मीडिया समाचारों के मंतव्यों को बदलता है, यह बात अब छुपी हुई नहीं रह गई है। वह समाचारों को अपने हिसाब से लिखता है जिस से एक विशेष प्रतिक्रिया हो और उस खबर को खास तौर पर पढ़ा जाए। उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहता कि इस प्रकार वह समाज में क्षोभ भी उत्पन्न कर सकता है। अदालती समाचारों को कवर करते समय वह इस बात का भी ध्यान नहीं रखता है कि इस तरह न्यायालय की अवमानना भी वह कर रहा है। हाथ कंगन को आरसी क्या। खुद एक समाचार को पढ़ लीजिए जो विभिन्न समाचार पत्रों और उन के नैट संस्करणों में पिछले दिनों छपा है। यहाँ शीर्षक और लिंक दिए गए हैं। आप चाहें तो उन के मूल स्रोत पर जा कर पूरा समाचार पढ़ सकते हैं।
- Muslim Govt employee's second marriage illegal: Supreme Court Daily Pioneer - 31-01-2010
A ruling by the Supreme Court, upholding as illegal the second marriage by a Muslim employee of Rajasthan Government without divorcing first wife, has ...
- Muslim fora criticise SC ruling over second marriage Press Trust of India
- SC upholds Muslim cop's dismissal for two wives Times of India
Examiner.com -03-02-2010
The Indian Supreme Court ruled that a government employee, who happens to be Muslim, could not legally marry his second wife without divorcing the first ...
बीबीसी हिन्दी - 29-01-2010
अदालत में लियाक़त अली ने कहा कि उन्होंने पहली पत्नी फ़रीदा ख़ातून से मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक़ लेने के बाद मक़सूद ख़ातून से दूसरा निकाह किया था. लेकिन सरकार की ओर से अदालत को बताया गया कि इस मामले में जाँच समिति ने पाया कि लियाक़त अली ने पहली पत्नी से बिना तलाक़ लिए ही दूसरा विवाह कर लिया और ऐसा करके सरकारी कर्मचारियों के लिए बने नियमों का उल्लंघन किया है. सरकारी वकील अमित भंडारी ने अदालत को बताया कि राजस्थान सर्विस ...
IBNKhabar - 29-01-2010
जयपुर। मुस्लिम समाज में एक से अधिक विवाह की बात को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। यह बहस तब शुरू हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के एक कर्मचारी लियाक़त अली को पहली पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करने पर नौकरी से निकालने के सरकार के फैसले को उचित ठहराया। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें ये कहा गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी एक पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकती। ...
दैनिक भास्कर - 29-01-2010
जयपुर. सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार के उस फैसले को सही करार दिया है, जिसमें एक मुस्लिम कर्मचारी लियाकत अली को दूसरी शादी करने की वजह से नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि पहली पत्नी के रहते कोई भी सरकारी कर्मचारी दूसरा विवाह नहीं कर सकता। अगर कोई लोकसेवक ऐसा करता है तो उसे सरकारी नौकरी से बर्खास्त करना उचित है। राज्य सरकार की ओर से शुक्रवार को यहां बताया गया कि ...
(यहाँ सभी लिंक गूगल समाचार से प्राप्त किए गए हैं)
यह समाचार इस तरह था कि एक कांस्टेबल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए तथा एक पत्नी के होते हुए भी दूसरा विवाह कर लिया। यह कांस्टेबल मुस्लिम था इस कारण से उस का यह दूसरा विवाह कानूनी तो था। लेकिन दूसरा विवाह कर के उस ने अपनी नौकरी की शर्त को भंग कर दिया। नौकरी की शर्त यह थी कि कोई भी सरकारी कर्मचारी बिना अनुमति के दूसरा विवाह नहीं कर सकता। इस तरह शर्त को भंग करना नौकरी में एक दुराचरण था। जिस के लिए उसे आरोप पत्र दिया गया और आरोप सही सिद्ध होने पर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। उस ने न्यायालय में बर्खास्तगी के इस आदेश को चुनौती दी। राजस्थान उच्च न्यायालय ने बर्खास्तगी को उचित माना। कर्मचारी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील प्रस्तुत की जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील स्वीकार न करने के समाचार को कुछ समाचार पत्रों ने इस तरह प्रकाशित किया कि मुस्लिम सरकारी कर्मचारी द्वारा