@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: परंपरा और विद्रोह: प्रथम सर्ग "धऱती माता" (उत्तरार्ध) .... यादवचंद्र

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

परंपरा और विद्रोह: प्रथम सर्ग "धऱती माता" (उत्तरार्ध) .... यादवचंद्र

यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के प्रथम सर्ग "धऱती माता" का पूर्वार्ध पिछले अंक में प्रस्तुत किया गया था, जिस में "विश्व के उद्भव से पृथ्वी के जन्म" तक का वर्णन था। इस काव्यांश को जिस ने पढ़ा वह अभिभूत हुआ और उसे सराहा। यादवचंद्र जी का सारा काव्य है ही ऐसा कि पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाता है। इस बार पढ़िए इसी के प्रथम सर्ग  "धऱती माता" का उत्तरार्ध, जिस में उन्हों ने पृथ्वी पर जीवन के विकास और मनुष्य के जन्म तक के विकास को प्रस्तुत किया है। 

परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र * 

प्रथम सर्ग
धऱती माता
(उत्तरार्ध)

हिम युग का प्रारंभ यही रे
कहीं ताप का नाम नहीं रे
शांत स्निग्ध धरती के हिय में
करुणा की मधु धार बही रे

स्निग्ध दिशाएँ, स्निग्ध गगन है
स्निग्ध धरा का चञ्चल मन है
कोटि-कोटि युग-युग तक धरती
में न कहीं कुछ भी कम्पन है

खोए मन की प्यास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो।

आओ आज कराएँ तुम को
प्रथम-प्रथम मिट्टी के दर्शन
लो माँ धरती के आंगन में
खुले तत्व के दिव्यालोचन

जल-काई जिस से परिणत हो
हुए प्रस्तरीभूत जन्तु गण
सांघातिक सागर लहरों में
उन्हें चाहिए घना आवरण

इसी प्रयोजन को ले उन के
हुए रूप में फिर परिवर्तन
कौड़ी, घोंघे, और केंकड़े
आते मानव के पुरखे बन

ये सब छोटे-छोटे प्राणी
जल के भीतर करते शासन
भूमि और जलवायु बदल कर
दिशा-खोलते उन के लोचन


घड़ियालों के वंशज को ले
ढोल, नगाड़े, सिंघा बाजे
मत्स्यरूप भगवान स्वर्ग से
अंडा फोड़ धरा पर भागे

दल-दल ऊपर नील गगन की
शोभा ले फैली हरियाली
नील सिन्धु की लहर लहर कर
नाच रही तितली मतवाली

जल-थलचारी अण्डज, पिण्डज
बनने की करते तैयारी
और निरंतर प्रलय-सृजन की
ताल ठोकते बारी बारी

युग पर युग की तह लगती है
धरती धधक बर्फ बन जाती
सरीसृपों की फिर दुनिया में
भीम भयावह काया आती

क्रम से क्रम की राशि न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो

और धरा-गति-जन्य सत्व है
गरमी बन कर बर्फ गलाता
एक व्यवस्थित मौसम का क्रम
हिम सेवित धरती पर लाता

धरती सूर्य-पिण्ड के चारों-
और लगाती जाती चक्कर
और इधर संतुलन कार्य-
कर रहा सत्व सर्दी के ऊपर

जो भू-भाग सूर्य के आगे
आते हैं, गर्मी हैं पाते
औ, बेचारे दूर पड़े जो
सिसक-सिसक हिमवत हो जाते

सुखद, सलोने मौसम में हैं
लता-गुल्म-पौधे लहराते
जिनके फल-फूलों को खा कर
बन्दर होली रोज मनाते

कहीं लता-गुल्मों में बच्चों-
को माता स्तनपान कराती
देख जिसे बनमानुष की है
फूली नहीं समाती छाती

दूध, नेह निर्ब्याज जननि ने
किया पुत्र को जैसे अर्पण
भाव-देश में चुपके-चुपके
अहा, उतर आया जीवन

बुद-बुद व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन
का जागा सामूहिक यौवन
यूथ, समाज कि देश-विदेशों
में होते अगणित परिवर्तन

मंजिल पर मंजिल पर मंजिल
मंजिल मार रहा बन-मानव
पर, उस के आकार रूप में
कैसा यह घनघोर पराभव

कौन, अरे तू कौन खड़ा है?
किस की है तू बदली काया?
स्वजन संग प्रस्तर आयुध ले
किस ने युग पर हाथ उठाया?

