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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

पंकज सुबीर को उन के उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' पर ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार

पिछले दिनों मुझे एक विवाह के सिलसिले में सीहोर जाना और तीन-चार दिन रुकना हुआ। विवाह की व्यस्तता, और विवाह में आए बहुत से प्रिय संबंधियों का साथ था। वैसे भी इन सब से ऐसे ही अवसरों पर मिलना हो पाता है, तो समय बहुत कम मिला। पर मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं पंकज 'सुबीर' से अवश्य मिलूँ। वे ब्लाग जगत में बहुत से नए शायरों के गुरू हैं और उन्हें उन के शिष्य बहुत सम्मान देते हैं।  नए उदीयमान शायरों को ग़ज़ल का संस्कार दे कर वे बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। उन के इस श्रम से बहुत सी रचनाएँ ग़ज़ल होने लगी हैं, अन्यथा ब्लाग जगत में तो किसी भी ग़ज़लनुमा रचना को ग़ज़ल कह दिया जाता है और लोग वाह-वाही करने के लिए भी आ जाते हैं। ग़ज़लसाज़ी के अतिरिक्त पंकज सुबीर और भी बहुत कुछ हैं। उन्हें पूर्व में उन के कहानी संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' पर भारतीय नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। उन की गद्य लेखन पर अच्छी पकड़ है।
मैं ने सीहोर पहुँचने की अगली सुबह उन से टेलीफोन पर संपर्क किया तो पता लगा कि उन का कार्यालय मेरे ठहराव से पैदल दूरी पर है और रात्रि को एक बार तो मैं उन के कार्यालय के सामने पान की दुकान पर पान खा कर भी आ चुका हूँ। मैं कुछ ही देर बाद उन के कार्यालय पहुँचा। वे अपने काम में व्यस्त थे। उन्हें देख कर मुझे चौंकना पड़ा। उन के ब्लाग पर देख कर, उन के बारे में मेरे दृष्टिपटल पर जो चित्र था उस में  मेरी कल्पना थी कि उन की उम्र कम से कम 45 की अवश्य होगी। लेकिन वहाँ मैं एक नौजवान को देख रहा था। वे केवल 35 वर्ष के हैं और सीहोर बस स्टैंड के ठीक सामने स्थिति सम्राट कॉम्प्लेक्स के बेसमेंट में उन का कंप्यूटर इन्स्टीट्यूट चलता है। यहाँ कंप्यूटर सीखने आने वाले छात्रों के भी वे सम्माननीय गुरु हैं। वहीं से वे सुबीर सम्वाद सेवा नाम से एक इंटरनेट समाचार ऐजेंसी चलाते हैं। 
35 वर्ष की अल्पायु में एक कहानी संग्रह का आना और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उसे पुरस्कृत किया जाना बड़ी उपलब्धि है। मैं ने उन के साथ कुछ देर गुफ्तगूँ की और एक कॉपी पी। उन्हों ने मुझे अपना पहला उपन्यास जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने ही प्रकाशित किया है, की एक प्रति भेंट की। तीन दिन बाद जिस दिन शाम मुझे सीहोर से वापस लौटना था वे शिवना प्रकाशन की ओर से एक समारोह आयोजित कर रहे थे जिस में गीतकार राकेश खंडेलवाल जी को शिवना सारस्वत सम्मान प्रदान किए जाने वाला था। उन्हों ने मुझ से भी उस कार्यक्रम में रुकने का आग्रह किया। मैं परिवार सहित सीहोर में था और अपने कार्यक्रम को बिना सब की सलाह के बदल सकना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। इस कारण मैं ने उन्हें कहा कि मैं कोशिश करूंगा। लेकिन यह अवश्य कहा कि मैं उन का यह उपन्यास पूरा नहीं तो कम से कम उस के कुछ अंश अवश्य पढ़ूंगा और जब अगली बार मिलूंगा तो उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दूंगा। 
तीसरे दिन सुबह, जिस की शाम खंडेलवाल जी को सम्मानित किया जाने वाला था, उन से पुनः भेंट हुई। वे कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त थे। अपने कंप्यूटर इंस्टीट्यूट का उन्हों ने अवकाश रखा था। इंस्टीट्यूट के हॉल से सारे कंप्यूटर हटा दिए गए थे और उसे शाम के समारोह के लिए इस तरह तैयार कर दिया था, जैसे अभी-अभी समारोह आरंभ होने वाला था। अब वे बाहर से आने वाले अतिथियों के स्वागत की तैयारी में थे। उन की इसी व्यस्तता के बीच कुछ देर उन से बात हुई। मैं उपन्यास पढ़ चुका था, उपन्यास की पृष्ठभूमि सीहोर नगर ही था। मैं ने उस से सीहोर के बारे में बहुत कुछ जाना। इन तीन दिनों में उस उपन्यास में आए पात्रों के पीछे के कुछ व्यक्तित्वों से भी तब तक मैं मिल चुका था। मैं ने इस उपन्यास के लिए उन्हें बधाई दी। यह बहुत साहसपूर्ण कार्य था। लेकिन इस के बावजूद कि उन्हें इस उपन्यास के लिए नगर के कुछ लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है, उन्हों ने सचाई को सामने रखा और सीहोर नगर को अमर कर दिया। कुछ लोगों की नाराजगी के बावजूद सीहोर के लोगों का प्यार उन्हें अवश्य प्राप्त होगा। मैं ने उन्हें कहा कि लेखन की दूसरी विधाओं की अपेक्षा उन्हे गद्य लेखन, विशेष रूप से कहानी और उपन्यास लेखन पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस से वे भारतीय और अपने आसपास के जनजीवन की सचाइयाँ लोगों तक पहुँचा सकेंगे। 
मुझे न जाने क्यों औपचारिक सम्मान समारोहों से अजीब सी वितृष्णा है, लेकिन फिर भी राकेश खंडेलवाल जी, और विशेष रूप से गौतम राजऋषि मैं शाम को खंडेलवाल जी के सम्मान समारोह में पहुँचा था। समारोह के पूर्व कुछ देर तक  खंडेलवाल जी से बात हुई। सम्मान समारोह मेरी कल्पना से भी बहुत अधिक औपचारिक हो उठा था। गौतम से समारोह के बीच आँख मिली और आँखों में ही बात हुई। समारोह के बीच जब गौतम बाहर निकले तो मैं भी पीछे-पीछे बाहर निकला और उन से कुछ देर बात हो सकी। इस बीच मुझे संदेश मिला कि मैं शीघ्र अपने ठहराव पर पहुँचूँ। मुझे समारोह के बाद का मुशायरा बीच में छोड़ कर ही लौटना पड़ा। सुबह जल्दी ही मुझे सीहोर से वापस लौटना था। सुबीर जी और गौतम से फिर भेंट नहीं हो सकी।
ज सुबह मेरे मोबाइल पर संदेश था कि सुबीर जी को उन के उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' पर पुनः भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल रहा है और 29 दिसंबर की शाम दिल्ली में चल रहे पुस्तक मेले में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया जाएगा। मैं चाहता तो था कि इस समारोह में भाग लूँ, लेकिन मेरी विवशता कि कोटा से दिल्ली पहुँचने के सभी मार्ग गुर्जर आन्दोलन ने बंद कर रखे हैं। पाठकों में से जो लोग इस समारोह में पहुँच सकें अवश्य पहुँचें। इस पुस्तक को भी अवश्य खरीदें। यह न केवल पढ़ने योग्य है, अपितु अपने निजि पुस्तकालय में संग्रहणीय पुस्तक है। अंत में पंकज सुबीर को इस सफलता पर बहुत बहुत बधाइयाँ।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अपनी गरदन पे खंजर चला तो चला

