@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

आपाधापी-अवरोध और हॉर्न

दो दिनों से कुछ भी लिखने को मन नहीं किया। होली सर पर आ गई और दोनों बच्चे घर में नहीं। मन कुछ तो उदास होना ही था। पूर्वा बिटिया आ रही है यह सोच कर मन उद्विग्न भी था। आज रात वह कोटा पहुँच गई। उस की ट्रेन बीस मिनट लेट थी। हम स्टेशन पहुँच कर उस की प्रतीक्षा करते रहे। उस ने फोन पर बताया कि अब ट्रेन चंबल पार कर चुकी है। वहाँ से मुश्किल से पाँच मिनट में उसे प्लेटफॉर्म पर होना चाहिए था। लेकिन आधा घंटा गुजर जाने के बाद भी ट्रेन नदारद थी। पूर्वा को फिर फोन लगाया तो पता लगा आउटर पर खड़ी है। आज कल ट्रेन यातायात इतना व्यस्त रहता है कि एक ट्रेन समय से विचलित हो जाती है तो उसे फिर मार्ग खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खैर ट्रेन पूरे एक घंटा बीस मिनट देरी से कोटा पहुँची।

यातायात की यह समस्या सभी क्षेत्रों में हो चली है। स्टेशन जाने के पहले घर से रवाना हुए तो बीस मिनट का समय था। सोचा कार में पेट्रोल ले लिया जाए। पेट्रोल पंप पर सामान्य से अधिक भीड़ थी। मैं हमेशा एक ही पंप से पेट्रोल लेता हूँ, कार पहचान कर मुझे वेंडर ने गाइड किया और तुरंत पेट्रोल दे दिया। वरना बिना पेट्रोल लिए ही स्टेशन रवाना होना पड़ता। बाद में घर पहुँच कर पता लगा कि बजट में पेट्रोल की कीमतें बढ़ने की खबर से लोग पेट्रोल पंपों की ओर दौड़ रहे थे। पंप से चले तो रास्ते की दोनों लाल बत्तियों पर रुकना पड़ा। वहाँ भी आपा-धापी से पाला पड़ा हर कोई आगे निकलना चाहता था। 
स्टेशन से चले तो दो कदम बाद ही स्टेशन सीमा में ही जाम से जूझना पड़ा। हुआ ये कि ट्रेन लेट होने से जो भी आटो-रिक्षा स्टेशन पहुँचता गया उस का चालक ट्रेन से निकलने वाली सवारियों के मोह में अपना वाहन इस तरह फँसाता गया कि वाहन फँस गए। मुश्किल से पंद्रह मिनट में जाम खुला। इस बीच बज रहे हॉर्न ? बाप रे बाप! एक बार आगे वाला ऑटो-रिक्षा पीछे खिसकने लगा तो मुझे भी हॉर्न को एक पुश देना पड़ा। तुरंत पूर्वा ने टोक दिया। पापा! अब जाम में हॉर्न बजाने का क्या लाभ? वह तो खुलते ही खुलेगा। वापसी में फिर से दोनों लाल बत्तियों पर रुकना, फिर वही आगे निकलने की आपा धापी। मेरे पीछे से एक कार बार बार हॉर्न दे रही थी। लेकिन मैं उसे मार्ग नहीं दे सकता था। इधर-उधर सरकाने का स्थान ही नहीं था। जैसे ही मुझे स्थान मिला मैं ही आगे चल दिया। पीछे वाली गाड़ी को स्थान दे दे ने के बावजूद वह आगे नहीं निकल सकी। पर हॉर्न देती रही। दिन में फिर भी हॉर्न बर्दाश्त हो जाता है। लेकिन रात को हॉर्न सुनाई दे तो ऐसा लगता है जैसे कानों में किसी ने सीसा घोल दिया है। पता नहीं क्यों लोग रात को इतना हॉर्न बजाते हैं? वह भी बार बार लगातार।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

न जाने कब हूर मिलेगी?

'कहानी'
 न जाने कब हूर मिलेगी? 
