कल जब अदालत पहुँचने को ही था तो सरकिट हाउस के कोर्नर पर ही पुलिस वाला वाहनों को डायवर्ट करता नजर आया। आगे भीड़ जमा थी। मैं भीड़ तक पहुँचा तो वहाँ अदालत परिसर में प्रवेश करने वाला गेट बंद था। बाहर वकीलों और जनता का जमाव था। मैं अपनी कार को वहीं घुमा कर, एक चक्कर लगा कर दूसरे गेट तक पहुँचा। वहाँ भी वही आलम था। गेट बंद था, उस पर संघर्ष समिति का बैनर टंगा था और फिर शामियाने के नीचे दरियाँ बिछा कर वकील और हाईकोर्ट बैंच खोले जाने वाले आंदोलन के समर्थक बैठे थे। दोनों गेटों के बीच सड़क पर लोग फैले हुए थे। एक चकरी वाला गेट चालू था उस के सामने नौजवान वकीलों का जमावड़ा था वे किसी वकील, मुंशी और टाइपिस्ट को अंदर परिसर में न जाने दे रहे थे। हाँ न्यायार्थी जरूर अंदर आ जा रहे थे। मैं ने अंदर झाँक कर देखा तो वहाँ सन्नाटा पसरा था। जो लोग अंदर जा रहे थे मिनटों में वापस आ रहे थे। कोई कहता अदालत में न जज है और न रीडर, कोई कहता रीडर ने कार्यसूची पर सब मुकदमों की तारीखें दे रखी हैं। आज अखबारों ने भी खबरें छापी है और चित्र भी।
वकील, मुंशी, टाइपिस्ट सभी सड़कों पर डोल रहे थे या फिर धऱने पर बैठे थे। धरने पर लगातार वकीलों में से कोई या फिर राजनैतिक दलों, या संस्थाओं के प्रतिनिधि लाउडस्पीकर पर आंदोलन के समर्थन में बोले जा रहे थे। तभी काँग्रेस के प्रान्तीय प्रवक्ता माइक पर आए और कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित किए जाने के समर्थन में जोरदार भाषण दिया। कहा कि मांग जायज है, काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है। मेरा सिर चकरा गया कौन सी काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है वह जिस के वे प्रवक्ता हैं? या फिर वह जिस की राज्य सरकार है,? या फिर वह जो केन्द्र सरकार का नेतृत्व करती है?
कुछ दिन पहले यहीँ, इसी आंदोलन के धरने पर भाजपा के प्रतिनिधि बैठे नारे लगा रहे थे और भाषण देते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन कर रहे थे और हाईकोर्ट बैंच न खोले जाने के लिए काँग्रेस सरकार की आलोचना भी। यह आंदोलन सात वर्ष पुराना है और तब आरंभ हुआ था जब काँग्रेस की सरकार का आखिरी साल बचा था। फिर चुनाव हुआ और सरकार बदल गई। भाजपा सत्ता में आई और पाँच साल बहुत कुछ कर के और न करके चली गई। अब यहाँ बैठी भाजपा न जाने कौन सी थी? वह जिस की पिछले पाँच साल से सरकार थी, या जो चुनाव हार चुकी है? साल भर से फिर काँग्रेस सरकार में बैठी है। पता नहीं क्या परेशानी है जो हाईकोर्ट का विकेन्द्रीकरण करने में उन्हें परेशानी आ रही है। परेशानी बताई भी नहीं जा रही है।
इधर डेढ़ बजा और धरना समाप्त, गेट खोल दिए गए। आधे घंटे बाद अदालत परिसर के अंदर गए। सब कुछ सामान्य होने लगा। पर तब तक मुकदमों की तारीखें बदली जा चुकी थीं। मुवक्किल गायब हो चुके थे और अधिकांश वकील भी। मैं ने अपने मुंशी को तारीखें लाने को कहा जो वह कुछ ही देर में ले आया। दिन का काम हो चुका था। मैं घर की ओर चल दिया। हड़ताल को एक माह हो चुका है। यही आलम पूरे संभाग में फैला पडा़ है। मैं कल्पना कर सकता हूँ कि यही स्थिति बीकानेर और उदयपुर संभागों की होगी वे भी अपने-अपने यहाँ हाईकोर्ट बैंचे खोलने के लिए आंदोलनरत हैं।
15 टिप्पणियां:
सभी राजनैतिक दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे है , जहाँ बोलने का मौका मिला , हाथ से नहीं जाने देते |
राजनेता लोग तो किसी के नही होते बस जहाँ से कुछ फ़ायदा होते दिखे बस उधर ही हो लिए..