कूर 'अनवर' न केवल एक अज़ीम शायर हैं, बल्कि शहर में अदब और तहज़ीबी एकता के लिए काम करने में उन का कोई सानी नहीं। हर अदबी कार्यक्रम में उन्हें कुछ न कुछ करते देखा जा सकता है। अनेक कार्यक्रमों की सफलता में उन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हर साल मकर संक्रांति के दिन उन के घर अदबी जश्न होता है जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के लेखक, कवि, शायर ही नहीं हाजिर होते, मेरे जैसे तिल्ली के लड्डुओं और पतंग उड़ाने के शौकीन भी खिंचे चले आते हैं। उन का पहला ग़ज़ल संग्रह 'हम समन्दर समन्दर गए' 1996 में प्रकाशित हुआ था। उस के बाद 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच ने उन के लघु काव्य संग्रह 'महवे सफर' प्रकाशित किया। हिन्दी-उर्दू की प्रमुख पत्रिकाओं हंस, कथन, काव्या, मधुमति, शेष, अभिव्यक्ति, समग्र दृष्टि, कथाबिंब, नई ग़ज़ल, सम्बोधन, अक्षर शिल्पी, गति, शबखून, शायर, नख़लिस्तान, तवाजुन, इन्तसाब जदीद फिक्रो-फन, परवाजे अदब, ऐवाने उर्दू, पेशरफ्त, असबाक़ आदि में उन की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं और होती रहती हैं। वे उर्दू स्नातक हैं और उर्दू के अध्यापक भी। उन का मानना है  कि समाज का मिजाज गैर शायराना भी है, जिस से सामान्य व्यक्ति के बौद्धिक स्तर और कलाकृतियों के बीच एक  दूरी बनी रहती है। इस स्थिति से उबरने के लिए रचनाकारों को मनुष्य जीवन और समाज का गहराई से अध्ययन करते हुए समाज के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। उन की कोशिश रहती है कि उन की रचना आम लोगों के सिर पर गुजर जाने के स्थान पर उन के दिलों में उतर जाए। यहाँ पेश है उन की एक ग़ज़ल, कैसी है? यह तो बकौल खुद शकूर 'अनवर'  आप ही बेहतर बता सकेंगे।


इश्क में  अपना सब कुछ  लुटा तो  चला
दिल की ख़ातिर मैं सर को कटा तो चला

राह  की  मुश्किलें  हमसफ़र  बन   गयीं
साथ   मेरे    मेरा    क़ाफ़िला   तो   चला

देख   मरने   की   ख़ातिर   मैं   तैयार  हूँ
ओ   सितमगर   तू  तेग़े-जफ़ा  तो  चला

कितने  दिन  हुस्न  की  ये  हुकूमत चली
उम्र   ढलने  से   उन  को   पता  तो  चला

नफ़रतों   की   दिलों   से   घुटन  दूर  कर
कुछ   मुहब्बत  की  या  रब हवा तो चला

कैसे     ठहरेगा    खुर्शीद      के     सामने
रात  भर  जो   जला  वो   दिया  तो  चला

जान   'अनवर'   वफ़ा   में   गई   तो  गई
अपनी  गरदन  पे  खंजर  चला  तो  चला


शकूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृष्य


रविवार, 26 दिसंबर 2010

न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है, उस का चरित्र राज्य से भिन्न नहीं हो सकता