एक पत्नी के होते दूसरा विवाह अवैध है। जब कि यह बात सिरे से गलत थी। लेकिन इस तरह समाचार प्रकाशित कर समाचार पत्रों ने जहाँ मुस्लिम समुदाय में उत्तेजना पैदा की वहीं उन के विरोधियों और समान नागरिक संहिता के समर्थकों को प्रसन्नता से उत्तेजित होने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम देखते हैं कि आज पत्रकारिता किस तरह उत्तेजना उत्पन्न करने का यत्न करती है। यह तो देश में अदालतें जरूरत की एक चौथाई हैं दस लाख की आबादी पर केवल 11-12 मात्र, और ऊंची अदालतों के पास भी बहुत काम है जिस से वे इन घटनाओं की ओर ध्यान नहीं दे पाती हैं। यदि यही घटना अमरीका जैसे देश में घटी होती जहाँ दस लाख की जनसंख्या पर 111 अदालतें हैं, तो इन अखबारों के संपादकों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस मिल चुके होते।
यहाँ मेरा मंतव्य केवल समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग की ओर इशारा करना था। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय किसी भी प्रकार से मुस्लिम पर्सनल लॉ के विरुद्ध नहीं है, इस पर मैं तीसरा खंबा में लिखूंगा। वहाँ इस मामले से संबंधित एक प्रश्न भी मुझे मिला हुआ है।
10 टिप्पणियां:
क्या इन चैनल वालों के खिलाफ सरकार भी कुछ नही कर सकती? जब तक इन पर कहीं से भी कोई कडी कार्यवाई नही होगी इनका ये धन्धा ऐसे ही चलता रहेगा। इस समाचार के साथ साथ बहुत अच्छी जानकारी भी मिल गयी। अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा धन्यवाद्
मुद्दा यह है कि सेकुलर (?) देश में मुस्लिम को एकाधिक बीवी पर सरकारी नौकरी की शर्त क्यों लादी जाये।
जैसे मुस्लिम को दाढ़ी रखने पर सेना से निकाले जाने का बवाल मचता है, वैसी बात।
मीडिया सही कैश कर रहा है! :-)
जब हाथी ही निरंकुश हो जाए और महावत भाग जाए तो कोई क्या करे..
जहां वर्षों तक केस चलना हो,मनचाही तिथियां बढ़वाई जा सकें,फिर ऊंची अदालतों में अपील दर अपील की गुंजायश भी हो तो कौन डरेगा अदालतों से ! रही बात मीडिया की तो उसे तात्कालिक व्यावसायिक हित ही तो देखना हैं ! व्यवसाय के लिए नैतिकता / अदालतों का सम्मान / स्वच्छ पत्रकारिता किस चिड़िया का नाम हुए ?
आप सही कह रहे हैं,सहमत.
यह सही है कि मीडिया के बेलगाम होने पर लोकतांत्रिक समाज को चिंतित होना चाहिए पर अब समय आ गया है कि न्यायपालिका को होली काउ समझना बंद किया जाए खासतौर पर इस अवमानना के डंडे को फटकारना बंद होना जरूरी है...कौन सा अखबार की मान्यता कानूनी तौर पर बाध्यकारी है... कहने दीजिए...अगले किसी मुकदमे में कोर्ट अपने फैसले में कानूनी स्थिति को साफ कर देगा। मीडिया और समाज यदि इस मामले का उपयोग कानून में धर्म के आधार पर गैरबराबरी पर बहस के लिए करना चाहता है तो इसका स्वागत भी होना चाहिए।
अमरीकी अदालतें क्या वाकई ऐसे रूटीनली मीडिया को अवमानना की सजाएं देती रही है ? अमरीकी समाज लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर इतना सचेत है कि मुझे शक है कि वो दिनाकरनों चिहुँकनें को इतना भाव देती होगा।
काजलकुमार जी सही कह रहे हैं.
रामराम.
मीडिया का मनमानापन समाज के लिए घातक है ...
हमे आँख खोलकर रहने की जरुरत है .
@ मसिजीवी
न तो न्यायपालिका अब पवित्र गाय रह गई है न समझी जा रही है। धर्म के आधार पर गैर बराबरी की बहस भी चलनी चाहिए। मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा है मिसरिपोर्टिंग का। जब अखबार यह कहता है कि अदालत ने माना है कि मुस्लिम सरकारी कर्मचारी द्वारा दूसरी शादी करना गैर कानूनी है। क्या एक तथ्य को गलत रूप से रिपोर्ट करना उचित है केवल इस लिए कि सनसनी फैलाई जाए? क्या अदालत के मुहँ में अपने शब्द ठूंस दिए जाएँ तो वह अवमानना के लिए नोटिस भी नहीं दे? और क्या मिसरपोर्टिंग की छूट होनी चाहिए?
मीडिया में नए पत्रकारों की जो फौज आई है, उसके अधकचरे ज्ञान के कारण बहुत सी बाते हो रही है। बहुत सी ऐसी बातें है जो नहीं लिखनी चाहिए, लिखी दी जाती है। यहां तो बड़े-बड़े अखबार वाले बलात्कार के मामले में पीडि़त युवती का नाम तक प्रकाशित कर देते हैं। मीडिया को इस बात से आज मतलब ही नहीं रह गया है कि उसकी खबर से क्या हो सकता है।
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