हे, पाठक!
अगले तीन दिन तक सूत जी और सनत दोनों विभिन्न दलों के कार्यालयों में गए और लोगों से मिलते रहे। बैक्टीरिया दल में उत्सव का वातावरण था जैसे उन्होंने परमबहुमत प्राप्त किया हो और जैसे वे संविधान को ही बदल डालेंगे। उत्सव मनाने वाले लगता था मत्त हो उठे हैं। किसी को यह ध्यान ही नहीं था कि अभी भी दल बहुमत से बहुत दूर है। गठबंधन के खेतपति जोड़ने पर भी बहुमत नहीं था। किन्तु नेता आत्मविश्वास से भरपूर नजर आते थे। वे जानते थे कि अब स्थिति यह आ गई है कि समर्थन देने वालों की पंक्तियाँ लग लेंगी। हुआ भी यही। पुराने समय में किसी राजा द्वारा किसी नगर पर विजय प्राप्त कर लेने के उपरांत नगर के श्रेष्टीगण जिस तरह नजराना ले कर उपस्थित होते थे वैसे ही छोटे छोटे दल जो पहले से ही छोटे थे या फिर जो नाई के यहाँ केश सजवाते सजवाते मुंडन अथवा मुंडन के समीप के किसी केश विन्यास को प्राप्त कर बैठे थे पंक्ति बद्ध हो कर थाल सजा लाए थे। थाल सुंदर सजीले कपड़ों से आवृत थे। लेकिन उन के नीचे कठिनाई से विजय प्राप्त करने वाले खेतपतियों के सिर हिलते दिखाई पड़ जाते थे। इन में एक व्यक्ति सर्वाधिक चिंतित दिखाई पड़ता था। पिछले दिनों इस के लिए नए घर का संधान किया जा रहा था जो चुनाव परिणामों के उपरांत रोक दिया गया था। उसे लगता था कि इस बार कांटों का ताज पहनाया गया है उसे। वह लगातार कह रहा था कि निवेश बढाना पड़ेगा, नियोजन उत्पन्न करना पड़ेगा। वरना .... वरना क्या? लोग यहाँ से धक्का मारने में देरी भी नहीं करेंगे।
हे, पाठक!
उधर वायरस दल में कल तक जो मायूसी का वातावरण था वह अब कुछ कम होने लगा था। वहाँ कुछ थे जो इन परिस्थितियों की प्रतीक्षा में थे। वे तुरंत उठ खड़े हुए थे और प्रतीक्षारत प्रधान जी के दल मुखिया का पद त्याग देने के विचार का स्वागत कर रहे थे। लगता था कि घरेलू अखाड़ा जो बहुत दिनों से किसी मल्ल की प्रतीक्षा में था उसे शीघ्र ही बहुत से मल्ल मिलने वाले हैं। पर तभी भारतीय संस्कृति आड़े आ गई। शोक के दिनों में तो खटिया पर सोने और पादुकाएं धारण करने की भी मनाही होती थी ऐसे में अखाड़ा कैसे सजाया जा सकता था। पर लोग तो अखाड़े के निकट जा खड़े हुए थे। यहाँ तक कि पड़ौसी ताक झाँक करने लगे थे कि कब जोर आरंभ हो और वे अपनी मनोरंजन क्षुधा का अंत करें। अंत में कुछ बुजुर्गो ने संस्कृतिवटी की कुछ खुराकें दीं तो प्रतीक्षारत प्रधान जी महापंचायत में दलप्रधान बने रहने को तैयार हो गए। बेचारा अखाड़ा फिर रुआँसा हो गया। जिन लोगों ने जोर करने की ठान ली थी वे अपने घरों को जाकर अभ्यासरत हो गए, जिस से निकट भविष्य में अवसर मिलने पर अखाड़े में पिद्दी साबित न हों।
हे, पाठक!
