@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है

र में बच्चों में झगड़ा हुआ, छोटा बड़े की पीठ पर चढ़ गया और कंधे पर काट लिया। बड़े का कंधा घायल हुआ, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। जब घर के मुखिया से पूछा कि ये कैसे हुआ? तो वह कहने लगा -हमारे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। लगता है किसी ने षड़यंत्र किया है। 
रेल पर रेल चढ़ गई तकरीबन 70 लोगों की जानें गईं। कितने ही घायल हो कर अपंग हो गए, एक रेल इंजन और कितने ही डब्बे नष्ट हो गए। कितने ही अपने परिजनों की मृत्यु से बेसहारा हो गए।  लेकिन ममता दी भी यही कह रही हैं, षड़यंत्र औऱ तोड़-फोड़ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। चार दशक पहले ऐसे ही सुनने को मिलता था कि यह सीआईए का षड़यंत्र है या केजीबी ने ऐसा किया है। हालाँकि इस हादसे के वक्त रेल मंत्री का यह बयान पूरी तरह बचकाना है।

लो मान भी लिया जाए कि यह षड़यंत्र है, तो क्या रेल प्रबंधकों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे किसी भी तरह के षड़यंत्र से बचने की व्यवस्था रखें। लेकिन इस हादसे को षड़यंत्र का नाम देना पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी से तौबा करना है। बाद में इसे मानवीय भूल कहा जा सकता है, या फिर तकनीकी त्रुटि। तकनीकी त्रुटि भी अंततः मानवीय भूल ही होती है। क्यों कि वह भी मानवीय भूल या लापरवाही का नतीजा होती है। 
वास्तव में पिछले तीस वर्षों से देश जिस रास्ते पर चल रहा है उस के अंतर्गत हर स्थान पर मनुष्य को विस्थापित कर तकनीक को स्थान दिया गया है। जब कि यह देश जहाँ जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक घनी है और दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाला भूखंड होने जा रहा है। जहाँ दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार लोग निवास करते हैं जिन की संख्या लाखों  में  नहीं करोड़ों में है वहाँ तकनीक का विस्तार इस रीति से होना चाहिए था कि लोग बेरोजगार न हों, अपितु नए रोजगारों का सृजन हो। लेकिन हो इस का उलटा रहा है। 
कनीक पर अरबों रुपयों का खर्च हो रहा है और नतीजे के रूप में रोजगार पर लगे लोग बेरोजगार कर दिए जाते हैं। इस अनुसंधान पर करोड़ों रुपयों का खर्च हो रहा है कि कैसे कम से कम लोगों के नियोजन से उद्यम चलाए जा सकते हैं? जो उद्यम बिना मानवीय हाथों के नहीं चल सकते वहाँ और बुरी स्थिति है। सरकारें कंगाल हैं। उस का उदाहरण है, सरकारी विभागों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं। रिक्त पदों के कारण जरूरी काम लंबित पड़े रहते हैं। नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी नहीं हैं, सारा देश गंदगी से अटा पड़ा है, भौतिक और मानसिक दोनों तरह की। सरकार के पास विभागों में कर्मचारी कम हैं। बिजली कंपनियों में कर्मचारियों की कमी है। और रेल में वहाँ तो स्थिति और भी भयानक है। पिछले तीस बरसों में रेलों का लगातार विस्तार हुआ है। लगभग दुगनी से भी अधिक माल और सवारियाँ ढोई जा रही हैं लेकिन वहाँ नियोजित कर्मचारियों की संख्या आधी से भी कम रह गई है। 
सा लगता है कि दो या तीन खेमों वाली राजनैतिक प्रणाली में राजनेता जानता है कि पाँच साल बाद उसे फिर से सड़क पर आने है। वह सिर्फ तदर्थ रुप से काम करता है। यह तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है। वह देश को सिर्फ पाँच वर्ष के लिए चलाता है। आरंभिक वर्षों में जैसे चले चलाओ। अगले चुनाव के वक्त बताने लायक काम दिखाओ, जब चुनाव नजदीक आ जाएँ तो जनता के धन को वोट कबाड़ू योजनाओं में बरबाद करो। जब सरकार बदल कर नए दल या गठबंधन की आती है तो सब से पहले यही घोषणा करती है कि जाने वाली सरकार खजाना खाली छोड़ गई है।
मता दी के लिए रेल मत्रालय तदर्थ ही है, उन का पूरा ध्यान बंगाल पर है कैसे वहाँ तृणमूल दल का राज स्थापित हो। देश का तृणमूल भले ही सूखा और नष्ट होता रहे, किसी को उस की फिक्र नहीं। पर ऐसे में जब तृणमूल (Grass-root) का जीवन नष्ट होने की कगार पर चला जाए तो अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे ही प्रयत्न करने होंगे। तमाम राजनैतिक दलों ने अब तक निराश किया है। अब जनता की एक बड़ी ताकत की आवश्यकता है जो इस देश को बदल सके, इस देश की जनता के जीवन और भविष्य के लिए। हम छोटे छोटे लोगों को ही उस ताकत को बनाना होगा। इस का उपाय यही है कि छोटे से छोटे स्तर पर जहाँ भी जितनी भी संख्या में हम संगठित हो सकते हों हों, अपने जीवन की रक्षा और उस की अक्षुणता के लिए। ये छोटे-छोटे संगठन ही किसी दिन बड़े और विशाल देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर लेंगे।


सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।

रविवार, 18 जुलाई 2010

पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?

