करीब तीन बजे नन्द जी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। वे कह रहे थे -बाबा से मिल आएँ।
बाबा? आजकल इस आश्रम के महन्त, नाम सत्यप्रकाश, आश्रम के आदि संस्थापक बंशीधर जी के पाँच पुत्रों में से एक। शेष पुत्र सरकारी नौकरियों में थे। इन्हों ने पिता की गद्दी को संभाला था।
नन्द जी यहाँ पहुँचते ही मुझे उन से मिलाना चाहते थे, लेकिन तब बाबा भोजन कर रहे थे और उस के बाद शायद आराम का समय था। उन में मेरी रुचि उन्हें जानने भर को थी। लेकिन इस यात्रा में अनेक थे जो उन से इसलिए मिलना चाहते थे कि उन से कुछ अपने बारे में अच्छा या बुरा भविष्य जान सकें। नन्द जी को दो वर्ष पहले उन के गाँव का एक सीधा-सादा व्यक्ति जो उन के भाई साहब का मित्र था तब वहाँ ले कर आया था, जब उन के भाईसाहब जेल में बंद थे और मुकदमा चल रहा था। तब बाबा ने उन्हें कहा था कि भाईसाहब बरी हो जाएँगे। यह बात मैं ने भी नन्द जी को कही थी। उन्हें मेरे कौशल पर पूरा विश्वास भी था। इसीलिए उन्हों ने कोटा के नामी-गिरामी फौजदारी वकीलों का पल्ला नहीं पकड़ा, जब कि मेरे कारण उन्हें वे बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध थे। पर किसी के कौशल पर विश्वास की तुलना पराशक्ति के बल पर भविष्य बताने का दावा करने वाले लोगों के विश्वास से कैसे की जा सकती है। हाँ, यह विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों में आत्मविश्वास जाग्रत रखता है और संघर्ष के लिए मनोबल प्रदान करता है। लेकिन? यह विश्वास प्रदान करने वाले "पहुँचे हुए लोग" उस की जो कीमत वसूलते हैं, वह समाज को गर्त की ओर भी धकेलती है।
नन्द जी के बाबा के बारे में बताए विवरणों से शोभा बहुत प्रभावित थी, और उन्हें बड़ा ज्योतिषी समझती थी। यही कारण था कि उस ने मेरी और बेटे-बेटी की जन्मपत्रियाँ बनखंडी रवाना होने के पहले अपने झोले में डाल ली थीं। लेकिन बाद में नन्द जी ने मना कर दिया कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। वैसे ही सब कुछ बता देते हैं। तो जन्मपत्रियाँ झोले में ही बन्द रह गईं।
मैं ने तंद्रा और गर्मी से बेहाल अपने हुलिए को नल पर जा कर चेहरे पर पानी डाल तनिक सुधारा, और नन्द जी के पीछे हो लिया। पीछे बनी सीढ़ियों से होते हुए बाबा के मकान के प्रथम तल पर पहुँचे। आधी छत पर निर्माण था, आधी खुली थी। जीना जहाँ समाप्त हो रहा था, वहीं एक दरवाजा था जो बाबा की बैठक में खुलता था।
कोई दस गुणा पन्द्रह फुट का कमरा था। एक और दीवान पर बाबा बनियान-धोती में अधलेटे थे, तीन-चार कुर्सियाँ थीं। जिन पर पुरुष बैठे थे, बाकी जगह में फर्श बिछा था और महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों ने कब्जा रखा था। दीवान के बगल की खुली अलमारी में कोई बीसेक पुस्तकें थीं, कुछेक को छोड़ सब की सब गीता प्रेस प्रकाशन। दीवारों पर कैलेंडर लटके थे। एक तस्वीर उन के महन्त पिता की लगी थी।
हमारे वहाँ पहुँचते ही बाबा ने 'आइये वकील साहब!' कह कर स्वागत किया। हमारा उन से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ। हमारे बैठने के लिए कुर्सियाँ तुरंत खाली कर दीं। उन पर बैठे लोग बाबा को प्रणाम कर बाहर आ गए। हम बैठे तो नन्द जी ने मेरा परिचय उन्हें दिया। बाबा की पहले से चल रही वार्ता फिर चल पड़ी।
कोई पेंतीस वर्ष की महिला बहुत ही कातर स्वरों में बाबा से कह रही थी। बाबा इन का कुछ तो करो, इन का धंधा नहीं चल रहा है, कुछ काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे कैसे चलेगा? सारा घऱ ही बिक जाएगा हम सड़क पर आ जाएंगे।