भी कुछ महीने पहले ही की तो बात है हम उस देवी के कुछ छिपे अंगों को देख पाए थे। पंद्रह हजार से अधिक भारतियों को एक रात में मौत की नींद सुलाने और इस से कई गुना अधिक को जीवन भर  के लिए अपंग और बीमार बना देने के लिए जिम्मेदार हत्यारा एण्डरसन अभी भी अमरीका में चैन की नींद सो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ  ने इस अपराध को एक मामूली मामले में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसी बैंच के न्यायाधीश हत्यारी संस्था द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन स्थापित अस्पताल के सर्वेसर्वा बन गए। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध कोई पुनर्विचार याचिका पेश नहीं की। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेंद्रा समेत सात अधिकारी दोषी सिद्ध हुए और पर दो-दो वर्ष के कारावास और एक-एक लाख रुपए के अर्थदंड की सजा से विभूषित किए गए। इस फ़ैसले के बाद सात जून को ही सभी आरोपियों ने अपने पॉकेट मनी के बराबर का अर्थदंड भरते ही 25-25 हजार रुपए के मुचलके और इतनी ही राशि की जमानत पर रिहा हो गए। इस फैसले से देश में नाराजगी का जो बवंडर उठा तब जा कर सरकारों (केन्द्र और राज्य दोनों) ने सर्वोच्च न्यायालय में उसके अपने निर्णय को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन पेश करने की स्मृति हो आई। जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है।
ह सर्ग  हमें बताता है कि उद्योगपति, वे देसी हों या विदेशी, राजसत्ता से उन का कैसा नाता है? केवल संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए व्यवस्था कर देने मात्र से वह स्वतंत्र नहीं हो जाती। न्यायपालिका राज्य का अभिन्न अंग है, और वह राज्य के चरित्र से अलग किसी भी तरह नहीं हो सकता। आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता की चेतना शिखर पर थी, भारतीय राज्य घोषित रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य बनने जा रहा था, और न्यायपालिका के उच्च पदों पर वे लोग पदासीन थे जो आंदोलनों के बीच से आए थे। तो उस वक्त कानून की विवेचना और निर्णय जनपक्षीय होते थे। लेकिन आजादी के पहले का कमजोर बालक, भारत का पूंजीपति वर्ग जवान होता गया, सत्ता पर अपना असर  बढ़ाता गया। वैसे-वैसे न्यायपालिका के निर्णयों का वजन जनपक्षीय पलड़े से कम होता गया और पूंजीपतियों के हितों के पलड़े की ओर बढ़ता गया। हर कोई जानता है कि 1980 में जब देश का मजदूर आंदोलन तेज था और सत्ता व सरकार पर पूंजीपतियों की पकड़ कमजोर तो, न्यायपालिका के निर्णय कमजोर वर्ग की ओर झुके होते थे। तब सिद्धांत यह था कि कानून की व्याख्या कमजोर वर्ग के हित में की जानी चाहिए। कानून वहीं रहा लेकिन देखते ही देखते इसी स्वतंत्र न्यायपालिका ने उन की व्याख्या बदल कर रख दी। कमजोर वर्ग गायब होता गया और उद्योग के हित प्रधान हो गए। उन्हीं कानूनों के अंतर्गत, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठों में निर्धारित किए गए सिद्धांतों को बदले बिना, अब जो फैसले होते हैं, 1980 तक हुए फैसलों की अपेक्षा बिलकुल उलट होते हैं। 
मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपति) अनेक माध्यमों से न्यायपालिका को प्रभावित करता है। भोपाल त्रासदी के मामले में हुआ निर्णय उस का एक उदाहरण है। हमारी सरकार जो पूरी तरह इस वर्ग से नाभिनालबद्ध है। न्यायपालिका के आकार को छोटा रखती है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना नहीं करती। आज देश में जरूरत के केवल 20 प्रतिशत न्यायालय हैं, जिस का परिणाम यह है कि न्यायार्थी को न्याय प्राप्त करने में पाँच गुना से भी अधिक समय लगता है। कुछ लोग अपने प्रयासों और जुगाड़ों से शीघ्र न्याय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो बाकी लोगों के हिस्से का न्याय दूर सरक जाता है। अनेक को तो न्याय अपने जीवन काल में मिलता ही नहीं है। दूसरी ओर उद्योगपति और वित्तीय संस्थान जिन मामलों में उन के हित प्रभावित होने होते हैं, उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करवाते हैं। सरकार भी उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर उन्हें राहत प्रदान करती है। लेकिन जनता? उस की चिंता किसे है? जहाँ शासक वर्ग के विरुद्ध मामले होते हैं उन अदालतों में वर्षों तक फैसले नहीं होते। वहाँ सरकार को भी कोई चिंता नहीं है। 

कुछ माह पहले भोपाल त्रासदी के निर्णय ने देश भर को चौंकाया था और वह आंदोलित हुआ था। वैसा ही निर्णय बिनायक सेन मामले में रायपुर के अपर सत्र न्यायालय ने दे कर फिर से चौंकाया है। अदालत  इंडियन सोशल इंस्टीटच्यूट (आईएसआई) को पाकिस्तानी खुफिया ऐंजेंसी समझ कर बिनायक सेन को देशद्रोही करार देती है। एक ऐसे चिकित्सक को जो ग़रीब जनता को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है, उन में सांगठनिक चेतना के संचार में जुट जाता है, जो राज्य के दमनकारी कानून के विरुद्ध आवाज उठाता है उस के विरुद्ध फर्जी सबूतों के माध्यम से देशद्रोह का मामला बना कर उसे बंदी बना लिया जाता है और फिर अदालत उन्हीं सबूतों के आधार पर सजा दे देती है। इस निर्णय की बहुत आलोचना हो चुकी है। निर्णय उपलब्ध होने पर उसे भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की वजहें जानी जा सकती हैं। रायपुर के एक वरिष्ठ वकील की प्रतिक्रिया इसे स्पष्ट करती है, वे कहते हैं- "कृपया इस बारे में कोई प्रतिक्रिया मत मांगिए। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है, जिससे कई राजनीतिज्ञों व पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। मैं संकट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन जब तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता मीडिया को प्रतिक्रिया देने को उत्सुक हैं, तो फिर आप मेरी प्रतिक्रिया क्यों मांग रहे हैं?"
जो लोग रायपुर फैसले की आलोचना कर रहे हैं, न जाने उन्हें इस बात की कैसे अपेक्षा थी कि बिनायक सेन निर्दोष छूट जाएंगे? मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं था कि उन्हें सजा होगी ही और वह भी आजीवन कारावास। मुझे सत्ता के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका पर पूरा विश्वास था कि वह अवश्य राज्य के दूसरे हिस्से की इज्जत अवश्य ही बचा लेगी। यह हो भी कैसे सकता है कि एक बहन संकट में हो और दूसरी उस के खिलाफ फैसला दे दे? मेरे पास इस से अधिक कहने को कुछ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश की न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है उस का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न नहीं हो सकता। जिन दिनों मैं ने वकालत आरंभ की थी तो आंदोलनकारी मजदूरों को सजा मिलने पर उन के साथ आए लोग अदालत के बाहर नारे लगाते थे,  पूंजीवादी न्याय व्यवस्था - मुर्दाबाद! वह नारा अब अदालतों में कभी लगता दिखाई नहीं देता, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नारे को देश भर में बुलंद किया जाए।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

जन्मदिन पर शिवराम के नाटकों-कविताओं की शानदार प्रस्तुति

ल साल का सब से छोटा दिन गुजर गया। एक काम शिवराम के जिम्मे था, वे इसे ले कर बहुत चिंतित थे, लेकिन पूरा नहीं कर सके थे। पिछले तीन दिनों में लग कर यह काम संपन्न कर लिया गया तो मेरे साथ अन्य साथियों ने भी राहत की साँस ली। लेकिन सर्दी अपना रंग दिखा गई। कल रात भोजन कर के जल्दी सोया था। सुबह पौने पाँच पर आँख खुली तो लगा जैसे पेट में गूजर धरना दिए बैठे हैं, रास्ता जाम है, पेट फूला हुआ है। शौच वगैरह सब सामान्य था लेकिन जो कुछ पेट में था वह सरकने को तैयार नहीं था। आज उपवास कर लिया  गया। शाम तक ठीक महसूस हुआ तो शिवराम के जन्मदिन पर आयोजित अभिव्यक्ति नाट्य मंच के कार्यक्रम में अलबर्ट आइंस्टाइन सीनियर सैकंडरी विद्यालय पहुँचा। देखा विद्यालय का प्रांगण दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। मुझे अपने लिए स्थान बनाने में कुछ मशक्कत करनी पड़ी।