 दालत के जज साहब पूरे सप्ताह अवकाश पर हैं। रीडर साहब की मेज पर पड़ी आज की दैनिक मुकदमा सूची गवाही दे रही है कि जिन मुकदमों में आज पेशी थी, उन में तारीख बदली जा चुकी है। जो मुवक्किल पेशी पर आए थे वे तारीखें ले कर जा चुके हैं।  जिन मुकदमों में मुवक्किल नहीं आए उन में वकील या उन के मुंशी आ रहे हैं और मुकदमा सूची से ही नोट कर के जा रहे हैं। रीडर सभी फाइलों में आदेशिका लिख कर फुरसत पा चुका है और डायस पर अपनी कुर्सी से उतर कर वकीलों और मुवक्किलों के बैठने की बेंच पर आ बैठा है। एक दो लोग उस के पास और बैठे हैं।
ये और रीडरों से अलग आदमी हैं। उन के बारे में कहा जाता है कि वे किसी काम में पैसा नहीं लेते। यहाँ तक कि चाय भी केवल उसी की पीते हैं जिस से उन का दिल मिल गया है। धार्मिक कामों में उन की रुचि है। आज कल एक प्राचीन उपेक्षित कृष्ण मंदिर के जीर्णोद्धार में आगे बढ़ कर सहयोग कर रहे हैं। मैं एक मुकदमे की तारीख जानने अदालत में जाता हूँ तो मुझे आवाज दे लेते हैं। मैं उन के पास जा कर बैठता हूँ। उन के साथ कुछ लोग और बैठे हैं। धर्म चर्चा चल रही है। एक कहता है -आजकल लोगों में धार्मिक भावना बहुत बढ़ गई है। कोटा से सुबह छह बजे जनशताब्दी जाती है। उस में एक सीट खाली नहीं रहती। लेकिन मथुरा में वह ट्रेन आधी से अधिक खाली हो जाती है। इतने लोग गोवर्धन जी की परिक्रमा के लिए जाते हैं कि मथुरा पहुँचने वाली शायद ही कोई ट्रेन ऐसी हो जिस से कम से कम एक  तिहाई सवारी वहाँ न उतरती हो। मैं भी अनेक बार इस ट्रेन से यात्रा कर चुका हूँ, मैं कभी भी मथुरा इस से नहीं उतरा। यह सही था कि मथुरा में बहुत सवारियाँ उतरती हैं। लेकिन पूरी ट्रेन में दस-पंद्रह प्रतिशत से अधिक सवारी मथुरा की नहीं होती। 
-हो सकता है, एकादशी से पूर्णिमा के बीच आधी सवारियाँ मथुरा उतरती हों। लेकिन ट्रेन तो निजामुद्दीन तक भरी जाती है। मैं ने कहा। उस के बाद बात मुड़ गई। 
क सज्जन कहने लगे।-लेकिन यह धार्मिकता बाहर के लोगों में ही है, वहाँ के स्थानीय लोगों में नहीं। हम वहाँ परिक्रमा पथ के एक गांव में एक के घर रुके। हमारे साथ कोई था उस के रिश्तेदार का घर था। उन्हों ने हमें पानी और चाय पिलाई। उन के घर की 45 वर्ष की महिला से मैं ने पूछा कि उन की तो साल में अनेक परिक्रमाएँ हो जाती होंगी? तो वे कहने लगी मुझे यहाँ ब्याह कर आए पच्चीस बरस हो गए, मैं एक बार भी पूरी परिक्रमा नहीं कर सकी हूँ। 
स बीच रीडर साहब बोल पड़े -लेकिन हमारे पास मैरिज गार्डन के पीछे जो मंदिर है उस का पुजारी है। बहुत गरीब है। मैरिज गार्डन वाले ने उसे पूजा के लिए रखा है। उसे पाँच-छह सौ रुपए हर माह दे-देता है। बाकी काम चढ़ावे से चलता है जो वहाँ अधिक नहीं आता। पुजारी को आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम भी करने पड़ते हैं. लेकिन वह हर माह परिक्रमा करने जरूर जाता है। वह कहता है कि मैं ने यहाँ एक डब्बा रख छोड़ा है जिस में मैं बिला नागा बीस रुपए रोज अलग रख देता हूँ। महिने मैं पाँच सौ से ऊपर इकट्ठे हो जाते हैं। बस इतना ही परिक्रमा करने में खर्चा होता है। मैं कई वर्षों से वहाँ जा रहा हूँ। मैं ने उस से पूछा कि कितनी परिक्रमा कर चुके हो तो कहता है कि पिछले साल 108 पूरी हो गई थीं। उस के बाद मैं ने गिनना छोड़ दिया।
मैं ने कहा -आप देखेंगे कि नियमित परिक्रमा जाने वाले अधिकांश लोग गरीब और निम्नमध्यम वर्ग के ही हैं। आप जानते हैं कि वे नियमित रूप से वहाँ क्यों जाते हैं? 