हड़ताल की स्थिति में तो बस मज़े लेते है सरकार के निर्णय से कुछ होने से पहले पदाधिकारी ही निश्चित कर लेते है की अब क्या करना है.
ये तो बस वाह वाही लेने पहुँचते है....
राजनेताओं की विश्वसनीयता ही कहाँ बची है और कौन उनकी बातों को सही मानता है? हाँ भाषण का मौका कौन खोना चाहेगा :)
अगर माँगे उच्चीत हो तो मानी जाय.
भाजपा-कांग्रेस तो खैर अपनी राजनीति कर रहे हैं। यहां इलाहाबाद में वकील ट्रेने रोक रहे हैं कि अन्य जगह बेच नहीं होनी चाहिये और अलीगढ़-आगरा में ट्रेन रोक रहे हैं कि वहां बेन्च चाहिये। :)
बडी विकट स्थितियां हैं.
रामराम.
द्विवेदी साहब,
क्या कांग्रेस और क्या बीजेपी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है, इसमें कोई दो राय नहीं ! और आप ये कदापि न समझे कि यहाँ बीजेपी की पैरवी कर रहा हूँ !
मगर बात कितनी हास्यास्पद बन जाती है जब आप जैसे प्रतिष्ठित और बुद्धिजीवी लोग यह तर्क देते है कि बीजेपी भी तो 5-6 साल सत्ता में थी , फलां -फलां काम उन्होंने उस वक्त क्यों नहीं किया ? मैं कहूंगा कि हर मर्ज की दवा बीजेपी के ५-६ साल का शासन नहीं हो सकता ! कभी उन बुद्धिजीवियों ने यह सोचा कि कोंग्रेस तो पिछले ५०-५५ सालो से सत्ता में है फिर उन्होंने क्या किया ? बीजेपी तो ५-६ साल में बहुत कुछ कर गई, आप लोग ज़रा सडको की दशा पर नजर डाले, ५ साल में क्या सड़के बनी और अब कोंग्रेस को भी उसके बाद शासन चलाते ६ साल होने को है, हाईवेज पर चल रहे कामो को देख आप सहज अंदाजा लगा सकते है !
@पी.सी.गोदियाल जी,
बात यह नहीं है। असल में यही कांग्रेस, बीजेपी जो उदयपुर,कोटा और बीकानेर में बैंच स्थापित करने का समर्थन कर रही हैं जोधपुर में उसी का विरोध कर रही है। इस से उन का अवसरवादी चरित्र सामने आ रहा है। लगता है कि ये जनता को मूर्ख समझती हैं।
@ज्ञानदत्त पाण्डेय जी,
ये आंदोलन जो चल रहे हैं प्रांतीय या अखिल भारतीय रूप से संगठित वकीलों के नहीं हैं। इन में क्षेत्रीयता का बोलबाला है। वास्तव में वकीलों का कोई प्रान्तीय या अखिल भारतीय संगठन नहीं है। बार कौंसिलें स्टेट्यूचरी संस्थाएँ हैं और वे वही काम करती हैं जो उन्हें स्टेट्यूट ने दे दिए हैं। वकीलों की प्रान्तीय एकता स्थापित करना और क्षेत्रीय मसले आपस में अपने संगठन के भीतर बैठ कर निपटाने की पद्धति अभी विकसित होनी बाकी है। इसी कारण से हमारा जनतंत्र अभी शैशव काल में है। अभी तो राजनैतिक दलों में जनतंत्र नहीं है। जब तक जनतांत्रिक मूल्य देश स्तर से परिवार स्तर तक नहीं पहुंचते जनतंत्र का विकसित होना संभव नहीं। लेकिन यह सब प्रक्रिया में अवश्य है। जयपुर और जोधपुर दो संभागों को छोड़ कर अन्य पांचों संभागों के वकीलों के प्रतिनिधियों की अजमेर