इन लोगों ने मायूसी हटाने का एक बहाना और तलाश लिया था। वे कह रहे थे, आखिर अच्छी शास्त्रीय कविता, या संगीत समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं। हम समझ रहे थे कि लोग हमारी इस कला को आसानी से आत्मसात कर लेंगे। संस्कारी लोग हैं, प्रसन्न होंगे और खूब तालियाँ बजाएंगे। लेकिन अब पता लगा कि लोगों को तो शास्त्रीय कला को देखे वर्षों ही नहीं शताब्दियाँ हो चुकी हैं। वे न ताल समझते हैं और न राग-रागिनियों का ही कोई ज्ञान उन में है। यहाँ तक कि उन्हें काव्य के सब से प्रचलित छंदों तक का ज्ञान नहीं रहा है। रामायण और महाभारत के छंद तो दूर रहे। वे तो मानस की चौपाई, दोहा सोरठा तक नहीं समझते। उन्हें तो सीधे सादे सुंदरकांड के मध्य में भी फिल्मी धुनों में सजे भजनों और कीर्तनों की आदत हो गई है। वे गायक को क्या समझें उन्हें तो चीखते आधुनिक यंत्रों की आदत पड़ चुकी है। अब हम अपने अभियान में पहले शास्तीय संगीत और छंदशास्त्र सिखाएंगे जिस से वे हमारी इन शास्त्रीय कलाओं को सीख सकें। सब से अधिक शीतलता इस बात से पहुँची थी कि उन्हें ही पराजय का मुख नहीं देखना पड़ा है, लाल फ्राक वाली बहनें भी तो बुरी तरह पराजित हुई हैं। उन में से अनेक ने इस बात के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया कि लाल फ्रॉक वाली बहनों के प्रेमी उन्हें सताने को नहीं आएंगे और आए भी तो उन्हें मारने के ताने तो मुख में होंगे।
हे, पाठक!
अब सूत जी को नेमिषारण्य से बुलावे आने लगे हैं। वहाँ बहुत से मुनिगण उन की कथा से दो माह से वंचित हैं। वे जनतंतरकथा का उन के श्रीमुख से श्रवण करना चाहते हैं और वार्तालाप कर अपनी सुलगती जिज्ञासाओं को भी शान्त करना चाहते हैं। कहीं ऐसा न हो कि जिज्ञासाओं की लपटें इतनी प्रबल हो जाएं कि नेमिषारण्य की हरियाली को संकट हो जाए। सूत जी ने उत्तर भेज दिया है कि वे अधिक दिनों राजधानी में न रुकेंगे। बस वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि महापंचायत में प्रधान के अभिषेक का समरोह देख जाएँ, उन की मंत्रीपरिषद की सूरत देख लें। उस के बाद वे राजधानी में एक पल को भी न रुकेंगे तुरंत नेमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देंगे।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
9 टिप्पणियां:
लोगों को तो शास्त्रीय कला को देखे वर्षों ही नहीं शताब्दियाँ हो चुकी हैं। वे न ताल समझते हैं और न राग-रागिनियों का ही कोई ज्ञान उन में है। यहाँ तक कि उन्हें काव्य के सब से प्रचलित छंदों तक का ज्ञान नहीं रहा है। रामायण और महाभारत के छंद तो दूर रहे।
--हाय, मेरे दिल की पीड़ा को बस आप ही समझते हो.
बोलो!! हरे गोविन्द!!! हरे मुरारी!!
बहुत सही दिशा और गति मे है ये कथा. अब राजतिलक का विवरण जानने की प्रतिक्षा है.
बोलो!! हरे गोविन्द!!! हरे मुरारी!!
रामराम.
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै॥ :)
"संस्कृतिवटी" बड़ी अद्भुत ओषधी है। इसे खाकर कई लोग जबर्दस्त पनप गए...
दिलचस्प वृत्तांत
कथा रोचक है गुरुदेव....तनिक विश्राम ले.....जलपान ले.....फिर आरंभ करे.....
panditji aapko lagatar padh rahahun
ab yah gatha poori hone ko aayihe
pustak ab nikaljani chahiye
hindi men itna aacha vyangya bahut kam likha gaya he
bahut bahut badhai
बेहतरीन और रोचक कथा .
राजतिलक के बाद सिंहासन पच्चीसी भी लिखें तो और अच्छा रहेगा .
आगे जैसी हरि इच्छा
शोक के दिनों में खटिया पर सोने और पादुकाएं धारण करने की मनाही भले ही हो..लेकिन problem ये है कि ऐसे हालात में, वाइरस दल के अमीबा बहुत बड़ा रूप लेने की कोशिश में हैं..और अगर वे पहचान बदलने के इरादे से खड़ाऊ ले भागें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए...इसलिए suggested यही है कि दुनिया का कोई भरोसा नहीं...अपने चप्पल जूतों के लिए वाइरस कैरियर की सवारियां खुद जिम्मेदार हैं.
मंत्री परिषद् का तो हम भी इंतज़ार कर रहे हैं. वैसे ये बंटवारा भी कम दिलचस्प नहीं है.
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