वे एक-एक कर जवाब देने लगते हैं -भावना के कारण? श्रद्धा के कारण? आध्यात्मिक उन्नति के लिए,?भक्ति के लिए? या फिर किसी मन्नत के कारण? मैं उन के हर जवाब के बाद कहता हूँ -गलत जवाब। वे मुझे पूछने लगते हैं -आप ही बताइए, क्या  कारण है? 
मैं कहता हूँ -उन्हें वहाँ आनंद मिलता है, और उसी का मजा लेने वे जाते हैं। हो सकता है वे पहली-दूसरी बार वहाँ उन में से किसी उद्देश्य से जाते हों जो आपने बताए हैं। लेकिन अपनी रूटीन की जिन्दगी में ऊबते लोग, हर वक्त किसी न किसी चिंता से ग्रस्त लोग, आर्थिक दबावों में पिसते और जूझते लोग जब एक-दो बार वहाँ जाते हैं। कुछ दोस्तों के साथ गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। वहाँ हर बार बहुत लोग नए मिलते हैं, उन से बात करते हैं। मंदिरों के दर्शन करते हैं। वहाँ उन की व्यथा कथा कोई रुचि से सुनता है और अपनी सुनाता है तो घावों पर मरहम लग जाते हैं। एक डेढ़ दिन वहाँ बिता कर वापस आते हैं तो उन का रूटीन टूटता है। वहाँ से लौटने पर वे जीवन में एक बदलाव महसूस करते हैं। वे हर माह वहाँ जाने लगते हैं उस में उन्हें आनंद मिलने लगता है।
रीडर साहब के साथ वहाँ बैठे लोग भी मेरी बात से सहमत हो जाते हैं। मैं कहता हूँ  -लोग अनेक तरह से आनंद लेते हैं। कोई रोज शाम को काम से निपटते ही बगीची भागता है। जहाँ और लोग मिलते हैं, सब मिल कर विजया पीसते हैं फिर छान कर महादेव को भोग लगाते हैं। शाम का भोजन कर फिर कोई संगीत सुनता है, कोई गाने वालों की महफिल में चला जाता है तो कोई पान की दुकान पर या मुहल्ले में गप्पे मारने चला जाता है। वे अपने तरीके से आनंद लेते हैं। कोई शाम को पैग लगा कर नदी किनारे या पार्क में जा बैठता है, या भोजन कर के बिस्तर पर सोने चला जाता है। जिस को जिस में आनंद मिलता है वह वही करता है। कई बार तो यह आनंद भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और बरसात से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। 
मैं थोड़ी देर रुकता हूँ। तो वहाँ बैठे लोगों में कोई बोल पड़ता है, -लोग आनंद के लिए मरने भी चले जाते हैं। उन पढ़े लिखे नौजवानों को देखिए जो अच्छी भली नौकरियाँ और धन्धों को छोड़ कर दुनिया बदलने के नशे में जंगल में जा कर बंदूक उठा लेते हैं। उन्हें जान की परवाह ही नहीं है। मैं ने सुना है बड़े बड़े नगरों की जवान लड़कियाँ भी उन में शामिल हैं। और उसे देखो वह कसाब? दस लोगों के साथ यहाँ आया था। बाकी नौ मर गए। वह जेल में पड़ा अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। बड़ी बुरी गुजरी उस पर।  जरूर सोच रहा होगा -वे नौ मर गए साले। उन्हें जरूर जन्नत में हूरें मिल गई होंगी। एक मैं ही बचा जिसे ये लोग सजा भी नहीं दे रहे हैं। पता नहीं कब तक नहीं देंगे? मुझे न जाने कब हूर मिलेगी?

जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं

मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना  तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है।  इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं। 
धर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है।  निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है। 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हुकुम! मुझे ईनाम नहीं मिलेगा?

ल जयपुर यात्रा हुई। मुझे और बार कौंसिल सदस्य और पूर्व अध्यक्ष महेश गुप्ता जी दोनों को जाना था। तय हुआ कि जबलपुर जयपुर दयोदय एक्सप्रेस पकड़ेंगे। उस का समय सुबह 8.15 पर कोटा से रवाना होने का है। मैं सात बजे घर से कार लेकर निकला महेश जी के घर उसे पार्क किया और ऊपर उन के यहाँ पहुँचा तो जनाब अभी स्नान किए बिना बैठे अखबार देख रहे थे। मेरे पहुँचते ही तुरंत बेटे को टिकट लाने की कह बाथरूम में घुसे। तैयार होने पर नाश्ता किया गया। मुझे भी टोस्ट के साथ कॉफी मिली। घर से आ कर दो ऑटोरिक्षा बारगेनिंग में छोड़े तीसरे में बैठ स्टेशन पहुँचे। आठ बज रहे थे। ट्रेन को अब तक प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाना चाहिए था। लेकिन प्लेटफॉर्म खाली था। हाँ वहाँ सूचना अवश्य थी कि ट्रेन किसी भी समय आ सकती है। पौने नौ बजे ट्रेन पहुँची। हम सीधे एक आधे खाली स्लीपर में जा कर बैठ गए। नौ बजे ट्रेन चली। हमारी बैठक जयपुर में एक बजे थी। ट्रेन ही पौन घंटे लेट चली थी तो हमें भी पहुँचने में इतनी ही देरी हो सकती थी। कुछ ही देर में कंडक्टर आ गया। उसने टिकट को स्लीपर में बदल दिया। दोनों की रात की नींद शेष थी। लेकिन अब हम वैधानिक रूप से बर्थ पर आराम कर सकते थे। पर कुछ देर पढ़ते रहे। मैं ने महेश जी को लेटने के लिए बोला तो कहने लगे -माधोपुर में बड़े खा कर लेटेंगे। घंटे भर में सवाई माधोपुर पहुँच गए। महेश जी तुरंत उतर गए और कुछ देर में मूंग के बड़े ले कर लौटे। कहने लगे एक दम तो नहीं पर कुछ गर्म जरूर मिल गए हैं। बड़े (वड़ा) खा कर हम दोनों लेट गए कब नींद लगी पता नहीं। नींद खुली तो ट्रेन जयपुर के बाईस गोदाम स्टेशन पर खड़ी थी। वहाँ से हाईकोर्ट नजदीक था। मैं ने वहीं उतरने को कहा। लेकिन हम कुछ सोचते उस के पहले ही ट्रेन चल पड़ी। महेश जी ने आराम से कहा -हम जंक्शन पर ही उतरेंगे, वहाँ से वापसी का टिकट लेंगे फिर हाईकोर्ट चलेंगे। ट्रेन जयपुर जंक्शन पहुँची तो बिलकुल समय पर थी। पौन घंटे की देरी को उस ने कवर कर लिया था। 
यपुर में हाईकोर्ट में अपनी बैठक निपटा कर हम ने काका जी हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पानाचंद जी जैन से मिलना तय किया। उन्हें कोटा में सभी काका जी कहते हैं। हम ने दोपहर का भोजन किया और उन के कार्यालय पहुँचे। काका जी जब कोटा में वकालत में थे तो महेश जी उन के कनिष्ट थे और वकालत के आरंभ में मेरे तो तीन मुकदमों में से दो में वे खिलाफ वकील हुआ करते थे। उन से भिड़ते-भिड़ते ही मैं ने वकालत सीखी थी। बहुत दिनों के बाद हमें देख कर काका जी बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ हमें कॉफी पीने को मिली। करीब एक घंटे हम उन से बातें करते रहे। फिर शाम साढ़े पाँच की दयोदय एक्सप्रेस पकड़ कर रात नौ बजे कोटा स्टेशन पर उतर गए। इस मुलाकात में काका जी ने राजस्थान के एक मुख्य न्यायाधीश का संस्मरण सुनाया जिसे आप के साथ बांटता हूँ ---