में बैठक होना और संभाग स्तर पर हाईकोर्ट बैंचें होने की मांग करने का निर्णय करना। यह भी तय करना कि सिद्धांत रूप में इसे स्वीकार कर लिया जाए तो इस लक्ष्य तक चरणों में आगे बढ़ा जा सकता है, जनतांत्रिक प्रक्रिया का स्वतःस्फूर्त तरीके से आगे बढ़ना है। वरना राजनीति तो हरदम जनतांत्रिक प्रक्रिया का गला घोंटते दिखाई देती है। वस्तुतः सत्ताधारी या सत्ता में पहुंचने की आंकाक्षा वाले राजनैतिक दलों को जनतंत्र की जरूरत नहीं है। उस की जरूरत तो जनता को है। जिस से उस का विकास अवरुद्ध न हो।
मै आप की बात से समहत हुं "कि लगता है कि ये जनता को मूर्ख समझती हैं।" लेकिन जनता जब वोट दे तो अगर कोई पार्टी या नेता चुनाव से पहले किये वादे पुरे नही करता तो जनता उस से पुछती क्यो नही कि अब वो वादे किये वो कहा गये, क्यो हर बार उसे ही फ़िर् से वोट दे देते है...
मुझे तो भारत के बारे ज्यादा पता नही लेकिन काग्रेस ने सब से ज्यादा राज किया, ओर इस सरकार ने देश को हमेश पीछे लेजाना चाहा, रोटी के एक एक डुकडे केलिये जनता को तडपाया, फ़िर जनता क्यो बार बार इसे ही चुनती है...
जिस देश मै सब कुछ हो ओर जनता फ़िर भी भुखी रहे तो यह प्राक्र्तिक अप्दा नही हो सकती, विकसित देशो मै खाने पीने की चीजे सस्ती होती है, ओर ऎश की चीजे मंहगी, लेकिन हमारे देश मे खाने पीने की चीजे मंहगई है, ता कि जनता पेट भरने की जुगाड मे लगी रहे उसे ओर सोचने के लिये वक्त ही ना मिले.... बाकी ऎश का समान सस्ता है
अप ने बहुत सुंदर लिखा. धन्यवाद
भाषण देने का तो बहाना चाहिए. और हड़ताल को आम घटना समझ कर चलते रहने देना भी अब आदत हो गयी है. वो सोचते हैं कि ये तो रोज का नाटक है !
Justice delayed is justice denied.
आज देश के न्यायालयों में लाखॊं केस पेंडिंग है और हर केस ५-६ वर्ष तो चलता ही है! ऐसे में अधिक कोर्ट-कचहरी खुले तो सब का भला ही होगा।
जनतंत्र की अपरिपक्व समझ के अलावा इस तरह के आन्दोलनों में स्थानीयता का मुद्दा भी प्रभावशाली होता है । एक ही दल के नेता का एक स्थान मे अधिक प्रभाव होता है और अन्य स्थान पर उसके प्रभाव में कमी आ जाती है । ऐसे स्थिति मे इस तरह के आन्दोलन उनके प्रभाव को स्थापित करने के काम मे भी आते हैं । दल इस बात की कभी मॉनिटरिंग नही करते और यह उनके नीतिगत मामलों मे शामिल नही होता । यह भी जनतंत्र की साफ समझ न होने के कारण है । चुनाव के समय इस प्रवृत्ति का सबसे विकृत रूप देखने को मिलता है । साधारन जन इस बात को कभी समजह ही नही पाते ।
भगवान ही मालिक है.
Very important & astute observation in this statement
" हमारा जनतंत्र अभी शैशव काल में है। "
sahee kahaa jee
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