कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था। दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं। दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।
अब? दूसरी मीटिंग है। वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं। मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया। हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं। इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं। मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी। वह यहाँ नहीं होगी। प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?
वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।
दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी। हम हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे। पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे। एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....
"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी। तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है। एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है। अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले। बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा। उसे बंद तो नहीं किया जा सकता। इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती। आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।
पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ। उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है। मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है। उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है। उस पत्र को देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा। चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला। तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था। आप कुछ देर रुको। मैं वहाँ पौन घंटा रुका। लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए। याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ। बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है। मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है। फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा, बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा। तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा। इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले। अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए। मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा। फिर आदेश टाइप किया, उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं? बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।
इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।"
मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया। मैं भौंचक्का रह गया।
मैं ने शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा। यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए। पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।
मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था। इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया। वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।
भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?
14 टिप्पणियां:
यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।
सर जी दोष आपके मित्र शि्क्षा अधिकारी का भी नही है, यहां व्यवस्थाएं ही ऐसी हो गई हैं या कहले कि कुये मे ही भांग पडी हुई है.
रामराम.
कहानी दफ्तर दफ्तर की! :)
लेकिन सच जानिए मै उन विधार्थियों की सोचकर बहुत दुखी हूँ...बेचारे उन गाँवों में कैसे अपनी शिक्षा पुरी करते है....ओर कैसे compete करते है शहर के बच्चो से
aise hi to bhrashtaachar ke liye kuchh gunjaaish banati hai har jagah yahi haal hai
दुखद हाल है।
सरकारी काम ऐसे ही हो रहे हैं
परेशानी वाली बात ये है कि जो नए लोग भी सेवा में आते हैं वो इसी खांचे में ख़ुद को फिट कर लेते हैं
पढ़ा...लगा अपने आस पास की देखी कहानी है..हर जगह यही हालात हैं. आपकी दृष्टि को सलाम.
आपकी द्रष्टि को सलाम ...सचमुच हालात ऐसे ही हैं ....
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
अभाग इस तरह के स्कूल के बच्चों के.....
वाह, ऎसा तो आज से तीस साल पहले भी होता था,ओर आज भी वही ढाक के तीन पात.
कब हम सुधरेगे???
बहुत दुख हुआ सुनकर :-(
अगर यही हाल हैँ तब क्या होगा ?
कैसे हो सुधार ?
- लावण्या
gambir vishya need to be think seriously of our system
बस। इतने में हलकान हो गए आप सब लोग? यह तो कुछ भी नहीं है-हांडी का चांवल भी नहीं। मेरी पत्नी भी 'बहनजी' है। प्रतिदिन दो के मान से किस्से सुनाती है वे मुझे शाम को, नैकरी से लौटकर। लेकिन इस हिदायत के साथ कि वह सब मैं कहीं नहीं लिखूंगा। वर्ना उसकी नौकरी पर बन आएगी। एक वाक्य में समझ जाएगा - अब सरकारी स्कूलों में पढाई के सिवाय बाकी सारे काम होते हैं।
ऑफिस ऑफिस बात चली है पता चला है
रिश्वत देके बाबू बना है बाबू बना है :)
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