दो दिनों की व्यस्तता के बाद कल शाम भोजन करते हुए टीवी पर समाचार देखने का सुअवसर मिला। वहाँ भारतीय पुलिस का गुणगान हो रहा था। बड़ा अजीब दृश्य था। उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर के एक घर में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर अपनी पूरी यूनीफॉर्म में एक फोटो हाथों में लिए फफक-फफक कर रो रही थी। उस की बेटी अचानक गायब हो गई थी। पुलिस को रिपोर्ट कराई गई थी। लेकिन बावजूद इस के कि वह खुद एक पुलिस अफसर थी उसे यह पता नहीं लग पा रहा था कि पुलिस ने इस मामले में क्या किया है और क्या कर रही है?
फिर दिल्ली के ही किसी एक स्थान पर एक चैनल के परोपकारी पत्रकारों ने एक नाबालिग लड़की को किसी देहव्यापार अड़्डे से छुड़ाया था। पुलिस को सूचना थी लेकिन वह समय पर नहीं पहुँच सकी। इस काम में पत्रकारों को बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। पुलिस पहुँची भी तो तब जब कि काम पूरा हो चुका था, बिलकुल फिल्मी स्टाइल में। पुलिस की देरी से पहुँचने की वजह अवश्य पता नहीं लगी। लेकिन जब उस की कहीं आवश्यकता थी तब वह क्या कर रही थी? इसी खबर के साथ चैनल पर पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी टिप्पणी करने के लिए मौजूद थीं। वे कह रही थीं कि यह काम पुलिस की प्राथमिकता में नहीं था। यदि होता तो पत्रकारों के पहले पुलिस वहाँ होती और निश्चित रूप से वह अड्डा सील कर दिया गया होता।
ब हम ये देखने की कोशिश करें कि पुलिस आखिर कहाँ थी। निश्चित रुप से उत्तरप्रदेश की पुलिस तो मायावती जी के किसी फरमान को बजा ला रही होगी। फरमानों से फुरसत मिली होगी तो किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में रही होगी। यह भी हो सकता है कि इन दोनों कामों के स्थान पर किसी तीसरे काम में उलझी हो और अपनी ही पुलिस इंस्पेक्टर की खोई हुई बेटी की तलाश के लिए समय ही नहीं मिला हो। वैसे भी पुलिस के लिए यह काम सब से अंतिम प्राथमिकता का रहा होगा। इंसपेक्टर के पद तक के लोग ही तो हैं जो कुछ काम करते हैं। उस के बाद के तो सभी अफसर हैं। पहले अफसरों के हुक्म बजा लिए जाएँ तभी तो उन्हें कोई काम करने की फुरसत हो। अब एक सब इंस्पेक्टर की बेटी के मामले में काहे की प्राथमिकता?
दिल्ली पुलिस को तो इन दिनों वैसे भी फुरसत कहाँ है। बरसात के मारे जाम लग रहे हैं उन्हें हटाना है। कॉमनवेल्थ खेलों के लिए दिल्ली वालों को बहुत कुछ सिखाना है। वीआईपी सुरक्षा का काम दिल्ली के लिए छोटा-मोटा नहीं है। फिर वैसे ही थानों में अपराध कम दर्ज नहीं होते, आखिर उन से भी निपटना पड़ता है। अब ऐसे में कोई बुद्धू पुलिस अफसर ही होगा जो देहव्यापार के अड्डे पर किसी नाबालिग को छुड़ाने जैसे अपकारी काम में पड़ेगा। फिर इस के अलावा और भी तो काम हैं, पुलिस के पास।
क व्यक्ति ने अपने छोटे भाई के नाम से प्लाट खरीद लिया। भाई बड़ा हुआ तो प्लाट पर अपना अधिकार जताने लगा। भाई को  रुपया दे कर प्लाट अपनी पत्नी के नाम करवाया। अब छोटे भाई को फिर पैसों की जरूरत है। वह पैसा मांगता है। नहीं देने पर उस ने अदालत में शिकायत कर दी कि उस के भाई ने फर्जी कागज बनवा कर प्लाट हड़प लिया है। अदालत ने भाई के बयान ले कर मामला पुलिस जाँच के लिए भिजवा दिया। पुलिस को सिर्फ जाँच कर के रिपोर्ट अदालत को देनी है। पर पुलिस का जाँच अधिकारी एक दिन तो बड़े भाई को दिन भर थाने में बिठा चुका है। सुझाव दिया है कि वह आधा प्लाट भाई के नाम कर दे और बीस हजार पुलिस अफसर को दे दे तो वह उसे छोड़ देगा। वह रुपयों का इंतजाम करने के बहाने थाने से छूटा और गिरफ्तारी के भय से शहर छोड़ गया। पुलिस थाने से उस की पत्नी को फोन आ रहा है कि उसे थाने भेज दो वर्ना तुम्हें घसीटता हुआ थाने ले आऊंगा। अब बोलिए इस महत्वपूर्ण काम को छोड़ कर कौन पुलिस अफसर देहव्यापार अड्डे पर जाएगा।  
फिर इलाके में आठ-दस नौजवान ऐसे भी हैं जो गलती से तैश में आ कर किसी के साथ मारपीट करने की गलती कर चुके हैं। एक बार पुलिस और अदालत के चंगुल में फँसे तो पनाह मांग गए। उन में से कई तो इलाका छोड़ गए और चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमाने में लगे हैं। अब पुलिस को यह कैसे बरदाश्त हो कि एक बार उन के चंगुल में जो व्यक्ति फँस जाए और फिर भी चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमा ले। यदा कदा उन्हें तलाश कर के उन्हें तड़ी मारनी पड़ती है, बिना नाम की एफआईआर दर्ज हुई है। हुलिया तेरे मिलता है। तीन हजार पहुँचा देना वर्ना अंदर कर दूंगा।
ई गाड़ी खरीदी, पूजा-शूजा करा के गाड़ी चलाना आरंभ किया। रजिस्ट्रेशन विभाग से नंबर मिले तो अस्थाई प्लेट उतरवा कर उसे नंबर लिखवाने डाला। तीन घंटे में प्लेट लग जाती। गाड़ी वाले ने सोचा तब तक एक दो काम निपटा लूँ। गाड़ी थाने के सामने से निकली तो रोक ली गई। हिदायत मिली, -नई गाड़ी ली और बिना पूजा के  चलाने भी लगे, नंबर प्लेट भी नहीं लगाई। गाड़ी वाले ने कहा पूजा तो करवा ली, तो सुनने को मिला -मंदिर में करवाई होगी। इधर थाने का क्या? पाँच लाख की गाड़ी है, पाँच हजार पूजा के ले कर आ तब गाड़ी मिलेगी। वरना यहीं खड़ी है थाने पर। 
ब आप ही बताइये पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि देहव्यापार के अड्डे से नाबालिग लड़की छुड़वाए और सब इंस्पेक्टर की लड़की को तलाश करे।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

"बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का एकादश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के दस सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब ग्यारहवें सर्ग से इस का द्वितीय खंड आरंभ होता है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का एकादश सर्ग "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" प्रस्तुत है ................ 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

एकादश सर्ग
 
 "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का"
 
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
रोमन समराजी भागा -
उज्जैन खरे सोने का
कहलाने लगा अभागा -
दासों की गई मुसीबत
जेरूसेलम ने रागा -
जो चमका स्वर्ण सवेरा
वह तो था 'मिरगा' चमका
जो भरता था खर्राटा
वह देख जमाना जागा
उठ, उठ हौवा के बेटे
आवाज तूर से आई
उठ अपनी मुक्ति बना ले
केरल में बोले कागा -
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
 
यह शुभ बेला है हल्दी
अक्षत से पूजित गोदें
घर-घर में बजे बधावा
आए नव पाहुन भोले
जय हो नव आगत जन की
तू भू का श्रेष्ठ रतन है
तू ब्रह्म अंश अविनाशी
स्रष्टा का श्रेष्ठ रतन है
निज कर्मों से है पूजित
तू पतित, हीन ले मन है - 
तन पूर्व पुण्य का फल है
औ, इस का एक नियम है
पण्डित की -- ठेकेदारी
पादरी, मौलवी बाँटे -
अब खट पट एक करे तो
दूसरा उछल कर डाँटे
अब देख तमाशा देख-देख अब दे - ख ........
 