'मैं मानव हूँ प्रस्तर युग का
मुझे जिन्दगी की अभिलाषा'
पौरूष चीख-चीख कर उस का
पटक रहा है जीवन-पासा

'पट-चित हार-जीत का कारण
हाय, समझ में बात न आती
मेरे खूँ से कौन गगन में
अपनी जुड़ा रहा है छाती !

देव-शक्ति विश्वेतर कोई ?
नहीं, नहीं, यह भ्रम है मन का'
पर इस से क्या (?) जाग मनुज का
स्वार्थ हड़पने भाग स्वजन का

वर्ण, जाति, उपजाति, देश की
भृकुटी में चल पड़ते देखो
स्वार्थ मनुज का बँटा वर्ग में
वर्ग-वर्ग को लड़ते देखो

वेद, शास्त्र, आचार, नीति की
ईंट उसे फिर गढ़ते देखो
नाना रूप, रंग, परिभाषा
में तुम उस को बढ़ते देखो


धरती के बेटों को, धरती
को क्षत-विक्षत करते देखो
निज अंगों को काट मनुज का
पुनः उदर निज भरते देखो

हिरण्याक्ष-अभियान धऱा का
धरणी को लेकर बढ़ता है
दशकन्धर-उत्थान धरा का
देख, त्रिदिव का भ्रम हरता है

इधर वर्ग का स्वार्थ राम के
रा्ज्य बीच कोई गढ़ता है
ब्रह्मा का फिर सीस भुजा से
कुरुक्षेत्र का रण रचता है

मेरा यह परिहास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो।


प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'धऱती माता' नाम का प्रथम सर्ग समाप्त
(क्रमशः)

13 टिप्‍पणियां:

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत लाजवाब पोस्ट, आभार आपका.

रामराम.

अमिताभ मीत ने कहा…

कमाल है भाई. इस लेखन पर मैं भला क्या कहूँगा ??

मुग्ध हूँ ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पढ़कर कामायनी की याद आ गयी ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर विवरण ओर सुंदर चित्रो समेत सुंदर कविताये, बहुत अच्छी जानकारी दी धन्यवाद

उम्मतें ने कहा…

विचार और चित्रों के संयोजन को अदभुत कह सकता हूँ !

Anita kumar ने कहा…

बहुत अच्छा लग रहा है इस काव्य को पढ़ना। आप बस सुनाते जाइए। आभार

Satish Saxena ने कहा…

वाकई में लाजबाब ! मेरे जैसे विद्यार्थी के लिए बहुत खास ! शुभकामनायें द्विवेदी जी !

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति,सुंदर रचना,आभार.

Arvind Mishra ने कहा…

जबरदस्त -ज्ञान की सर्वागींन काव्य प्रस्तुति !और आपके सटीक चित्र संयोजन ने मानो चार चाद लगाया है !

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

सृष्टि और जीवन की उत्पत्ति का लोम हर्षक वर्णन [ चित्रण], प्रसव-वेदना सा दर्द, उत्साह, उल्लास लिए हुए. काव्यात्मक,भावनात्मक होते हुए भी उत्कृष्ट तथ्यात्मक प्रस्तुति. अनवरत के माध्यम से यह अनमोल भेंट सदेव स्मरणीय रहेगी. हिंदी साहित्य और हिंदी ब्लाग जगत आपका और स्व. यादवचन्द्र जी का कृतझ रहेगा. चित्रों का चयन और यथा स्थान समावेश के लिए आपकी कल्पना शक्ति प्रशंसनीय है. बहुत बहुत बधाई, अगली कड़ियों का इंतज़ार रहेगा.
--
mansoorali hashmi

बेनामी ने कहा…

बहुत ही समसामयिक श्रृंखला प्रस्तुति...
अभी के घटाघोप में इससे गुजरना, वाकई विचारोत्तेजक रहेगा...

बाबा यादवचन्द्र...लाजवाब...

Himanshu Pandey ने कहा…

एक सशक्त रचना से साक्षात्कार हो रहा है हमारा !
आभार ।

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

प्रथम भाग जैसा ही सशक्त । ऐसा सुन्दर काव्य प्रस्तुत करने के लिए आप बधाई के पात्र हैं । अगली कड़ियों का इन्तजार रहेगा ।