बाबा बोल पड़े। ये व्यवसाय में सफल नहीं हो सकते। इन्हें काम तो कोई टेक्नीकल या खेती से सम्बन्धित ही करना पड़ेगा। मैं ने तो इन्हें प्रस्ताव दिया था कि ये आश्रम आ जाएँ। मैं एक ट्रेक्टर खरीद कर इन्हें दे देता हूँ, उसे चलाएँ आस पास के किसानों के खेत जोतें। आश्रम की जमीन की खेती संभालें। जो भी मुनाफा होगा आधा इन का आधा आश्रम का। पर ये इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले ही नहीं रहे। आज तो ये यात्री बन कर आए हैं। मेरा प्रस्ताव मानें तो फिर इसी काम से आएँ मुझ से बात करें। मैं सारी योजना इन के सामने रखूंगा। इतना कह कर बाबा ने करवट सुधारी तो धोती में से उन का एक पैर उघड़ गया। महिलाओं के सामने वह अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन बाबा का शायद उधर ध्यान नहीं था। कोई उन को कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। शायद कोई भी उन्हें लज्जा के भाव में देखना नहीं चाहता था। मैं लगातार उन की टांग को देखता रहा। शायद मैं ही वहाँ नया व्यक्ति था, इसलिए बाबा बीच बीच में मेरी और दृष्टि डाल ले रहे थे। दो-एक नजर के बाद उन्हों ने मुझे एकटक अपनी टांग की ओर देखता देख भाँप लिया कि टांग में कुछ गड़बड़ है। वाकई वहाँ गड़बड़ पा कर उसे ठीक भी कर लिया।
बाबा की सारी बातें किसी जमींदार द्वारा किसी कामगार को साझेदारी का प्रस्ताव रख, उस की आड़ में कम मजदूरी पर कामवाला रख लेने की तरकीब जैसी लग रही थीं। महिला होशियार थी। उसे यह तो पसंद था कि उसके पति के रोजगार का कुछ हल निकल आए, लेकिन यह मंजूर नहीं कि उस का पति नगर में बसे घर-बार को छोड़ यहाँ जंगल में काम करने आए और आश्रमवासी हो कर रह जाए। वह बोली -अब मैं क्या कर सकती हूँ? आप इन्हीं को समझाएँ। ये यहाँ आना ही नहीं चाहते। शहर में कोई व्यवस्था नहीं बैठ सकती इन के रोजगार की?
-शहर में भी बैठ सकती है, मगर समय लगेगा। किसी की मदद के बिना संभव नहीं हो सकेगा। यहाँ तो मैं मदद कर सकता हूँ। वहाँ तो मददगार इन को तलाशना पड़ेगा।
बाबा के उत्तर से कुछ देर शांति हुई थी कि नन्द जी की पत्नी बोल पड़ी -बाबा वे बून्दी वाले, उन के लड़के की शादी हमारी बेटी से करने को कह रहे हैं। यह होगा कि नहीं? मैं जानता था कि नन्द जी के पास एक बड़े व्यवसाय़ी परिवार से शादी का प्रस्ताव है। उस से नन्द जी का परिवार प्रसन्न भी है। उन की पत्नी बस भविष्य में बेटी-जमाँई के बीच के रिश्तों की सघनता का अनुमान बाबा से पूछना चाहती हैं।
बाबा कहने लगे -आप का परिवार और बच्ची सीधी है और वे तेज तर्रार। शादी तो हो जाएगी, निभ भी जाएगी। पर उस परिवार के व्यवसाय और सामाजिक व्यस्तता के बीच बच्ची बंधन बहुत महसूस करेगी और घुटन भी। यह रिश्ता सुखद तो रहेगा, लेकिन बहुत अधिक नहीं।
इस बीच शोभा भी आ कर महिलाओं के बीच बैठी मुझे इशारा कर रही थी कि मैं भी कुछ पूछूँ अपने व्यवसाय, आमदनी, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और विवाह के बारे में। नन्द जी ने भी कहा आप भी बात कर लो, भाई साहब। इतने में बाबा भी बोले पूछ ही लो वकील साहब, मैं भी आज भोजन करते ही यहाँ बैठ गया हूँ। फिर थोड़ा विश्राम करूँगा। मुझे समझ गया था कि कुछ पूछे बिना गुजर नहीं होगा। बाबा भी अधलेटी अवस्था को त्याग सतर्क हो कर बेठ गए थे। मैं भी इस अध्याय को शीघ्र समाप्त करना चाहता था। (जारी)
और अंत में ..... दो दिन में तीसमारखाँ!
अंतरजाल पथ पर फुरसतिया से हुई संक्षिप्त बातचीत का संक्षिप्त अंश.....
अनूप: नमस्ते
मैं: नमस्ते जी। कैसे हैं?
अनूप: आप देखिये आज ज्ञानजी ने अपने काम का खुलासा कर ही दिया
http://chitthacharcha.blogspot.com/
मैं: देखते हैं। वैसे वे मक्खियाँ मारने में सिद्धहस्त हैं।
अनूप: हां वही।
मैं: मैं वहीं कहना चाहता था। फिर सोचा, फिर आप क्या कहेंगे।
अनूप:उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी, और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये।
मैं: दो दिन में तीसमार खाँ?
अनूप: हां, यह सही है, उनकी प्रगति बड़ी धीमी है। ऐसे कैसे चलेगा?
