमर हो - बोलो !
उठो, मौत के परकालो,
शेरो-दीवानों, जागो !
बढ़ो, ध्वंस, विस्फोट, प्रलय
अल्हड़ मस्तानो, जागो ?

प्रीत निभाना भूल गई है जुल्मी की सन्तान
इधर बराबर रहे चूमते मौत मजूर-किसान
किन्तु निशा का अन्त कहाँ
हड्डी की जला मशाल !
मादक हाय, बसन्त कहाँ
जाँबाजो ठोको ताल !
आग लगा दो पानी में पत्थर पर दूब जमा दो
परवानो ! इजहार मुहब्बत का तुम आज बयाँ दो
ऋतुपति का सिंहासन दौड़ो, छीन स्वर्ग से ला दो
हँसिये और हथौड़े से तुम दुनिया नई बसा दो
फोड़ो इन्कलाब के गोले
उठ कर दो आवाज
धधक रहे अंगारे जग में
आज करेंगे राज
आज रूढ़ियाँ टूट जायँ
हो जाएँ वे बर्बाद
ताकत है हम में, फिर इस को
कर लेंगे आबाद
बहली गाएँ पोस-पोस कर पण्डित जी सकते हैं
पर, मिहनतकश हम तो उस का दूध न पी सकते हैं

तेरे श्रम को चुरा-चुरा कर वे लाख बनाते आए
नई सभ्यता के उस ने मन लायक महल उठाए

तेरता हुआ मजार किसी के
महलों का आधार
तेरा प्यार हुआ कातिल के
लड़कों का खिलवाड़
तेरा हुआ दुआर, गाँव के 
बाबू का दरबार
तेरा हुआ बथान अभागे
सरकारी घुड़सार
फिर भी खुद को छलता है तू
कह कर बारंबार--
देते कर इसलिए कि हम हैं
जग के पालनहार  ?

दूर-दूर हो कायर दर्शन   गणित क्लीव, बेकार
उन की जीत हुई है रण में   और तुम्हारी हार
स्वार्थ, ऐक्य, पुरुषार्थ वर्ग का   देता उस को जीत
प्रतिद्वन्द्वी निरुपाय वहाँ तब   गाता ऐसे गीत

साधनहीन सदा सपनों से   मन बहलाता है
धर्म, भाग्य, परलोक रचाकर   दुख बिसराता है
निर्बल के बल राम-नाम   सिद्धान्त बताता है
भूल जाय वह कैसे खुद को   सोच न पाता है
जाता छोड़ भाग तब दुनिया   राख रमाता है
या भट्टी के दरवाजे पर    शोर मचाता है
हार जीत के पहलू
उठो, बढ़ो, संग्राम करो
लड़कर लो बदला दुश्मन से
बन्द मिलों का काम करो
सोना हो, ब्रेगन की गोली पर जाकर आराम करो
या प्रतिद्वन्द्वी पूँजीपतियों का तुम काम तमाम करो
क्रान्ति करो, विद्रोह करो
विद्रोही को सरदार  !
बढ़ो किसानो लेकर बर्छे
करो जमीं पर मार !
उठो, खान के मजदूरो
हड़ताल करो हड़ताल !
 छीन न पाओ अगर उन्हें तो 
बनो ध्वंस विकराल !
छीन दूसरों की जो सत्ता अपना पैर जमाता
 मार उसे वापस ले लेना हक क्या पाप कहाता
कौन पेट से जनमा ले कर धरती, अम्बर, सागर
हाँ, वह होता सुखी श्रमिक है फल श्रम का पा-पा कर
फिर यह कैसा मत्स्य न्याय रे, मिहनतवान दुखी क्यों ?
नालायक बेटे धनियों के बोलो, पुष्ट सुखी क्यों ?
या तो वे डाकू है कोई, या कि चोर के जाये ?
नीच लेखकों या कवियों ने क्यों उन के गुण गाये ?
निश्चय होंगे वे हराम के माल बँटाने वाले
चाँदी को टुकड़ों पर कुत्ते, कलम चलाने वाले
तो गद्दारों की गद्दारी का उत्तर शूली है
शोषक के पापों की दरिया उमड़ी-फूली है
जाग, जाग और तरुण किशोरी, बाल-वृद्ध-जवान !
खोलो सीना, बांधो कफनी, ले लो लाल निशान !
आओ खूँ से रंग कर अपने झंडे लाल बनाएँ
मिहनतकश की दुनिया होगी, आओ कसमें खाएँ

5 टिप्‍पणियां:

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

यादवचन्द्र जी विद्रोह की परंपरा को क्या खूब निभा रहे हैं...युगों से गुजरते...

गुजरना हमारा भी आपके जरिए...

राज भाटिय़ा ने कहा…

छीन दूसरों की जो सत्ता अपना पैर जमाता
मार उसे वापस ले लेना हक क्या पाप कहाता
बहुत सुंदर रचनाये लगी जी धन्यवाद

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कविता में प्रवाह है, ओज है, विद्रोह है।

उम्मतें ने कहा…

उनको पढ़ना अच्छा लगता है !

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रभावशाली रचनायें हैं इन्हें पढवाने के लिये धन्यवाद।