जल कोस-कोस पर बदले
औ तीन कोस पर बानी, 
दस-पाँच कोस पर बदले
अब राजा की रजधानी,
क्या रोम अरब,  क्या भारत
सब करे जमीं का ठेका,
जो ऊपर चढ़ के देखा
तो घर-घर एके लेखा
सूरज के वंशज देखो,
महलों में ढिबरी जारे,
जो छीने इंद्रासन अब
रैयत को मारे - डारे -
हो गया खिराज खड़ कर
पैदा का एक तिहाई
ऊपर से अमला-फैला
लूटे धन कर कस्साई -
कब कौन माण्डलिक बन कर 
जा राज सभा में राजे,
यह कौन जानता है जी
कब किस की किस्मत गाजे -
यह देखो राजा - रानी 
का झगड़ा - रगड़ा - पचड़ा
यह पहलू बड़ा कठिन है
कब पड़े कौन सा तगड़ा
अब करे किसानों का सौदा
भामा जी का कर्ज चलावें,
सम्राट मांगने कर्जा
घर मामाजी के धावें -
पण्डित जी देखो बाटें
घर वैश्यों के जा गजला
जो शूद्र कभी कहलाए
अब लगे कहाने महरा -
यह देख तमाशा देख-देख भई दे - ख
 
है हिस्सा का बंटवारा
बड़ चलो भाइयों लड़ने !
नेता के एक हुकुम पर
चढ़ चलो भाइयों मरने !
बन गया कुरानी मन्तर
नंगे तेगा का पानी
अरबी घोड़ों पर बैठी
निकली बे फ़ाँट जवानी
कज्जाक, तुर्क, मंगोलों 
के छोरे बड़े चकोड़े
बाजार गरम इसलामी
ये बे लगाम के घोड़े,
रावी - झेलम का पानी
नापाक हुआ पण्डित जी,
अब बौद्ध, ब्राह्मणों देखो
ताकत अपनी चण्डी की,
खूँ-धर्म-सभ्यता-संस्कृति
का फेंट अनोखा देखो-
अब अपने आदर्शों का 
यह खिचड़ी चोखा देखो
उठ देख तमाशा देख-देख अब दे -ख 
 
आ रहा कबीरा देखो--
नौ मन का हीरा देखो --
 जो बात न अब तक देखी --
 वह कहे कबीरा देखो --
पण्डित चितकबरा देखो --
मस्जिद का लबरा देखो --
साधू मुस्टंडा देखो --
सतयुगिया गुण्डा देखो --
वह दीन ऐलाही देखो --
मजहबी तबाही देखो --
आदाब बजाती मुल्ला --
के संग हरजाई देखो --
मरहट्टी दुर्गा देखो --
सामंती गुर्गा देखो --
उस ओर पोप का खेला
ठंडा हो रहा झमेला देखो
हरि बोल ! धरम है भैया
अब चार दिशाओं का मेला,
जर्मन की जागी जनता
विद्रोह किसानों का है
यह पोप ढोंग का पुतला
ऐलान जवानों का है
इंग्लेंड - फ्रांस और इटली
का बनिया डंडी मारे
जो राजा अब आँख दिखाए
तो तिरिया - चरित पसारे
यह लेन--देन का सौदा
है बीच बजरिया देखो --
दरबार मुगलिया देखो --
बेजोड़ पतुरिया देखो --
जन्नत की जुल्फें देखो --
खुलते हैं कुलफे देखो --
जलते हैं सुलफें देखो --
चलती हैं हलफें देखो --
यह लाल परी है मेरी --
बाकी सब कुछ है तेरा 
नीलाम चढ़ी है उल्फत
अब इम्तिहान है मेरा --
यह देख तमाशा देख -- देख उठ  दे--ख

लो, जोश जाति का उबला
आदर्श पुराना मचला
पर बुझते हुए चिरागों
का व्यर्थ सभी है मसला
जनता को स्वाद लहू का
मिल गया उसे दो भेड़ा
भेड़ा तुम जिसे समझते
अह वह है उड़न बछेड़ा
जो कृषक दलालों के हैं
दरबारी  पाग--पगड़िया
जागीर लगे हथियाने
बन कर के पंच हजरिया
हो गया गाँव का हिस्सा
ले देख नया यह किस्सा
मुखिया जी लगे पढ़ाने
अब गाँव--टोल को झिस्सा
दरबारी  लटरम-पटरम
घुस गया गाँव में देखो--
जो बात न अब तक देखी 
यह बात गुलहिया देखो--
यह देख तमाशा देख-देख अब देख

पण्डित-अल्लामा देखो--
गँवई श्री नामा देखो--
वह चुप्पा भोगी देखो--
हर जोता योगी देखो--
सामन्त समागम देखो--
हसुआ का आगम देखो--
 
दरबार झमकता देखो
 है गाँव बनकता देखो
है ताजमहल वह देखो
यह फूटा चंबल देखो
वह फूल सेजरिया देखो
यह मुफ्त कहरिया देखो
रंगीन कहानी देखो
बर्बाद जवानी देखो
वल्लाह ! अटारी देखो
व, भूख, बेगारी देखो
जुल्मत के कोड़े देखो
जिस्मों पर फोड़े देखो
हंसों के जोड़े देखो
जीवन सुख मोड़े देखो
महलों के डोले देखो
खेतों के शोले देख
 