........... वे हाई कोर्ट में वकालत कर रहे थे। हाईकोर्ट जज नियुक्त करने हेतु उन का नाम  प्रस्तावित किया गया था। नियुक्ति की प्रक्रिया में पुलिस वेरीफिकेशन आवश्यक था। हाईकोर्ट ने राज्य के आई.जी. को इस के लिए पत्र भेजा। आई. जी. पुलिस ने इसे जिले के एस.पी. को और एस.पी ने इसे संबंधित पुलिस थाने को अग्रेषित कर दिया। थानाधिकारी ने एक सिपाही को जाँच करने भेजा। सिपाही सीधा वकील साहब के घऱ पहुँचा और घंटी बजा दी। 
कील साहब अदालत से लौटे ही थे। खुद ही दरवाजा खोला और सामने सिपाही को देख कर चौंके। पूछा -कैसे आए? सिपाही ने बताया कि हाईकोर्ट से आप का पुलिस वेरीफिकेशन आया है, उसी के लिए आया था। वकील साहब बोले उस के लिए तो आप को थाने का रिकार्ड देखना पड़ेगा और पडौस में पूछताछ करनी होगी। सिपाही ने कहा बात तो आप की सही है। वकील साहब ने कहा -भाई जिस से भी पूछताछ करनी हो कर लो। उन्हों ने दरवाजा बंद किया और अंदर आ गए।
तीन-चार मिनट बाद ही फिर घंटी बज उठी। वकील साहब ने फिर दरवाजा खोला तो वही सिपाही बाहर खड़ा था। उस से पूछा -भाई! अब क्या रह गया है। सिपाही बड़ी मासूमियत से बोला -हुकुम! अब तो आप हाईकोर्ट के जज हो जाएँगे। मैं पुलिस वेरीफिकेशन के लिए आया हूँ मुझे ईनाम नहीं मिलेगा? ..........
फिर क्या हुआ यह काका जी ने नहीं बताया। इतना जरूर पता है कि वे वकील साहब हाईकोर्ट के जज ही न बने मुख्य न्यायाधीश हो कर सेवानिवृत्त हुए।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नहीं सुन पाए राकेश मूथा की कविता

द्यान में मेरे पास ही बैठे संजय व्यास ने मुझे प्रभावित किया। एक दम सौम्य मूर्ति दिखाई पड़ रहे थे वे। वे पूरी बैठक में कम बोले लेकिन जितना बोले बहुत संजीदा। मैं ने उन्हें अब तक बिलकुल नहीं पढ़ा था। इस कारण उन के लिए बहुत असहज भी था। बाद में जब कोटा आ कर उन का ब्लाग 'संजय व्यास' खोल कर पढ़ा तो उन के गद्य से प्रभावित हुए बिना न रहा। उन की शैली अनुपम है और एक बार में ही पाठक को अपना बना लेती है। उन को बिलकुल वैसा ही पाया जैसे वे अपने ब्लाग पर रचनाओं से जाने जाते हैं। ब्लागीरी उन के लिए अभिव्यक्ति का बिलकुल स्वतंत्र माध्यम है जहाँ वे अपना श्रेष्ठतम व्यक्त कर सकते हैं, जो वे करते भी हैं। 
