@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया

हे, पाठक!
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था।  लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी।  दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी।  उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों  के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी।  भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी।  हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं।  वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं।  चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से।  लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार  उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया।  पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी।  लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा।  छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया।  वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था।   जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी।  आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते।   पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था।  पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।

हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे।  तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की।  अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे।  मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी।  वे सब अलोकलों से उलझ पड़े।  इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी।  पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे।  कुछ करते नहीं बनता था।  आखिर फौज काम आई।   दहशत कुचल दी गई।  लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए।  इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।

हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया।  करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी।  लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई।  इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे।  हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए।  इस आग  ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका।  जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी।  खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई।  चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया।  एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का  जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है।  पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र !  उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई।  फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया।  जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।

हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था।  राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था।  जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था।  देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया।  उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले।  उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की।  उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ  क्यों नीची उड़ान उड़ता?  उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया।  देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।

आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

6 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

देश ने जवानी पर भरोसा किया। अब भी जवानों के बल पर ही है देश। जवानों को अपने बल का अहसास होना चाहिये - बस।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

"आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था।"

सही कहा है ।

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

अच्छी कथा अब आगे की कथा का इंतजार रहेगा . हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी ....

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बढिया जी, यह तो डिसकवरी आफ़ ईन्डिया की तरह कथा आगे बढ रही है. आगे का इन्तजार करते हैं...

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रामराम.

Arvind Mishra ने कहा…

कथा अपने विशिष्ट शैली में आगे बढ़ रही है -आगे की उत्सुकता है !

विष्णु बैरागी ने कहा…

जिन कथाओं की घटनाएं, पात्र, पात्रों का व्‍यवहार, परिणती सब कुछ भली प्रकार पहले से ही मालूम हो उनमें रोचकता (या कि 'कहन') ही वह एकमात्र तत्‍व होता है जो पाठक काे बांधे रख सकता है।
कहना न होगा कि यह तत्‍व आपकी कथा में नायक बन कर उपस्थित है और हर कोई उन सब बातों को पढ रहा है जो नई बिलकुल ही नहीं है।
आपकी लेखकीय क्षमता, दक्षता का इससे अधिक प्रभावी परिचय और क्‍या हो सकता है।