लड़ती तस्वीरें देखो
लड़ती तकदीरें देखो
बनती तस्वीरें देखो
मिटती तस्वीरें देखो
खेला खतमा देखो
पैसे का हजमा देखो
उठ, देख तमाशा खत्म हुआ घर दे-ख !!!
यादवचंद्र पाण्डेय

 

बुधवार, 14 जुलाई 2010

फुटबॉल हैंगोवर और खुश कर देने वाली खबरें।

ल फुटबॉल का नशा करने को नहीं मिला। आज तो हेंगोवर का दिन था। रात को जल्दी सो जाना चाहिए था, लेकिन देर तक नींद नहीं आई। मैं आज के अदालत के काम को ले कर परेशान था। कुल छह मुकदमे बहस में लगे थे। मैं सोच रहा था कैसे यह सब होगा। मैं किसी भी मुकदमे में तारीख नहीं चाहता था। जल्दी अदालत पहुँचना चाहता था कि घर से निकलते निकलते कुछ मुवक्किल आ गए। उन की समस्या का तुरंत कुछ हल निकालना था। उन से बात करते करते देरी हो गई और साढ़े ग्यारह पर अदालत पहुँचा। एक में बहस नहीं हो सकी क्यों कि नियोजक संगठन में कोई फेरबदल हुआ है। वकील का उस के मुवक्किल से संपर्क नहीं हो पा रहा है। वास्तव में अदालत के पास भी समय नहीं था। अदालत जिन मुकदमों में बहस सुन चुकी थी, उन में उसे निर्णय लिखाने थे। अब यह तो हो नहीं सकता कि आप दस मुकदमों में बहस सुन कर डाल दें और फिर समय की कमी से फैसला न कर पाएँ। दूसरे मुकदमे में अदालत के आदेश के बाद भी यह प्रकट किया कि आदेशित दस्तावेज उन के कब्जे में नहीं है। आखिर मुकदमे को गवाही के लिए बदल दिया गया। एक अन्य मुकदमे में तीन में से एक वकील का स्वास्थ्य खराब हो गया और बहस टल गई। 
क अदालत में एक साथ बहुत मुकदमे स्थानांतरित हो कर आने के कारण समय के अभाव में पेशी बदल गई। एक में प्रार्थी के वकील ने खुद की हार को देखते हुए बहस के दौरान यह आवेदन प्रस्तुत किया कि वे एक एक्सपर्ट डाक्टर की गवाही कराना चाहते हैं। हमने विरोध किया तो अदालत ने हमें विरोध जवाब के रूप में लिख कर देने के लिए तारीख बदल दी। कुछ मुकदमें अदालत में पिछले छह माह से जज के प्रसूती अवकाश पर होने के कारण ताऱीख बदल गई। यह अदालत पिछले छह माह से सभी मुकदमों में यही कर रही है। एक और मुकदमे पेशी अदालत में जज नियुक्त नहीं होने से बदल गई। कुल मिला कर कागजी प्रभाव का काम तो हुआ, लेकिन वास्तविक प्रभाव का नहीं। वास्तविक प्रभाव का काम ये हुआ कि तीन बार भिन्न भिन्न मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी पी गई। 
मैं दोपहर का वाकया बताना तो भूल ही रहा हूँ। अचानक लोकल चैनल वाले कैमरा लिए घूम रहे थे, मुझे पकड़ लियाष पूछने लगे कि भिक्षावृत्ति को समाप्त करने के लिए कोई कानून है क्या। मैं ने कहा कि कानून हो भी तो क्या। भिक्षावृत्ति तो बढ़ रही है और स्वाईन फ्लू की तरह नए नए रूप भी ग्रहण कर रही है। अदालत में जज नियुक्त नहीं है। रीडर को तारीख बदलनी है। लोग सुबह से अदालत में आए बैठे हैं, लेकिन रीडर साहब किसी सरकारी काम से जिला अदालत गए हैं और कैंटीन में बैठ कर किसी वकील के साथ चाय पी रहे हैं। चपरासी न्यायार्थी से कहता है कि रीडर साहब मुकदमों में तारीख बदली कर गए हैं। लिस्ट अंदर रख गए हैं, लेकिन वह बता सकता है। यह कहते हुए उस की आँखें चमक रही थीं। उस ने न्यायार्थी तो तारीख बता दी लेकिन ईनाम की फरमाईश कर दी। न्यायार्थी के सौ रुपए के नोट से कम के जितने नोट थे सब बख्शीश हो गए। शाम तक आई बख्शीश को रीडर व चपरासी ने पूरी ईमानदारी के साथ बांट लिया। बख्शीश न दो तो मांगने वाला इतनी गालियाँ और बद्दुआएँ देता है कि कोष छोटे पड़ने लगते हैं। इस भिक्षावृत्ति को रोकने का कोई कानून नहीं है ......... इतना कहते कहते तो कैमरामैन ने कैमरा बंद कर दिया। मुझे पक्का यकीन है कि वह इस क्लिप को शायद ही कभी दिखाए। 
र पर पत्नी जी से वायदा किया था कि आम ले कर आउंगा। पर भूल गया। घऱ में घुस जाने पर याद आया। एक जूनियर को फोन कर के कहा कि वह आम लेता आए। पत्नी ने चावल बनाए और आम का अमरस। यह डिश आज के दिन बनना जरूरी था। आज रथयात्रा और मेरे दिवंगत पिता जी का जन्मदिन जो था। हमने इस अमरस और बासमती चावलों के साथ आलू के पराठों का आनंद लिया। इस के साथ टीवी देखा। खबर सुन कर तबीयत खुश हो गई कि फ्रांस अब अपने देश में बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने के करीब है। वहाँ की संसद के निचले सदन में एक के मुकाबले 336 मतों से यह बिल पारित हो गया। दुनिया में ऐसे देश बहुत हैं जहाँ न चाहते हुए भी और उन की संस्कृति का हिस्सा न होते हुए भी औरतों को बुरका पहनना होता है। अब कम से कम एक देश तो इस पृथ्वी के नक्शे पर होगा जहाँ स्त्रियों के बुरका पहनने पर पाबंदी होगी। शायद ही कोई आजाद औरत हो जो किन्हीं भी हालात में बुरका पहनना चाहे। वास्तव में इसी तरह महिलाओं को इस की कैद से आजादी मिल सकती है। वरना वे संस्कृति की कैद में घुटती रहती हैं। इस कैद से निकलने का अर्थ है परिवार और समाज में बहुत कुछ भुगतना।
दूसरी खबर ने तो तबीयत पूरी तरह खुश कर दी। विश्वकप फुटबॉल के हीरो कप्तान गोलकीपर आईकर कैसीलस ने उन का इंटरव्यू लेने आई उन की महिला मित्र सारा कार्बोनेरो को यह सवाल पूछने पर कि पहले मैच में तुम इतना बुरा कैसे खेले? लाइव दिखाए जा रहे इंटरव्यू के बीच चूम लिया। निश्चित ही ताने दे कर भी उन में जीतने का उत्साह पैदा करने वाली अपनी मित्र के लिए इस से बड़ा तोहफा इस जीत पर नहीं हो सकता था। एक चैनल ने पूरा गाना ही सुना ही सुना कर खुश कर दिया ........... मंहगाई डायन काहे खाए जात है.........
स कल फिर इतने ही मुकदमे हैं, कुछ तैयारी कर ली गई है कुछ सुबह की जाएगी। पर कल आज जैसा नहीं हो सकता। कल कुछ न कुछ हासिल करना ही होगा।