मशाल
कार्यक्रम का आरंभ शिवराम द्वारा आरंभ की गई परंपरा के अनुसार मशाल जला कर हुआ। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा के अध्यक्ष महेन्द्र 'नेह' ने शिवराम के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डाली। तुरंत बाद शिवराम का नाटक 'घुसपैठिए' का मंचन आरंभ हो गया।
घुसपैठिए
नपतियों की काली कमाई से पोषित मीडिया अक्सर हमें 'घुसपैठियों' के रूप में उन्हीं आतंकवादियों की तस्वीरें दिखाता है, जो कभी करगिल, कभी कश्मीर, तो कभई समुद्र के रास्ते देश की सीमाएँ तोड़ कर खून-खराबा करते हैं और हत्याओं का घिनौना खेल खेलते हैं। यह नाटक देश, जनता और अमन के उन दुश्मनों को तो उजागर करता ही है, वहीं नट-नटी, दातुनवाला, सब्जीवाला, सूत्रधार और अभिनेता के माध्यम से उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी ऐजेंसियों की हमारे सत्ताधारियों के माध्यम से हुई 'घुसपैठ' को ठीक उसी तरह से बेनकाब करता है, जिस तरह कुछ राजा-महाराजाओं के मार्फत 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने घुसपैठ कर के हमारी रोटी, रोजगार, स्वदेशी स्वावलंबन और आजादी का अपहरण किया था। इस नाटक में शिवराम ने दर्शकों के लिए एक चुनौती छोड़ी है -कौन खदेड़ेगा देश और जनता को लूटने वाले इन घुसपैठियों को? कौन? कौन? कौन? कौन? आखिर कौन? 
ह नाटक स्वयं शिवराम के निर्देशन में 'अनाम' ने अनेक बार देश के अनेक स्थानों पर खेला। इस बार भी उन्ही कलाकारों ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया।  वृद्ध की भूमिका में अजहर, तथा नेता की भूमिका में डॉ.पवन कुमार स्वर्णकार ने विशेष  रुप से प्रभावित किया। वहीं आशीष  मोदी, राजकुमार चौहान, रोहन शर्मा, तथा संजीव शर्मा ने विभिन्न भूमिकाओं में प्रभावी अभिनय किया। अन्य कलाकारों में मनोज शर्मा, शशिकुमार, रोहित पुरुषोत्तम, आकाश सोनी, आशीश सोनी व रविकुमार का अभिनय सराहनीय था। 
स नाटक के उपरांत ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ कविताओं का सस्वर प्रभावशाली पाठ किया। और फिर आरंभ हुआ शिवराम का सुप्रसिद्ध नाटक 'जनता पागल हो गई है' इस नाटक को पहली बार आपातकाल के दौरान 1976 में बारां में खेला गया था। जो जो लोग इस नाटक में अभिनय कर चुके हैं वे सभी ख्यात भी हुए। मुझे भी इस की आठ-दस प्रस्तुतियों में एक भूमिका करने का अवसर मिला था, इस की सर्वाधिक सफल प्रस्तुति शिवराम के निर्देशन में रविन्द्र रंगमंच जयपुर पर हुई थी। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन साथियों से कुछ ऐसा हुआ था कि मुझे बहुत गुस्सा आने वाला था, शिवराम इसे भांप गए थे और उन्हों ने हमारे सभी साथियों को यह बता दिया था कि मैं आज बहुत गुस्सा होने वाला हूँ। जैसे ही मैं ठहरने के स्थान पर पहुंचा सारे वरिष्ठ साथी मुझे मनाने में लग गए। थोड़ी देर बाद जब  शांत हुआ तो मुझे लज्जा हुई, लेकिन उस से क्या? इस बहाने बुजुर्ग सभी को कॉफी और कचौड़ियों की दावत खिला चुके थे।
जनता पागल हो गई है 
नाटक 'जनता पागल हो गई है' को हम ऐसा क्लासिक कह सकते हैं, जिसे भव्य रंगमंच से ले कर सड़क पर आम जनता के बीच नुक्कड़ नाटक की तरह खेला जा सकता है। हिन्दी में नुक्कड़ नाटकों के जन्मदाता शिवराम का यह नाटक वस्तुतः जनता तक अपनी बात को पहुँचाने के माध्यम के रुप में विकसित हुआ था, जो अब तक का सब से लोकप्रिय, भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुदित हो कर देश के कोने-कोने में खेला जा चुका है और विदेशों में भी वहाँ की स्थानीय भाषाओं में इस की प्रस्तुतियाँ हुई हैं। इस नाटक के कुछ दृष्य  कुछ फेरबदल के साथ कुछ हिन्दी फिल्मों का हिस्सा भी बने हैं।
