(1)
धर्म पाखण्ड बन्यो........
ज्ञान को उजास नाहिं, चेतना प्रकास नाहिं
धर्म पाखण्ड बन्यो, देह हरि भजन है।
खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।
यार नाहिं, प्यार नाहिं, सार और संभार नाहिं
लूटमार-बटमारी-कतल कौ चलन है।
पूंजीपति-नेता इन दोउन की मौज यहाँ
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।
(2)
पूंजी को हल्ला है.......
बुझवै ते पैले ज्यों भभकै लौ दिवरा की
वैसे ही दुनियाँ में पूंजी को हल्ला है।
पूंजी के न्यायालय, पूंजी कौ लोक-तंत्र
पूंजी के साधु-संत फिरत निठल्ला हैं।
पूंजी के मनमोहन, पूंजी के लालकृष्ण
पूंजी के लालू, मुलायम, अटल्ला हैं।
पूंजी की माया है, पूंजी के पासवान
हरकिशन पूंजी के दल्लन के दल्ला हैं।।
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12 टिप्पणियां:
Baht badhiya apko or mahendr neh ji ko dhanyawaad.
बहुत बहुत धन्यवाद सुबह सुबह ऐसी रचनाए पढ़वाने के लिए
वाह, पूंजी ने साम्य-समाज-जाति-धर्म.. सब वादियों को मदमस्त बहेल्ला कर दिया है।
अच्छा लपेटा है सब को महेन्द्र जी ने!
बाकी पूंजी की सवारी शेर की सवारी से कम नहीं। बिरले ही कर पाते हैं लम्बे समय तक!
दोनों रचनाएं अच्छी लगीं. पढ़वाने का शुक्रिया.
महेन्द्र नेह जी का बात कहने का खांटी देसी अंदाज निराला है . लोकभाषा की रस-गंध जो इधर की हिंदी कविता से लगभग गायब होती जा रही है , महेन्द्र जी में भरपूर है . उन्हें मेरा अभिवादन और साधुवाद पहुंचे .
अच्छी लगीं..शुक्रिया.
aabhar aapka in rachnayo ke liye....
बहुत अच्छी कविता .. शुरू में लगा भाषा की समस्या न आ जाए... लेकिन पढने के बाद गुनगुनाने का मन करने लगा.
पूंजी को हल्ला है.......
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।
सामयिक और सही !
महेंद्र जी की दोनों कविताएँ अच्छी लगीं.
शिवराम जी ने मुझे भी उनकी कुछ रचनाए दी हैं. वाकई कबीले तारीफ लिखतें हैं.
उनकी रचनाएँ देने के लिए आपका भी शुक्रिया !
बहुत बहुत आभार आपका जो आपने महेन्द्र जी की उत्कृष्ट रचनायें पेश की.
बहुत प्यारी रचनाएं पढवाईं हैं, शुक्रिया। ये पंक्तियां तो सीधे दिल में उतर गयीं-
"खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।"
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