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

चलो, उतरा बुखार फुटबॉल का ...........

हीने भर से बुखार था, आज जा कर उतरा। चलो, इस से भी फारिग हुए। पचपनवाँ बरस जी रहे हैं। शरीर में कुछ तो जवानी रोज कम हो ही रही है। हाँ रोज एक घंटे फुटबॉल खेली जाये तो शेष जवानी को कुछ बरस और रोका जा सकता है। अब खुद निक्कर-टी शर्ट पहन, जूतों में पैरों को कस कर मैदान में फुटबॉल तो खेल नहीं सकते, जिस, से शरीर में खूब खून का दौरा हो और जवानी कुछ बरस और मेहमान बनी रह सके। लेकिन अब ये तो किया ही जा सकता है कि टीवी पर फुटबॉल मैच देख कर जिस्म में खून के दौरे को बरकरार रखा जाए। महीने भर पहले यही कुछ करने का हमने मन बनाया। शाम का मैच तो दफ्तर और मुवक्किलों की भेंट चढ़ जाता था। हम केवर आधी रात को होने वाले मैंच देखते रहे। आखिर क्वार्टर फाईनल आ गए। अब बुखार में आनंद आने लगा था। 
धर देखा कि हिन्दी ब्लागीरी में कोई फुटबाल का नाम ही नहीं ले रहा है। ले रहा है तो ऐसे जैसे मुहल्ले में आए मंत्री को अनिच्छा से हाथ जोड़ सलाम  ठोक रहा हो। हमने सोचा हिन्दी ब्लागिंग की ऐसी किरकिरी तो न होने देंगे, कुछ तो भी लिखेंगे। अब हम खेल के पत्रकार तो थे नहीं, और कबड्डी के सिवा किसी दूसरे खेल के नियमित खिलाड़ी रहे हों ऐसा भी नहीं था। अब हम किस हैसियत से लिखते? हमें याद आया कि हम ये बुखार शुरू होते से ही दर्शक जरूर बने हुए हैं, और क्या एक दर्शक की कोई हैसियत नहीं होती। हमने विचारा तो पता लगा कि असल हैसियत तो वही बनाता है। वह हैसियत वाला हो या न हो पर सब की हैसियत बनाने वाला तो वही है। इधर रणजी के मैच देखे हैं हमने। उन में दर्शक नदारद होता है तो खिलाड़ियों की हैसियत भी उतनी ही नदारद होती है। हमने दर्शक की हैसियत से फुटबॉल पर लिखने का श्री गणेश कर डाला। देखा, और लिखा। जो पसंद आया वही लिखा। आप ने पढ़ ही लिया होगा कि क्या लिखा? न पढ़ा हो तो पढ़ लें वही हमारा इस बुखार का तापमान ग्राफ है।
ब कथा जब पूरी हो चुकी है तो पूर्णाहुति और आरती तो अवश्य ही होनी चाहिए ना? उस के बिना तो कोई यज्ञ, कोई समारोह सम्पन्न नहीं होता न? तो लीजिए आखिरी मैच का हाल ये रहा कि जिस टीम को अपने जीतने की क्षमता में विश्वास था उस ने पूरे मैच में धैर्य न खोया और आखिर जीत हासिल कर ली। मैं स्पेन की बात कर रहा हूँ। वे अपने आत्मविश्वास से जीते। जिस टीम के कप्तान को यह विश्वास हो कि वह गोल पर होने वाले हर प्रहार को रोकने की क्षमता रखता है। क्या उस की टीम के शेष 10 खिलाड़ी विपक्षी के गोल में गेंद नहीं डाल सकते? उन का गुरु (कोच) वह कितना शांत दिखाई देता था। उस के चेहरे पर हमेशा न खुशी न गम विराजमान रहते थे। लेकिन  जब मैच के अतिरिक्त समय के आखिरी क्षणों में जब उस के खिलाड़ियों ने गेंद जब विपक्षी गोल में डाल दी तो उस की आँखों में वही चमक थी जो कई वर्षों से चमकने के वक्त का इंतजार कर रही थी। कल के खेल में सब कुछ हुआ। शरीरों की बेहतरीन टक्करें हुईँ। शरीर घायल भी हुए। शरीरों ने अपनी पूरी ताकत तक लगा दी। लेकिन केवल ताकत की जीत नहीं हुई। जीत हुई उस ताकत को ठंड़े दिमाग से इस्तेमाल करने वालों की। टीम का कप्तान ऐसे फफक फफक कर रोने लगा जैसे उस के जीवन का इस से अधिक आनंद देने वाला क्षण जी रहा है जो फिर कभी उस के जीवन में नहीं आएगा। 