स नाटक का प्रारंभ देश की उस कोटि-कोटि भूखी-प्यासी जनता के आर्तनाद से होता है जो अपने परिश्रम से जहाज से ले कर सुई तक का उत्पादन करती है, लेकिन जिसे धनपतियों, नेताओं, हाकिमों द्वारा रूखी-सूखी रोटियों पर इसलिए जीवित रखा जाता है जिस से उस की कमाई और अपार धन-दौलत को निचोड़ा जा सके। नाटक में जनता कहती है-
"खेत सूखे, पेट भूखे, गाँव हैं बीमार
हम लोगों की मेहनत, कोठे भरता जमींदार
देह सूखी, प्राण सूखे, सूना सब संसार
कोई सुनता नहीं हमारी, क्या बोलें सरकार"
मैदान में हो रहे 'जनता पागल हो गई है' नाटक का एक दृश्य
ब चुनाव के मौसम में नेता वोट के लिए जनता को झूठे आश्वासन दे कर भरमाने का प्रयत्न करते हैं तो तो 'पागल' उसे सचेत करता है-
"वोट दो..... वोट दो.... ठोक दो.... ठोक दो....
इस जालिम सरकार के दिल पर चोट दो
इस ने रेल-हड़ताल में मेरा भाई डाला मार
मेरा बच्चा चबा गई यह जालिम सरकार!!"
'जनता पागल हो गई है' एक व्यस्त चौराहे पर
रकार के कहने से पूंजीपति जनता को कारखाने में काम देता है, लेकिन जब उसे सूखी रोटी भी नसीब नहीं होती तो वह हड़ताल कर देती है। सरकार, पुलिस, और मीसा-एस्मा जैसे काले कानूनों की मदद से जब जनता का निर्दयता पूर्वक दमन करती है तो जनता विद्रोह कर देती है। विद्रोह में कुर्बानियों के बाद जनता की जीत होती है। पूंजीपतियों और सरकार का दंभ जल कर खाक हो जाता है। इस नाटक का यही आशावादी स्वर, जज्बा, और विश्वास युवा नाट्यकर्मियों में जन-ऊष्मा का संचार करता है और देश के किसी भी हिस्से के हों, कोई भी भाषा बोलते हों, इस नाटक के मंचन के लिए कभी रंगमंच पर कभी नुक्कड़ पर और कभी चौपाल पर खेलने के लिए मचल उठते हैं। यह नाटक तानाशाह हुक्मरानों के विरुद्ध भारतीय जनता के विद्रोह का महा-आख्यान है, इसी लिए यह अपार लोकप्रियता हासिल कर सका है। जब तक हवाओं में शोषण, दमन और गुलामी का धुँआ रहेगा, यह सिलसिला जारी रहेगा। 
ज जनता की भूमिका में आशीष मोदी का मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय, और रोहित पुरुषोत्तम की सरकार के रुप में चुटीली भूमिका ने बहुत प्रभावित किया। पागल की भूमिका में अजहर अली ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया और सराहना पाई। पुलिस अधिकारी के रूप में संजीव शर्मा और सिपाहियों की भूमिका में रोहन शर्मा और मनोज शर्मा ने सधा हुआ अभिनय किया। शिवराम की अनुपस्थिति में नगर के नाट्य निर्देशक अरविंद शर्मा ने इन नाटकों की तैयारी में सहयोग किया और संगीत संयोजन में सुधीर व रामू शर्मा ने अपना योगदान दिया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि नगर के स्वतंत्रता सेनानी और वयोवृद्ध पत्रकार आनन्द लक्ष्मण खाण्डेकर और विशिष्ठ अतिथि गुरुकुल इंजिनियरिंग  कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर आर.सी. मिश्रा थे। कार्यक्रम के अंत में अल्बर्ट आइंस्टाइन स्कूल के प्राचार्य डॉ.गणेश तारे ने सभी का तथा सहयोगी संस्थाओं का आभार व्यक्त किया और सभी से शिवराम के दिखाए मुक्तिकामी संघर्षों की राह पर अनवरत चलते रहने का आव्हान किया। इस अवसर पर रविकुमार द्वारा निर्मित कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी अत्यन्त आकर्षक थी जिस में शिवराम की कविताओं पर निर्मित पोस्टर विशेष रूप से देखने को मिले।
कार्यक्रम की समाप्ति शिवराम के पूरे परिवार उन की बेटी और दामाद तीनों पुत्र और भाभी जी से एक साथ मुलाकात से भेंट मेरे लिए बड़ी सौगात थी।

