पेड़ों पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी। हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को नहीं मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है।
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।
फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का तृतीयांश
13 टिप्पणियां:
रोचक जानकारी से भरपूर पोस्ट / उम्दा प्रस्तुती /
जबर्दस्त पोस्ट-जानकारी भरी.
चोखी पोस्ट,
भगवान परशुराम जयंती की घणी घणी बधाई सा।
आपकी यह श्रृंखला बहुत अच्छी चल रही है। नियमित पढ़ता हूँ और प्रतीक्षा करता हूँ अगली पोस्ट की। मेरे लिए तो बहुत सी जानकारी ऐसी नई नहीं है, मगर हिन्दी में, इतनी संक्षेप में होते हुए भी स्पष्ट और सारगर्भित, वह भी ब्लॉग पर, वाह!
मैं इसी तरह के लेखन की बात कर रहा था जब मैंने लिखा था कि हिन्दी ब्लॉग-जगत को स्तरीय सार्थक लेखन चाहिए।
और हाँ, आपकी विधि विषय सम्बन्धी श्रृंखला तो ख़ैर लाजवाब है ही। अनुपम!
बधाई और सार्थक लेखन की आशा में,
शुभेच्छु
सामयिक व लोकोपयोगी ।
बहुत जम रही है प्रागैतिहासिक बातचीत।
यह विषय पहले अंग्रेजी में निपटाये थे । रुचिकर हिन्दी में पहली बार पढ़ रहा हूँ । आनन्द आ रहा है ।
बेहद जरुरी विचार श्रृंखला ...
बहुत अच्छी जानकारी जी
उस समय वनस्पतियाँ और आहार कम थे इस लिये nar को मांसाहार की तरफ आकृष्ट होना पडा
लेकिन मैं आपकी इस बात से भी सहमत नहीं हूँ कि मांसाहार ही बुद्धि को अधिक तेज बनाता है
क्योंकि मेरे शोध का क्षेत्र इसी से सम्बंधित है
@alka sarwat
आप की बात में दम हो सकता है। यह पुस्तिका फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1876 में लिखी थी। उस के बाद यदि कोई तथ्य वैज्ञानिक रूप से सिद्ध होता है तो संशोधन की पूरी गुंजाइश है। स्वयं एंगेल्स और मार्क्स भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध तथ्यों के आधार पर सदैव स्वयं की स्थापनाओं को संशोधित करने को तैयार रहते थे। वैसे इस पुस्तिका का महत्व इस बात में है कि वानर से नर में परिवर्तन के लिए श्रम की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है।
अलका जी अभी के परिप्रेक्ष्य में अपना शोध कार्य कर रही हैं, जहां आज की बनी बनाई परिपाटियों को जिस भी चश्में से चाहे देखने और तदअनुकूल निष्कर्ष निकालने की पूरी गुंजाईश मौजूद है।
एक बार क्रम-विकास संपन्न होने के बाद प्राप्त अपने शरीर और मस्तिष्क को मनुष्य अपनी मान्यताओं और चेतना के स्तर के अनुरूप जैसा भी चाहे तात्कालिक रूप से जिस ओर ले जाना चाहे ले जा सकता है। आगे की कई चीज़े इससे तय होने वाली होंगी।
एंगेल्स की यह बात मनुष्य नाम के शुरूआती प्राणी रूप जिसके भी कई नृजाति नाम सुस्थापित किये जा चुके हैं, से भी पूर्व की अवस्थाओं पर बात कर रहे हैं।
और यदि इस क्रम-विकास का सुचारू अध्ययन किया जाए तो यह पता चल ही जाएगा कि यह एक वैज्ञानिक रूप से सुस्थापित तथ्य है कि बिना इस प्रक्रिया (यानि मांसाहार) और इससे जुड़ी श्रम-सक्रियताओं और शारीरिक-मानसिक चुनौतियों के मानव नाम का आधुनिक प्राणी अस्तित्व में आया ही नहीं होता।
चेतना का अस्तित्व ही संभव नहीं हुआ होता, जिसको अपने हिसाब से मनचाही काल्पनिक उडान देकर आज मनुष्य कुछ भी सोचने और सिद्ध करने में लगा रहता है।
बात जरूरी लगी, और स्वंतंत्र चेता मानवश्रेष्ठों के लिए काम की हो सकती है इसलिए रख दी गई है।
मनुष्य अपनी मान्यताओं के लिए स्वतंत्र हैं ही।
शुक्रिया।
आपके ब्लॉग के बहाने ये पढना हो जा रहा है किस्तों में... वर्ना तो किताबें धरी ही रह जाती हैं.
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