मैच से पहले गाने और नृत्य से खिलाड़ियों, आयोजकों और दर्शकों में उल्लास भर देने वाली शकीरा का जिक्र न किया जाए तो बात अधूरी रहेगी। प्रकृति किस तरह किसी एक को इतनी सारी दौलत से कैसे नवाजती है इस का शानदार उदाहरण हैं शकीरा। अद्वितीय सुंदरता से भरपूर शरीर और सौंदर्य। जैसे स्वर्ग से साक्षात मेनका या रंभा उतर आई हो। मधुर और जोशीली आवाज, उस पर थिरकता हुआ बदन। जिसे देखने के उपरांत  मनुष्य की सारी लालसाएँ और वासनाएँ तिरोहित हो जाएँ। हम ने तो उस की छायाएँ देखीं। जिन लोगों ने उसे साक्षात देखा होगा। सारा जीवन रोमाँच शायद ही विस्मृत कर पाएँ। 
टीम अपने देश पहुँची। अब वह देशाटन में लगी है। लाखों लोग खिलाड़ियों के स्वागत में उल्लसित हैं। जिधर निगाह दौड़ाओ उधर ही लाल-पीली जर्सी दिखाई पड़ती है। जैसे देश के फुटबॉल खिलाड़ियों का गणवेश संपूर्ण देश का गणवेश हो गया हो। हर कोई वही पहने दिखाई देता है। हर कोई महसूस कर रहा है कि उस का भी इस जीत में कुछ न कुछ योगदान है। बुजुर्गों की आँखें उन लड़कों को देख कर खुशी से छलक रही हैं। अधेड़ उन्हें गौरव से देख रहे हैं। जवानों के शरीरों में खून तेजी से दौड़ने लगा है। वे कुछ भी करने को तैयार हैं। लाल और पीले रंगों की ये बहार देख कर मेरे राजस्थान की रंगीनी फीकी पड़ने लगती है। मैं या आप यदि आज स्पेन में होते तो इस बात के प्रत्यक्षदर्शी होते कि जीवन की सब से बड़ी जीत कैसी दिखाई देती है? कैसी सुनाई देती है? उस का स्वाद कैसा होता है?
मेरा तो बुखार यहीं आरती के साथ उतर गया। साथ ही उस ऑक्टोपस पाल बाबा का भी। सुना है उन ने कुछ खा लिया है और वे अब इस खुशी को देखने के बाद अधिक दिनों इस धरती पर रहना नहीं चाहते। उन्हें सेवा निवृत्त कर दिया गया है। वे अब विश्राम पर चले गए हैं। बाबा ने जिस तरह सारे दुनिया के ज्योतिषियों की ज्योतिष को ठेंगा दिखाते हुए अपनी बैठक को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया उस का तो मैं भी कायल हो गया हूँ। वैसे मेरा जूनियर बता रहा था कि बाबा कुल 12 बार में नौ बार बाएं डब्बे पर बैठे। दाँए पर तो वे तीन बार गलती से जा बैठे थे। वैसे भी जिस के आठ हाथ हों उसका क्या दायाँ और क्या बायाँ? अब बाबा तो गए। उन के प्रशंसक कई दिनों तक लकीर पीटते रहेंगे। कई तो लाइब्रेरी में से उस की रिकॉर्डिंग निकाल निकाल कर पीटेंगे। मेरे ज्योतिषी दादा जी ने मुझे भी ज्योतिषी बनाने की कोशिश की थी। अच्छा हुआ डार्विन का जिस ने हमें ज्योतिषी न बनने दिया। नहीं तो अब ग्लानि होती कि इस से तो ऑक्टोपस बनना ज्यादा अच्छा था। 
च्छा तो अलविदा फुटबॉल बुखार! अलविदा! मैं सोच रहा हूँ कि मैं भी घर के किसी मर्तबान में एक ऑक्टोपस पाल ही लूँ। जब भी दुविधा होगी। तब बक्सों को ड़ाल कर उस से कहूँगा ...... किसी पर तो बैठ!