इस दिन की नाट्य प्रस्तुतियों के चित्र रविकुमार के ब्लाग "सृजन और सरोकार" की पोस्ट नाट्य प्रस्तुतियों के छायाचित्र  पर देखे जा सकते हैं। 

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

कभी दर्द सहने के बजाए, दर्द निवारक ले लेना चाहिए

तवार की सुबह नींद टूटी तो गर्दन ने हिलने से इन्कार कर दिया। मैं धीरे-धीरे बिस्तर पर बैठा हुआ। मैं ने उसे बाईं तरफ घुमाया तो कोई विशेष तकलीफ नहीं हुई, लेकिन जब दायीं ओर घुमाया तो तकरीबन पाँच डिग्री घूमने के बाद ही तेज दर्द हुआ और गर्दन आगे घुमाई नहीं गई। मुझे छह साल पहले की याद हो आई। जब इस ने मुझे बहुत परेशान किया था। तब मुझे हड्डी डाक्टर की शरण लेनी पड़ी थी। उस ने कुछ दर्द निवारक औषधियाँ दी थीं और फीजियोथेरेपिस्ट के पास रवाना कर दिया था। फीजियोथेरेपिस्ट ने मुझे देखा, और एक जिम जैसे कमरे में भेज दिया। वहाँ एक दीवार में छत के पास एक बड़ी सी घिरनी लगी थी जिस से एक रस्सी लटकी हुई थी जिस के एक सिरे पर वजन लटकाने की सुविधा थी। दूसरे सिरे पर गर्दन को फँसाने के इंतजाम के रूप में एक चमड़े का बना हुआ लूप था। गनीमत यह थी कि यह लूप छोटा नहीं हो सकता था। वरना यहाँ मुझे ठीक उस घिरनी के नीचे एक स्टूल पर बैठा दिया गया गरदन को उस लूप में फँसा कर रस्सी के दूसरे सिरे पर कोई वजन लटका दिया गया। मुझे लग रहा था कि फाँसी पर चढ़ाए जाने वाले अपराधी में और मुझ में कुछ ही अंतर शेष रहा होगा। इस क्रिया को ट्रेक्शन कहा गया था। मैं समझ गया कि मेरी गर्दन को आहिस्ता-आहिस्ता खींचा जा रहा है। अनुमान भी हुआ कि गर्दन की छल्ले जैसी हड्डियों के बीच कोई तंत्रिका वैसे ही फँस गई है जैसे मोगरी (मूली की फली) की सब्जी खाने पर उस के तंतु दाँतों के बीच फँस जाते हैं और अनेक प्रयास करने पर ही बाहर आते हैं।
खैर, गर्दन खींचो कार्यक्रम लगभग एक सप्ताह चलता रहा। इस बीच मुझे आराम होने लगा। सप्ताह भर बाद फीजियोथेरेपिस्ट ने मुझे गर्दन की कुछ कसरतें बताई और मैं वे करने लगा। उन कसरतों का नतीजा यह रहा कि पिछले छह साल से गर्दन के छल्लों के बीच किसी तंत्रिका के फँसने की नौबत नहीं आई। लेकिन अब यह क्या हुआ? निश्चित ही यह पिछले दो माह से किसी तरह की कसरत न करने और बेहूदा तरीके से सोने का असर है। मैं अपनी इस अकर्मण्यता पर केवल शर्मिंदा हो सकता था। जो मैं खूब हो लिया। अपनी शर्म को छिपाने के लिए मैं अपने दर्द को छुपा गया। मैं ने किसी को न बताया कि मेरी गर्दन का क्या हाल है। रोज की तरह व्यवहार किया। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया गर्दन के दर्द में कमी आती गई। लेकिन शाम होते ही जैसे ही सर्दी का असर बढ़ा गर्दन का दर्द फिर से उभरने लगा। मैं ने रात्रि को दफ्तर में बैठ कर काम करना चाहा लेकिन न कर सका। बीच बीच में गर्दन गति अवरोधक का काम करती रही। सोमवार की सुबह जब नींद खुली तो उस का वैसा ही आलम था जैसा कि इतवार को था। इस दिन सुविधा यह थी कि मैं अदालत जा सकता था। सोमवार को भी दिन चढने के साथ दर्द कम हुआ लेकिन शाम पड़ते ही हालत वैसी ही हो गई। मैं फीजियोथेरेपिस्ट की बताई कसरतें भी कर चुका था लेकिन गर्दन थी की मानती न थी। रात को दफ्तर में बैठ कर कुछ काम भी करना पड़ा। आधी रात को बिस्तर पर पहुँचा तो जैसे तैसे निद्रा आ गई। 
मंगलवार की सुबह फिर वैसी ही रही। यह दिन बहुत बुरा गुजरा। एक तो एक बहुत जरूरी काम था  जिसे मैं दो दिन से टाले जा रहा था। उसे कैसे भी पूरा करना था। लेकिन पहले दो दिनों की तरह दिन चढ़ने के साथ दर्द में कोई कमी नहीं आ रही थी, वह जैसे का तैसा बना हुआ था। बस दो दिनों से दर्द सहने की बन गई आदत ने बहुत साथ दिया। जैसे-तैसे दिन तो अदालत में गुजर गया। लेकिन शाम बहुत बैचेनी हो गई। मुझे लगा कि गर्दन के इस तिरछेपन में सर्दी की भी भूमिका है। मैं ने शाम पड़ते ही गरदन को मफलर में लपेट कर सर्दी से पूरी तरह बचाने की कोशिश की। लेकिन मेरी इस हरकत ने मेरी पोल खोल दी। पत्नी जी ने पकड़ लिया। तुरंत सवालों की झड़ी लग गई। .... जरूर पेट खराब रहा होगा, गैस बनी होगी, आज कल कसरतें बिलकुल बंद कर दी हैं, वजन कितना बढ़ गया है.... आदि आदि। मेरे पास एक भी सवाल का जवाब नहीं था। होता भी तो क्या था? हर जवाब को बहाना ही समझा जाता। आखिर नौ बजते-बजते तो हालत खराब हो गई। दर्द असहनीय हो गया। पत्नी जी ने सुझाया कि अब परेशान होने के बजाय अलमारी में से नौवाल्जिन की गोली निकालो और खा लो। मेरे पास इस प्रस्ताव को टालने का कोई मार्ग नहीं था। मैं ने निर्देश पर तुरंत अमल किया। ये क्या? पन्द्रह मिनट भी नहीं बीते हैं कि मैं बिस्तर से निकल कर दफ्तर में आ बैठा हूँ, दर्द कम होता जा रहा है और इस पोस्ट को लिखते-लिखते इतना कम हो चुका है कि अब मैं दो घंटे और बैठ कर अपना काम पूरा कर सकता हूँ। जिस से मुझे कल अपने मुवक्किलों के सामने शर्मिंदा न होना पड़े।
भी-अभी एक बात और सीखी कि कभी दर्द सहने के बजाए दर्द निवारक का प्रयोग भी कर लेना चाहिए। जिस से आप की दैनिक गतिविधियाँ मंद न पडें और मस्तिष्क को भी आराम मिले। गर्दन के छल्लों में फँसी तंत्रिका भी दो चार दिन में अपने मुकाम को पा कर स्वस्थ हो ही लेगी। फिर तसल्ली की बात यह भी है कि सर्दी के दिन अब कितने रह गए हैं। आज का दिन, कल के दिन से दो सैकंड छोटा था आज की रात साल की सब से लंबी रात होगी, और कल का दिन साल का सब से छोटा दिन, वह आज से एक सैकंड छोटा होगा। फिर परसों का दिन 23 दिसंबर, वह कल के दिन से एक सैकंड बड़ा होगा। फिर उस के बाद दिन शनैः शनैः बड़े होते जाएँगे और सर्दी कम। आप चाहें तो नीचे बनी सारणी में देख सकते हैं.......
 
कोटा, राजस्थान में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय

दिनांक
सूर्योदय
सूर्यास्त
दिनमान
समयांतर


21 दिसंबर 2010
07:07
17:42
10h 34m 21s
− 02s

22 दिसंबर 2010
07:08
17:42
10h 34m 21s
< 1s

23 दिसंबर 2010
07:08
17:43
10h 34m 23s
+ 01s

24 दिसंबर 2010
07:09
17:43
10h 34m 26s
+ 03s

25 दिसंबर 2010
07:09
17:44
10h 34m 32s
+ 05s

26 दिसंबर 2010
07:10
17:44
10h 34m 40s
+ 07s

27 दिसंबर 2010
07:10
17:45
10h 34m 50s
+ 10s




शिवराम को एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि !!!