मेरी दूसरी ओर राकेश मूथा थे। वे राह से ही हमारे साथ थे। कुछ बातचीत भी उन से हुई थी। पेशे से इंजिनियर मूथा जी देखने से ही कलाप्रेमी दिखाई देते हैं। वे वर्षों से नाटकों से जुड़े हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हों ने अपने ब्लाग सीप का सपना पर अपनी कविताएँ ही प्रस्तुत की हैं। इसी नाम से उन का काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। वे अपनी डायरी साथ ले कर आए थे और कुछ कविताएँ सुनाना चाहते थे। हम भी इस बैठक को कवितामय देखना चाहते थे। उन्हों ने अपनी डायरी पलटना आरंभ किया। उन की इच्छा थी कि वे चुनिंदा रचना सुनाएँ। मैं ने आग्रह किया कि वे कहीं से भी आरंभ कर दें। मुझे अनुमान था कि हरि शर्मा जी के उन की माता जी को अस्पताल ले जाने के लिए समय नजदीक आ रहा था। तभी भाभी का फोन आ गया। हरिशर्मा जी ने उत्तर दिया कि मैं अभी पहुँच ही रहा हूँ। अब रुकना संभव नहीं था। समय को देखते हुए मूथा जी ने अपनी डायरी बंद कर दी। हम उन के रचना पाठ से वंचित हो गए।
ब बाहर आ गए। मूथा जी को हरिशर्मा जी के साथ ही जाना था। हम सब ने उन दोनों को विदा किया। जाते-जाते मूथा जी को मैं ने अवश्य कहा कि मैं उन की रचनाओं से वंचित हो गया हूँ, लेकिन अगली जोधपुर यात्रा में अवश्य ही उन की रचनाएँ सुनूंगा, चाहे इस के लिए उन के घर ही क्यों न जाना पड़े। अब हम चार रह गए थे। मैं ने साथ बैठ कर कॉफी पीने का प्रस्ताव रखा, जो तुरंत ही स्वीकार कर लिया गया। हम चारों पास के ही एक रेस्टोरेंट में जा कर बैठे। कॉफी आती तब तक बतियाते रहे। शोभना का कहना था कि उन के ब्लाग पर टिप्पणियाँ बहुत मिलती हैं। इस तरह की भी कि वे एक लड़की हैं इस कारण से उन्हें अधिक टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह बात सच भी है और इसे वे जानती भी हैं। कई बार तो अतिशय प्रशंसा भी मिलती है। जब कि वे जानती हैं कि पोस्ट उस के योग्य नहीं थी। इन्हीं बातों को लेकर उन का ब्लागीरी से मन उखड़ गया था। उन्हों ने उसे अलविदा भी कह दिया। उन्हें पता नहीं था कि इस घटना को हिन्दी ब्लागीरी में टंकी पर चढना कहते हैं। लेकिन अनेक ब्लागीरों ने उन का साहस बढ़ाया और वे टंकी से उतर पाने में सफल हो गई। आते-आते भी वे कह रही थीं - अंकल मैं टंकी से उतर आई हूँ, और अब दुबारा नहीं चढ़ने वाली। 
रेस्टोरेंट की कॉफी आई तो प्याला अच्छा खासा बड़ा था, कॉफी स्वादिष्ट भी और दर भी बिलकुल माकूल थी, सिर्फ दस रुपए। रेस्टोरेंट के बाहर आ कर हमने अपनी अपनी राह पकड़ी, इस आशा के साथ कि फिर दुबारा मिलेंगे और तब जोधपुर के और ब्लागीर भी साथ होंगे। काफिला बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। संजय व्यास ने मुझे होटल के नजदीक छोड़ा। मुझे कुछ मित्रों से और मिलना था। उन से मिल कर मैं होटल पहुँचा। थकान जोर मार रही थी। होटल पहुँच कर मोबाइल पर अलार्म लगा कर आराम किया। अलार्म बजा तो उठने की इच्छा न थी, पर वापसी के लिए बस भी पकड़नी थी। शाम का भोजन होटल में ही कर बस पर पहुँचा तो बस के आने में समय था। मैं ने यह समय ब्लागरों से फोन पर बात करने में बिताया। हरिशर्मा जी की माताजी की आँख का ऑपरेशन हो चुका था। वे वापस घर पहुँच गई थीं। शोभना ब्लागर मिलन से अच्छा महसूस कर रही थीं। मूथा जी उलाहना दे रहे थे कि मैं ने होटल में भोजन क्यों किया, उन के घर क्यों नहीं गया? संजय व्यास से बात करता इतने बस लग गई। उन्हें फोन कर ही न सका। कोटा पहुँचने के बाद इतना व्यस्त रहा कि आज तक उन से बात न हो सकी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लागीरी

