@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बीस इंची साईकिल

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

बीस इंची साईकिल

दस साल पहले लिखी इस कविता के बाद शायद कोई भी कविता उपजी ही नहीं और उपजी भी तो जन्मने के पहले ही समाप्त हो गयी। आज इस कविता से आप को रूबरू करवाने को जी ललचा गया है। पंसद से जरूर अवगत कराएं।

बीस इंची साईकिल


बारहवें जन्म दिन पर
मिली है उसे
पूरे बीस इंच की साईकिल।

पानी के छींटे दे
अभिषेक किया है,
कच्चा रंगा सूत बांध
पहनाए हैं वस्त्र और
रोली का टीका लगा
श्रंगार किया है,
साईकिल का।

पहले ही दिन
घुटने छिले हैं,
एक पतलून
तैयार हो गयी है
रफूगर के लिए,
दूसरे दिन लगाए हैं
तीन फेरे, अपने दोस्त के घर और
दोनों जा कर देख आए हैं
अपनी टीचर का मकान।
तीसरे दिन
अपनी माँ को
खरीद कर ला दिया है
नया झाड़ू।
और आज
चक्की से
पिसा कर लाया है गेहूँ।

कर सकता है कई काम
जो किया करता था
कल तक उस का पिता।
वह बताता है-
लोग नहीं चलते बाएं,
टकरा जाने पर
देते हैं नसीहत उसे ही
बाएं चलने पर।

चौड़ा गयी है दुनियाँ
उस के लिए,
लगे हों जैसे पंख
नयी चिड़िया के।

नीम पर कोंपलें
हरिया रही हैं,
वसन्त अभी दूर है
पर आएगा, वह भी।

बेटा हुआ है किशोर
तो, होगा जवान भी
खुश हैं मां और बहिन
और पिता भी।
कि उसका कद
बढ़ने लगा है। - दिनेशराय द्विवेदी

8 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता। और अपने व्यक्तित्व के इस पक्ष से - भले ही वर्तमान में सो रहा हो - परिचय कराने के लिये धन्यवाद।
मेरे ख्याल से कविता हम पढ़ें तो लिखने का भी मन बनता है।

अमिताभ मीत ने कहा…

पसंद - नापसंद की बात तो न करें आप. सुबह का पहला ही पोस्ट पढ़ा और मन प्रसन्न हो गया. बहुत ही कमाल के रचना है साहब.

Pankaj Oudhia ने कहा…

सशक्त अभिय्यक्ति। जब मन से विचार उद्दाम वेग से निकलते है तो ऐसी ही कविता बनती है। मुझे अपना बचपन याद आ गया।

काकेश ने कहा…

सुन्दर.

अजित वडनेरकर ने कहा…

बढ़िया कविता है। पंद्रह साल बाद फिर शुरू होने का वक्त आ गया है। कई बरस पहले मराठी लेखक ग. दि. माडगूळकर की प्रसिद्ध कहानी साइकल की याद आ गई।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर!!
बचपन याद दिला दिया आपने।
घर की पुरानी शायद 24 इंची सायकल जब हमारे हवाले हुई नवीं कक्षा में तो फ़िर उसे दसवीं तक उपयोग करते रहे हम।
कैंची चलाते हुए ही बाज़ार से सब्जियां लाते और मस्ती करते घूमते। गिरना और गिर कर फिर खड़े होना, क्या दिन थे वे भी।
शुक्रिया!

Yunus Khan ने कहा…

बढि़या कविता । सायकिल सीखने के दिन याद आ गये और याद आ गये सायकिल से जुड़े जज्‍बात । हम उन दिनों तक भी सायकिल चलाते रहे थे जब हमारे साथी मोपेडों और सकूटरों पर थे । फिर वो दिन भी आए जब हमने फैशन के तहत स्‍ट्रीटकैट जैसी सायकिल अपनी ही कॉलेजी-कमाई से खरीदी ।

Anita kumar ने कहा…

साइकिल तो हमको भी मिली थी चलानी ही न आई इस लिए अब कार से ही काम चलाते हैं पर साइकिल का अपना ही मजा है, बड़िया कविता है जी, और पन्ने पलटिये डायरी के और सुनाइए