@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: दिमाग पर स्पेस का संकट

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

15 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत स्पेस घेरकर गुडनाइट किया है जी!

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी आप तो बहुत हिम्मत वाले है, यह मेने देखा है, इस लिये चार पांच मुकदमे भी आप को नही थका सकते, बेटे को जरुर कोई स्थान मिल जायेगा. शुभ रात्रि.

शरद कोकास ने कहा…

द्विवेदी जी , हमने मनुष्य का जन्म जब लिया हमारे जीवन का एक क्रम उसी समय निर्धारित कर दिया गया । हम सभी उसी निर्धारित क्रम के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं और एक दिन इस दुनिया को विदा कह देते हैं । लेकिन हम जैसे कुछ लोग होते ही हैं जो इस निर्धारित क्रम के बीच भी कुछ स्पेस ढूँढ ही लेते हैं और अपना होना सार्थक करते हैं । अब जिस स्थिति का आपने बखान किया है वह एक तात्कालिक स्थिति है और जीवन क्रम में ज़रूरी है । मुझे अपने गुरु कवि भगवत रावत की एक बात याद आ रही है वे कहते थे " यदि कविता लिखते समय मेरी बच्ची दूध के लिये रो रही है तो मैं कविता लिखना बन्द कर सबसे पहले उसके लिये दूध की व्यवस्था करूंगा ।"इस बात से भला कौन असहमत हो सकता है ?
चलिये ...शुभरात्रि कहें ।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

bas 2 mahine pahle hi mere 3re numbr ke bhatije ko बंगलूरू me job mili hai. aur vah baccha itna sadagipurn hai ki usne apne sallaray ka adhikansh hissa kal hi apne mom dad ko bhijwaya aisi jankari, kal rat 2 baje mujhe mere 3re nmbr k bhatije ne di.
to mai ummeed karta hu ki aapke balak ko bhi jyada job hunting ke loche se na gujarna pade, use jald hi job mil jaye isi shubhkamnao ke sath

Udan Tashtari ने कहा…

थकी स्पेस में भी काफी जगह निकल आई..अब सुबह उठकर फ्रेश वाली स्पेस देखने के लिए वर्जिश में लग जाते हैं...शुभकामनाएँ (खुद को)

M VERMA ने कहा…

स्पेश तो अब 'स्पेश' में भी नही है.

Abhishek Ojha ने कहा…

कई बार स्पेस ना होने पर बड़ी क्रिएटिव बातें निकल आती हैं !

Arvind Mishra ने कहा…

आराम करिए फिर बात करते हैं

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब लिपियाँ और प्रतिलिपियाँ स्पेस हथिया ले तो जिन्दगी की पेस कम हो जाती है । शीघ्र उबरिये ।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो।

आप शायद सही सोच रहे हैं.

रामराम.

सुशीला पुरी ने कहा…

सुंदर लिखा आपने .........'जगहें 'बन ही जाती हैं .

अजय कुमार झा ने कहा…

हा हा हा सर दिमाग को तो स्पेस मिल भी जाए मगर कम्बख्त जब से ये कंप्यूटर लिया है उंगलियां भी स्पेस मांग रही हैं कह रही हैं ...सोच रही हैं ..हाय अभी ये हाल है तो रिटायरमेंट के बाद सोचो अपनी कैसी हालत होने वाली है
अजय कुमार झा

विष्णु बैरागी ने कहा…

चलिए। अब तक तो आपने खूब आराम भी कर लिया होगा और भरपूर स्‍पेस भी प्राप्‍त कर ली होगी।
अब आप भी ताजा दम और हम पढनेवाले भी ताजा दम।
आपकी पोस्‍ट की प्रतीक्षा है।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

दिनेश जी माफ़ कीजियेगा पर कम से कम मैं आपसे लगातार गम्भीर मुद्दों पर हस्तक्षेप की उमीद करता हूं।

Satish Saxena ने कहा…

मुझे लगता है की दिमाग कभी नहीं थकता जबकि हम खुद उसे ऐसा करने का सुझाव न दें !
और आपके पास तो स्पेशल स्पेस है भाई जी ! ;-)