शोक उद्यान में हरी दूब के मैदान बहुत आकर्षक थे। हमने दूब पर बैठना तय किया। ऐसा स्थान तलाशा गया जहाँ कम से कम एक-दो दिन से पानी न दिया गया हो और दूब के नीचे की मिट्टी सूखी हो। हम बैठे ही थे कि हरि शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बज उठी। दूसरी तरफ कुश थे। वे उद्यान तक पहुँच चुके थे और पूछ रहे थे कि हम कहाँ हैं।  सूचना मिलते ही हमारी निगाहें प्रवेश द्वार की ओर उठीं तो कुश दिखाई दे गए। हम लोगों ने हाथ हिलाया तो उन्हों ने भी स्थान देख लिया। कुछ ही क्षणों में वे हमारे पास थे। सभी ने उठ कर उन का स्वागत किया। उम्र भले ही मेरी अधिक रही हो लेकिन कुश ब्लागीरी में मुझ से वरिष्ठ हैं, और उन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था। 
ब ने अपना परिचय दिया जो मुझ से ही आरंभ हुआ, और उस के बाद ब्लागीरी की अनौपचारिक बातें चल पड़ी। सब ने अपने अनुभवों को बांटा। कुश और मेरे सिवा जोधपुर के कुल चार ब्लागीर वहाँ थे। सभी ने तकनीकी समस्याओं का उल्लेख किया। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी ब्लागीरी में कदम रखना बहुत आसान है लेकिन जैसे-जैसे ब्लागीरी आगे बढ़ती है तकनीकी समस्याएँ आने लगती हैं। लेकिन यदि ब्लागीर में उन से पार पाने की इच्छा हो तो वह हल भी होती जाती हैं।  हिन्दी ब्लागीरी में इस तरह का माहौल है कि लोग समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहते हैं। अवश्य ही कुश को ऐसी समस्याओं से कम पाला पड़ा होगा आखिर वे वेब डिजाइनिंग का काम करते हैं। तो पहले से उन की जानकारियाँ बहुत रही होंगी और नहीं भी रही होंगी तो उन पर पार पाने का तो उन का पेशा ही रहा है।
फिटिप्पणियों पर बात होने लगी। सब ने कहा कि वे टिप्पणी करने में बहुत अधिक समय जाया नहीं करते। उस का कारण भी है कि वे सभी अपने जीवन में व्यस्त व्यक्ति हैं। शोभना भौतिकी के किसी विषय पर शोधार्थी हैं और उन के दिन का अधिकांश समय शोध के लिए प्रयोग करने में प्रयोगशाला में व्यतीत होता है। सभी ने उन के शोध के बारे में जानना चाहा। उन्हों ने बताया भी लेकिन हम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। मैं ने कहा कि जिस क्षेत्र में वे शोध कर रही हैं उस के बारे में भी अपने ब्लाग पर लिखा करें, हम समझ तो सकेंगे कि आखिर समाज में किसी ब्लागीर के काम का क्या योगदान है और किस किस तरह के  लोग ब्लागीरी में आ रहे हैं?  मैं ने शोभना से उन की आयु पूछी थी, उन्हों ने 24 वर्ष बताई तो मैं ने कहा -मेरी बेटी उन से दो बरस बड़ी है। मुझे इस का लाभ यह हुआ कि मैं तुरंत अंकल हो गया। हालांकि इस लाभ का मिलना उस वक्त ही आरंभ हो गया था जब खोपड़ी की फसल आधी रह चुकी थी और जो शेष थी वह सफेद हो रही थी। 