रविवार, 11 जुलाई 2010

जीत की क्षमता में विश्वास और जीतने की सामान्य इच्छा के ग्राफ को ऊपर बनाए रखने वाला बनेगा सरताज

स कुछ ही घंटे बाकी हैं, फिर विश्वकप फुटबॉल 2010 का खिताबी मुकाबला आरंभ होगा जो तय करेगा कि इस खिताब को पाने वाला आठवाँ देश कौन सा होगा। नीदरलैंड और स्पेन की टीमों के बीच होने वाला यह मुकाबला दिलचस्प होगा। दोनों ही देशों टीमें  कभी इस खिताब को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकी हैं। इस बार भी दोनों में से एक को यह अवसर खोना पड़ेगा।

र्षों बाद दमखम और कला-कुशलता दिखाने वाली उरुग्वे को जर्मनी के मुकाबले चौथे स्थान पर रहना पड़ा। जर्मनी जो विश्वकप की मजबूत दावेदार दिखाई पड़ रही थी, उस ने यह मैच जीत कर अपने सम्मान को बचाया। इस जीत के लिए भी जर्मनी को अपनी पूरी ताकत और कुशलता झोंकनी पड़ी। कल के मैच को देख कर यह कहा जा सकता है कि चौथे स्थान पर रहने वाली उरुग्वे की टीम कहीं भी जर्मनी से उन्नीस नहीं थी। यदि उस में कहीं कमी दिखाई दे रही थी तो वह थी जीतने की सामान्य इच्छा और अपनी जीत  सकने की क्षमता में प्रबल विश्वास। यदि किसी टीम के सभी खिलाड़ियों के बीच जीत की सामान्य इच्छा की कमी हो  और अपनी जीत सकने की क्षमता के प्रति प्रबल विश्वास न हो तो वह कितनी ही श्रेष्ठ टीम क्यों न हो लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती। यदि उरुग्वे को उठ कर निकलना है तो उसे ये दोनों चीजें हासिल करनी होंगी। 

ज के फाइनल मैच में मुकाबले में उतरने वाली दोनों टीमें अपनी जीत सकने की क्षमता के प्रति आश्वस्त दिखाई पड़ती हैं। उन में इच्छा की कमी भी नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि हम एक शानदार मुकाबले की आशा कर सकते हैं। लेकिन मैच आरंभ होने के पहले और मैच के दौरान हर पल इस विश्वास और इच्छा के ग्राफ में लगातार परिवर्तन होता रहता है। आज जो भी टीम इस ग्राफ में उच्चता बनाए रखेगी वही खिताब पर कब्जा कर सकेगी।
तो आज रात 12.00 बजे भारतीय समयानुसार ईएसपीएन पर विश्व फुटबाल का यह सरताज मुकाबला देखना न भूलें। यदि आप अपने टीवी को चालीस मिनट पहले चालू करेंगे तो शकीरा के गायन और नृत्य का प्रदर्शन भी फुटबॉल मैदान में देख सकेंगे।