नाटककार, रंगकर्मी, कवि, आलोचक, साहित्यकार, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता, शीर्ष राजनैतिक नेता शिवराम के व्यक्तित्व के अनेक आयाम थे। लेकिन उन के सभी कामों का एक ही उद्देश्य था। जनता को सचेतन करना, शिक्षित करना और संगठित होने के लिए प्रेरित करना और संगठित होने में उन की मदद करना। उन की राय में श्रमजीवी जनता की मुक्ति का यही एक मार्ग था। उन के इस बहुआयामी व्यक्तित्व में रंगकर्म सब से पहले आता था। इसी से उन्हों ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का सफर आरंभ किया था और अंतिम दिनों तक वे इस से जुड़े रहे। पिछली पहली अक्तूबर को उन्हों ने हम से सदा सर्वदा के लिए विदा ली है। तीन माह भी नहीं गुजरे हैं कि 23 दिसंबर 2010 को उन का बासठवाँ जन्मदिन आ रहा है। 
शिवराम अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच (अनाम) कोटा के जन्मदाता थे। इस 23 दिसंबर को अनाम अपने जन्मदाता की अनुपस्थिति में उन्हें एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पहली बार उन का जन्मदिन मनाएगा। इस दिन साँयकाल 6.30 बजे एलबर्ट आइंस्टाइन सीनयर सैकण्डरी विद्यालय, वसंत विहार, कोटा के रंगमंच पर, जहाँ शिवराम की उपस्थिति और उन के निर्देशन में अनाम ने पहले भी अनेक नाटकों का मंचन किया है, अनाम शिवराम के सब से उल्लेखनीय और शायद सब से अधिक मंचित नाटक 'जनता पागल हो गई है' और 'घुसपैठिए' का मंचन करने जा रहा है। इस अवसर पर शिवराम की एक शिष्या ऋचा शर्मा उन की कविताओं का सस्वर पाठ करेंगी और उन के पुत्र रविकुमार अपने कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी सजाएंगे। इस अवसर पर नगर के वयोवृद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी मुख्य अतिथि होंगे तथा गुरूकुल इंजिनियरिंग कॉलेज कोटा के प्राचार्य डॉ. आर.सी. मिश्रा विशिष्ट अतिथि होंगे। शिवराम के रंगकर्म और उन के  अन्य कार्यों के सहयोगी विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा, श्रमजीवी विचार मंच कोटा तथा एलबर्ट आइंस्टाइन सी.सै. विद्यालय, कोटा इस आयोजन में अनाम का सहयोग कर रहे हैं। 

  स आयोजन का निमंत्रण यहाँ प्रस्तुत है। आप सभी से अनुरोध है कि जो भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकता है वह इस अवसर पर अवश्य उपस्थित हों।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

चिड़ियाघर : एक लघुकथा

स बार मैं 5 दिसंबर से 13 दिसंबर तक यात्रा पर रहा। इस यात्रा में जयपुर, मेरी ससुराल जो राजस्थान के झालावाड़ जिले के अकलेरा कस्बे में है, सीहोर (म.प्र.) और भोपाल जाना हुआ। जयपुर यात्रा तो रूटीन की कामकाजी यात्रा थी। लेकिन ससुराल और सीहोर मेरी साली के बेटे की शादी थी। इस बीच बहुत लोगों से मिलना हुआ। कुछ ब्लागर साथियों से भी मुलाकात हुई। उन सब के बारे में लिखना भी चाहता हूँ। लेकिन अभी कुछ तारतम्य ही नहीं बन पा रहा है। चलिए उन के बारे में फिर कभी। यात्रा से वापस लौटने के तीसरे दिन 15 दिसंबर को ही हमारी कोटा की अभिभाषक परिषद के चुनाव थे। उस के एक दिन पहले सिम्पोजियम हुआ, जिस में सभी उम्मीदवारों ने अपना-अपना घोषणा पत्र घोषित किया। सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों से अच्छा खासा शुल्क लिया जाता है। इस तरह एकत्र राशि से शाम को वकीलों का भोज आयोजित किया जाता है। इस बार 1300 के लगभग मतदाता थे। तो कोटा की परंपरागत कत्त-बाफला के स्थान पर बफे-डिनर आयोजित किया गया।  जैसा कि सब का विश्वास था, डिनर में सब से पहले एक मिठाई समाप्त हो गई, फिर दूसरी और धीरे-धीरे अंत में केवल चपाती, पूरी और दाल ही शेष रह गई। देरी से आने वालों को इन से ही संतुष्ट होना पड़ा। जब डिनर का अंतिम दौर चल रहा था तो मौज-मस्ती आरंभ हो गई और नौजवान लोग संगीत पर नृत्य करने लगे। इस बीच मुझे एक कहानी सूझ पड़ी, जिसे मैं ने भोज के दौरान और दूसरे दिन जब मतदान हो रहा था तो चार-पाँच लोगों के तकरीबन पच्चीस से तीस समूहों को सुनाया। हर बार कहानी में कुछ कुछ सुधार (improvisation) होता रहा। आज वही लघु-कथा आप के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ .....



