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रविवार, 22 फ़रवरी 2009

 पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ 
की ये ग़ज़ल अपनी अनभिज्ञताओं के बारे में ......

      क्या पता ?
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता

ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता

नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता

ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता

ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता

टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता

इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता

वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता


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10 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार झा ने कहा…

jhoothe, kya pata kya pata kehte hain, aur aapko to sab pata hai, iska to hamein bhee pata nahin tha, bade he pate kee gajlein padhwaee apne.

विजय गौड़ ने कहा…

ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता

sundar hai.

P.N. Subramanian ने कहा…

बहत अनोखा और सुंदर परिचय ग़ज़ल के द्वारा अपनी ग़ज़लों का. आभार.

Unknown ने कहा…

इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता
खूबसूरत अलफ़ज़ खूगसूरत ग़ज़ल, बधाई

Anil Pusadkar ने कहा…

बहुत बढिया रचना पढने का मौका दिया पंडित जी,आभार आपका।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता

मन की आशंकाओं को खूबसूरत शब्द देती ग़ज़ल।
बधाई।

Udan Tashtari ने कहा…

अह्हा!! आनन्द आ गया यकीन साहेब को पढ़कर. बहुत आभार आपका.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत लाजवाब.

रामराम.

विष्णु बैरागी ने कहा…

बहुत ही प्रभावी और बोलती गजल है यकीनजी की। उन्‍हें अभिनन्‍दन और आपको धन्‍यवाद।

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'ज़िन्दगी जैसे कोई …'
बहुत ख़ूब!