मैं: कम से कम एक दिन के स्तर पर लानी पड़ेगी, प्रोडक्टिविटी का प्रश्न है।
15 टिप्पणियां:
बढ़िया चल रहा है क़िस्सा!
आप के लिखे हुये लेख बहुत ही सुन्दर हैं। कथा में रोचकता बनी हुई हैं । आगे क्या हुआ यह इच्छा बनी हुई हैं।
महन्त जी से आप कि क्या बात हुई अब यह जानने की इच्छा हैं।
किस्सा तो बढ़िया चल ही रहा है... ज्ञान जी की खिचाई भी :-)
जिस तरीके से आप बतिया रहे है ....कसम से सोच रहा हूँ की मै भी बाबा जी के आश्रम का एक चक्कर लगा लूँ.....अभी अभी एक मरीज दिखाने आया था उसे उसकी बहू दिखाने आ रही थी वो स्कूटर पे थी रस्ते में उनका हल्का फुल्का एक्सीडेंट हो गया ,किरायेदार भी साथ थी ....कहने लगी डॉ साहेब मै सुबह से कह रही हूँ की इनकी राशिः में लिखा है आज का दिन वाहन यात्रा खतरनाक है.....मैंने कहा जी आपको ट्रक वाले की भी राशिः चेक करनी चाहिये थी ......अंत में ......
तीसमार खां बन्ने का रहस्य आज सुलझा .....
अच्छी लगी कथा और मौका मिलने पर खिचाई भी अपनापा ही है जम जमा के करिए कथा और खिचाई
मुझे भी बाबा जी से मिलना है.
ब्लाग जगत में मेरा क्या होगा ये जानना है?
ब्लॉग जगत के बाहर तो मुझे पता है कुछ होना नहीं है.
कुछ जुगत लगायें.
बढ़िया वृतांत चल रहा है.. बाबा का चरित्र बढ़िया रहा.. आपने क्या प्रश्न पूछा इसकी प्रतीक्षा रहेगी
यह क्या जी, आप लोग इण्टरनेट पर चैट का दुरुपयोग कर रहे हैं और उसे आप अपनी इतनी बढ़िया पोस्ट के नीचे ठेल कर अपनी पोस्ट भी बरबाद कर रहे हैं! :-)
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ज्ञानदत्त और बरबादी ?
ना बाबा ना, घोर अशोंभव !
ज्ञानदत्त का ज्ञान है जहाँ...ब्लगिया हिट है वहाँ ऽ ऽ ट्रिंन्न ज्ञानदत्त
जी हाँ, फ़्लाप होने से आपकी रक्षा करते हैं ज्ञानदत्त, पीढ़ीयों तक याद रखे जाना वाला ब्रांड..ज्ञानदत्त
गुरुवर, अपने को इतने हल्के में मत लिया कीजिये ।
आख़िर कुछ तो है..कि आप स्साले मरे बकरे को भी छू देते हैं, तो हिट हो जाती है, पोस्ट !
संगम पर किस बाबा से सम्मोहिनी का नवीनीकरण करवाने जाते रहते हैं,
अब तो ऎय्यारी करवानी पड़ेगी । हा हा हा..हूहूही
अच्छा वृतांत चल रहा है रोचक. आपने बाबा से क्या पूछा और क्या जबाब मिला, इसका इन्तजार है. ज्ञानजी तो खैर तीस मार हो ही लेंगे रियाज के साथ. :)
Aise BABA LOG - bahut logon se milte hain aur logon ke man ki baat, thodee baat chit ke baad achchee tarah jaan lete hain .
Ek tarah ke Psychologists bhee samajh lijiye ...
Per,
Kuch SIDHDH LOG Stree ya Purush , sachche SANT bhee hote hain .
Jaise Shree Ram Krishna Param Hans , THAKUR jee the.
Kissa badhiya chul raha hai ...
कथा रोचक होती जा रही है - आते रहना पडेगा.
तो अब शुरू हुआ इस रोचक यात्रा संस्मरण का हेतु वर्णन जिसकी मैं आतुर प्रतीक्षा कर रहा था -यह मुझे अपनी ख़ुद की एक यात्रा कथा की निरंतर याद दिला रहा है और उससे अद्भुत दृश्य साम्य के साथ ही हैरत की बात यह भी कि मेरी और आप की कथा के पात्र भी समान ही हैं - मुख्य पात्र से मेरा भी तादात्म्य स्थापित हो चला है -जारी रखिये !
जल्दी सी आगे लिखिये, बेसब्री से इंतज़ार है...
मेने अभी तक टिपण्णी नही दी सोच रहा हु, कया लिखु, यह बाबा तो मुझे टोपी पहनाने वाले लग रहे हे,दिनेश जी बुरा ना मानाना, शायद मे गलत भी हो सकता हु इसी लिये आज तक इन्तजार करता रहा अगली किस्त का... ओर आज रहा नही गया तो आ गया, वेसे मे किसी भी बाबाओ को नही मानता,अब जल्द से जल्द अगली कडी भी लिखे प्राथना हे
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