शोभना कहने लगीं -अंकल! मैं दिन भर प्रयोगशाला में सर खपा कर घर लौटती हूँ और ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लाग जगत में जाती हूँ, अगर मैं वहाँ भी वही लिखने लगी तो मेरी खोपड़ी का क्या होगा। उन की बात बिलकुल सही थी। मैं ने फिर भी कहा-कभी कभी अपने काम के बारे में बात करना अच्छा होता है। कम से कम ब्लाग पाठक जानेंगे तो कि उन का ब्लागीर क्या कर रहा है? और यह भी हो सकता है कि किसी पाठक की टिप्पणी ब्लागीर को उस के काम के लिए प्रेरित और उत्साहित करे। शोभना वास्तव में बहुत प्रतिभावान हैं। इस छोटी उम्र में जो उपलब्धियाँ उन्होंने हासिल की हैं उन के लिए मेरे जैसा पचपन में प्रवेश कर चुका व्यक्ति सिर्फ ईर्ष्या कर सकता है। हाँ साथ ही गर्व भी कि बेटियाँ अब उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं।
स बीच हरिशर्मा जी बताने लगे कि वे दस बरस से इंटरनेट पर चैटिया रहे हैं। यदि वे इस के स्थान पर ब्लाग लिख रहे होते तो उन का योगदान न जाने कितना होता। उन की बात भी सही थी। जब मैं ने चैट करना जाना तो मैं भी उस में फँस गया था। बहुत सा समय उस में जाया होता था। हालांकि मैं आगे से कभी चैटियाना आरंभ नहीं करता था। इस बीच मैं ने बताया कि नारी ब्लाग की मोडरेटर रचना जी दिन में चार-पांच बार चैट पर आ जाती थीं। मैं अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक दिन उन्हों ने किसी ब्लाग  पर की गई उन की टिप्पणियों के बारे में मेरी राय मांगी।  मेरे मन में रचना जी का सम्मान इस कारण से बहुत बढ़ गया था कि वे नारी अधिकारों और उन की समाज में बराबरी के लिए लगातार लिखती हैं और अन्य नारियों को लिखने को प्रेरित करती हैं। उन की भूमिका एक तरह से ब्लाग जगत में नारियों के पथप्रदर्शक जैसी थी।   मैं उन के बताए ब्लाग पर गया। उन की टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मैं ने उन को प्रतिक्रिया दी कि वह एक भद्दी बकवास है। बस, वे बहस कर ने लगी कि वह भद्दा कैसे है? और भद्दा का क्या अर्थ होता है। अंततः उन्हों ने कह दिया कि वे आज के बाद मुझ से चैट नहीं करेंगी। मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती थी? मेरी इस बात पर कुश ने कहा कि रचना का स्टेंड बहुत मजबूत और संघर्ष समझौता विहीन होता है। इस से उन का एक विशिष्ठ चरित्र बना है। मैंने कुश की इस बात  पर सहमति  जाहिर की। (जारी) 

विशेष-चैट की चर्चा चलने पर रचना जी के बारे में अनायास हुई इस बात को हरि शर्मा जी ने जोधपुर ब्लागर मिलन की रिपोर्ट में रचना जी के नाम का उपयोग किए बिना लिखा। इस पर स्वयं रचना जी ने इस पर आकर टिप्पणी भी की। लेकिन जब कुछ अनाम टिप्पणियाँ आने लगी तो हरिशर्मा जी ने उन्हें मोडरेट कर दिया। रचना जी ने नारी ब्लाग पर मेरे और उन के बीच हुए चैट के एक भाग को उजागर कर दिया। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। मैं आज भी रचना जी द्वारा मांगी गई राय पर की गई मेरी प्रतिक्रिया पर स्थिर हूँ। मैं ने जो महसूस किया वह प्रकट किया। उस के लिए मेरे पास अपने कारण हैं। उन्हें किसी और पोस्ट में व्यक्त करूंगा। फिलहाल जोधपुर मिलन की रिपोर्ट जारी रहेगी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।