'लघुकथा'
चिड़ियाघर
  • दिनेशराय द्विवेदी
धर इंसानों की आबादी बढ़ती रही और जंगल कटते रहे। इंसानों ने नदियों पर बांध बना लिए, नतीजे के तौर पर नदियाँ बरसात के बाद विधवा की सूनी मांग होने लगीं। जंगल के पोखर भी जल्दी ही सूखने लगे। इस से सब से अधिक परेशानी जंगल के जानवरों को हुई। खाने को वनस्पति कम पड़ने लगी। शिकारी जानवरों को शिकार की कमी होने लगी। पीने को पानी तक नहीं मिलता। उस के लिए भी उन्हें मीलों भटकना पड़ता। जानवरों का जंगल में जीना मुहाल हो गया। एक दिन यह खबर जंगल में पहुँची कि निकटवर्ती कस्बे में एक चिड़ियाघर बनाया जा रहा है। अब ये चिड़ियाघर क्या होता है यह जंगल में कौन समझाता। पर तभी वहाँ चिड़ियाघर में अधिक हो जाने के कारण वापस जंगल में छोड़े गए एक रीछ ने उन की ये मुश्किल आसान कर दी। उस ने कुछ जानवरों को बताया कि यह एक छोटे जंगल जैसा ही बनाया जाता है। जिस में जानवरों को रखा जाता है। वहाँ गुफा बनाई जाती है। पीने और नहाने के लिए ताल बनाया जाता है। सब से बड़ी बात तो ये कि  वहाँ भोजन के लिए भटकना नहीं पड़ता। खुद इंसान उन के लिए भोजन का इंतजाम करते हैं। यहाँ तक कि जिस जानवर को जैसा भोजन माफिक पड़ता है वैसा ही दिया जाता है। बस एक ही कमी होती है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। सुनने वालों को बहुत आश्चर्य हुआ कि जो इंसान उन का शिकार करता है या पकड़ कर ले जाता है वह इस तरह जंगल के प्राणियों के लिए चिड़ियाघर भी बनाता है। 
ल्दी ही यह आश्चर्यजनक समाचार जंगल के सभी प्राणियों तक पहुँच गया। अब सभी आपस में मिलते तो चिड़ियाघर की बातें करते। धीरे-धीरे यह मत प्रभावी होने लगा कि किसी तरह चिड़ियाघर में पहुँचने का जुगाड़ किया जाए। वहाँ जरूर जीवन बहुत आसान और मजेदार होता होगा। बस एक ही तो कमी है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। इस कमी का क्या? यहाँ जंगल में ही कौन सा बहुत स्थान रह गया है। हर साल जंगल छोटा और छिछला होता जाता है। कैसे चिड़ियाघर में पहुँचा जा सकता है यही युक्ति हर कोई तलाशने लगा। फिर पता लगा कि जैसे ही चिड़ियाघर का निर्माण पूरा हो जाएगा खुद चिड़ियाघर के लोग यहाँ आएंगे और जानवरों को ले जाएंगे। तब यह बात चली की वे सब को थोड़े ही ले जाएँगे, उन्हें जितनी जरूरत होगी ले जाएंगे। अब यह मुश्किल हो गई कि कौन चिड़ियाघर जाएगा और कौन नहीं। जब भी बात चलती जानवर बात करते-करते आपस में झगड़ने लगते। कोई कहता मैं हुनरमंद हूँ, वहाँ जाने की योग्यता रखता हूँ लेकिन तुझ में तो कोई हुनर ही नहीं है तुझे कोई क्यों ले जाएगा, तुम जानते नहीं वहाँ हुनरमंद जानवरों की रखते हैं। इंसान कोई बेवकूफ नहीं हैं जो बेहुनरों को वहाँ ले जा कर रखेंगे। फिर कौन कितना हुनरमंद है इस की प्रतिस्पर्धा होने लगती। कभी कभी यह लड़ाई इस स्तर पर पहुँच जाती कि जानवर आपस में भिड़ कर लहूलुहान हो जाते। एक दिन तो जानवरों को दो गुटों में बाकायदे युद्ध ही हो गया। दोनों तरफ के चार-चार जानवर खेत रहे। 
स घटना से जंगल में सन्नाटा फैल गया। जंगल में जब तक किसी को अपना जीवन बचाने की जरूरत न हो कोई जानवर दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाता था। बातों ही बातों में युद्ध का यह पहला अवसर था। जंगल में जो दानिश जानवर थे वे चिंता में पड़ गये। आपस में विचार विमर्श करने लगे। रीछ जो चिड़ियाघर में रह कर आ चुका था उस ने कहा कि इंसानों में तो यह बातों के झगड़े बहुत होते हैं लेकिन वे आपस युद्ध नहीं करते। वे आपस में बैठ कर ही मसलों को निपटा देते हैं। जब भी कहीं रहने के लिए कुछ को छांटना होता है तो वे लोग मतदान कर के चुनाव करा लेते हैं। जिस के समर्थन में अधिक लोग होते हैं उन्हें ही रहने भेज दिया जाता है।
क दानिशमंद ने सवाल उठाया कि ये तो गलत पद्धति है, इस से तो ये होता है कि जो एक बार कहीं रहने चला गया वह हमेशा ही वहाँ रहता रहेगा, शेष लोग ताकते रह जाएंगे। तभी रीछ ने पलट कर जवाब दिया कि, नहीं ऐसा नहीं होता। ये लोग केवल कुछ साल के लिए चुने जाते हैं। अवधि समाप्त होते ही वापस लौट आते हैं। फिर से नए लोग चुने जाते हैं। नए चुने जाने वाले लोगों में पुराने भी हो सकते हैं। यह बात जानकर दानिशमंदों ने तय किया कि वे भी चिड़ियाघर जाने वाले जानवरों का चुनाव मतदान से कराएंगे और यह भी मुनादी करा दी गई कि यह चुनाव साल भर के लिए ही होगा। साल भर बाद अभी के चुने हुए जानवर वापस लौट आएंगे सालभर बाद फिर से चिड़ियाघर जाने वालों का चुनाव होगा। दानिशमंदों की इस मुनादी के जंगल में झगड़े रुक गए और जानवर अपना अपना समर्थन जुटाने में जुट गए। 
खिर चिड़ियाघर तैयार हो गया। चिड़ियाघर वाले जानवरों को ले जाने के लिए जाल, पिंजरे और ट्रेंकूलाइजर वगैरा ले कर आए। वे जानवरों को पकड़ने के लिए स्थान का चुनाव करने के लिए आपस में विचार विमर्श कर ही रहे थे कि क्या देखते हैं कि पूरे जंगल के जानवर उन्हें घेरे खड़े हैं। वे सब घबरा गए, अब क्या करें? उन के पसीने छूटने लगे।   तभी रीछ ने आगे बढ़ कर कहा - आप को घबराने की जरूरत नहीं है। हमें पता है कि आप लोग अपने चिड़ियाघर के लिए हम में से कुछ को लेने आए हैं। मैं खुद कभी चिड़ियाघर में रह चुका हूँ। मैं ने ही यहाँ सब जानवरों को चिड़ियाघर में रहने के लिए तैयार कर लिया है। यहाँ हर कोई चिड़ियाघर में जाने को उद्दत है। 
स पर चिड़ियाघर के अधिकारी ने घबराते हुए कहा कि आप लोग तो बहुत सारे हैं। हमें तो कुछ ही जानवरों की जरूरत है। तब रीछ ने जवाब दिया। आप तो संख्या बताइए आप को कितने-कितने और किस-किस किस्म के जानवर ले जाने हैं। हम खुद ही उन का हमारी मर्जी से चुनाव कर के आप को दे देंगे। बस एक ही शर्त है। 
रीछ की बात सुन कर चिडियाघर का अधिकारी सोच में पड़ गया कि अब रीछ न जाने क्या शर्त सामने रखेगा। -आप अपनी शर्त बताइए। रीछ ने तुरंत शर्त बताई -आप को ये जानवर साल भर बाद जंगल में वापस भेजने पड़ेंगे। साल भर बाद हम जंगल वाले उन्हीं किस्मों के उतने ही जानवर आप को नए चुन कर देंगे जिन को आप फिर साल भर चिडियाघर में रख सकेंगे। इस तरह हर साल आप को चिड़ियाघर के जानवर बदलते रहना होगा।

सुनने वालों ने इस कहानी को खूब पसंद किया। दोस्तों, आप की क्या राय है?